28 जनवरी 2016 बंगाल के बहुत खास दिन था. यह कामदुनी बलात्कार और हत्याकांड का अंतिम फैसला सुनाए जानेवाला दिन था. उत्तर 24 परगना के बारासात का कामदुनी इस बलात्कार और हत्याकांड के कारण पूरे देश भर में नामजद हो चुका है. पीडि़ता का परिवार अब कामदुनी नहीं रहता है. लेकिन इस दिन कामदुनी के कान खड़े थे. वैसे कामदुनी क्यों, पूरा बंगाल फैसले के इंतजार में रहा. बड़ी संख्या में लोगों का हुजूम अदालत पहुंचा. बाकी लोग टीवी पर नजर गड़ाए रहे. बहुसंख्यक लोग दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा सुनाए जाने के पक्ष में थे. इतनी बेकरारी के बाद भी इस दिन न्यायाधीश संचियता सरकार ने फैसला सुनाया.
7 जून 2013 की घटना थी. बारासात के कामदुनी में एक दोपहर को कॉलेज से परीक्षा देकर वह लौट रही थी. तभी कुछ लोगों ने उसका दिन-दहाड़े अपहरण किया और उसे एक वर्षों से बंद कारखाने में ले गए. बलात्कार के दौरान लड़की बेहोश हो गयी. बेहोशी में भी बलात्कार किया गया. होश में आने के बाद उसके साथ फिर बलात्कार किया गया. लड़की के गुप्तांग में दो गंभीर जख्म पाए गए थे. दरअसल, गैंगरेप के बाद सबूत मिटाने के लिए लड़की को दोनों पांव से चीर कर हत्या कर दी गयी थी. घटना के बाद पूरा बारासात तो उफनने लगा ही था. कोलकाता समेत पूरे प. बंगाल को इस घटना ने हिला दिया था. दोषियों को कड़ी सजा देने की मांग को लेकर 2013 से लेकर 2016 को फैसला सुनाए जाने तक आंदोलन चलाया गया. गौरतलब है कि अमिर खान के सत्यमेव जयते में भी कामदुनी की घटना को शामिल किया गया था.
बहरहाल, घटना के दस दिन के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कामदुनी गयीं. उस समय कामदुनी गांव का माहौल तृणमूल के विरोध में नजर आया था. स्थानीय तृणमूल कांग्रेस को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि गांव में किस तरह माहौल गरमा रहा है. चूंकि इस कांड के दोषियों का संपर्क तृणमूल से था, इसीलिए बलात्कार की शिकार मृत लड़की की दो सहेलियों ने ममता बनर्जी से सवाल किया तो उन्हें माओवादी करार दे दिया गया. घटना के बाद खड़े हुए आंदोलन की धार कुंद करने के लिए मृत लड़की के परिवार को कामदुनी से ले जाकर दूसरी जगह बसाया गया. लड़की के भाई को सरकारी नौकरी दी गई. बावजूद इसके मृत लड़की का परिवार दोषियों की कड़ी से कड़ी सजा दिए जाने की मांग से पीछे नहीं हटा.
कामदुनी बलात्कार कांड में अगले दिन कुल नौ गिरफ्तारियां हुई थी. सुनवाई के दौरान एक की मौत हो गयी थी. इनमें से दो तमाम आरोपों से बरी हो गए. छह को सजा हुई. तीन को फांसी और तीन को आजीवन कैद. सजा सुनाई थी न्यायाधीश संचिता सरकार ने. 19 साल के अपने कैरियर में उन्होंने पहली बार किसी को फांसी की सजा सुनाई है. यहां तक कि बैंकशाल कोर्ट में भी पहली बार किसी को फांसी की सजा सुनायी गयी थी. लेकिन दो को बरी कर दिए जाने को बंगाल की जनता ने अच्छी तरह नहीं लिया. आरोप है कि ये दोनों शासक दल से जुड़े हैं, इसीलिए इनके अपराध को पुलिस ने कम करके आंका है. आरोप है कि चार्जशीट को जानबूझ कर पुलिस ने कमजोर बना दिया था, उनके खिलाफ प्रमाण जुटाने में भी ढि़लाई बरती गयी, ताकि ये छूट जाएं.
दोषियों को सजा
पहला दोषी आमिन अली (32) को जब फांसी की सजा सुनायी गयी तो वह एकदम से टूट गया. इससे पहले अदालत में यही कहता रहा कि मैंने कुछ भी नहीं किया. मैं निर्दोश हूं. मुझे शडयंत्र के तहत फंसाया गया है.
दूसरा दोषी अंसार अली (37) तीन बच्चों का पिता. सुनवाई के दौरान अदालत से रहम की गुहार लगाते हुए कहता रहा, ‘परिवार में मैं अकेला कमानेवाला हूं. मुझे माफ कर दें.’ साथ में वह सीबीआई जांच, ब्रेन मैपिंग की बात कहता रहा. पर जब सजा सुनायी गयी तो उसकी खैर थी. वह दोषी करार दिया गया. सजा सुनने के बाद अदालत में मौजूद अपने भाई से कहता है, ‘चिंता मत कर. जो होना है, वही होगा.’
तीसरा दोषी सईफुल अली (33). हर सुनवाई के दौरान उसकी आंखें नम नजर आती थी. अदालत में अपने आपको वह निर्दोश बताता रहा. और यह भी कि जबरन फंसाया गया है. घर पर बूढ़े मां-बाप हैं. बड़ी मेहनत से घर चलाता हूं. इसीलिए बख्श दिया जाए. पर ऐसा नहीं हुआ. सजा सुनाए जाने के दौरान अदालत में सईफुल अली एकदम शांत था. उस दिन परिवार का कोई भी अदालत में मौजूद नहीं था. इस कारण वह पूरी से टूट गया था. वहीं जिन तीन को आजीवन कैद की सजा सुनायी गयी वे अमिनूर रहमान, इमानूल इस्लाम और भोला नस्कर है.
ढ़ाई साल तक चली सुनवाई क सजा सुनाने का काम ढ़ाई से तीन मिनट में पूरी हो गया. इस सजा के खिलाफ दोषी उच्च अदालत में अपील की तैयारी में है. वहीं पीडि़त परिवार भी दोषियों की अपील के खिलाफ कमर कसने की तैयारी कर रहा है. बहरहाल, दोषियों को चरम सजा मिलने से कहा जा सकता है कि मृत लड़की को न्याय मिला. मौसमी और टूंपा नाम की उसकी दोनों सहेलियों, स्कूल के प्रधानाध्यापक और उस लड़की के परिवार समेत बंगाल की जनता की लड़ाई सार्थक रही. कुल मिलाकर लोकतंत्र की जीत हुई.
उत्तर 24 परगना के इसी बारासात उपनगर में अकेला कामदुनी चर्चित कांड नहीं है. ऐसी ही एक और घटना है जो स्कूल की रिंकु दास के साथ घटा, जो राजीव हत्याकांड के नाम से जाना जाता है. 14 फरवरी 2011 में घटी इस वारदात में रिंकु दास रात को ट्यूशन करके लौट रही थी. बारासात स्टेशन पर उसे कोई लेने आता था. उस दिन बारिश हो रही थी. भाई को आने में देर हो गयी. दोनों साइकिल से घर लौट रहे थे कि कुछ लोगों ने जबरन खींच कर साइकिल से रिंकु को उतारा. उसे उठा कर ले जाने लगे तो भाई राजीव बहन को बचाने के लिए कूद पड़ा. असामाजिक तत्वों ने भाई के पेट में छूरा भोंक दिया. यह सब जिलाधिकारी के आवास के सामने हुआ. रिंकु जिलाधिकारी आवास पर खड़े गार्डों से भाई को बचाने की गुहार लगाती रही. लेकिन कोई आगे नहीं आया. राजीव ने वहीं तड़प-तड़क रिंकु के आंखों के सामने दम तोड़ दिया. यह कांड भी बहुत चर्चित रहा.
फांसी पर बंटा समाज
दोषियों में कुछ लोगों का संबंध शासक दल के साथ होने के कारण देर से ही सही प्रशासन ने अभियुक्तों की गिरफ्तारी की. ढ़ाई साल की सुनवाई के बाद फास्ट ट्रैक कोर्ट में मामले को किनारा मिला. पुलिस द्वारा दो अभियुक्तों के खिलाफ पुख्ता सबूत न जुटा पाने के कारण अदालत ने उन्हें बरी किया. तीन को आजीवन कैद की सजा हुई और तीन को फांसी.
हत्या व बलात्कार के नृशंसता की सीमा पार करनेवाले मामले जब कभी फांसी की सजा किसीको सुनायी गयी है, तभी समाज का एक तबका सजायाफ्ता के लिए मानवाधिकार का सवाल उठाता रहा है. मानवाधिकार का सवाल उठाने वाले स्टेरिओटाइप तरीके से फांसी की सजा को बर्बर, मध्ययुगीन बताते हुए ऐसी सजा को सभ्य समाज में कलंक कहते हैं. कुछ शोध-सर्वेक्षण का हवाला देते है, जिसके नतीजे कहते हैं कि आजीवन कैद की तुलना में फांसी की सजा कहीं अधिक कारगर है- वैज्ञानिक दृष्टि से इसका कहीं कोई प्रमाण नहीं है. बंगाल के मावनाधिकार के पैरोकार यही कहते सुने जाते रहे हैं कि 2008 में धनंजय चटर्जी को फांसी की सजा दिए जाने के बाद राज्य से बलात्कार खत्म नहीं हुआ, कामदुनी भी इसका जीता-जागता सबूत है.
फांसी की सजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश वी कृष्ण अय्यर के एक बयान का हवाला भी दिया जाता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारे देश के कानून के तहत बहुत सारे अपराध फांसी की सजा के दायरे में आते हैं. लेकिन यह बड़े ही खेद का विशय है कि फांसी की सजा समाज में अपराध को कम करने में कतई कारगर साबित नहीं हो सकी है.
माना फांसी की सजा से समाज में अपराध कम नहीं होगा. लेकिन क्या यह भी देखा जाना चाहिए कि सुधारगृह से बाहर आने के बाद कितने प्रतिशत अपराधियों में सही मायने में सुधार हुआ है? क्या वे समाज की मूलधारा में वापस लौटने के योग्य हो गए हैं? प. बंगाल में 1993 में सजल वारुई को ही लें. अपने दोस्तों की मदद से जब अपने पिता समेत सौतेली मां और भाई की उसने बेरहमी के साथ हत्या के मामले में निचली अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी. लेकिन हाईकोर्ट ने फांसी की सजा को आजीवन कैद में तब्दील कर दिया. सजा के दौरान सजल भाग गया और मुंबई और फिर वापस कोलकाता लौट कर दूसरी कई गंभीर आपराधिक कार्यकलापों में लगा रहा. कई बार गिरफ्तारियां हुई. सजा काट कर बाहर निकला और फिर उसने अपराध को अंजाम दिया. 2011 में एक डकैती के मामले में गिरफ्तार हुआ.
मानवाधिकार का मुद्दा क्या केवल सजायाफ्ता के लिए उठाया जाना कहां तक जायज होगा! दरिंदगी के साथ जिसका बलात्कार किया गया और उसी दरिंदगी के साथ उसकी हत्या कर दी गयी, उस मृत लड़की के मानवाधिकार का क्या! क्या रिंकु और उसके भाई राजीव के मानवाधिकार का हनन नहीं हुआ! लाभपुर की आदिवासी लड़की को प्रेम करने की सजा ग्राम प्रधान ने उसका गैंगरेप करके दी. क्या यहां मानवाधिकार का हनन नहीं हुआ! भारतीय समाज की अरुणा शानबाग, माया त्यागी, अंजना मिश्र, निर्भया और इन जैसी हजारों-हजार की संख्या में बलात्कार की शिकार हुई लड़कियों के मानवाधिकार का क्या! और उस मासूम बच्ची के मानवाधिकार का क्या, जिसके साथ छह लोगों ने अप्राकृतिक दुशकर्म किया और उसके शरीर में मोमबत्तियां और शीशी डाल कर मानवता को शर्मसार करनेवाली यातनाएं दी!
वह लड़की अपने गांव की पहली लड़की थी, जो स्नातक स्तर पर पहुंची थी. सवाल यह भी उठता है कि इस फैसले के बाद गांव की दूसरी लड़की बेखौफ स्कूल-कौलेज में पढ़ने के लिए, काम पर जाने के लिए, घूमने-फिरने के लिए घर से निकलने का साहस कर सकेंगी? शायद नहीं. इस घटना के बाद स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद लड़कियों को घर पर बिठा दिया जा रहा है. बहुत सारी लड़कियों की शादी करवा दी जा रही है. इस गांव के बहुत सारे लोग चोरी-छिपे घर व जमीन बेच कर रातोंरात निकल गए हैं. गौरतलब है कि पीडि़त परिवार को भी गांव छोड़ कर जाने को मजबूर होना पड़ा. इतने सारे लोगों के मानवाधिकार की चिंता कौन करेगा?
कामदुनी कांड का फैसला सुनाते हुए न्यायाधीश संचिता सरकार ने जो कुछ कहा यहां उसका उल्लेख किया जाना जरूरी है. उन्होंने कहा कि फांसी की सजा से समाज अपराधमुक्त हो जाएगा, ऐसी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती न ही इसकी कोई गारंटी नहीं है. लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि आजकल समाज में हर रोज जिस पैमाने पर बलात्कार और हत्या की घटनाएं घट रही है. ऐसे में ‘लघु’ सजा दिए जाने पर आम जनता पर इसका प्रभाव पड़ेगा. इसीलिए यह कहना जरूरी है कि न्यायालय की ओर से सजा के रूप में समाज को कड़ा संदेश दिया जाना जरूरी है. समाज के माध्यम से यह संदेश अपराधी तत्वों तक भी पहुंचे. और भविष्य में वे ऐसा कोई काम करने की हिम्मत न करें.