आखिरकार कृषि मंत्रालय का नाम किसान कल्याण मंत्रालय हो गया, लेकिन नाम बदलने से किसानों की दिक्कतें दूर नहीं होंगी और उन के मसले नहीं सुलझेंगे, क्योंकि ज्यादातर गांव व किसान आज भी बहुत पीछे हैं. उद्योगों में बढ़त है, लेकिन खेती में गिरावट है. ओहदेदारों के गले तर हैं, लेकिन किसानों के हलक सूखे हैं. खेती की तरक्की पानीदार इलाकों तक सिमटी है. गेहूं, धान, गन्ना, मसालों, फलों व सब्जियों की पैदावार भरपूर है, लेकिन दलहन, तिलहन के मामले में देश आज भी पीछे है. तिलहनी फसलों की कमी से खाने के तेलों के लिए भारत को दूसरे मुल्कों के आगे हाथ पसारने पड़ते हैं यानी खेती की तरक्की आधीअधूरी है व किसान बदहाल हैं. खुशहाली बढ़ सकती है, बशर्ते किसान ज्यादा उपज देने वाली नई उम्दा किस्मों की सरसों, अलसी, मूंगफली व तिल वगैरह की फसलें उगाएं. उपज सीधे मंडी में आढ़तियों के हवाले न करें. गांव में अकेले या मिल कर तेल निकालने की मशीन लगाएं. खुद तेल निकालें, उसे पैक करें व बेचें तो खेती से ज्यादा कमा सकते हैं.
तेल की धार
मूंगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी, तिल, सरसों, अरंडी, अलसी, नारियल, बिनौले व चावल की भूसी का तेल खाद्य तेलों में आला है. इधर प्याज व दालों के बाद अब तेलों की कीमतें उठान पर हैं. आजकल सेहत के नाम पर जैतून का तेल अमीरों की पहली पसंद बन गया है, लेकिन महंगा होने से वह आम आदमी की पहुंच से दूर है. देश में करीब 200 लाख टन से ज्यादा खाद्य तेलों की सालाना खपत है, लेकिन तेल का उत्पादन कम होने की वजह से काफी तेल दूसरे मुल्कों से मंगाना पड़ता है. बीते 20 सालों से खाद्य तेलों का आयात हो रहा है. साथ ही तेलों की कमी होने से खाने के तेलों में मिलावट का धंधा बहुत तेजी से बढ़ रहा है.
कृषि मंत्रालय के मुताबिक साल 2013-14 में तिलहनी फसलों का रकबा 285 लाख हेक्टेयर था और प्रति हेक्टेयर औसत उपज 1153 किलोग्राम थी. यह जरूरत से कम है. लिहाजा इस में इजाफा होना जरूरी है. खाद्य मंत्रालय के मुताबिक तिलहन की पैदावार 2011-12 में 297.98 लाख क्विंटल, 2012-13 में 309.43 लाख क्विंटल व 2013-14 में 328.79 लाख क्विंटल थी. इस से देश में खाने के तेलों का उत्पादन 2011-12 में 89.57 लाख क्विंटल, 2012-13 में 92.19 लाख क्विंटल व 2013-14 में 100.80 लाख क्विंटल हुआ था, जबकि इस दौरान खाद्य तेलों की खपत क्रमश: 189, 198 व 210 लाख टन से ज्यादा थी.
कमी की वजहें
तेल निकालने के तरीके पुराने हैं. मसलन सरसों में 48 फीसदी तक तेल होता है, लेकिन कोल्हू से औसतन 30-35 फीसदी तेल ही निकल पाता है. नई बेहतर तकनीक वाली बड़ी तेल मिलें कम हैं. अब ज्यादातर तिलहन स्पैलरों से पेरी जाती है. इस में काफी तेल खली में जाता है. ये खली विदेशी खरीद लेते हैं. उन के पास खली से भी तेल निकालने की तकनीक है. इसी वजह से बीते दिनों सोया खली का निर्यात 71 फीसदी बढ़ा है. सेंट्रल पोस्ट हार्वेस्ट टैक्नोलाजी इंस्टीट्यूट, सीफैट, लुधियाना ने कम लागत में बेहतर ढंग से ज्यादा व उम्दा खाद्य तेल निकालने की कई तकनीकें निकाली हैं. ऐसी फायदेमंद जानकारी सीधे ज्यादा से ज्यादा किसानों व उद्यमियों तक कारगर ढंग से जल्द पहुंचाई जानी चाहिए, लेकिन सरकारी सुस्ती के कारण ऐसा नहीं हो पाता.
तेलजगत के मौजूदा हालात सुधारने जरूरी हैं. खाद्यतेलों का उत्पादन बढ़ाना जरूरी है. इस की बजाय घरेलू बाजार में खाने के तेलों की कमी पूरी करने, कीमतों पर काबू पाने व आम जानता को वाजिब दाम पर खाने का तेल मुहैया कराने के लिए दूसरे देशों से खाने के तेलों का आयात किया जाता है. आयात शुल्क कम होने से खाद्यतेलों का आयात लगातार बढ़ रहा है. कुल खाद्यतेल आयात में आधे से यादा हिस्सा क्रूड पाम तेल का है. इस पर जिंसों के वायदा बाजारों में खूब सट्टेबाजी होती है. लिहाजा चंद धन्ना सेठ मौज मार रहे हैं और आम जनता का तेल निकल रहा है. सरकार को ऐसे गोरखधंधों पर सख्ती से नकेल कसनी चाहिए. देश में 300 लाख टन कूवत की 350 तेल मिलें हैं. इन मिलों व तेलों पर लगाम लगाने के लिए वनस्पति तेल उत्पाद, उत्पादन व उपभोग विनियमन कानून 2011 है, लेकिन तेल के चिकने कारोबार में बहुत फिसलन है. सोल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन व सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन आदि कारखानेदारों के संगठन तेल उद्योग को बचाने व बढ़ाने की मांगें सरकार से करते रहते हैं, लेकिन किसान व उपभोक्ता किस से गुहार करें?
खाद्यतेलों की कीमतें आसमान छू रही हैं. सरसों का तेल 140 रुपए, सोया व सूरजमुखी के रिफाइंड तेल 150 रुपए व जैतून का तेल 500 से 1500 रुपए प्रति लीटर तक बिक रहा है, लेकिन तेल के इस खेल में असल तेल तो आम जनता का निकल रहा है. लिहाजा खाने के तेल के जमाखोरों पर सख्ती से लगाम कसना लाजिम है.
सवालिया निशान
साल 2013-14 के दौरान आयात किए गए खाद्यतेलों में 50.40 फीसदी कच्चा पाम आयल, 24.19 फीसदी पामोलीन आयल, 13.68 फीसदी सूरजमुखी का तेल, 10.66 फीसदी सोयाबीन का तेल व 1.07 फीसदी अन्य किस्म के तेल थे. खाद्य मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक प्रति आदमी खाने के तेलों की सालाना खपत का औसत दुनिया में 27 किलोग्राम है, जबकि भारत में वह सिर्फ 16 किलोग्राम है, लेकिन आगे इस में लगातार इजाफा होगा. इस मुद्दे पर ध्यान दे कर यदि कारगर सुधार किए जाएं तो दूसरे मुल्कों से खाने का तेल मंगाने की बजाय उलटे निर्यात किया जा सकता है. उस हालत में किसानों को उन की उपज के दाम ज्यादा मिलेंगे, लेकिन बरसों से देशी तेलों की लगातार अनदेखी हो रही है, ताकि आयात जारी रहे. बेशक आयात बहुत सी चीजों का हो रहा है, लेकिन खाद्य तेल तो हमारे देश में रसोईघरों की रीढ़ हैं. तेलों का आयात हमारी कमजोरी जाहिर करता है.
मिलावट की मार व घटिया जांच सिस्टम होने से मैगी की पोल 35 सालों बाद खुली. जिन चीजों पर अमीर मुल्कों में बनाने, बेचने पर सख्त पाबंदी है, वे भारत में बिकती हैं. ऐसे में सेहत पर खतरा बढ़ता है. यह देखना जरूरी है कि बाहरी व खुले तेल के नाम पर क्या बिक रहा है और लोग क्या खा रहे हैं? 23 जून, 2015 को भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण एफएसएसएआई ने फरमान जारी किया था कि दूध, बोतलबंद पानी व खाने के तेलों की निगरानी बढ़ाने पर खास जोर दिया जाए, लेकिन हुआ कुछ नहीं. तेल का आयात बढ़ने से नुकसान तिलहन उगाने वाले किसानों का होगा. पिछली सरकार ने 40 लाख क्विंटल चीनी का आयात किया था. इस का खमियाजा गन्ना किसान व भारतीय चीनी उद्योग दोनों आज तक भोग रहे हैं. यानी बाहरी तेल का सहारा लेना अपनी खेती व किसानों की बरबादी के बीज बोना है.
अनदेखी क्यों?
भारतीय खाने में सब से ज्यादा सरसों का तेल इस्तेमाल होता है, लेकिन उसे बढ़ावा देने के लिए कोई बोर्ड नहीं है, जबकि चाय, काफी, मसाले, काजू, अंगूर, ऊन, रेशम, मीट व पोल्ट्री आदि को बढ़ावा देने के लिए बरसों से अलगअलग बोर्ड काम कर रहे हैं. यह तिलहन उत्पादकों व तेलउद्योग की सरासर अनदेखी है. केंद्र सरकार ने तिलहन को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय मिशन चला रखा है, लेकिन नतीजे खास नहीं हैं. साल 2012-13 में प्रति हेक्टेयर तिलहन की औसत उपज 1169 किलोग्राम थी, जो साल 2013-14 में घट कर 1166 किलोग्राम रह गई. देश में सरसोंअलसी की प्रति हेक्टेयर औसत उपज 900-1000 किलोग्राम व गुजरात में सब से ज्यादा 1723 किलोग्राम है, लेकिन इंग्लैंड में यह 3588 किलोग्राम है. गुजरात की सरदार कुशीनगर दांतेवाड़ा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी ने प्रति हेक्टेयर 3000 किलोग्राम उपज देने वाली सरसों की हाईब्रिड किस्म जीएम 3 निकाली थी. उस के बीज किसानों को मुहैया कराए जाने चाहिए थे, लेकिन ऐसी बातों पर गौर करने की जरूरत नहीं समझी जाती है. इन्हीं वजहों से देश में तेलों का उत्पादन कम होता है.
खाद्यतेलों में पेट्रो आयात जैसी मजबूरी नहीं है, फिर भी विदेश्ी तेल कंपनियां मोटा मुनाफा कमा रही हैं. ऐसे में जरूरी है कि सरकारी नीतियां बदलें और खाद्यतेलों का उत्पादन बढ़ाने की पुरजोर कोशिशें हों, ताकि अपना देश खाद्यान्न की तरह खाद्यतेलों में भी अपने पैरों पर खड़ा हो सके.
उपाय हैं
भारत दुनिया भर में आज एक बड़ा बाजार बन चुका है. इसीलिए बाहरी कंपनियां सैटिंग कर के अपना माल भारत में खपाने की फिराक में लगी रहती हैं. भारत में घटती तिलहन की खेती व तेलउद्योग की कमजोरी विदेशी कंपनियों की साजिश लगती है. ऐसे में इस मसले का तोड़ जल्द निकालने के कारगर उपाय करने बेहद जरूरी हैं. तिलहन की बंपर पैदावार लेने व कम पानी, कम बिजली से पूरा तेल निकालने में मलेशिया, इंडोनेशिया व इटली आगे हैं. उन की तकनीकें अपनाना जरूरी है. आज इन मुल्कों के खाद्यतेलों का डंका बज रहा है. हमारी मिट्टी उपजाऊ है, आबोहवा माकूल है, किसान मेहनती हैं व तेलमिलों में कूवत मौजूद है, लिहाजा खाद्य तेलों का उत्पादन बढ़ाना मुश्किल या नामुमकिन नहीं है. सुधार की गुंजाइश है. इस के लिए जागरूकता व इच्छाशक्ति चाहिए. देश की आधी से ज्यादा आबादी खेती में लगी है, लेकिन तिलहनी फसलों की पैदावार घट रही है. खाद्यतेलों का आयात बढ़ना खतरे की घंटी है. यदि हालात न बदले तो आगे तेलों की तसवीर और बिगड़ सकती है. लिहाजा किसानों, तेल उद्योग व सरकार का चेतना जरूरी है, ताकि तेलों का आयात घटे व तिलहनों की पैदावार सिर्फ आंकड़ों में नहीं, असल में बढ़े.