हरितक्रांति को सफल बनाने वाले जाट, नकदी फसलों की खेती करने वाले मराठा और श्वेत क्रांति को सफल बनाने वाले पटेल अपनी मेहनत से खेती को रोजगार बनाने में सफल हो गए थे. खेती की कम होती जमीन, खेती की बढ़ती लागत और पैदावार में कम होते मुनाफे ने अब इन खेतिहर जातियों को बदहाली की कगार पर ला खड़ा किया है. mपिछले 10 सालों में 3 करोड़ से अधिक किसानों ने खेती छोड़ दी है. इस से खेती करने वाली जातियां परेशान हैं. आजकल अनाज की कीमतें आसमान छू रही हैं. दालों और प्याज की बढ़ती कीमतों का एक कारण इन की खेती का घटता रकबा भी है. सरकार की गलत नीतियों की वजह से अनाजों की कीमतें बेतहाशा बढ़ रही हैं, मगर इस के बाद भी किसानों को मुनाफा नहीं मिल रहा है. यही वजह है कि खेती करने वाली जातियां बदहाली का शिकार हो रही हैं.

खेती इस देश की आजीविका का आज भी सब से बड़ा साधन है. अगड़ी और पिछड़ी जातियों की बहुत बड़ी संख्या खेती पर निर्भर है. ये जातियां गांवों में रह कर खेती करती थीं. इन के पास जमीन अच्छीखासी होती थी. इन के खेतों में काम करने वाली दूसरी जातियों के लोगों के साथ इन के संबंध मधुर होते थे. पिछले 7-8 सालों से खेती की खराब होती हालत के चलते इन खेतिहर जातियों की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं. इन के पास खेती के अलावा आजीविका का कोई दूसरा साधन न होने से ये बदहाल होती जा रही हैं. यही वजह है कि ये जातियां भी अब अपने लिए आरक्षण मांगने वालों की श्रेणी में शामिल हो गई हैं. इन में गुजरात के पटेल, महाराष्ट्र के मराठा, राजस्थान, हरियाणा के जाट व गूजर और उत्तर प्रदेश के कुर्मी शामिल हैं. बड़ी संख्या में गांवों में रहने वाली ठाकुर बिरादरी के लोग भी इस बदहाली का शिकार हो रहे हैं. समाजसेवी प्रकाश कुमार कहते हैं, ‘अगड़ी और पिछड़ी बिरादरी की जिन जातियों के पास जमीनें थीं, वे जमींदारी उन्मूलन के नाम पर सरकार ने बहुत पहले ले ली थीं. सरकारी योजनाओं में इन जातियों को संपन्न और अगड़ा मान कर दरकिनार कर दिया गया. दिनोंदिन इन जातियों के लोगों की परेशानियां बढ़ने लगीं. जब तक खेती से मुनाफा हो रहा था, इन जातियों के लोगों को कम परेशानी हो रही थी. अब जब खेती से मुनाफा घटने लगा, खेती की जमीन कम होने लगी, तब से ये खेतिहर जातियां बदहाली की शिकार हो गईं. खेती का रकबा घटने से ये लोग वैज्ञानिक ढंग से खेती भी नहीं कर पा रहे हैं. खेती में मजदूरी बढ़ने और सिंचाई व जुताई का खर्च बढ़ने से खेती का लागत मूल्य बढ़ता जा रहा है. खेती की पैदावार से उत्पादन लागत निकालना मुश्किल हो गया है.’

3 करोड़ लोगों ने छोड़ दी खेती

गुजरात को देश का सब से संपन्न प्रदेश माना जाता है. पटेल जाति इस प्रदेश की सब से संपन्न जाति मानी जाती है. देश की तरक्की में इस जाति के लोगों का बड़ा हाथ है. इस जाति के बहुत सारे लोग विदेशों में अच्छे काम कर रहे हैं. गुजरात में रहने वाले पटेलों ने श्वेत क्रांति को सफल बनाने में सब से बड़ा योगदान दिया, जिस की वजह से देश में दूध की कमी को पूरा किया जा सका. देश में दूध की बहुत कमी थी. ऐसे में श्वेत क्रांति की शुरुआत गुजरात से हुई. गुजरात की खेतिहर पटेल जाति के लोगों ने दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए गायों और भैंसों को पालना शुरू किया. उस से प्राप्त होने वाले दूध को सहकारी समितियों को दिया. इस से न केवल किसानों का मुनाफा हुआ बल्कि गुजरात की संपन्नता में भी इजाफा हुआ. पूरे देश के अलगअलग क्षेत्रों में श्वेत क्रांति की सफलता के लिए गुजरात मौडल का प्रयोग किया गया. गुजरात में जब पटेल बिरादरी के लोगों ने युवा नेता हार्दिक पटेल की अगवाई में आरक्षण की मांग के लिए प्रदर्शन किया तो देश का ध्यान इस ओर गया कि अगड़ी समझी जाने वाली पटेल जाति में भी गरीब और मजबूर लोग हैं.

महाराष्ट्र के रहने वाले मराठा और राजस्थान, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के रहने वाले जाट बिरादरी के लोग भी अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं. पटेल की तरह जाट और मराठा भी अगड़ी बिरादरी में गिने जाते थे. पटेल बिरादरी ने अगर श्वेत क्रांति को सफल बनाने में मदद की तो मराठा बिरादरी के लोगों ने कपास, गन्ना और प्याज जैसी नकदी फसलों की पैदावार का विकसित मौडल देश के सामने रखा. कपास, गन्ना और प्याज इस देश की नकदी फसलों में शामिल हैं. इन की खेती से न केवल किसानों को फायदा हुआ बल्कि देश ने भी कृषि मामलों में तरक्की की. नकदी फसलों की खेती में महाराष्ट्र के किसानों ने बहुत मेहनत की. इस के बाद पूरे देश में किसानों ने नकदी फसलों की खेती शुरू कर दी.

इसी तरह से जाट बिरादरी ने देश की जरूरत के लिए हरित क्रांति को सफल बनाया. हरित क्रांति की सफलता का श्रेय पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के किसानों को जाता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो हरित प्रदेश के नाम से अलग प्रदेश तक बनाने की मांग ने जोर पकड़ लिया. इस में जाट बिरादरी का खास योगदान है. पटेल, जाट और मराठा तीनों ही जातियां खेती पर अपना जीवन बिताने वाली जातियां हैं. बहुत ज्यादा पढ़ाईलिखाई पर इन का ध्यान नहीं रहा. पिछले 10 सालों में खेती में बदलाव आया. खेती में लागत अधिक लगने लगी, मुनाफा कम हो गया. कभी ओले तो कभी बरसात तो कभी सूखा पड़ने से खेती को नुकसान होने लगा. इस से खेती पर जीवन गुजरबसर करने वाली जातियों में गरीबी आने लगी. खेती का रकबा घटने लगा. आंकड़े बताते हैं कि साल 2004 से ले कर 2012 के बीच 3 करोड़ से अधिक लोगों ने खेती के पेशे को छोड़ दिया. वे मजदूर बनना बेहतर समझने लगे हैं.

आज बाजार में अरहर की दाल की कीमत 200 रुपए प्रति किलोग्राम है. किचन में प्रयोग होने वाली चीजों में सब से अधिक भाव दाल का ही बढ़ा है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि अब किसानों ने अरहर की बोआई कम कर दी है. अनाज में अरहर ऐसी फसल होती है, जिस की पैदावार में 9 महीने का समय लगता है. पहले लोगों के पास जमीनें ज्यादा होती थीं, तो कुछ खेत अरहर की खेती के लिए ही छोड़ दिए जाते थे, जिन जगहों पर सिंचाई  की सुविधा कम होती थी, जहां पर गेहूं और धान जैसी फसलें नहीं होती थीं, वहां भी अरहर की खेती की जाती थी. अब खेतों के लगातार घटने से किसान अपने खेत 9 महीने के लिए अरहर की खातिर फंसाना नहीं चाहते हैं.

घट रही भोजन की पौष्टिकता

अरहर की दाल में कार्बोहाइड्रेट, आयरन व कैल्शियम भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं. अरहर की दाल की सब  बड़ी खासीयत यह है कि यह खाने के बाद पचने में भी आसान होती है. इस वजह से रोगियों को देने में भी इस का खूब प्रयोग होता है. पहले गांवों में अरहर की दाल का प्रयोग खाने में खूब होता था, जिस से कम खाने के बाद भी लोगों में पोषण की कमी नहीं होती थी. अब खाना खाने के बाद भी शरीर में पोषण की कमी होने लगी है. खासकर बच्चों पर इस का ज्यादा प्रभाव पड़ रहा है. शरीर में प्रोटीन की कमी से तमाम रोग जन्म लेने लगे हैं. उत्तर प्रदेश में इस की सब से अधिक खेती की जाती है. करीब 30 लाख एकड़ रकबे में इस की खेती होती है. अरहर के लिए दोमट मिट्टी वाले ऊंचे खेत मुनासिब होते हैं, जहां बरसात के पानी का जमाव न होता हो. अरहर की बोआई बरसात के समय की जाती है. यह फसल मार्चअप्रैल में तैयार होती है.

किसान अरहर के साथ मिक्स क्रौप की खेती करते हैं. अरहर के साथ कोदों, ज्वार, बाजरा, तिल और मूंगफली की खेती की जाती है. एक ही खेत में एकसाथ 2 फसलें लेने से किसानों का मुनाफा बढ़ जाता है. किसान अपने खेतों में केला, आलू, टमाटर और दूसरी सब्जियों की खेती ज्यादा करने लगे हैं.

किस काम का सर्मथन मूल्य

अरहर के साथ बोई जाने वाली दूसरी फसलें दिसंबर तक तैयार हो जाती हैं. इस के बाद अरहर तेजी से बढ़ती है और अप्रैल तक तैयार हो जाती है. अरहर से अरहर की दाल बनाने का काम किया जाता है. देश में अरहर की दाल की पैदावार करीब 180 से 200 लाख टन तक होती थी. पिछले कुछ सालों से यह पैदावार घटी है. पिछले साल देश में 170 लाख टन ही अरहर का उत्पादन हुआ, जो मांग से करीब 40 से 50 लाख टन कम है. इसी वजह से अरहर की दाल का?भाव बढ़ रहा है. केंद्रीय खाद्यमंत्री रामविलास पासवान और वित्त मंत्री अरुण जेटली इस बात को समझते हैं. दाल की बढ़ती कीमत सरकार के लिए मुसीबत का कारण न बने, इस के लिए सरकार ने करीब 5 हजार टन अरहर की दाल विदेश से मंगाने की तैयारी कर ली है. यही नहीं सरकार ने दाल की पैदावार बढ़ाने के लिए दाल के समर्थन मूल्य में भी 275 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी कर दी है. अब सरकार किसानों को 4625 रुपए प्रति क्विंटल की दर से दाल की कीमत देगी. सरकर ने अरहर की दाल की कीमतों को कम करने की कोशिश शुरू कर दी है. अरहर की दाल की जमाखोरी कर के मुनाफा कमाने की राह देख रहे आढ़तियों पर सरकार शिकंजा कसने की तैयारी कर रही है. बाजार भाव के जानकार और अनाज का कारोबार करने वालों का मानना है कि अरहर की दाल की देश में खपत बढ़ रही है, जबकि अरहर की पैदावार पहले से कम हो गई है. इसी वजह से इस की कीमतों का कम होना आसान नहीं है.  यहां सवाल अरहर की हालत का नहीं है, बल्कि मामला खेतिहर जातियों की तबाही का है. खराब हालात की वजह से वाकई तमाम खेतिहर जातियां दिनबदिन बदहाली की चपेट में आ रही हैं.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...