नेपाल में 239 सालों से लागू ‘मुखे कानून छ’ के कहावत के दिन लद गए. इस कहावत का मतलब यही है कि राजा का मुंह ही वहां कानून माना जाता था. राजा ने जो कह दिया वही कानून हो जाता था. 7 सालों के लंबे इंतजार और मशक्कत के बाद नेपाल का नया संविधान लागू हो गया लेकिन उस के कई बिंदुओं के विरोध में उपद्रव भी शुरू हो गया है. खुशी, आतिशबाजी और हिंसा के बीच 20 सितंबर, 2015 को नेपाल को अपना संविधान मिल गया और उसे ‘संविधान-2072’ का नाम दिया गया है. 601 सदस्यीय संविधान सभा ने 85 फीसदी बहुमत के साथ नए संविधान को पास कर दिया. नए संविधान के लागू होते ही हिंदू राष्ट्र और राजशाही का चोला उतार कर नेपाल पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया है. नेपाल के नए संविधान में अब धर्म को बदलने पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी गई है और सनातन हिंदू धर्म की हिफाजत का जिम्मा सरकार को सौंपा गया है. गाय को राष्ट्रीय पशु के तौर पर मान्यता दी गई है. नए संविधान की 5 प्रतियों पर हस्ताक्षर करने के बाद राष्ट्रपति रामबरन यादव ने कहा, ‘‘हमारा देश बहुनस्ली, बहुभाषी, बहुधार्मिक और विविध संस्कृतियों वाला है. यह नया दस्तावेज सभी नेपाली भाइयों व बहनों के अधिकारों की रक्षा करेगा.’’
कब की कवायद
साल 2008 में हुए संविधान सभा के पहले चुनाव के बाद से माओवादी सब से बड़े दल के रूप में उभरे थे और तब संविधान बनाने की कवायद शुरू की गई थी. माओवादी 5 साल तक सरकार में रहे पर नया संविधान नहीं बना सके. संविधान के प्रारूप पर अंतिम फैसला लेने के लिए दर्जनों समितियां बनीं और सैकड़ों बैठकें हुईं उस के बाद भी संविधान नहीं बन सका. साल 1996 से ले कर 2006 तक चले गृहयुद्ध के खात्मे के बाद साल 2008 में पहली बार संविधान सभा का चुनाव हुआ था. उस के बाद 2013 में दूसरी दफा संविधान सभा का चुनाव हुआ, जिस में माओवादियों को करारी हार का मुंह देखना पड़ा था. राजनीतिक उथलपुथल की वजह से संविधान को अंतिम रूप देने की तारीख दर तारीख पड़ती रही. काफी जद्दोजेहद के बाद नेपाल को नया संविधान तो मिल गया है, लेकिन मधेशियों को वाजिब अधिकार नहीं मिलने की वजह से देश एक बार फिर नए आंदोलन की गिरफ्त में फंस गया है. संविधान का विरोध भारत और नेपाल के सीमाई इलाकों में हो रहा है. तराई इलाकों में रहने वाले तराई और पहाड़ी इलाकों को एक मानने का विरोध कर रहे हैं. उन का कहना है कि तराई और पहाड़ी इलाकों के लोगों की संस्कृति अलगअलग है. उन्हें मिलाने से मतभेद और हिंसा बढ़ेगी. वहीं मधेशियों के अधिकारों में कटौती को ले कर मधेशी समुदाय ने विरोध का झंडा उठा लिया है. वहीं दूसरी ओर नेपाल के महिला संगठन इस बात को ले कर नाराज हैं कि किसी मर्द के विदेशी महिला से विवाह करने पर उस की संतान को नेपाली नागरिक माना जाएगा, लेकिन महिलाओं के किसी विदेशी से शादी रचाने पर उस की संतान को नेपाली नागरिकता तभी मिलेगी जब उस का पति नेपाल की नागरिकता हासिल कर लेगा.
संविधान का विरोध
नए संविधान का सब से ज्यादा विरोध नेपाल के तराई इलाकों में हो रहा है. भारत से सटे सीमाई इलाकों में सब से ज्यादा मधेशी रहते हैं. पिछली 22 सितंबर को बीरगंज में कई जगहों पर उपद्रव और आगजनी की गई. माईस्थान पुलिस चौकी पर पैट्रोल बम से हमला किया गया और वार्ड नंबर 11 में नेपाली कांगे्रस के सांसद राजेंद्र बहादुर आमात्य के मकान पर भी प्रदर्शनकारियों ने पत्थर फेंके. उपद्रव को बढ़ता देख प्रधानमंत्री सुशील कोइराला को मधेशी लोकतांत्रिक पार्टी के दफ्तर पहुंच कर आंदोलन को रोकने की गुहार लगानी पड़ी. मधेशी नेता उपेंद्र यादव कहते हैं कि नेपाल में मधेशियों की बहुत बड़ी आबादी है और नेपाल की तरक्की में काफी बड़ा योगदान है, इसलिए उन के आंदोलन को बंदूक और लाठी के बूते दबाना नेपाल के लिए ठीक नहीं होगा. उन के आंदोलन को कुचलने के बजाय सरकार को उन की नाराजगी को सुनना होगा, नहीं तो देश में स्थायी तौर पर शांति कायम करना मुमकिन नहीं हो सकेगा.
जाहिर है कि मधेशी इलाके भारत की सीमा से लगे हुए हैं और नेपाल में रहने वाले मधेशी भारतीय मूल के ही हैं. ऐसे में भारत भी नेपाल के इस संकट से खुद को अलगथलग नहीं रख सकता है. पहाडि़यों से मधेशियों की ज्यादा आबादी होने के बाद भी मधेशियों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया है. जिस तरह से संघीयक्षेत्रीय बंटवारा किया गया है उस में मधेशियों की नुमाइंदगी काफी कम हो जाएगी. चुनाव क्षेत्रों को इस तरह से बनाया गया कि पहाड़ी इलाकों को 100 सीटें और मैदानी इलाकों को 65 सीटें दी गई हैं. इस के अलावा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के नाम पर ऊंची जाति के पहाडि़यों को आरक्षण दिया गया है, जिस से भी मधेशी खासे नाराज हैं. गौरतलब है कि राष्ट्रपति रामबरन यादव संविधान के कई बिंदुओं पर सहमत नहीं थे और उन्हें इस बात का अहसास था कि संविधान के कई मसलों पर हंगामा खड़ा हो सकता है. वे संविधान सभा में मतदान को टालने की जुगत में लगे रहे, लेकिन प्रधानमंत्री सुशील कोइराला और संविधान सभा के अध्यक्ष सुबास चंद्र नेंबांग ने उन की सलाह की अनदेखी कर दी. भारत भी इस बात से खफा है कि साल 2007 में नेपाल में सभी राजनीतिक दलों ने जो समावेशी संविधान बनाने का भरोसा दिया था, उस का उल्लंघन किया गया है. संविधान में सभी वर्गों और इलाकों को वाजिब प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है. भारत ने नए संविधान को इसी रूप में पारित नहीं कराने का आग्रह करते हुए विदेश सचिव एस जयशंकर को 18 सितंबर को नेपाल भी भेजा, पर नेपाल के नेताओं ने उन्हें तव्वज्जुह नहीं दी.
नेपाल और भारत मामलों के जानकार हेमंत राव बताते हैं कि ऐसा कर के नेपाल ने भारत को ज्यादा तरजीह नहीं देने का साफ संकेत दे दिया है. मधेशी भारत के समर्थक हैं और पहाडि़यों को नेपाल का करीबी माना जाता रहा है. किसी भी मधेशी पार्टी के नेता ने संविधान को स्वीकार करते हुए अपने हस्ताक्षर नहीं किए हैं, जिस से नेपाल में नए बावेला का जन्म लेना तय है.
मधेशियों का पेंच
गौरतलब है कि पिछले 5 दशकों से मधेशी ‘एक मधेश एक प्रदेश’ की मांग करते रहे हैं. मधेशियों की आबादी 52 फीसदी है लेकिन वह नेपाल के कुल क्षेत्रफल में से 17 फीसदी इलाके में ही रहते हैं और उन के बूते ही नेपाल सरकार को मिलने वाले कुल राजस्व का 80 फीसदी हिस्सा आता है. नेपाल की कुल आबादी 2 करोड़ 95 लाख है जिस में से डेढ़ करोड़ मधेशी हैं. नेपाल में कुल 103 जातियां हैं जिन में 56 जातियां मधेशियों की हैं. इस के बाद भी नेपाल में मधेशियों की हालत ‘न घर के न घाट के’ की तरह ही रही है. नेपाल में मधेशियों की बदहाली का यह हाल है कि लंबी लड़ाई के बाद भी 40 फीसदी मधेशियों के पास न नागरिकता प्रमाणपत्र है और न ही वोट देने का अधिकार है. मधेशी गुहार लगा रहे हैं कि वे पूरी तरह से नेपाल के नागरिक हैं, उन्हें बाहरी नहीं समझा जाए. मधेशी न सरकारी योजनाओं का फायदा उठा सकते हैं और न ही वहां जमीन खरीद सकते हैं. तराई मधेशी राष्ट्रीय अभियान के संयोजक जयप्रकाश प्रसाद गुप्ता बताते हैं कि नेपाल की संविधान सभा का कोई मतलब ही नहीं रह गया है. नए संविधान में मधेशियों, आदिवासियों, जनजातियों और दलितों को हक और इंसाफ देने पर नेता चुप्पी साधे हुए हैं. अब नेपाल के नए संविधान में भी मधेशियों को अलगथलग करने की कोशिश करने से मधेशी हिंसक लड़ाई पर उतारू हो गए हैं. अगर समय रहते नेपाल में नए संविधान के तहत चुने गए प्रथम प्रधानमंत्री खड्गा प्रसाद ओली और राजनीतिक दलों ने मधेशियों को मनाने के लिए लचीला रुख नहीं अपनाया तो इस में शायद ही राजशाही को खत्म कर लोकतंत्र कायम करने का मकसद पूरा हो पाएगा.