‘हवा के सींग न पकड़ो खदेड़ देती है, जमीं से पेड़ों के टांके उधेड़ देती है…

कल्‍पनाओं की ऐसी विचित्रता और शब्दों की ऐसी जादूगरी सिर्फ गुलजार ही कर सकते हैं और आज शब्‍दों के इसी जादूगर का जन्‍मदिन है. 18 अगस्‍त 1936 में जन्‍मे गुलजार साहब आज 82 साल के हो चुके हैं. गुलजार साहब की गजलें और उनके लफ्जों की खूबसूरती को भला कौन भूल सकता है. जो एक बार कानों पर पड़ते ही महसूस हो जाती है. उनकी कविता और गीतों की हरारत का एक सिरा उन अफसानों से होकर गुजरता है, जो विभाजन की त्रासदी से निकली हैं. उनकी कहानियों में ‘लकीरें’ दरअसल उसी दर्द का फलसफा बयां करती हैं, जिस तकलीफ को लिए हुए  गुलजार साहब रातों रात अपनी जमीन छोड़कर पाकिस्तान से भारत चले आये थे. ‘माचिस’ का वो गीत याद कीजिये..’छोड़ आये हम वो गलियां’.. ऐसे ही जज्बातों से गुलजार ने एक बिसरा दिए गए शहर से पीछे छूट गये  बचपन के दर्द को बयां किया.

उनकी महत्वपूर्ण कहानियों में ‘ रावी पार’, ‘खौफ’,’ फसल’, ‘बंटवारा’ और ‘दीना’ है, जिसने हर जगह समय और समाज से तालमेल बनाने की कोशिश की. अपनी कहानियों से वो समाज की सबसे दुखती नस पर अपने कलम की धार रख देते हैं, जो आम जीवन से भी कई बार नजरंदाज रहता है. गुलजार लिखते हैं.

हमने देखी है उन आखों की महकती खुशबू

हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो

सिर्फ एहसास है इसे छू के महसूस करो

प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो…’

गुलजार साहब ने अपनी काबिलियत के बल पर बौलीवुड में अपनी जगह बनाई है. गुलजार हमेशा उर्दू में ही लिखते हैं. शांत और सौम्य दिखने वाले गुलजार अपनी गीतों और कविताओं से अपनी जिंदादिली को कह जाते हैं. बौलीवुड की शान और करोड़ो दिलों पर राज करने वाले गुलज़ार साहब की कलम ये कहने का हौसला भी रखती है..

ऐसी उलझी नजर उनसे हटती नहीं, दांत से रेशमी डोर कटती नहीं..

उम्र कब की बरस के सुफैद हो गयी, कारी बदरी जवानी की छटती नहीं…

वल्लाह ये धड़कन बढ़ने लगी है, चेहरे की रंगत उड़ने लगी है

डर लगता है तन्हा सोने में जी, दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी…

आइए आज हम आपको उनके सफर से जुड़े कुछ खास बाते बतातें हैं जो शायद ही आपको पता हो.

भारतीय सिनेमा की महत्वपूर्ण शख्शियतों में से एक गुलजार का वास्तविक नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा है.

अपने अचूक टैलेंट के लिए जानें जाने वाले गुलजार किसी जमाने में गैराज बतौर मैकेनिक का काम किया करते थे. खाली समय में वो कविताएं और शयरी लिखते थे. गुलजार के पिता और भाई को उनका लिखना पसंद नहीं था. वो बार-बार गुलजार से  उनके इस शौक को छोड़ने के लिए कहते थे.

उन्होंने बिमल राय के साथ असिस्टेंट का काम किया. एस.डी. बर्मन की ‘बंदिनी’ से बतौर गीतकार शुरुआत की. उनका पहला गाना था, ‘मोरा गोरा अंग…’

छोटे पर्दे के लिए भी गुलजार साहब ने काफी कुछ लिखा है जिसमें दूरदर्शन का शो ‘जंगल बुक’ भी शामिल है.

1971 में फिल्‍म गुड्डी के लिए दो गीत लिखे. इन दो गीतों में से एक गीत ‘हमको मन की शक्‍ति देना’ आज भी स्‍कूलों में प्रार्थना गीत के तौर पर गाया जाता है.

साल 1973 में इन्‍होंने ‘कोशिश’ नाम की एक फिल्‍म बनाई थी. उन्‍होंने  इस फिल्म में एक गूंगे और बहरे कपल की स्‍टोरी बयां की थी. इस फिल्‍म के लिए उन्‍होंने साइन लैंग्‍वेंज सिखी थी ताकि वो इमोशन को बेहतर तरीके से र्निदेशित कर सकें. तब से लेकर आज तक वो गूगें एवं बहरे बच्‍चों के लिए काम करते आ रहें हैं.

वे 20 फिल्मफेयर तो पांच बार राष्ट्रीय पुरस्कार अपने नाम कर चुके हैं. उन्हें 2004 में भारत के सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण प्रदान किया गया था. 2010 में उन्हें स्लमडाग मिलेनियर के गाने ‘जय हो’ के लिए ग्रैमी अवार्ड से नवाजा गया. उन्हें 2013 के दादा साहेब फालके सम्मान मिला.

बतौर डायरेक्टर गुलजार की पहली फिल्म ‘मेरे अपने’ (1971) थी, जो बंगाली फिल्म ‘अपनाजन’ की रीमेक थी.

गुलजार की अधिकतर फिल्मों में फ्लैशबैक देखने को मिलता, उनका मानना है कि अतीत को दिखाए बिना फिल्म पूरी नहीं हो सकती. इसकी झलक, ‘किताब’, ‘आंधी’ और ‘इजाजत’ जैसी फिल्मों में देखने को मिल जाती है. फिल्मों के कथानकों की तरह जीवन में चले आये हुए रिश्तों के गहरे धागे आज कहीं छुट से गए हैं. गुलजार साहब ने एक शायर के भीतर की तड़प को इस प्रकार बयां की है.

‘राख को भी कुरेद कर देखो,

अब भी जलता हो कोई पल शायद,

कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाए,

कितना अरसा हुआ किसी कंदील पर जलती रोशनी रखे…’

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