स्वर्ण मंदिर यानी गोल्डन टैंपल और वाघा बौर्डर अमृतसर आने वाले पर्यटकों के लिए आकर्षण के 2 मुख्य केंद्र हैं. आकर्षण के इन दोनों केंद्रों में से पर्यटक, स्वर्ण मंदिर को प्राथमिकता देते हैं. यह सिखों का प्रमुख धार्मिक स्थल है. हर रोज यहां हजारों की तादाद में देशीविदेशी पर्यटक आते हैं. स्वर्ण मंदिर बेहतर साफसफाई के लिए भी जाना जाता है. पर्यटकों को ध्यान में रखते हुए अमृतसर नगर निगम इस मंदिर की तरफ जाने वाले मार्ग की साफसफाई का खासतौर पर ध्यान रखता है. उस की कोशिश रहती है कि स्टेशन से ले कर स्वर्ण मंदिर तक जाने वाले मार्ग में कहीं गंदगी व कचरा न आए. निगम की यह सारी कवायद इसलिए होती है कि स्वर्ण मंदिर के दीदार को आने वाले पर्यटक केवल स्वर्ण मंदिर ही नहीं, अमृतसर शहर के बारे में भी अच्छी तसवीर दिमाग में ले कर वापस जाएं. पिछले कुछ महीनों के दौरान जो कुछ भी हुआ उस से पर्यटकों के दिमाग में अमृतसर की एक ऐसी तसवीर बनी जोकि शर्मिंदा करने वाली थी. यह तसवीर एक ऐसे शहर की थी जहां जगहजगह कचरे के ढेर थे और हवा दमघोंटू, बदबू से भरी हुई थी. स्टेशन से स्वर्ण मंदिर जाने वाले साफसुथरे मार्ग पर इतना कचरा था कि गुजरना मुश्किल था. ऐसी नौबत कचरे की लिफ्टिंग नहीं होने की वजह से आई थी. ऐसा लगता है कि मुद्दों के लिहाज से राजनीतिक पार्टियां एकदम दिवालिया हो चुकी हैं, शायद इसीलिए तो कचरे जैसी चीज को ले कर भी पिछले कुछ महीने से अमृतसर जैसे व्यावसायिक शहर में खूब जोरशोर से राजनीति की गई. शहर में जगहजगह कचरे के ऊंचेऊंचे अंबार लग गए. पूरे शहर का वातावरण ऐसी तीखी और दमघोंटू बदबू से भर गया जैसे शहर कचरे के ढेर पर ही खड़ा हो. नगर निगम के कर्मचारी शहर से कचरे की लिफ्टिंग नहीं कर रहे क्योंकि जहां कचरा फेंका जाना है, वे डंप राजनीतिक लड़ाई के मैदान से बन गए.

अमृतसर के 2 मुख्य डंप हैं जहां सारे शहर का कचरा फेंका जाता है. एक डंप शहर के भगतांवाला इलाके में है जोकि भगतांवाला डंप कहलाता है और दूसरा जब्बाल रोड पर सड़क के किनारे पर बना है जोकि फताहपुर डंप के नाम से जाना जाता है. दोनों ही डंप विभाजन से पहले के हैं और कभी भी इन को ले कर लोगों ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं करवाई. 67 वर्ष के बाद कुछ महीने पहले अचानक ही आश्चर्यजनक ढंग से डंपों की मौजूदगी को ले कर लोगों में विरोध के स्वर उठने लगे. डंपों के आसपास के इलाकों में रहने वाले लोग दोनों ही डंपों को उन के मौजूदा स्थान से हटाने की मांग करने लगे. विरोध करने वाले लोगों का मानना था कि कचरे के डंपों से पैदा होने वाले प्रदूषण की वजह से उन के बच्चे कई किस्म की खतरनाक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. विद्रोह के स्वर इसलिए उठे क्योंकि खाली बैठे छुटभैये किस्म के नेता अपनी नेतागीरी चमकाने के लिए इस मामले में कूद पड़े. डंपों के विरोध में धरने और प्रदर्शन होने लगे. डंपों की तरफ जाने वाले रास्तों में रुकावटें खड़ी कर के कचरा ढोने वाली गाडि़यों को डंपों तक पहुंचने से रोक दिया गया. नतीजतन, शहर से कचरे की लिफ्ंिटग रुक गई. कईकई दिन तक लिफ्ंिटग नहीं होने से शहर की गलियों और चौराहों में कचरे के ऊंचे ढेर लग गए. वातावरण बदबू से भर गया. बदबू से भी नेताओं को अपना वोटबैंक मजबूत करने का मौका मिला. लोगों की मुश्किलों की किसी को कोई फिक्र नहीं थी.

निगम ने जब कचरा फेंकने के लिए वैकल्पिक जगहों की तलाश की तो नेताओं की शह पर वहां भी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. कचरे की लिफ्ंिटग कई बार चली और रुकी. इस बीच, भगतांवाला डंप की तरफ जाने वाले रास्ते के बीच में लोगों ने दीवारें खड़ी कर दीं और गड्ढे खोद डाले. वहीं जब्बाल रोड वाले फताहपुर डंप पर लोगों ने कोर्ट से स्टे ले लिया. समस्या और भी जटिल हो गई. कचरे की समस्या से नजात दिलाने वाला सौलिड वेस्ट प्लांट पहले ही राजनीति की भेंट चढ़ चुका था वरना कचरे की समस्या इतनी विकराल नहीं होती. जनता के भारी आक्रोश व दबाव के चलते आखिर निगम थोड़ा सख्त हुआ. उस ने शहर के कचरे को भगतांवाला डंप में ही फेंकने के लिए कमर कस ली. पुलिस फोर्स की सहायता ली गई. इस के बाद कचरे की लिफ्ंिटग एक बार फिर से शुरू हुई. 10 अप्रैल को  पुलिस के एक एडीसीपी और 6 थाना प्रभारियों के नेतृत्व में पुलिस के लगभग 200 जवानों के संरक्षण में कचरे से भरी गाडि़यां डंप की तरफ बढ़ रही थीं. पुलिस की मदद से ही निगम के कर्मचारियों ने डंप की राह में खड़ी की गई दीवारों को गिराया और गड्ढों को भरा. इतना ही नहीं, पुलिस ने कचरे को डंप में फेंकने का विरोध कर रहे लोगों पर बल प्रयोग करते हुए उन्हें खदेड़ भी दिया.

10 दिन के बाद भगतांवाला डंप में कचरा फेंकने में कामयाब होना निगम के लिए किसी जंग को जीतने से कम नहीं था. इस के लिए उसे उन जमीनमालिकों से भी समझौता करना पड़ा था जिन की जमीन पर से कचरे की गाडि़यों को गुजरना था. समझौते के अंतर्गत निगम उन जमीनमालिकों को हर महीने 25 हजार रुपए देगा जिन की जमीन पर से डंप को जाने वाली कचरे से भरी गाडि़यां गुजरेंगी. यह व्यवस्था बहरहाल 3 महीने के लिए ही है. इस के बाद क्या होगा, कहना मुश्किल है. वैसे प्रबल संभावना यह है कि कचरे की यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी.

वजहें और भी हैं, अमृतसर में जहां हर जगह जमीनों के भाव आसमान को छू रहे हैं वहीं डंप के आसपास की जमीनों की कीमत उन के मुकाबले में कुछ भी नहीं. अगर कचरा फेंकने वाले डंपों को उन के मौजूदा स्थान से हटा दिया जाए तो उन की कीमतों में भारी उछाल आना निश्चित है. बिल्डरों और राजनेताओं को शायद इसी का इंतजार है. ऐसे में कचरे का खेल खत्म कैसे होगा, कचरे पर राजनीति जारी ही रहेगी, ऐसी आशंका है. सवाल यह भी उठता है कि अगर डंपों की बदबू से वास्तव में ही इतनी परेशानी थी तो फताहपुर वाले डंप के पास ही एक नर्सिंग कालेज का निर्माण क्यों किया गया? डंपों के विरुद्ध आंदोलन के पीछे का सारा खेल ही बहुत गहरा है. केवल 5-6 साल पहले जिन डंपों के आसपास की जमीन कुछ सौ रुपए गज थी, आज उसी जमीन की कीमत आसमान छूते हुए 7-8 हजार रुपए प्रति गज तक पहुंच गई है. भारतपाक विभाजन के बाद कुछ वर्ष बाद तक अमृतसर शहर का फैलाव किसी हद तक बेतरतीब था. ऐसा होना स्वाभाविक ही था. विभाजन की वजह से विस्थापित हो आए हजारों शरणार्थियों को सिर छिपाने के लिए आशियाने की जरूरत थी. ऐसे में जहां जिस को, कहीं उजाड़ में भी जमीन दिखी उस ने किसी तरह भी सिर छिपाने के लिए कच्चेपक्के घर का निर्माण कर लिया. डंपों के आसपास की खाली जमीन पर बस्ती बनने की बुनियाद भी शायद उसी दौर में पड़ी थी. ऐसा देश के हर शहर के साथ हो रहा है. दरअसल, शहर के बाहर वाले इलाकों में जमीन सस्ती होने के कारण लोगों ने वहां जमीनें ले कर मकान बना लिए. वहां शहर का कचरा फेंका जाता था. अब शहर फैल रहे हैं. बस्तियां बसती जा रही हैं. आबादी बढ़ती जा रही है. तो अब लोग डंपों का विरोध कर रहे हैं. देश को साफ न कर पाने का कारण यही है कि कचरे का नियमन आखिरकार कैसे हो, इस की सोच में कोई अपना दिमाग नहीं लगाना चाहता, सभी वोटबैंक की राजनीति करने में ही वक्त जाया करते रहते हैं.

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