केंद्रीय सरकार से ले कर देश के सभी राज्यों की सरकारें शिक्षा में गुणवत्ता लाने के ढोल अकसर पीटती रहती हैं परंतु नतीजा वही ढाक के तीन पात रहता है. जबजब नई शिक्षा नीति लागू करने की सिफारिशें आईं तो राज्य सरकारों ने उन्हें लागू किया परंतु उतने सुखद परिणाम नहीं आए जितनी उम्मीदें की गई थीं. शिक्षा का सब से ज्यादा बेड़ा गर्क किया है तो उस महत्त्वाकांक्षी प्रोजैक्ट ने जिसे ‘सर्वशिक्षा अभियान’ के नाम से जाना जाता है. दूसरे शब्दों में, यदि इसे सर्वसत्यानाश अभियान कहा जाए तो शायद आश्चर्य न होगा. हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर के सदर खंड के तहत आने वाले माकड़ी, सीहड़ा प्राथमिक पाठशालाओं में बच्चों की संख्या बहुत कम है. माकड़ी प्राइमरी स्कूल में कुल 14 छात्र पढ़ते हैं जबकि 2 शिक्षिकाओं, एक जलवाहक व एक कुक व हैल्पर के वेतन पर लगभग हर माह 88 हजार रुपए का खर्च होता है. यानी एक छात्र पर लगभग 6,285 रुपए सरकार हर माह व्यय कर रही है. सीहड़ा प्राइमरी स्कूल में कुल 24 छात्र पढ़ रहे हैं जिन पर लगभग 89 हजार रुपए शिक्षकों व स्कूल के अन्य स्टाफ पर हर माह खर्च किए जा रहे हैं. घुमारवीं शिक्षा खंड (द्वितीय) के अंतर्गत आने वाले स्कूल कल्लर में शिक्षा सत्र 2014-15 में कुल 9 छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, जिन पर सरकार 2 शिक्षकों, एक जलवाहक व दोपहर का भोजन छात्रों को मुहैया करवाने के लिए एक कुक व हैल्पर के वेतन समेत लगभग 76 हजार रुपए प्रति माह लुटा रही है. औसतन 8,500 रुपए एक बच्चे को शिक्षित करने के लिए खर्च किया जा रहा है. सरकारी स्कूलोें में शिक्षा सस्ती है परंतु शिक्षक महंगे, जबकि निजी स्कूलों में शिक्षा महंगी है और शिक्षक अर्धकुशल.

सरकारी स्कूलों में इन्फ्रास्ट्रक्चर  बढि़या है, जो यहां के निजी स्कूलों में नहीं है. सरकारी प्राथमिक स्कूलों में छात्रों को मुफ्त वर्दी, मुफ्त मिड डे मील, मुफ्त पाठ्यपुस्तकें व निशुल्क शिक्षा सहित आईआरडीपी जैसी योजनाओं से छात्रों को प्रति वर्ष 200 रुपए दिए जाते हैं. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि सरकारी स्कूलों में ट्रेंड टीचर्स होने के बावजूद छात्रों का शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है. कुछ तो राजनीतिक हस्तक्षेप, कुछ शिक्षकों की लापरवाही और सब से अधिक शिक्षा की नैया को सर्व शिक्षा अभियान ने डुबोया है. सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के 99 प्रतिशत अध्यापक अपने बच्चे की शिक्षा के प्रति सजग नहीं होते हैं. जबकि निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के अभिभावक न केवल अपने बच्चों के स्कूल प्रशासन से सीधा संवाद करते हैं बल्कि वे अपने बच्चों के होमवर्क से ले कर बच्चे की अन्य गतिविधियों में उस की मदद करते हैं. शहर के निजी गलोरी स्कूल में अनिल भारद्वाज का 8 वर्षीय बेटा, आयुष तीसरी कक्षा में पढ़ता है. अनिल का कहना है कि वे प्रति वर्ष अपने बेटे की शिक्षा पर 40 हजार रुपए व्यय करते हैं. अनिल स्वयं एक सरकारी मुलाजिम हैं, जबकि उन की पत्नी एक कुशल गृहिणी हैं. दोनों ही मिल कर आयुष के होमवर्क से ले कर उस की ड्रैस व साफसफाई पर ध्यान देते हैं. अनिल भारद्वाज कहते हैं कि जब वे इतना खर्च करते हैं तो बच्चे का ध्यान भी तो रखना पड़ेगा. संदीप एक बिजनैसमैन हैं जबकि उन की धर्मपत्नी सरकारी नौकरी करती हैं. उन की बेटी आरुषि 7वीं कक्षा की छात्रा है, जो यहां चंगर सैक्टर में स्थित डीएवी स्कूल में पढ़ती है. संदीप का कहना है कि वे अपनी बेटी की ड्रैस, बस सुविधा, फीस आदि में 25 हजार रुपए व्यय करते हैं. संदीप का कहना है कि बच्ची को स्कूल से जो भी प्रोजैक्ट दिया जाता है उसे पूरा करवाने में वे और उन की पत्नी, बेटी की मदद करते हैं.

बिलासपुर डियारा सैक्टर निवासी सुमित उर्फ किट्टू मेहता का कहना है कि आज सरकारी स्कूलों की इमेज पहले जैसी नहीं है जबकि सरकारी स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं के साथ अच्छे शिक्षक भी हैं. अब तो जिन के पास साधन है वे निजी स्कूलों में अपने बच्चों को प्रवेश दिलाते हैं. नरेश गुप्ता, डियारा सैक्टर, बिलासपुर, हनुमान मंदिर के समीप रहते हैं. उन का बेटा स्वप्निल माउंट कैलेवरी प्राइवेट स्कूल में चौथी कक्षा में पढ़ता है, जिस की शिक्षा पर वे लगभग 21 हजार रुपए सिर्फ ड्रैस, किताबों व फीस पर खर्च करते हैं. नरेश गुप्ता नौकरीपेशा हैं और उन की पत्नी घरेलू महिला. नरेश गुप्ता का कहना है कि एक तो सरकारी स्कूलों में अकारण राजनीतिक हस्तक्षेप होता है. जिस शिक्षक का तबादला हो जाता है उस स्कूल में कई महीनों तक शिक्षक का पद रिक्त रहता है. दूसरे, सरकारी स्कूलों में कागजी कार्यवाही पर ज्यादा दबाव बना रहता है. ऐसे में कौन अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहेगा? बिलासपुर जिले के ही सदर खंड के तहत आने वाली पाठशाला दनोह में मात्र 16 छात्र पढ़ रहे हैं. दोपहर के भोजन का खर्च जोड़ कर लगभग 95 हजार रुपए का मासिक खर्च सरकार इस स्कूल पर वहन करती है. इतना करने के बाद भी हालत बहुत पतली है. हाल ही में ऐनुअल स्टेटस औफ एजुकेशन रिपोर्ट 2014 में यह खुलासा हुआ है कि प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों के बच्चों को जमा और घटाना भी नहीं आता है. यहां तक कि संख्या को भी बच्चे पहचान नहीं पा रहे हैं. रिपोर्ट के अनुसार, 5 से 16 साल के बच्चों से घरों में जा कर भाग, घटाव और संख्या पहचान के सवाल पूछे गए. कक्षा 3 के 52.3 प्रतिशत बच्चे ही घटाव के सवाल कर पाए, जबकि वर्ष 2013 में यह प्रतिशत 49.9 प्रतिशत था. कक्षा 5 के 46.8 प्रतिशत बच्चे ही भाग के आसान सवाल कर पाए जो पिछले वर्ष की तुलना में कम है. वर्ष 2007 के मुकाबले गणित के स्तर में गिरावट आई है. 2007 में 5वीं के 67 प्रतिशत बच्चे आसान भाग के सवाल कर लेते थे जो अब घट कर 46.8 प्रतिशत रह गए हैं. राष्ट्रीय स्तर पर तुलना करने पर मणिपुर के बाद हिमाचल का दूसरा स्थान आता है. असर 2014 ने हिमाचल प्रदेश के 12 जिलों के 339 गांवों के 3 से 16 साल के 9,808 बच्चों और 6,877 घरों में जा कर यह सर्वेक्षण किया था. इस के अलावा प्रदेश के 277 स्कूलों में जा कर वहां की आधारभूत सुविधाएं देखीं. हिमाचल प्रदेश के बहुत सारे जिले ऐसे हैं जिन में औसतन 12 या 13 बच्चे ही एक स्कूल में हैं. प्रदेश के जिला सिरमौर का जिक्र करें तो वहां पर 1,017 प्राइमरी स्कूल हैं जिन में से 307 स्कूल ऐसे हैं जिन में औसतन 12 बच्चे हैं जबकि पूरे प्रदेश में 10,484 प्राइमरी स्कूल हैं.

हिमाचल सरकार ने पहली बार प्राइमरी स्कूलों के लिए अंगरेजी मीडियम शिक्षा उपलब्ध करवा दी है. लेकिन 10,353 स्कूलों ने अंगरेजी मीडियम से पढ़ाने से हाथ खींच लिए हैं. मात्र 131 प्राइमरी स्कूल ही अंगरेजी मीडियम से पढ़ाने को तैयार हैं. अन्य स्कूलों ने अंगरेजी सिलेबस को शुरू करने पर हायतौबा मचा दी है. सरकारी स्कूलों में जब हिंदी में करवाए गए कार्य को ही छात्र नहीं कर पा रहे हैं तो अंगरेजी मीडियम में तो बच्चे कितना सीख पाएंगे, यह अंदाजा कोई भी लगा सकता है.

उद्देश्य से भटका अभियान

यह बात दीगर है कि सर्व शिक्षा अभियान से स्कूलों की काया पलटी है और उन में मूलभूत सुविधाओं का अंबार लग गया है. स्कूलों में रैंप, लाइट्स, किचन, लड़कियों के लिए शौचालय, बाउंड्रीवौल व अपंग बच्चों को होम बेस्ड एजुकेशन व छात्रों का फ्री मैडिकल चैकअप व छात्रों को आर्थिक मदद भी इसी अभियान से मिल रही है जिन को जरूरत है. परंतु इस अभियान ने शिक्षा की जड़ें बहुत खोखली कर दी हैं. शिक्षकों को उन के मूल उद्देश्य से भटका कर उन्हें कागजी कार्यवाही में उलझा कर रख दिया है. शिक्षक, शिक्षक न रह कर डाक सूचना मास्टर बन कर रह गया है जिस के चलते छात्रों का बौद्धिक स्तर गिरता जा रहा है. शिक्षक स्कूल की डाक बनाने में मस्त तो छात्र क्लास में हल्ला मचाने में मस्त व्यस्त रहते हैं. जब यह अभियान नहीं चला था तब शिक्षक अपने विषयों में तैयारी कर के कक्षा में जाते थे और वार्षिक परीक्षा से पहले पाठ्यपुस्तकों की 2 या 3 बार दोहराई हो जाती थी. तब न तो इतनी नकल होती थी, न ही नकल करवाने की नौबत आती थी. परंतु पिछले डेढ़ दशक से नकल करने व करवाने की प्रवृत्ति एक कोढ़ बन कर चंहुओर फैलती जा रही है.

स्कूलों में पहले ग्रामीण शिक्षा समिति का गठन किया गया था, फिर स्कूल प्रबंधन समितियों यानी एसएमसी. अब जिस शिक्षक को अपने अध्यापन के प्रति रुचि है वह भी एसएमसी के अध्यक्ष के समक्ष मजबूरी में शीश नवाता है. उसे उसी के अनुरूप चलना पड़ता है. शिक्षा को गर्त की ओर धकेलने में एनजीओज का भी कम हाथ नहीं है. शिक्षक अपनी क्लास का सिलेबस पूरा करवाएं या इन एनजीओज की किताबें पढ़ाएं. सर्व शिक्षा अभियान के तहत करोड़ों रुपयों की ऐसी ऊलजलूल पुस्तकों को छपवा दिया गया है जो स्टोररूमों में धूल फांक रही हैं. इस अभियान में जो नएनए प्रयोग किए जा रहे हैं उन का सकारात्मक असर कहीं नजर नहीं आता है. डाइट द्वारा हर वर्ष शिक्षकों के लिए जो कार्यशालाएं लगाई जाती हैं उन का नाममात्र ही लाभ होता है. अभी भी मौका है कि इस सर्वशिक्षा अभियान को बंद कर दिया जाए. वरना शिक्षा की हालत इतनी बदतर हो जाएगी कि बस में लगे रूटबोर्ड को भी अधिकांश छात्र नहीं पढ़ पाएंगे.

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