सियासी लोभ और आपसी तनातनी के बाद कभी टुकड़ों में बंटे जनता दल के कुनबे एक बार फिर से जुड़ गए हैं. महाविलय और महागठबंधन के नाम पर मुलायम सिंह यादव की अगुआई में बिखरे समाजवादियों ने एकजुट हो कर नरेंद्र मोदी को तगड़ी चुनौती दी है. पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद ही नरेंद्र मोदी के बढ़ते कदम और सियासी असर ने अलगअलग राज्यों में इलाकाई दलों के रूप में बिखरे हुए समाजवादियों को एकजुट होने के लिए मजबूर कर दिया था. अपने राजनीतिक वजूद को बचाने की लड़ाई लड़ रहे नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, एच डी देवगौड़ा और मुलायम सिंह यादव एक मंच पर आ कर मोदी को चुनौती देने का ऐलान कर चुके हैं. महागठबंधन की कामयाबी की उम्मीद इसलिए भी बढ़ गई कि मोदी का जादू शिखर पर पहुंचने के बाद अब ढलान की ओर चल पड़ा है. फरवरी महीने में दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को केवल 2 सीटें मिलने से महागठबंधन के पैरोकारों का हौसला बुलंद है.

महाविलय का पहला इम्तिहान नवंबर महीने में होने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव में होगा. इस मेलजोल के लिए नीतीश ही सब से ज्यादा बेचैन थे क्योंकि उस चुनाव के नतीजे यह साफ करेंगे कि नीतीश और लालू बिहार के सियासी अखाड़े में जमे रहेंगे या उन्हें बोरियाबिस्तर समेटना पड़ेगा. वैसे देश में कमजोर पड़ चुकी नरेंद्र मोदी की लहर से जनता दल परिवार के बीच खुशी और उम्मीद की लहर परवान चढ़ने लगी है. महागठबंधन की कामयाबी के लिए उस से जुड़े नेताओं को मोदी लहर से ज्यादा खुद अपने ही साथियों की महत्त्वाकांक्षाओं से खतरा होगा. महागठबंधन के तमाम नेताओं को खुद की पिछली गलतियों से सबक लेने की दरकार है क्योंकि जनता दल परिवार के नेताओं के बारे में यह मशहूर है कि वे मिलते हैं बिखरने के लिए.

मोदी के गिरते ग्राफ के बाद भी महाराष्ट्र, जम्मूकश्मीर, झारखंड और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली कामयाबी की वजह से महागठबंधन को कड़ी मेहनत की दरकार है. बिहार में इस साल के आखिर में और उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा के चुनाव होने हैं. इसी वजह से जनता दल को जिंदा कर नई सियासी ताकत बना कर नीतीश, लालू और मुलायम दरअसल अपने सियासी वजूद को बचाने की ही लड़ाई लड़ रहे हैं. लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान महागठबंधन की खिल्ली उड़ाते हुए कहते हैं कि देशभर में मोदी की आंधी चल रही है, ऐसे में महागठबंधन के नेताओं की हवा निकलनी तय है. आंधीतूफान के समय एकदूसरे से परहेज करने वाले भी जान बचाने के लिए एक ही छत के नीचे आ जाते हैं. महागठबंधन के नेताओं का ऐसा ही हाल है.

महागठबंधन में शामिल समाजवादी पार्टी के पास 5 सांसद, राष्ट्रीय जनता दल के खाते में 4, जनता दल यूनाइटेड, इंडियन नैशनल लोकदल और जनता दल सैकुलर की झोली में 2-2 सांसद हैं. यानी लोकसभा में इन की ताकत कुल 15 सांसदों की है. इन दलों को पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 7.1 फीसदी ही वोट मिले थे. पिछले लोकसभा चुनाव में कांगे्रस समेत सभी इलाकाई दलों का तंबू मोदी की आंधी से उखड़ चुका है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी तक सिमट कर 5 सीटों पर रह गई तो बिहार में जदयू 20 सीटों से गिर कर 2 सीटों पर सिमट गई. राजद को 4 सीटों से ही संतोष करना पड़ा और जनता दल (एस), सजपा, इनेलो की हालत तो पानी मांगने वाली भी नहीं रही. ऐसे में ये सभी दल मिल कर फिर से जनता दल परिवार के नाम पर एक छतरी के नीचे जमा हुए हैं.

नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे ही तय करेंगे कि बिहार के सियासी अखाड़े में नीतीश और उन के ताजाताजा दोस्त बने लालू यादव दोबारा अपना पैर जमा पाते हैं या नहीं. अगर विधानसभा चुनाव में इस महागठबंधन को कामयाबी नहीं मिलती है तो आगे उस की राजनीतिक मौत तय है. साल 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में मुलायम सिंह यादव गठबंधन से सब से पहले छिटकेंगे. वे अकेले दम पर चुनाव लड़ने में ज्यादा दिलचस्पी लेंगे. अब तक यही देखा गया है कि देश में नया गठबंधन, तीसरा मोरचा या नैशनल फ्रंट बनाने वाले सारे दलों की परेशानी यह है कि पूरे 5 सालों तक वे अपनी डफली अपना राग अलापते रहते हैं और चुनाव आते ही साथ मिल कर सियासी खिचड़ी पकाने लगते हैं. अगर कांगे्रस और भाजपा को सही में उन की औकात बतानी है तो पूरे 5 साल तक महागठबंधन को मजबूत करने और सभी को जोड़े रखने की जरूरत पड़ेगी. चुनावों से पहले एकता की कवायद हमेशा रेत की दीवार ही साबित हुई है.

गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव के पहले देश के 11 क्षेत्रीय दलों को मिला कर नया फं्रट बनाने की नाकाम कोशिश की गई थी. उस में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव, जनता दल (एस) के नेता एच डी देवगौड़ा, बीजू जनता दल के सुप्रीमो नवीन पटनायक, एआईएडीएमके की जयललिता और माकपा नेता प्रकाश करात जैसे क्षेत्रीय दबंग शामिल थे. सब से पहले 1977 में जयप्रकाश नारायण ने जनता दल का सपना देखा और उसे जमीन पर उतारा गया. कुरसी की खींचतान की वजह से यह दल जल्दी ही बिखर गया. उस के बाद कांगे्रस से नाराज हो कर बाहर निकले वी पी सिंह ने 1988 में फिर से जनता दल का गठन किया. 1989 में उस जनता दल को सत्ता तो मिली पर 1990 में चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने की लालसा हिलोरे लेने लगी और वे दल से अलग हो गए. 1992 आतेआते मुलायम सिंह यादव ने भी अपनी अलग राह पकड़ ली. साल 1994 में जौर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार ने भी अलग हो कर समता पार्टी बना ली. उस के बाद 1997 में लालू यादव ने अलग हो कर राष्ट्रीय जनता दल का झंडा बुलंद कर लिया.

साल 1998 में ओमप्रकाश चौटाला ने भी बायबाय कर दिया और जनता दल का किला पूरी तरह से ध्वस्त हो गया. पिछले 2 दशकों के दौरान जनता दल की ईंट बजाने वालों ने ही फिर से उस की बिखरी ईंटों को समेट और सहेज कर खड़ा किया है क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हार मिलने के बाद उन के पास और कोई चारा भी नहीं है. सियासी मजबूरी में ही सही, पर एक बार फिर से महागठबंधन बना कर एकजुट हुए जनता दल परिवार के सामने सब से बड़ी चुनौती अपने कुनबे को जोड़े रखना, नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाना और कांगे्रस व भाजपा विरोधी वोट को अपने पक्ष में गोलबंद करने की है.

इस के बाद ही वह अपने ऊपर लगे इस आरोप को झुठला सकता है कि महागठबंधन नई बोतल में पुरानी शराब भर नहीं है. भाजपा नेता और नीतीश सरकार में उपमुख्यमंत्री रह चुके सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि नीतीश कुमार की सोच और काम करने का ढर्रा केवल मतलब पर आधारित है. 17 साल तक भाजपा से गठबंधन रखने वाले नीतीश अकसर कहा करते थे कि उन्होंने बिहार में लालू यादव और उन के जंगलराज से बिहार की जनता को नजात दिलाने के लिए ही भाजपा से नाता जोड़ा है. आज अपनी सियासत बचाने के लिए उन्हीं लालू यादव की गोद में जा बैठे हैं, जिन्हें हटाने के लिए जंगलराज का हल्ला मचाया करते थे. जदयू के एमएलसी रणवीर नंदन कहते हैं कि बिहार में 10 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों ने बता दिया है कि पिछले 3 महीने में ही वोटर का मिजाज बदल गया है. अप्रैल में हुए आम चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 31 पर कब्जा जमा कर आसमान में उड़ रही भाजपा औंधे मुंह जमीन पर गिरी है. भाजपा की हार की वजह लालू और नीतीश की ताकत से ज्यादा खुद भाजपा की कमजोरी और भीतरघात रही. उपचुनाव में भाजपा को 2 सीटों का नुकसान हुआ तो जदयू और कांगे्रस को 1-1 सीट का फायदा मिल गया. राजद को अपनी 1 सीट गंवानी पड़ी.

उपचुनाव के नतीजों से साफ है कि नमो की लहर को बिहार के भाजपाई कायम नहीं रख पाए और उस के कई नेता अतिआत्मविश्वास के सागर में गोते लगाते हुए अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनने की होड़ में लगे रह गए. भाजपा को पूरा यकीन था कि नरेंद्र मोदी की लहर का असर विधानसभा चुनाव तक कायम रहेगा और लोकसभा की तरह बिहार में भी भाजपा को बहुमत मिल जाएगा. इसी खयालीपुलाव पकाने के चक्कर में सुशील मोदी, प्रेम कुमार, अश्विनी चौबे समेत कई नेता खुद को मुख्यमंत्री का बेहतर दावेदार बताने की होड़ में लगे रहे. उन्हें लालू और नीतीश के मिलन की ताकत का अंदाजा नहीं लग सका. उधर महागठबंधन को मिली जीत पर नीतीश कुमार कहते हैं कि बिहार की जनता ने भाजपा को आईना दिखा दिया है और उन्माद की राजनीति को दरकिनार कर सद्भाव की राजनीति में भरोसा जताया है, वहीं, भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि नीतीश कुमार जीत कर भी हार गए हैं. भाजपा के साथ थे तो वे ‘बड़े भाई’ की भूमिका में थे, पर लालू के साथ मिलने से उन्हें ‘छोटा भाई’ का दरजा मिला है. भाजपा को 2 सीटों का घाटा उठाने के सवाल पर मोदी कहते हैं कि यह तो नौकआउट मैच था, फाइनल मैच तो नवंबर में होगा. भाजपा की तैयारियों में कहां कमी रह गई, इस का आकलन कर नए सिरे से तैयारियों में जुटा जाएगा. फिलहाल 242 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में जदयू के 119, भाजपा के 88, राजद के 24, कांगे्रस के 5, सीपीआई के 1 विधायक समेत 5 निर्दलीय विधायक हो गए हैं.

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