‘फाइनल सोल्यूशन’, ‘ययाति’, ‘गुड डाक्टर’, ‘रक्तकन्या’, ‘अंतिम दिवस’ सहित ढेर सारे नाटकों में अभिनय करने के बाद 2007 में प्रदर्शित फिल्म ‘चक दे इंडिया’ से जब शिल्पा शुक्ला ने फिल्मों में कदम रखा था तो लगा था कि बौलीवुड को एक सशक्त अदाकारा मिल गई. मगर वैसा कुछ नहीं हुआ. पूरे 6 साल बाद वे एक ईरोटिक फिल्म ‘बीए पास’ में नजर आईं. इस फिल्म में अभिनय करते हुए शिल्पा शुक्ला ने काफी बोल्ड व इंटीमेट सीन दिए थे. उस वक्त उन्होंने कहा था कि उन के पति भी कला से जुड़े हुए हैं, इसलिए उन की और उन के पति की सोच में फर्क नहीं है. मगर बौलीवुड में चर्चाएं गरम हैं कि इस फिल्म के रिलीज के बाद उन के पति ने उन से दूरी बना ली. यह अलग बात है कि इस बात को वे सुनना पसंद नहीं करतीं.
फिल्म ‘चक दे इंडिया’ ने आप को जबरदस्त शोहरत दिलाई थी लेकिन उस हिसाब से आप को काम नहीं मिला, जिस हिसाब से मिलना चाहिए था?
मैं इस बात को सोचती ही नहीं हूं. मैं बहुत यात्राएं करती हूं. जहां भी जाती हूं, हर जगह लोग मुझे एक कलाकार के तौर पर पहचानते हैं. इस से बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है. तमाम कलाकार आतेजाते हैं, उन सब के बीच यदि मेरी पहचान बनी हुई है तो यह उपलब्धि कम नहीं है.
फिल्म ‘बीए पास’ की रिलीज के बाद किस तरह का रिस्पौंस मिला?
जो मैं ने सोचा था उस से कहीं ज्यादा अलग व बेहतर रिस्पौंस मिला. हमें समझ में आया कि हिंदुस्तानी दर्शक बहुत ज्यादा संजीदा हैं. हम ने बहुत ध्यान से फिल्म बनाई थी. फिल्म के रिलीज के बाद मुझे काफी इज्जत मिली. लोगों ने खुल कर बात की.
इस फिल्म के रिलीज से पहले आप ने कहा था कि इस के रिलीज के बाद आपराधिक प्रवृत्ति के लोग सुधरेंगे? क्या ऐसा हुआ?
मुझे ऐसा लगता है कि ऐसा जरूर हुआ होगा. यदि आप फिल्म के साथ अंत तक हैं तो आप की सोच बदलनी चाहिए. फिल्म की शुरुआत में जो पहले आप को सुंदर लग रही है या आप को लग रहा है कि वह रिझा रही है, वही बाद में गले की हड्डी बन जाती है. वह बला बन कर आप के गले में लटकती है. तो मुझे लगता है कि कोई भी इंसान किसी बला को अपने गले में लटकाना नहीं चाहता. यानी कि फिल्म में एक सकारात्मक संदेश के साथ समाज की कड़वी सचाई को पेश किया गया है.
‘बीए पास’ के बाद कौन सा कमैंट आप के दिल को छू गया?
बिहार के वैशाली जिले के मेरे पैतृक गांव से जब मुझे खबर मिली कि वहां सब मेरी फिल्म ‘बीए पास’ देख कर खुश हैं तो अच्छा लगा. एक अखबार के मेरे जानने वाले एक रिपोर्टर ने बताया कि गांव वालों का मानना है कि हम ने इस फिल्म में काम कर के उन सभी का नाम रोशन किया है. यह बात मेरे दिल को छू गई कि मेरे अपने लोग हमें अपना रहे हैं. लोगों ने आम्रपाली के साथ मेरा नाम लिया. यह मेरे लिए गौरव की बात थी. यह जरूरी होता है कि आप के घर के लोगों को फिल्म पहले पसंद आनी चाहिए.
क्या फिल्म के सीन या फिल्म के पात्र, कलाकार की निजी जिंदगी पर असर डालते हैं?
निजी स्तर पर, निजी जिंदगी पर असर होता है या नहीं, यह नहीं कह सकती. कला तो कला होती है पर अनुभव सालोंसाल जमा होते रहते हैं. हम अपनी जिंदगी के अनुभवों को कभीकभी किरदार के माध्यम से पेश भी करते हैं. मुझे लगता है कि हमारे अनुभव बैंक की तरह होते हैं. वे हमारी जिंदगी पर असर करते हैं. मैं ने पारिवारिक फिल्म ‘के्रजी कुक्कड़ फैमिली’ में काम किया, जिसे लोगों ने पसंद किया. इस फिल्म में इस बात को दिखाया गया कि किस तरह परिवार टूट रहे हैं. परिवार के सदस्य सिर्फ प्रौपर्टी के लिए ही एकदूसरे से संबंध रखते हैं. पर इन दोनों फिल्मों का मेरी जिंदगी पर कोई असर नहीं हुआ.
फिल्म ‘के्रजी कुक्कड़ फैमिली’ में दिखाया गया है कि बचपन के झगड़े बड़े होने पर भी असर डालते हैं. तो क्या आप मानती हैं कि बचपन की घटनाएं इंसान को कुंठाग्रस्त बना देती हैं?
इंसान की जिंदगी में बचपन में घटी घटनाओं का बहुत बड़ा हाथ होता है. बचपन की घटनाएं हम भूल जाते हैं या ध्यान नहीं देते हैं. लेकिन बचपन के जो अनुभव हैं, वे कभी न कभी इंसान की जिंदगी में अहम भूमिका निभाते ही हैं. इस फिल्म में दिखाया गया है कि समाज में प्रौपर्टी को ले कर बहुत झगड़े होते हैं जोकि कड़वा सच है. मैं जब भी दिल्ली जाती हूं तो हमें प्रौपर्टी को ले कर ही परिवार के सदस्यों के बीच झगड़े की कहानियां सुनने को मिलती हैं. भाई भाई से लड़ रहा है. घर के अंदर कोई औरत आई है, तो वह चाहती है कि जल्दी से बंटवारा हो जाए. पूरी दुनिया प्रौपर्टी को ले कर ही झगड़ती नजर आती है. प्रौपर्टी का जिक्र हुए बगैर कोई बात खत्म नहीं होती. यह हमारी जिंदगी का हिस्सा हो गई है.
समाज में आए बदलाव की वजह इंसान मटेरियलिस्टिक हो गया है या?
मुझे ऐसा लगता है कि हर इंसान सिर्फ अपने बारे में सोचने लगा है. आज एकाकी परिवार का चलन है. लोग बड़ों के बारे में सोचना भूल गए हैं. अब हर इंसान 30 साल की उम्र में अपने लिए मकान, शादी, गाड़ी आदि की योजना बना कर काम करने लगा है. यानी कि अब हर इंसान सोचने लगा है कि मेरे पास प्रौपर्टी, कपड़े ये सब हों. लोगों की इसी सोच के चलते संयुक्त परिवार टूटे. लोग अपनीअपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए संयुक्त परिवार से निकल गए. इसी के चलते बहुत बड़ा बदलाव आया है.
आप को नहीं लगता कि संयुक्त परिवारों में जो अनुशासन होता है उस में लोग रहना नहीं चाहते?
अनुशासन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संयुक्त परिवार में लोग अपने से कहीं ज्यादा दूसरों के बारे में सोचते थे, पर अब लोग सिर्फ अपने बारे में सोचने लगे हैं. एकाकी परिवार को मैं गलत नहीं कहती. पर एकाकी परिवार में पहले हम अपने बच्चे के बारे में, अपने बारे में सोचेंगे. मुझे लगता है कि हर चीज का फायदा व नुकसान है. मगर अब समय ऐसा आ गया है कि जो अच्छी चीजें हैं उन्हें हमेशा कायम रखना चाहिए.
पर सिनेमा से परिवार गायब हो चुका है?
सिनेमा में परिवार अपने तरीके से आता है. कुछ फिल्में शादियों पर बनती हैं. पर इंसानी जिंदगी व परिवार के अंदर की छोटीमोटी, खट्टीमीठी चीजों पर फिल्में नहीं बनतीं. हां, फिल्म ‘क्रेजी कुक्कड़ फैमिली’ में ऐसा परिवार पेश किया गया जो कई बरसों से गायब है. भाईबहन नजर नहीं आते. यदि नजर भी आते हैं तो उन्हें बड़े टिपिकल रूप से पेश किया जाता है. मुझे लगता है कि फिल्मों में ऐसा परिवार होना चाहिए जिस में भाईबहन हों क्योंकि उस से हर इंसान का बचपन जुड़ा होता है.
बीच में चर्चाएं थीं कि फिल्म ‘बीए पास’ की रिलीज के बाद आप और आप के पति के बीच अलगाव हो गया? इस में क्या सचाई है?
मैं निजी जिंदगी को ले कर कोई चर्चा नहीं करना चाहती. पर ऐसा कुछ नहीं है. मैं उन के साथ एक नाटक कर रही हूं. इस का निर्देशन वे ही कर रहे हैं और मैं उस में अभिनय कर रही हूं. देखिए, फिल्मों का असर नहीं होता. हम दोनों बचपन के दोस्त हैं और दोस्त ही हैं. वे दिल्ली में रहते हैं और मैं मुंबई में रहती हूं, लेकिन मैं अपनेआप को शादीशुदा, आदमीऔरत, पतिपत्नी की कैटेगरी में नहीं डालना चाहूंगी. हम दोनों कलाकार हैं. अभिनय हम दोनों की जिंदगी के हिस्से हैं. पर हम दोनों के बीच कुछ भी कौंपलीकेटेड नहीं है.
क्या सिनेमा में देश व समाज को बदलने की ताकत है?
नहीं. मैं इसे इस तरह से नहीं देखती. मेरा मानना है कि सिनेमा समाज को सोचने पर मजबूर करने की ताकत रखता है. सिनेमा के पास इतनी ताकत है कि वह दर्शक को सोचने पर मजबूर कर देता है. दर्शक सिनेमा देख कर ज्यों का त्यों अपने अंदर नहीं डालता है, बल्कि उस का ज्ञान कुछ न कुछ बढ़ता जरूर है.
निजी जिंदगी में आप सैक्स और पैसे को कितनी अहमियत देती हैं?
मेरी सोच बहुत अलग है. मेरा मानना है कि इन चीजों को दबाने से विकृति पैदा होती है. इस से किसी भी समस्या का हल नहीं निकलता. सैक्स को ले कर किस ढंग से बात की जाती है, किस तरह से लोगों को बताया जाता है, यह महत्त्वपूर्ण है. सैक्स और पैसे को ले कर मेरी जो सोच है उस पर तो मैं 6 पन्ने लिख सकती हूं. मैं मानती हूं कि जीवन में सैक्स और पैसा दोनों महत्त्वपूर्ण हैं. लोगों की जिज्ञासा को मैच्योरिटी के साथ शांत किया जाना चाहिए ताकि इंसान की जिज्ञासा खुद को नुकसान न पहुंचाए, खुद को बरबाद न करे. यदि हम किसी चीज को बारबार मना करते हैं और कहते हैं कि यह गलत है, तो उस के परिणाम अच्छे नहीं निकलते हैं.