जयपुर जाने के लिए मेरे पति स्टेशन पर छोड़ने आए, मेरे साथ मेरी 3 साल की बेटी और कुछ सामान था. एक ट्रेन आई, पतिदेव ने कहा, ‘‘तुम बच्ची को ले कर चढ़ो, मैं टिकट ले कर आता हूं.’’ अभी मैं ठीक से बैठ भी नहीं पाई कि ट्रेन से चल पड़ी. मैं ने देखा, मेरे पति जोरजोर से कुछ कह रहे हैं. मगर मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया. लेकिन लोगों की बातचीत से मुझे अंदाजा लगा कि यह ट्रेन जयपुर नहीं, जोधपुर जा रही है. अब तो मैं और डर गई. जयपुर स्टेशन पर मुझे मेरे रिश्तेदार लेने आने वाले थे ट्रेन में जो लोग बैठे थे उन से बातोंबातों में कई बातें पूछीं लेकिन यह जाहिर नहीं होने दिया कि मैं बिना टिकट हूं, गलत ट्रेन में हूं और ऊपर से अकेली. जब मेड़ता सिटी स्टेशन आया तो मैं बच्ची को ले कर उतर गई. वहां से जयपुर का टिकट लिया. 3 घंटे बाद ट्रेन आई. उस में बहुत भीड़ थी. जैसेतैसे बच्ची को चढ़ाया, सामान को ट्रेन में घुसाया और फिर खुद चढ़ी. ट्रेन हर स्टेशन पर रुक रही थी. किसी तरह रात तक जयपुर पहुंची.
नोखा से आने वाली ट्रेन में मेरे रिश्तेदार मुझे ढूंढ़ढूंढ़ कर परेशान हो गए थे. थकहार कर रात में एक बार फिर वे प्लेटफौर्म पर आए. तभी मैं ट्रेन से उतरी. जुलाई की गरमी में बच्ची का हाल बेहाल था. मैं ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं हूं. मगर उस सफर ने मुझ में आत्मविश्वास कूटकूट कर भर दिया.
गट्टानी उमा, जोरहाट (असम)
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घटना मेरी आंखों देखी है. रेलगाड़ी एक स्टेशन पर रुकी. वहां से एक सभ्य परिवार अपने सामान के साथ चढ़ा और अपनी रिजर्व सीटों की ओर बढ़ा. वहां पहले से ही एक परिवार सामान के साथ बैठा था. ‘‘हटाइए ये सामान और हमारी सीटें खाली करिए,’’ कहते हुए वे लोग अपनी सीटों पर बैठ गए. थोड़ी देर बाद उस परिवार के एक सदस्य ने बातचीत का सिलसिला शुरू करने के लिए सामने बैठे परिवार वालों से पूछा, ‘‘आप लोग कहां से कहां तक यात्रा कर रहे हैं और कहां के रहने वाले हैं?’’
उन्होंने सब बताया. जहां ये लोग शादी में जा रहे हैं वहीं वे भी जा रहे थे.
‘‘आप हमारे मामाजी को जानते हैं?’’
‘‘हां, हमारे मम्मीपापा अकसर नाम लिया करते हैं लेकिन मिले नहीं.’’
अब क्या था, जब बातों और पहचान का सिलसिला आगे बढ़ा तो पता लगा कि वे एक ही खानदान के बिलकुल करीब हैं, ‘‘अरे, आप हमारी खास बुआजी हैं और आप हमारे खास चाचाजी हैं.’’
‘‘अरे, हम सब तो अपने ही हैं,’’ और सब खिलखिला कर हंस दिए.
सरन बिहारी माथुर, दुर्गापुर (प.बं.) द्य