अगली
यह डार्क फिल्म हर किसी के मतलब की नहीं है, पर इस का मजा और ही है. जो इसे पचा सके, वे इस फिल्म को बहुत सराह सकते हैं. ‘अगली’ पूरी तरह से अनुराग कश्यप टाइप की फिल्म है. उन्होंने ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ फिल्म से दर्शकों में अपनी खासी पैठ बना ली है. ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ डार्क शेडेड फिल्में ही बनाते हैं. बतौर निर्माता ‘लव शव ते चिकन खुराना’ में उन्होंने दर्शकों को अपनी अलग ही प्रतिभा दिखाई.
वैसे ‘अगली’ फिल्म इतनी ज्यादा अगली यानी गंदी भी नहीं है. पूरी फिल्म 10 साल की एक बच्ची की किडनैपिंग और पुलिस की तहकीकात पर आधारित है. कहानी मुंबई शहर की है, जहां एसीपी शौमिक बोस (रोनित राय) अपनी पत्नी शालिनी (तेजस्विनी कोल्हापुरे) के साथ रहता है. शौमिक से पहले ऐक्टर राहुल कपूर (राहुल भट्ट) शालिनी का पति था. उन की बेटी कली (अंशिका श्रीवास्तव) है. दोनों के बीच तलाक हो गया था. शौमिक ने शालिनी का फोन सर्विलांस पर लगा रखा है. राहुल कपूर अपनी बेटी कली से हर शनिवार मिलने आता है. एक शनिवार वह कली को साथ ले कर अपने दोस्त कास्ंटग डायरैक्टर के घर जाता है. लेकिन वह कली को ऊपर साथ नहीं ले जाता और कार में अकेला छोड़ जाता है. वापस लौटने पर कली गायब हो चुकी होती है. अब हर पात्र इस किडनैपिंग, पुराने गिलेशिकवे या आर्थिक लाभ उठाने की कोशिश करता है. एसीपी शौमिक को लगता है कि कली का अपहरण राहुल कपूर ने ही कराया है. शालिनी भी ऐसा ही मानती है. शौमिक तहकीकात शुरू करता है.
फिरौती की रकम मांगने वालों में शालिनी का भाई सिद्धांत यानी लड़की का मामा और राहुल का ही दोस्त चैतन्य और उस की डांसर गर्लफ्रैंड राखी (सुरवीन चावला) हैं. लेकिन कली फिर भी नहीं मिलती. शालिनी चाहती है कि फिरौती का पैसा उस का पिता दे दे और राहुल का दोस्त चैतन्य कहता है कि शालिनी का नया पति पुलिस अफसर पैसों का इंतजाम करे. इन दोनों के पास कली है या नहीं, यह अंत में पता चलता है. अंत में कली की लाश मिलती है जिसे किसी बच्चे उठाने वाले गैंग ने उठाया था और उसे बेहोश कर छोड़ दिया था. तब उसे महसूस होता है कि कली को बचाया जा सकता था. हालांकि कहानी का कोई सिरपैर नहीं है पर है भी क्योंकि यह तलाकशुदा पतिपत्नी राहुल और शालिनी, नए पतिपत्नी शालिनी और पुलिस अफसर शौमिक, क्लासमेट रहे शौमिक और राहुल, राहुल और उस के दोस्त चैतन्य, शालिनी और उस के भाई सिद्धांत, शालिनी और सिद्धांत के अमीर पिता के संबंधों का रोचक पर कड़क चित्रण करती है. जीवन के काले रंग कितने गहरे और कितने वीभत्स हो सकते हैं, इन्हें रोचक ढंग से फिल्माया गया है. अनुराग कश्यप ने पुलिस तहकीकात से सोचसमझ वाले दर्शकों को कुछ हद तक बांधे रखा है और सस्पैंस बनाए रखा है. एक कड़क पुलिस अफसर की भूमिका में रोनित राय ने बहुत बढि़या ऐक्ंटग की है. तेजस्विनी कोल्हापुरे और राहुल भट्ट ने भी अच्छा काम किया है. सुरवीन चावला ने छोटी सी भूमिका में सैक्सी अदाएं बिखेरी हैं. यह फिल्म बहुत कम पैसों में, लगभग 5 करोड़ रुपए में बनी है, इसलिए इस में ज्यादा ताम झाम नहीं है. फिल्म के क्लाइमैक्स में एक कविता सुनाई पड़ती है. पूरी फिल्म में हिंसात्मक दृश्य भरे पड़े हैं. इन से बचा जा सकता था.
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टेक इट ईजी
यह फिल्म बच्चों पर बनी है पर बच्चों से ज्यादा मातापिताओं के मतलब की है और सच कहें तो उन की आंखें खोलने वाली फिल्म है. लेकिन इस से उन्हें कोई सीख मिलेगी, यह भूल जाइए. साथ ही यह आज के पब्लिक स्कूल और पांचसितारा कहलाए जाने वाले स्कूलों को कोसती भी नजर आती है. आज मातापिता अपने बच्चों पर हर वक्त यह प्रैशर बनाए रहते हैं कि उन्हें फर्स्ट आना है, 95 प्रतिशत मार्क्स लाने हैं. वे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को बच्चों पर थोपते नजर आते हैं. बच्चे को बड़ा हो कर क्या बनना है, यह मांबाप तय करते हैं. एक बार अगर बच्चा फर्स्ट आ भी जाता है तो मम्मीपापा हर बार उस से फर्स्ट आने की उम्मीद लगाए रहते हैं. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि सुपीरियर और इन्फीरियर का यह कंपीटिशन मासूमों के दिलों में नफरत भी भर सकता है.
मातापिताओं को सीख देने वाली ऐसी ही कुछ और फिल्में पहले भी आ चुकी हैं. इन में आमिर खान की ‘तारे जमीं पर’ और शाहिद कपूर की ‘पाठशाला’ प्रमुख थीं. इस फिल्म के निर्देशक ने बेशक एक अच्छा विषय चुना है लेकिन अनुभवहीन कलाकारों के अभिनय और फिल्म को पेश करने के ढंग के कारण फिल्म का कुछ हिस्सा ही दर्शकों को बांधे रखता है, खासकर फिल्म का आखिरी आधे घंटे का हिस्सा. क्लाइमैक्स में मातापिताओं को जो सीख दी गई है उस में लफ्फाजी ज्यादा है. फिर भी ‘टेक इट ईजी.’ एक बार इसे देख लें. फिल्म की कहानी 2 स्कूली बच्चों रघु (यश धानेकर) और अजय (प्रसाद रेड्डी) की है. वे एक पांचसितारा अंगरेजी स्कूल में पढ़ते हैं. रघु के पिता आजाद (राज जुत्शी) अपने जमाने के प्रसिद्ध ऐथलीट थे. वे 4 बार एशियाड चैंपियन रह चुके थे, अब अपाहिज हैं. रघु को अपने पिता की वजह से उस स्कूल में ऐडमिशन मिला है. वे रघु को भी ऐथलीट बनाना चाहते हैं. अजय के पिता एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करते हैं. अजय पर हर वक्त क्लास में प्रथम आने का प्रैशर रहता है.
एक दिन रघु और अजय स्कूल के खेल के मैदान में आमनेसामने होते हैं. दोनों रेस में फर्स्ट आना चाहते हैं. अगर रघु रेस जीतता है तो उसे और उस की बहन को स्कूल में आगे पढ़ने दिया जाएगा. और अगर अजय रेस जीतता है तो उसे स्कौलरशिप मिलेगी. स्कूल की चेयरपर्सन (सुप्रिया कार्निक) किसी भी कीमत पर रघु को हारते हुए देखना चाहती हैं. वह अजय के मांबाप पर उस के जीतने का प्रैशर बनाती है. रेस शुरू होती है. बचपन से ही कमजोर दिल वाला रघु ट्रैक पर गिर पड़ता है लेकिन रेस में शामिल सभी अन्य प्रतियोगी छात्र रघु को कंधों पर उठा कर रेस पूरी कर एक मिसाल कायम करते हैं. मध्यांतर से पहले फिल्म में रघु और अजय के परिवार वालों का अपने बच्चों पर प्रथम आने का हर वक्त दबाव बनाए रखना ही दिखाया गया है. असली कहानी तो मध्यांतर के बाद शुरू होती है. लेकिन यहां छात्रों द्वारा रामलीला का मंचन करना और उस में उलटेसीधे संवाद बोलना निर्देशक का विषय से हट जाना दर्शाता है. निर्देशक ने मांबाप की दिक्कतों को भी दिखाया है. अजय के पिता अपने बेटे को एस्ट्रोनौट बनाना चाहते हैं. दूसरी ओर एक नाकाम ऐथलीट अपने बेटे के जरिए अपने सपने सच करना चाहता है.
निर्देशक ने क्लाइमैक्स में रेसिंग ट्रैक पर दोनों प्रतिस्पर्धी बच्चों को दौड़ाया जरूर है लेकिन वह फिल्म में वैसा टैंपो पैदा नहीं कर पाया है जो ‘भाग मिल्खा भाग’ में था. अभिनय की दृष्टि से कहें तो बच्चे अभिनय के कच्चे हैं. बड़े कलाकार भी असर नहीं छोड़ पाते. गीतसंगीत तो मानो है ही नहीं. छायांकन अच्छा है.
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बदलापुर बौयज
बौलीवुड में हौकी, क्रिकेट, मुक्केबाजी, फुटबाल जैसे जानेमाने खेलों पर कई फिल्में बन चुकी हैं, मगर आज तक कबड्डी पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. देश में इस साल कबड्डी लीग प्रीमियर का आयोजन होने पर बौलीवुड वालों का ध्यान इस पर केंद्रित हुआ और फटाफट ‘बदलापुर बौयज’ जैसी बेसिरपैर की फिल्म बना डाली गई. बेशक यह कबड्डी पर बनी पहली फिल्म है लेकिन इसे इतने ज्यादा बचकाने तरीके से बनाया गया है कि यह दर्शकों पर प्रभाव नहीं छोड़ पाती. ‘बदलापुर बौयज’ 2009 में आई तमिल फिल्म ‘वेनिल्ला कबड्डी खुजू’ की रीमेक है. अन्य खेलों की तरह कबड्डी के खेल में भी राजनीति की घुसपैठ को इस फिल्म में प्रमुखता से दिखाया गया है. लेकिन फिल्म की पटकथा और कबड्डी टीम के कमजोर किरदारों के कारण फिल्म बेअसर है. फिल्म की कहानी एक गांव बदलापुर से शुरू होती है. वहां के लोग जिला कलैक्टर से नहर खुदवाने की मांग कर रहे हैं. गांव का एक आदमी जिला प्रशासन के विरोध में आत्मदाह कर लेता है. उस का 5 साल का बेटा विजय (निशान) एक जमींदार के यहां काम करने लगता है.
विजय को कबड्डी खेलने का शौक है. एक दिन गांव में राष्ट्रीय कबड्डी कोच सूरजभान सिंह (अन्नू कपूर) का आना होता है. वह विजय को कबड्डी खेलते देखता है तो उस से प्रभावित होता है. एक दिन गांव की फिसड्डी कबड्डी टीम को एक टूर्नामैंट खेलने के लिए इलाहाबाद जाना पड़ता है. किसी तरह कबड्डी टीम को टूर्नामैंट में एंट्री मिल जाती है. कोच सूरजभान सिंह इस गांव की टीम का कोच बन जाता है. यह टीम फाइनल तक पहुंच जाती है. विजय का एक ही लक्ष्य है कि बदलापुर की टीम जीते और वह मुख्यमंत्री के करीब जाए और गांव की नहर वाली फाइल उन तक पहुंचाए. आखिरकार बदलापुर की टीम जीत जाती है लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है. गंभीर चोट लगने के कारण विजय की मौत हो जाती है. मरतेमरते विजय अपनी बात मुख्यमंत्री तक पहुंचा ही जाता है.
फिल्म में सिवा अन्नू कपूर और अमन वर्मा के सभी कलाकार नए हैं. निर्देशक उन से सही ढंग से काम नहीं ले पाया है. क्लाइमैक्स में भी सिवा ड्रामे के कुछ नहीं है. निर्देशक कबड्डी के खेल में घुसी राजनीति को भी असरदायक ढंग से नहीं दिखा सका है. गीतसंगीत बेकार है. छायांकन ठीकठाक है.