भारतीय जनता पार्टी की लगातार जीतों ने कांगे्रस और दूसरी पार्टियों के लिए सवाल खड़े कर दिए हैं कि क्या वे अब अनावश्यक हो गई हैं? क्या भारतीय जनता पार्टी का हिंदूवादी फार्मूला देश की आम जनता को भाने लगा है? क्या नीची पिछड़ी जातियों और गरीबों को अब न्याय की चाहत नहीं रह गई है? कांगे्रस और उस के बाद दूसरी पार्टियां अगर राज कर रही थीं तो इसलिए नहीं कि उन के राज में सुखचैन था. सुखचैन का राजनीतिक दंगल यानी चुनाव में जीत से बहुत कम लेनादेना है. अच्छा शासन चलाने के लिए जो कठोर कदम उठाने पड़ते हैं वे आमतौर पर औरों को तो नहीं, मगर कम से कम सहयोगियों और मातहतों को जरूर नहीं भाते और अच्छे काम करने वाले नेता असफल हो जाते हैं.

चुनावों में जीत के लिए बातें बनाना जरूरी है, लोगों की भावनाएं भड़काना जरूरी है और सब से बड़ी बात, चुनाव जीतने के लिए मशीनरी बनाना जरूरी है. कांगे्रस ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो मशीनरी गांवगांव में बनाई थी उस ने बहुत फल दिया. गांवों के पढ़ेलिखे, उच्चवर्गीय, मध्यवर्ग ने कांगे्रस का पल्लू पकड़ा कि उन्हें अंगरेजी राजाओं से मुक्ति मिलेगी और बाद में अफसरशाही व कांग्रेस ने उन के इस सपने को पूरा किया. नतीजतन, कांगे्रस गिरगिर कर भी उठ कर उड़ानें भरती रही. पर कांगे्रस पिछड़ी जातियों के सक्षम होने का अंदाजा नहीं लगा पाई और पिछड़ों को जब लगा कि मध्यवर्ग कांगे्रस की मुट्ठी में है, जबकि निचलों के पास कांगे्रस के अलावा कोई चारा नहीं, तो उन्होंने अपने दल बना लिए. जनता परिवार इसी की देन है जो नई उभर रही जातियों को अपने पल्लू में बांध पाया.

आज स्थिति बदल गई है. नई पीढ़ी के लिए 1947 के पहले की बात केवल पाठ्यपुस्तकों तक रह गई है. उसे नए मुद्दे चाहिए. उच्च और मध्यवर्ग को न पिछड़ों से हमदर्दी है, न निम्न से. अब इस उच्च और मध्यवर्ग में भारी संख्या में पिछड़ी जातियों के नए किसानों, दुकानदारों, कारखाना मालिकों के बेटेबेटियां शामिल हो गए हैं जो जाति के कहर के शिकार नहीं रहे और जाति के नाम पर संघर्ष करने की उन्हें जरूरत भी नहीं. इस वर्ग को अपना ठौर चाहिए था जो भारतीय जनता पार्टी ने आधुनिक संचार माध्यमों, इंटरनैट, सोशल मीडिया, ट्विटर, फेसबुक से दिया. ऊंचे लोगों की पार्टी कांगे्रस, पिछड़ों के कम पढ़ेलिखे जनता दलों और निचलों की पार्टियों को न तो नई सामाजिक व्यवस्था का एहसास है और न ही उन्होंने इसे समझने की कोशिश की है.

आज की पीढ़ी ने जाति और धर्म को गले भी लगा रखा है सिर पर भी बैठा रखा है क्योंकि वह उसे कवच लगता है. उसे सामाजिक मुद्दों की नहीं, अपने मुद्दों की चिंता है. भारतीय जनता पार्टी ने युवाओं के मुद्दे सीधे तो नहीं लिए पर युवाओं को धर्म की ओर हांकने में सफलता पाई है और वही, नया मुद्दा बन गया है. यह न भूलें कि पश्चिमी एशिया में युवा धर्म के नाम पर खुलेआम, गर्व से हथियार उठा रहे हैं. और तालिबानियों में शिक्षितों, विशेषज्ञों व सफल व्यापारियों, प्रबंधकों की कमी नहीं है. वहां घरों से विमुख हो रहे युवाओं को जिस तरह नौकरियों की जगह धर्म का जोखिम वाला जिहाद पसंद आ रहा है, उसी तरह यहां, धार्मिक यात्राएं, कांवडि़ए बनना, हल्ला बोल गुट बनाना आदि चुनौतीभरा लगता है.

कांगे्रस और निचलों व पिछड़ी जातियों के पुराने दल अब उबाऊ, लकीर के फकीर ही नजर आ रहे हैं. उन का होना न होना बेमतलब सा होता जा रहा है.

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