70 के दशक में ‘विदेशी हाथ’ का जुमला बहुत प्रसिद्ध हुआ था. हर समस्या के पीछे इंदिरा गांधी विदेशी हाथ बताती थीं और विपक्षी दल उन का खूब मजाक उड़ाया करते थे. पिछले कुछ समय से देश में छाया ‘कालाधन’ का मुद्दा भी अब ‘विदेशी हाथ’ की तरह का जुमला बनता जा रहा है.

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद संभालने से पहले जनता महंगाई, भ्रष्टाचार, सुरक्षा जैसी समस्याओं के चलते आक्रोशित थी. कुछ इसी तरह इंदिरा गांधी के उस वक्त के कार्यकाल के दौरान देश में विभिन्न स्तरों पर देशवासियों में असंतोष व्याप्त था. इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भी लोगों में कई स्तरों पर गुस्सा भरा था. महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा की समस्याएं थीं. ऊपर से कामराज, मोरारजी देसाई, राम मनोहर लोहिया जैसे नेता इंदिरा गांधी के लिए समस्या खड़ी कर रहे थे. कांग्रेस में गुटबाजी होने लगी थी. देश में अमीरी और गरीबी के बीच खाई पैदा होती जा रही थी. धर्म, जाति, प्रांत, भाषा और आर्थिक विषमता के कारण लोग तबकों में बंट गए थे. आंदोलनों में हिंसा बढ़ने लगी थी.

1967 के आम चुनाव होने वाले थे. विपक्ष ने आंदोलन की शुरुआत कर दी थी और चुनाव के वक्त कांग्रेस में अंतर्कलह चरम पर थी. ऐसे में इंदिरा गांधी ने ‘विदेशी हाथ’ का नया जुमला उछाला जो काफी वक्त तक चला. आज कालेधन को ले कर वैसी ही स्थिति देखी जा रही है. पिछले दिनों आंदोलन, यात्राएं, धरने, प्रदर्शन हुए और दिल्ली सरकार के खिलाफ जनाक्रोश देखा गया. बढ़ते दबाव के चलते पहले संप्रग सरकार और अब राजग सरकार ने कालेधन के खिलाफ जो कार्यवाही शुरू की है उस से  यह साफ दिखाईर् दे रहा है कि यह एकदम धीमी रफ्तार व दिखावटी है.

जो कुछ कार्यवाही हो रही है, वह सुप्रीम कोर्ट के डंडे  के डर की वजह से है. दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच आरोपप्रत्यारोप चल रहे हैं. जो भाजपा, आज केंद्र की सत्ता में है, वह पहले वाली संप्रग सरकार को कालेधन के मामले में आएदिन कोसती रहती थी. वही अब सत्ता में आने के बाद खामोश हो गई और कांग्रेस सरकार की तरह कालाधन रखने वालों की रक्षक बनी दिख रही है. फिर भी मोदी कालेधन की वापसी का राग छेड़े हुए हैं. भाजपा कालेधन के प्रति गंभीर नहीं है और न ही ईमानदारी से कालेधन की रोकथाम करने में उस की रुचि है. यह उस के लिए जनता को बरगलाने का महज सियासी मुद्दा है, जिसे जबतब उठा कर सरकार मजा ले रही है.

पुराना है मामला

कालेधन का मामला नया नहीं है. देश में ब्रिटिश शासन के दौरान ‘अंडरग्राउंड इकोनौमी’ और ‘ब्लैकमनी’ को रोकने व टैक्स संग्रह में वृद्धि करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए कई प्रयासों और 1936 में बनी आइरस कमेटी का जिक्र है. आजादी के बाद भारत से कालाधन बाहर जमा कराने का सिलसिला खुल कर शुरू हुआ और आर्थिक उदारीकरण नीतियों के लागू होने के बाद तो कालेधन का प्रवाह बढ़ता ही चला गया. पिछले 2 दशकों में सरकारों, कौर्पोरेट, नौकरशाही और बिचौलियों के गठजोड़ से भ्रष्टाचार, दलाली, रिश्वत और टैक्स चोरी के धन में बढ़ोतरी हुई. कालेधन की गंगोत्तरी उफनने लगी. रिपोर्टें बताती हैं कि कालेधन के मामले में भारत दुनिया के शीर्ष 5 देशों में है.

भारत का कितना कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है, किसी के पास आधिकारिक आंकड़ा नहीं है, अलगअलग सर्वे, जांच और आकलन के अलगअलग दावे हैं.

आंकड़ों की उलझन

लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कालेधन के जुमले को खूब उछाला. वे चुनावी सभाओं में कहते थे कि यह राशि इतनी है कि हर भारतीय के हिस्से में 15 से 20 लाख रुपए आ सकते हैं. ‘फाइनैंशियल फ्लोज फ्रौम डैवलपिंग कंट्रीज : 2002-2011’ रिपोर्ट के अनुसार, भारत 343.04 बिलियन डौलर के साथ साल 2002-2011 के बीच अवैध पूंजी का 5वां सब से बड़ा निर्यातक देश रहा है. 2011 में यह तीसरे स्थान पर आ गया. इस वर्ष 84.93 बिलियन डौलर धन और विदेश गया. वाशिंगटन स्थित थिंक टैंक ‘ग्लोबल फाइनैंशियल इंटिग्रिटी’ के अनुसार, भारतीयों ने 1948-2008 के बीच करीब 213 अरब डौलर टैक्सहैवन देशों में छिपाए.

स्विस बैंकिंग एसोसिएशन की 2006 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत का 1,456 बिलियन डौलर जमा है. एसआईटी के मुताबिक, 2002 से 2011 के बीच भारत में 3,43,922 मिलियन डौलर कालाधन था. एसआईटी की रिपोर्ट के अनुसार, 2006 से 2011 के  बीच कालेधन के लेनदेन में बड़े पैमाने पर तेजी आई. फरवरी 2012 में तब के सीबीआई निदेशक ए के सिंह ने संपत्ति रिकवरी और भ्रष्टाचार के खिलाफ पहले इंटरपोल ग्लोबल प्रोग्राम में बोलते हुए कहा था कि विदेशी बैंकों में भारतीयों का 500 बिलियन डौलर कालाधन जमा है. मार्च 2012 में सरकार ने संसद में कहा था कि सीबीआई का यह बयान एक अनुमान के आधार पर था. कोई तो यह कह रहा है यह धन विदेशी कर्ज से 13 गुना ज्यादा है.

चुनावी मुद्दा

जनता में इस के प्रति आक्रोश बढ़ने लगा तो भाजपा ने इसे अपना चुनावी मुद्दा बना लिया. लोकसभा चुनावों में भ्रष्टाचार के साथसाथ कालेधन को देश में वापस लाना भाजपा का बड़ा चुनावी मुद्दा था. इस से पहले रामदेव और अन्ना हजारे आंदोलन के जरिए कालाधन वापस लाने की मांग कर चुके थे.  2009 में पूर्व कानून मंत्री एवं नामी वकील राम जेठमलानी व कुछ दूसरे लोग सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिका दे कर कालेधन की जांच करने और इसे रोकने के उपाय करने की गुहार लगा चुके थे. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच टीम (एसआईटी) के गठन का आदेश दिया और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बी पी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में कालेधन की जांच के लिए एसआईटी बनाई गई. तय हुआ कि यह टीम सीधे सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट करेगी, बीच में कोई एजेंसी शामिल नहीं होगी.

लेकिन संप्रग सरकार ने इस का विरोध किया और कहा कि इस पर उच्च स्तरीय समिति काम कर रही है. इस दौरान ब्लैकमनी की जांच का काम धीरेधीरे चलता रहा. मई 2012 में संप्रग सरकार ने कालेधन पर श्वेतपत्र प्रकाशित किया था और

इसमें रोकथाम के प्रयासों की बात कही गई थी लेकिन कुछ नहीं हुआ. बाद में मोदी सरकार ने पदभार संभालते ही कालेधन का पता लगाने के लिए विशेष जांच टीम (एसआईटी) के गठन का ऐलान किया. मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त जज एम बी शाह की अध्यक्षता में एसआईटी बना दी गई.

ढीली पड़ी सरकार

लेकिन पहले संप्रग और अब राजग सरकार का ढीलाढाला, टालू रवैया स्पष्ट दिखाई देने लगा. इस रवैए पर सरकार को सुप्रीम कोर्ट की लताड़ सुननी पड़ी. सुप्रीम कोर्ट ने कालेधन पर सख्त रुख अपनाते हुए केंद्र सरकार से विदेशी बैंकों में खाता रखने वाले सभी लोगों के नाम बताने को कहा. मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू, रंजना प्रकाश देसाई और मदन बी लाकुर की विशेष बैंच ने कहा कि हम अपने 4 जुलाई के आदेश में एक शब्द भी नहीं बदलेंगे. केंद्र को सभी नाम बताने होंगे. कोर्ट ने कहा, ‘‘मई में जब आप ने सरकार बनाई थी तो हमें अच्छा लगा था कि तुरंत एसआईटी गठित कर दी गई. मगर अब आप नाम न खोलने की अर्जी दायर कर रहे हैं तो 2 या 3 नाम, ऐसा नहीं चलेगा.’’ सरकार ने अन्य नाम छिपाने का प्रयास करते हुए डाबर कंपनी के पूर्र्व निदेशक प्रदीप बर्मन, पंकज लोढिया और गोआ की खनन कंपनी टिंब्लो प्राइवेट लिमिटेड की राधा टिंब्लो, रोशन टिंब्लो, अन्ना टिंब्लो व मल्लिका आर टिंब्लो के नाम ही बताए थे.

गोआ की खनन कंपनी पर आरोप है कि इस की मालकिन राधा टिंब्लो ने कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों को लाखों रुपए का चंदा दिया था. सरकार ने फ्रांस से मिली 627 नामों की सूची को दबाने और नाम उजागर करने के लिए भी टालमटोल की कोशिश की. वर्ष 2011 में संप्रग सरकार को फ्रांस सरकार से 627 लोगों की एक सूची मिली थी. यह सूची एचएसबीसी बैंक के एक कर्मचारी ने 2006 में जेनेवा स्थित ब्रांच से चुराई थी. कहा गया कि ये नाम फ्रांस से एक संधि के तहत भारत के पास आए, जिस के मुताबिक जानकारी सिर्फ एजेंसियों और अदालत तक ही सीमित रहनी चाहिए.

नाम पर सस्पैंस

लिहाजा, एनडीए सरकार के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी कहा कि सरकार उन लोगों के नाम उजागर नहीं कर सकती जिन के नाम सूची में हैं क्योंकि इस से उन देशों के साथ हुई संधि का उल्लंघन होगा. इस पर लोगों में तो गुस्सा फैला ही, सुप्रीम कोर्ट की भौंहें भी तन गईं. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के अटौर्नी जनरल मुकुल रोहतगी से नाम बताने को कहा तो अटौर्नी जनरल ने भी यही कहा कि नाम बताने से उन देशों के साथ हुई संधि का उल्लंघन होगा. लेकिन कोर्ट ने सरकार का हर तर्क खारिज करते हुए कहा कि सरकार नामों के ऊपर सुरक्षा की छतरी क्यों ताने हुए हैं. इस में उस का क्या हित है? इस पर सरकार की ओर से कहा गया कि सरकार को नाम छिपाने में कोई दिलचस्पी नहीं है पर अंतर्राष्ट्रीय संधियों का खयाल रखना पड़़ता है. यदि नाम खोल दिए गए तो भविष्य में सूचनाएं नहीं आ पाएंगी. इस पर कोर्ट ने कहा कि राम जेठमलानी ने तो जरमन सरकार का पत्र दिखाया है, जिस में चांसलर ने कहा है कि भारत को सूचनाएं देने में कोई संधि आड़े नहीं आएगी लेकिन आप कुछ और ही कहानी कह रहे हैं. अटौर्नी जनरल ने फिर बचाव करते हुए कहा कि नाम बताए तो विदेशों के साथ इस मामले में गोपनीयता बरतने के समझौते भंग होंगे. तो कोर्ट ने कहा कि आप चिंता न करें, हम देख लेंगे. वे नाम भी बताएं जिन के खातों को गैरकानूनी नहीं पाया गया है.

अदालती दखल

सरकार ने कहा कि प्राप्त खातों की जांच चल रही है, जैसे ही पता लगेगा कि खाते गैरकानूनी हैं, नाम बता देंगे. इस पर कोर्ट ने फिर कहा कि जांच करना आप का काम नहीं है. आखिर हम ने एसआईटी बनाई है और जांच का काम वही करेगी. वही तय करेगी कि नोटिस दिया जाए या नहीं. अब कालेधन से निबटने वाले कानून की बात करें : सरकार के पास कालेधन के मामले से निबटने के लिए 2 कानून हैं. एक, मनी लौंड्रिंग और दूसरा, विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून (फेमा). अब तक ज्यादातर कार्यवाही जुर्माने के तौर पर हुई है. बहुत कम मामले चले और बहुत कम गिरफ्तारियां हुईं. मनी लौंडिं्रग के तहत 22 गिरफ्तारी हुई हैं. कालेधन को वैध बनाने से रोकने के लिए जुलाई 2005 में मनी लौंडिं्रग निरोध अधिनियम-2002 प्रभाव में आया था.

कालेधन का बड़ा हिस्सा हवाला के जरिए देश के बाहर गया. दोबारा दूसरे मार्ग से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के जरिए भारत में आ गया. केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा 2012 में प्रकाशित कालेधन पर श्वेतपत्र में कहा गया है कि एफडीआई का प्रवाह कालेधन के वापसी का कारण बना है. एफडीआई के आंकड़े भी इस तथ्य को उजागर करते हैं. जनकारों का मानना है कि भारत में कालेधन को वैध बनाने की हाल की गतिविधियां राजनीतिक दलों, कौर्पोरेट कंपनियों और शेयर बाजार के माध्यम से हुई हैं.

अस्पष्ट माध्यम

1996 में अंतर्राष्ट्र्रीय मुद्रा कोष ने अनुमान लगाया था कि दुनियाभर में वैश्विक अर्थव्यवस्था के 2 से 5 प्रतिशत हिस्से में कालेधन को वैध बनाने का मामला शामिल था. हालांकि कालेधन को वैध बनाने की प्रक्रिया का मुकाबला करने के लिए सरकारी निकाय (एफएटीएफ) का गठन किया गया था जिस ने स्वीकार किया कि कुल मिला कर वैध बनाए गए कालेधन की मात्रा का एक विश्वसनीय अनुमान करना पूरी तरह से असंभव है और इसलिए एफएटीएफ द्वारा इस बारे में कोई आंकड़ा प्रकाशित नहीं किया जाता है.

      

यह पता नहीं चल पाया है कि कितना धन घूस का बाहर जा रहा है और कितना टैक्स चोरी का. यह धन 2 तरह का माना जाता है. इसे नशीली दवाओं की सौदेबाजी, भ्रष्टाचार, खातों व अन्य प्रकार की धोखाधड़ी और टैक्स चोरी समेत कई तरह की आपराधिक गतिविधियों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है.       जाहिर है काले धन का मामला एक सियासी मुद्दा है जिस की तुलना  ‘विदेशी हाथ’ से की जा सकती है. सरकारें कालेधन को न तो ईमानदारी से रोकने का प्रयास करेंगी और न ही यह बेशुमार दौलत वापस आ पाएगी क्योंकि यह पैसा भ्रष्ट राजनीतिबाजों, नौकरशाहों, बेईमान कौर्पोरेट कंपनियों व दलालों का है. इस में बड़े राजनीतिक दलों और सरकारों की हिस्सेदारी रही है. कालाधन जमा करने वाले अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देते रहे हैं.

मंशा पर सवाल

असल में कालाधन जमाखोरों का रसूख उन के खिलाफ कार्यवाही में देरी की बड़ी वजह है. कुछ मामलों में जांच की रफ्तार तेज होने के बावजूद कार्यवाही सुस्त होने की बड़ी वजह यह है कि ऐसे लोगों का व्यवस्था में पूरा दखल है. सरकारी समितियों ने ही जो सवाल उठाए थे, उन पर कार्यवाही नहीं हुई. मेजर्स टू टैकल ब्लैकमनी इन इंडिया ऐंड अब्रौड (भारत व विदेश में स्थित कालाधन से निबटने के उपाय) नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया था कि विदेशों में 9,920 भारतीयों का कालाधन होने की अलगअलग सूचनाएं मिली हैं. देश में कालाधन छिपाने वालों की संख्या 40 हजार के करीब बताई गई थी.    

सुप्रीम कोर्ट के रवैए से जाहिर होता है कि उसे सरकार पर भरोसा नहीं है कि वह ईमानदारी और मेहनत से विदेशों में जमा कालाधन निकालने की कोशिश करेगी, इसीलिए कोर्ट ने अपनी देखरेख में स्वतंत्र जांच एजेंसी यानी एसआईटी से जांच कराने का फैसला किया है. राम जेठमलानी ने कहा था कि सरकार कालाधन रखने वालों को बचा रही है. लोकसभा चुनावों में कहा गया था कि मोदी के चुनाव प्रचार में कालाधन खर्च हो रहा है. लगभग 30 हजार करोड़ रुपए का अनुमान लगाया गया था. इसी तरह कांग्रेस पर भी कालेधन के खर्च के आरोप लगते रहे. एनडीए सरकार ने 100 दिन में कालाधन वापस लाने का वादा किया था. कालेधन पर इतना शोर मचा दिया गया कि माल पकड़ में आने से पहले ही चोर सतर्क हो गए और उन्होंने माल ठिकाने लगा दिया है. सरकार को मिली एचएसबीसी की सूची में से 289 खातों में एक पैसा भी नहीं है.

एसआईटी ने यह भी पाया कि सूची में करीब 122 नाम 2 बार लिए गए हैं. यह धन निकाल लिया गया. यानी सरकार और राजनीतिक दल तो खुद नहीं चाहते कि इस धन का पता चले, इसलिए मिलीभगत से यह धन पार करा दिया गया. यह सोचना भी बेवकूफी है कि इतने होहल्ले के बाद कालाधन बैंकों में मिल पाएगा. एसआईटी को यह भी पता चला है कि इस सूची में इस का कोई ब्योरा नहीं है कि ये खाते कब खोले गए और इन में कबकब, कितनाकितना लेनदेन हुआ. ऐसे में इन लोगों के खिलाफ कार्यवाही में यह सब से बड़ी बाधा आएगी.

स्पष्ट है कालाधन सरकारों के लिए मजा है, राजनीतिक दलों के लिए जनता को बहलाने का एक नया झुनझुना बन गया है. कांग्रेस के गरीबी हटाओ, विदेशी हाथ, धर्मनिरपेक्षता, गरीब के साथ जैसे नारों की तरह ही कालाधन वोट बटोरने का साधन बन गया है. सुप्रीम कोर्ट में अटौर्नी जनरल की दलील और वित्तमंत्री के बयान से भी साफ है कि कालेधन को देश में वापस लाना इतना आसान नहीं है. एनडीए सरकार भी वही बात कह रही है जो पहले यूपीए सरकार कह रही थी. मई के बाद एसआईटी की देखरेख में आयकर विभाग ने करीब 150 सर्वे किए हैं. ये सर्वे उन लोगों के खिलाफ हैं जिन के नाम एचएसबीसी की सूची में है. लेकिन इन के खिलाफ मुकदमा शुरू नहीं किया जा सका है. सरकार की अपनी ओर से पहल करने में कोईर् रुचि नहीं है.

जांच में रुकावट

इस के अलावा गैरकानूनी धन को रोकने के लिए काम करने वाले कई विभाग हैं. इन में प्रमुख सैंट्रल बोर्ड औफ डाइरैक्ट टैक्सेस, एन्फोर्समैंट निदेशालय, फाइनैंशियल इंटैलीजैंस यूनिट, सैंट्रल बोर्ड औफ एक्साइज ऐंड कस्टम, रेवेन्यू इंटैलीजैंस निदेशालय, सैंट्रल इकोनौमिक्स इंटैलीजैंस ब्यूरो हैं. इन्हें काम करने से कौन रोक रहा है, ये विभाग ही दम साधे बैठे रहते हैं.

कालाधन रखने वालों को बचाने का बड़ा उदाहरण पिछले दिनों हसन अली मामले में देखा गया. एन्फोर्समैंट निदेशालय और आयकर विभाग ने हसन अली को गिरफ्तार किया था. उस पर 360 बिलियन डौलर से ज्यादा कालाधन विदेशी बैंकों में जमा करने का आरोप है. हसन अली के बारे में कहा गया है कि उसे अंतर्राष्ट्रीय हथियार डीलर अदनान खशोगी से कई बार धन मिलने का आरोप है. उस के साथ कई राजनीतिबाजों और कौर्पोरेट कंपनियों के नाम भी हैं लेकिन हसन अली समेत उन नामों को बचाने के आरोप लगते रहे हैं. साफ है कि राजनीतिक पार्टियां नहीं चाहतीं कि कालेधन पर कार्यवाही हो. जून 2011 में कालेधन पर प्रदर्शन, धरनों से दबाव बढ़ा तो सरकार ने तब के सीबीडीटी के चेयरमैन एम सी जोशी की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था.

जनवरी 2012 में समिति ने अपनी जांच सिफारिश में कहा कि देश की 2 प्रमुख पार्टियां कांग्रेस और भाजपा धन खर्र्च पर अपने आप जो दावे करती हैं, वह गलत है. कांग्रेस 80 मिलियन डौलर बताती है जबकि भाजपा 32 मिलियन डौलर. पर यह सही नहीं है. उन के खर्च इस से कहीं ज्यादा हैं. ये पार्टियां 100 बिलियन और 150 बिलियन डौलर अकेले सालाना खर्च करती हैं. जाहिर है राजनीतिक दल और सरकारें नहीं चाहतीं कि कालेधन का सच उजागर हो. लिहाजा, कालाधन इन दलों के लिए महज वोटलुभाऊ जुमला बन गया है. ऐसे में विदेशों में जमा कालेधन की वापसी की उम्मीद करना बेकार है. हां, सुप्रीम कोर्ट और जनता की सक्रियता से चोर आगे के लिए सतर्क हो गए हैं और ऐसा धन बाहर जाने से अब रोका जा सकेगा.

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