4 राज्यों के 18 विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनावों में भारतीय जनता पार्टी और मोदी का जादू टूटता दिखाई दिया. पिछले दिनों हुए आम चुनावों में नरेंद्र मोदी की आंधी में तमाम विपक्षी दल बह गए थे. ऐसे में इन उपचुनावों पर सब की नजरें लगी थीं. खासतौर से बिहार में, जहां सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) समेत राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस का सफाया हो गया था. इन उपचुनावों को भाजपा की लोकप्रियता की परीक्षा के तौर पर देखा जा रहा था. बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब में 18 सीटों पर हुए उपचुनावों में भाजपा को लगे झटके से मोदी और भाजपा के तिलिस्म पर सवाल उठ खड़े हुए हैं. इन में बिहार की 10, मध्य प्रदेश की 3, कर्नाटक की 3 और पंजाब की 2 सीटें थीं. इस से पहले उत्तराखंड में 3 सीटों पर भाजपा चुनाव हार चुकी है.

आम चुनाव में भाजपा व नरेंद्र मोदी की आंधी से घबराए लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने इन उपचुनावों से पहले 20 सालों की पुरानी दुश्मनी भुला कर महागठबंधन के नाम से एक नई मोरचाबंदी की थी. इस में कांग्रेस भी शामिल है. इस गठबंधन ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा था.

लालूनीतीश की मोरचाबंदी का फायदा हुआ और राज्य की 10 सीटों में से इन के गठबंधन को 6 सीटें मिल गईं. इन्होंने कुछ सीटें भाजपा से छीनी हैं. इसी तरह भाजपा के गढ़ मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने उसे नुकसान पहुंचाया तो पंजाब और कर्नाटक में भी मोदी की लोकप्रियता का फायदा भाजपा को नहीं मिल पाया. ये नतीजे बताते हैं कि मोदी की वह लहर अब कायम नहीं रही. भाजपा की आंधी को रोकने के लिए लालू यादव ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी नेता मायावती को भी एकजुट होने की सलाह दी है. इस जीत से उत्साहित हो जदयू नेता शरद यादव पुराने मंडल के तरकश से तीर निकालने का आह्वान कर रहे हैं.

महागठबंधन का खेल

यहां 2 प्रमुख सवाल हैं. एक, जिस तरह से भाजपा अपना चुनावी एजेंडा जनता तक पहुंचाने में पूरी तरह सफल रही, क्या उसी तरह शासन करने का उस के पास कोई सफल फार्मूला है? दूसरा, दलितों, पिछड़ों, गरीबों, वंचितों के नाम पर सामाजिक न्याय, मंडल मसीहाई और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले लालू, नीतीश के पास जाति का सवाल उठाने के अलावा शासक के लिए क्या कोई ठोस, कारगर एजेंडा है? पहले बात करते हैं लालूनीतीश की. धुर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लालू और नीतीश 11 अगस्त को 20 साल बाद एक मंच पर आए तो उन के समर्थकों व देश की जनता को यकीन नहीं हुआ कि इस तरह का गठबंधन कामयाब हो पाएगा.

क्या जंग लगे सामाजिक न्याय और मंडल जैसे पुराने औजार से भाजपा के नए नेतृत्व और तौरतरीकों से मुकाबला किया जा सकेगा? क्या पुराने तौरतरीकों, नारों और दांवपेंचों से यह मुमकिन हो पाएगा?

लालू, नीतीश, मुलायम सिंह, एम करुणानिधि जैसे पिछड़े वर्गों के नेताओं के भीतर भाजपा के विरोध में एकजुट होने की छटपटाहट तो है लेकिन पिछले मंडल के दौर की सियासी राजनीति में इन नेताओं ने क्या किया, किसी से छिपा नहीं है. लालू, मुलायम और करुणानिधि तीनों पिछड़ों, दलितों को भुला कर केवल परिवार कल्याण में जुटे दिखे. तीनों नेताओं के परिवारीजनों की लंबी फेहरिस्त है जो राजनीति में आ कर सत्ता की मलाई जीमने में मशगूल हो गए.

लालू ने 1990 में जब बिहार की सत्ता संभाली तो नीतीश कुमार के साथ अच्छी दोस्ती थी. लालूनीतीश 1993 में अलग हो गए. नीतीश कुमार ने जनता दल छोड़ कर जौर्ज फर्नांडीस के साथ मिल कर समता पार्टी बना ली. इस के बाद लालू और नीतीश के बीच राजनीतिक कड़वाहट पैदा हो गई. कुछ ही समय बाद लालू के सामाजिक न्याय का रास्ता परिवारवाद की ओर मुड़ गया और नीतीश व शरद यादव का मंडल भगवा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कमंडल में समाहित हो गया.

1995 में लालू के खिलाफ पहले चुनाव में नीतीश की पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा और नीतीश के राजनीतिक भविष्य पर भी सवाल उठने लगे थे पर बाद में लालू की मजबूत पकड़ को चुनौती देने के लिए समता पार्र्टी ने भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया. नीतीश ने चुनावों में लालू के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया और लोगों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उस वक्त लालू का चारा घोटाला नीतीश कुमार के लिए कारगर मुद्दा साबित हुआ और 2005 में भाजपा के सहयोग से वे बिहार की सत्ता पर काबिज हो गए.

लेकिन नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के सवाल को ले कर नीतीश को भाजपा भी रास नहीं आई और लोकसभा चुनाव से पहले 2013 में वे भाजपा से अलग हो गए. नीतीश ने खुल कर कहा था कि एनडीए में प्रधानमंत्री पद के लिए वे सब से काबिल हैं. नीतीश के विरोध के बावजूद भाजपा जब मोदी को ले कर पीछे नहीं हटी तो नीतीश ने भाजपा से नाता तोड़ लिया. 2014 में नीतीश की पार्टी की लोकसभा चुनाव में जबरदस्त हार हुई और बदलते राजनीतिक हालात में उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया.

इधर, बारबार जेल जाने के कारण लालू की राजनीतिक जमीन भी दरकने लगी थी. लालू यादव को लगने लगा था कि कहीं भगवा लहर में कहीं बिखर न जाएं अब ढाई दशक बाद फिर मंडलकमंडल की राजनीति नई करवट ले रही है. लालूनीतीश जैसे मंडलवादी नेता मिले जरूर हैं पर बिहार और बाकी देश के मतदाताओं को बता नहीं पाए कि उन के लिए वे ऐसा क्या करेंगे जो पहले से अलग होगा.

क्या करेगी सपा

उत्तर प्रदेश में मुल्ला मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार के खिलाफ गुस्सा इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि वे सत्ता में तो जाति की साइकिल पर चढ़ कर आ गए पर अपने मतदाताओं को समझा नहीं पा रहे हैं कि उन का उद्देश्य

क्या है और जनता की समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे.  यह अन्य राज्यों में भी कमोबेश हो रहा है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने कम्युनिस्टों का सर्वहारा वर्ग अपने पाले में कर लिया तो तमिलनाडु में जयललिता पिछड़े द्रविड़ों को अपनी पार्टी अन्नाद्रमुक में लाने में कामयाब रहीं.

दलित, पिछड़ों के नेताओं के आपसी अहंकार, एकदूसरे का विरोध और सत्ता के स्वार्थ आड़े आते रहे हैं. मायावती मुलायम सिंह से इसलिए खफा हैं क्योंकि 1995 में लखनऊ गैस्ट हाउस में उन के साथ सपा के लोगों ने बुरा बरताव किया था. इस वारदात के बाद भाजपा के खिलाफ कभी मजबूत गठबंधन नहीं बन पाया. 1993 में जब मायावती और मुलायम की गठबंधन सरकार बनी थी तब लगा था कि दलित और पिछड़ों के मिलने से ऊंची जाति के दलों के हाथ से सत्ता सालों के लिए निकल गई पर भाजपा ने ऐसा पासा फेंका कि भाजपा से दूर रहने वाली, उसे मनुवादी, सांप्रदायिक बताने वाली, तिलक, तराजू, तलवार को जूते मारने का नारा देने वाली मायावती उसी पार्टी के साथ मिल कर सत्ता सुख भोगने लगीं.

लालू, नीतीश और अन्य अवसरवादियों के सामने दिक्कत यह है कि अब 80-90 के दशक की तरह उन के सामने विपक्षी ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी का नेतृत्व नहीं, पिछड़े वर्ग का, खुद को गरीब, चाय बेचने वाला प्रचारित करने वाला नेता है. देश की जनता भैंस चराने वाले बनाम चाय बेचने वाले में से किसे अपना अधिक हितैषी मानेगी?

काफी नहीं गठबंधन

ऐसे में लालूनीतीश गठबंधन को केवल खोखले और बासी पड़ चुके नारों से आज भाजपा से निबटना मुश्किल होगा. मंडल अब कमंडल की काट नहीं रहा. भाजपा ने कमंडल के साथ मंडल को मिला लिया है पर क्या लालूनीतीश ने ऐसा किया है? बासी फार्मूले को ले कर लालू, नीतीश की जोड़ी आगे बढ़ पाएगी इस में संदेह है. बहरहाल, यह जीत लालूनीतीश की भी नहीं है, यह तो इन दोनों के बीच बिखरे हुए मतदाताओं के वोट एक जगह पड़ने से हुई.

मंडल राजनीति के पिछले दौर में सामाजिक न्याय हाशिए पर चला गया. वह दौर फ्रांसीसी क्रांति और बाद में उपनिवेशवाद के खिलाफ चले संघर्ष जैसा था जिस में समाज के कमजोर तबकों के अधिकारों की बातें जोरदार ढंग से उठाई गई थीं. लेकिन देश के दलितों, पिछड़ों, वंचितों, गरीबों के लिए सामाजिक न्याय की बातें महज ढकोसला साबित हुईं.

नेता सामाजिक न्याय को और आगे तक ले जाते. वे ऐसी व्यवस्था कराते कि सब से कमजोर तबके को सब से ज्यादा फायदा मिलता. समान स्वतंत्रता के अधिकार दिलवाते. सामाजिक और आर्थिक बराबरी का प्रयास करते. सामाजिक न्याय के नए आयाम जोड़ते पर वे ये सब नहीं कर पाए. सामाजिक न्याय भारतीय संविधान में तो है. आजादी के आंदोलन में भी सभी तबकों के लिए सामाजिक न्याय के मुद्दे पर गंभीर बहसें चलती थीं. इसी का नतीजा था कि वंचित वर्गों के लिए संसद व नौकरियों में आरक्षण व संरक्षण देने जैसे प्रावधानों पर सहमति बनी.

इस के बाद 60-70 के दशक में राम मनोहर लोहिया ने इस बात पर जोर दिया था कि दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों व स्त्रियों को एकजुट हो कर सत्ता व नौकरियों में ऊंची जातियों के वर्चस्व को चुनौती देनी चाहिए. इसी पृष्ठभूमि के साथ 80 के दशक के बाद सामाजिक न्याय भारतीय राजनीति का प्रमुख नारा बनता गया. इस के कारण अभी तक सत्ता से दूर रहे समूहों, नेताओं को सत्ता की राजनीति के केंद्र में आने का मौका मिला लेकिन इन नेताओं का वह वर्ग उस फायदे से दूर रहा जो उसे मिलना चाहिए था.

क्यों हारी भाजपा

मोदी और भाजपा का नया नेतृत्व अमित शाह अपने हिंदुत्व के बुनियादी विचारों के साथसाथ नए तरीके की सोशल इंजीनियरिंग के जरिए दलितों, पिछड़ों के एक हिस्से में भी जगह बना रहा है. भाजपा ने पूंजी और तकनीक के जरिए पार्टी का आधुनिकीकरण भी कर लिया है.  पर सवाल है कि 3 महीने पहले देश में लोकप्रियता के शिखर पर खड़ी भाजपा इन उपचुनावों में कमाल क्यों नहीं दिखा पाई?

दरअसल, भाजपा के पास चुनावी एजेंडा तो है पर शासन का कोई ठोस कामयाब फार्मूला नहीं है जिस से कि वह जनता की समस्याओं का निराकरण कर सके. भाजपा का चुनावी एजेंडा सबको छूता है. धर्म के व्रत, त्योहारों, विवाहशादियों और मृत्यु आदि जीवन के हर पक्ष में उस का खासा दखल है और धर्म पर भाजपा अपना पेटेंट मानती है. देश की जनता भी भाजपा को धर्म की ठेकेदार समझती है.

भाजपा और संघ के छोटेमोटे नेता आएदिन धार्मिक आयोजन कराते रहते हैं. जागरण, कीर्तन, भंडारा तो हैं ही, अमरनाथ यात्रा, कांवड़ यात्राओं के लिए भी लोगों को भेजने में आगे रहते हैं. उन के लिए जगहजगह शिविर लगाते हैं. इन के अलावा देशभर में रामलीलाओं के आयोजकों में ज्यादातर संघ और भाजपा से जुड़े नेता ही होते हैं. गोसेवा कार्यक्रम, स्वदेशी जैसे कार्यक्रम भी हैं जिन का प्रचारप्रसार वे करते रहते हैं.

इस तरह, भाजपा का अपने हिंदू वोटरों के लिए एक ठोस कार्यक्रम है, जिस के जरिए हिंदू जनता में उस ने अपनी एक गहरी पैठ बना रखी है. इसे कायम रखने में पंडेपुजारी, साधुसंत, मंदिर, तीर्थस्थलों के विकास तथा मोक्ष व स्वर्ग के पैरोकार निरंतर जुटे रहते हैं. जनता भी इस के चलते भाजपा से अपना सीधा जुड़ाव महसूस करती है. पार्टी के छोटे नेता और उस से जुड़े धार्मिक संगठन भी निरंतर एहसास कराते रहते हैं कि यही एक दल है जो उस के लिए मुफीद साबित हो सकता है. 

धर्म की राजनीति

भाजपा समाज के हर तबके से जुड़ी रही है और वह अपने इस एजेंडे को हर घर, हर जन तक पहुंचाने में कामयाब रही है. पार्टी की ऊंची जातियों–ब्राह्मणों, बनियों, क्षत्रियों में पहुंच पहले से ही थी. उसे दरकार थी शूद्रों यानी ऊंचे पिछड़ों और ऊंचे दलितों की, इन्हें भी लुभाने में वह अब सफल रही.

ये पिछड़े और दलित वे हैं जो मोक्ष के मुहताज हैं, स्वर्ग से सरोकार रखते हैं.  वे हिंदू धर्म की जयजयकार करने लगे हैं. धर्र्म के ठेकेदारों के सिखाने पर मुसलमानों की मुखालफत करते हैं. राम मंदिर निर्माण के लिए नारे लगाते हैं, गलीमहल्लों में नए मंदिरों का निर्माण कराते हैं, तीर्थों में आतेजाते हैं. कुछ ऊंची नौकरियों, छोटेमोटे कारखानों, कंपनियों के मालिक बन गए हैं और जिन के बच्चे मैनेजमैंट, इंजीनियरिंग, डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे हैं.

भाजपा ने किया यह कि पार्टी संगठन में ही अलग विभाग बना दिए और इन्हीं वर्ग के नेताओं को इन का प्रमुख बना दिया. उन्हें अपने वर्ग के वोटरों को जोड़ कर रखने का काम सौंप दिया गया. हाल के चुनावों में भाजपा ने दलितों, पिछड़ों में सेंध लगाई. दलित, पिछड़े बहुल उत्तर प्रदेश के जातिवादी नेता मायावती, मुलायम सिंह से उन्हीं के वोटरों को छीनने में वह कामयाब रही पर इन जातियों की समस्याओं के समाधान का रास्ता शासनतंत्र में नजर नहीं आया.

भाजपा का यह चुनावी एजेंडा देश को संदेश देने में तो सफल है पर जब सरकार चलानी हो तो चुनावी एजेंडे का यह रास्ता बेकार है. उस के पास शासन का ऐसा सफल फार्मूला नहीं है जो जनता की समस्याओं का समाधान कर सके, जिन से उसे रोजमर्रा के कामों से उलझना पड़ता है. शासन का अपना तंत्र है जो बेहद जटिल है. भाजपा को उस की समझ नहीं है और न ही वह समझना चाहती है.

नमो आंधी थमी

मोदी बुलेट टे्रेन चलाने की बात कहते हैं पर उस से कितने लोगों को फायदा होगा और किन को होगा? जाहिर है उन निचलों, दलितों, पिछड़ों, गरीबों, किसानों को कतई नहीं होगा. वे लालकिले की प्राचीर से बड़ी लोकलुभावन लच्छेदार लफ्फाजी तो करते हैं पर अपने शासन, प्रशासन के बारे में कुछ नहीं कहते कि वे जनता की समस्याएं दूर कैसे करेंगे. भाषण में मोदी ने न महंगाई पर कुछ कहा और न ही भ्रष्टाचार पर. सरकारी दफ्तरों से लालफीताशाही और निकम्मापन कैसे दूर कर पाएंगे, जनता के कामों में आसानी कब होगी, बेमतलब के नियमकायदों से कैसे मुक्ति दिला पाएंगे?

भाजपा का हर छोटा नेता बिना आगापीछा सोचे अपना फायदा चाहता है. वह मंदिरों में जाता है, घंटी बजाता है तो अपने फायदे के लिए. मोदी की जयजयकार करता है तो अपने लाभ के लिए, अब उसे शासन चाहिए तो अपने फायदे के लिए. मध्यवर्ग के भाजपाईर् नेता छोटे लोगों को मंदिरों में धकेल सकते हैं पर उन की समस्याएं हल नहीं कर सकते. पार्टी के नेताओं को पद न मिले तो वह नाराज हो जाता है.

सरकार ने आते ही महंगाई पर नियंत्रण के लिए इधरउधर हाथपैर मारने शुरू किए. मंडी समितियों को कुछ निर्देश दिए गए. किसानों से कहा गया कि वे अपना उत्पाद मंडियों के बाहर खुले बाजार में बेच सकते हैं लेकिन कोई असर नहीं पड़ा. क्योंकि मंडी के जटिल कानूनों की मोदी सरकार को न समझ है, न वह समझना चाहती है. इसी तरह कमोडिटी बाजार की उलझन को वह सुलझाने का प्रयास करती, जो महंगाई बढ़ने की एक प्रमुख वजह मानी जाती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को ‘मेक इन इंडिया’ का नारा तो दिया जो लोगों को लुभावना लगा पर शासन तंत्र के भटकाव से बचाने का सरल, सीधा रास्ता नहीं बताया.

शासन में फेल

आम जनता से दिल्ली में ई-रिकशा का सस्ता और सुविधाजनक साधन छिनवाने के बाद भाजपा सरकार न उस जनता के लिए कोई कारगर हल निकाल पाई और न ही उन गरीब रिकशाचालकों के लिए, जिन के सामने अब रोजीरोटी के लाले पड़े हैं. ये रिकशाचालक और उन के परिवार अब दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की ओर देख रहे हैं.

मोदी सरकार सिविल सेवा के छात्रों की सीसैट समस्या का संतोषजनक हल भी नहीं निकाल पाई. यह समस्या नौकरशाही द्वारा खड़ी की गई थी. आधेअधूरे समाधान के नाम पर छात्रों को उसी में उलझा कर रख दिया गया. भाजपा में अपना धार्मिक पाठ्यक्रम लागू करने और इतिहास अनुसंधान परिषद में पुराने को बदल कर अपने तरह से नया इतिहास लिखवाने की योग्यता तो है पर शासनप्रशासन के जरिए व्यावहारिक समस्याएं सुलझाने की नहीं.

हाल तक सिरआंखों पर बिठाने वाली भाजपा से अब इसलिए लोगों का मोहभंग होता दिखने लगा है क्योंकि उस की तुलना में कांग्रेस के पास शासन में काम कराने के तौरतरीके अधिक कारगर हैं. उस के पास प्रशासन से काम निकलवाने का तरीका है. अब तक जो लोग हरहर मोदी, घरघर मोदी कह रहे थे, अब अपनी समस्याओं का हल निकलते न देख कर लालूनीतीश और कांग्रेस की तरफ देख रहे हैं.

ऐसे में लालूनीतीश को अपना एजेंडा सामने रखना होगा और मोदी को चुनावी प्रचार के एजेंडे से नहीं, शासन का सफल एजेंडा अमल में लाना होगा.

अच्छे दिन आए लालूनीतीश के

बिहार में 10 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों ने बता दिया कि पिछले 3 महीने में ही वोटर का मिजाज बदल गया है. अप्रैल महीने में हुए आम चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 31 पर कब्जा जमा कर आसमान में उड़ रही भाजपा औंधे मुंह आ गिरी है. भाजपा की हार की वजह लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की ताकत से ज्यादा खुद भाजपा की कमजोरी और भीतरघात ही रही. उपचुनाव में भाजपा को 2 सीटों का नुकसान हुआ तो जदयू और कांगे्रस को 1-1 सीट का फायदा मिल गया. राजद को अपनी 1 सीट गंवानी पड़ी.

उपचुनाव के नतीजे से साफ है कि नमो लहर को बिहार के भाजपाई कायम नहीं रख पाए. भाजपा के सुशील मोदी, प्रेम कुमार, अश्विनी चौबे समेत कई नेता अति आत्मविश्वास के सागर में गोते लगाते हुए अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनने की होड़ में लगे रह गए. आम चुनाव के बाद लोगों से कटेकटे और बुझेबुझे से रहने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी पुरानी रौ में आ गए हैं. महागठबंधन को मिली जीत के बाद उन्होंने कहा कि बिहार की जनता ने भाजपा को आईना दिखा दिया है और उन्माद की राजनीति को दरकिनार कर सद्भाव की राजनीति में भरोसा जताया है. वहीं, भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि नीतीश कुमार जीत कर भी हार गए हैं. भाजपा के साथ थे तो वे ‘बड़े भाई’ की भूमिका में थे, पर लालू के साथ मिलने से उन्हें ‘छोटे भाई’ का दरजा मिला है.

भाजपा को 2 सीटों का घाटा उठाने के सवाल पर सुशील मोदी कहते हैं कि यह तो नौकआउट मैच था, फाइनल मैच अगले साल होगा. महागठबंधन की जीत ने एक साथ कई लक्ष्यों पर निशाना साधा है. बिहार की सियासत में हाशिए पर पहुंचा दिए गए लालू और नीतीश को नए सिरे से खड़े होने की ताकत और वजह मिल गई है. छपरा, मोहीउद्दीननगर, राजनगर, परबत्ता, जाले और भागलपुर सीट जीत कर महागठबंधन ने संसदीय चुनाव में भाजपा को मिली जीत की छाया और माया से निकलने में कामयाबी हासिल कर ली है.

अब महागठबंधन पूरे उत्साह के साथ एकजुट हो कर बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लग जाएगा और जनता को बता सकेगा कि वही सूबे में सामाजिक न्याय व तरक्की का राज कायम कर सकता है. लालू के ‘मंडल’ के जरिए ‘कमंडल’ को मात देने के नारे में वोटर ने काफी हद तक यकीन किया है और भाजपा के जंगलराज के हौआ को पूरी तरह से तो नहीं पर काफी हद तक जवाब भी दिया है. राजद और जदयू के मिलने से दोनों दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं में जो विरोध की आवाजें उठ रही थीं, वे फिलहाल शत्रुघ्न सिन्हा के अंदाज में ‘खामोश’ हो जाएंगी.

बहरहाल, उपचुनाव के नतीजे भाजपा को चिंतन और मंथन करने की नसीहत देते हैं. नरेंद्र मोदी की हवा को भाजपाइयों की अपनों की ही टांगखिंचाई ने मंद कर दिया है. नमो की आंधी पर सवार हो कर बिहार फतह करने का भाजपाइयों का सपना फिलहाल तो टूटता दिख रहा है.

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