जून (प्रथम) अंक में लेख ‘पुरुष पर अत्याचार’ पढ़ कर बेहद अफसोस हुआ कि सिर्फ अपवादस्वरूप कुछ घटनाओं के आधार पर समस्त स्त्री जाति को कठघरे में खड़ा कर दिया गया है. महिलाओं के ऊपर होने वाले अत्याचार की तुलना में ये तो कुछ भी नहीं हैं. और हम मानें या न मानें, मगर बगावत की यह चिंगारी भी पुरुष सत्तात्मक समाज की ही देन है.

हर लड़की अपने घर, समाज या आसपास में कभी न कभी पुरुषों के अत्याचारीरूप से जरूर अवगत होती है. तब यही वीभत्स रूप उन के अवचेतन में कहीं न कहीं अंकित हो जाता है जिस से वह चेतनावस्था में स्वयं भी अनभिज्ञ रहती है. उस की यही दमित भावना उसे पुरुषों के प्रति प्यार को मन में पनपने नहीं देती और वह बदले की भावना से उत्प्रेरित हो कर कुकृत्य करने को विवश हो जाती है. सदियों से जो चिंगारी दबाई जा रही थी, आज जब उस ने सुलगना प्रारंभ किया तो आधुनिकता की आंधी ने हवा दी और वह पुरुषों के लिए ज्वालामुखी बन गई. महिलाओं ने तो अत्याचार सहन करना अपने रोजमर्रा के कार्यों में शामिल कर लिया है परंतु पुरुष तो अभी इस सहनशक्ति नामक गुण से वंचित है.

यह सच है कि घरेलू हिंसा कानून का आज दुरुपयोग किया जा रहा है. जिस कानून को महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाया गया था उस का इस्तेमाल अब तलाक लेने के लिए किया जा रहा है. परंतु इस के लिए सरकार ज्यादा दोषी है. सरकार को इस में यथोचित फेरबदल कर के इसे ऐसा बनाना होगा कि सब को उचित न्याय मिल सके.

टीवी पर आने वाले कुछ धारावाहिक स्त्रियों का ही नहीं बल्कि पूरे समाज का नैतिक पतन कर रहे हैं. इस के लिए सरकार को सैंसर बोर्ड को सावधान करना होगा. मगर साथ ही हम सब को यह समझना होगा कि स्त्री और पुरुष परस्पर एकदूसरे के पूरक हैं. सिर्फ स्त्री या सिर्फ पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं है. एक है तभी दूसरा है. एक को होने वाला कष्ट कभी न कभी दूसरे के लिए भी समस्या उत्पन्न कर सकता है.

आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)

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