मनमोहन सिंह के 10 साल के प्रधानमंत्री कार्यकाल को भारत की मध्य जमात बहुत हलके से ले रही है. अपशब्दों का भरपूर प्रयोग करने वाली, खाली बैठी युवा जमात ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कम बोलने वाली आदत को अपने सैकड़ों मजाकों का केंद्र बना कर एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया है जो उलट कर वार भी करेगी. कल को यह जमात नए प्रधानमंत्री के बड़बोलेपन को शिकार बना सकती है.
मनमोहन सिंह का काम पिछले प्रधानमंत्रियों जैसा रहा. यह गनीमत रही कि जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकालों की तरह मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ऐसे निर्णय कम लिए गए जिन का दुष्प्रभाव पड़ता. जवाहर लाल नेहरू ने जनता का बहुत पैसा समाजवादी ढांचे के नाम पर सरकारी उद्योगों में झोंक कर नष्ट कर दिया जिसे देश आज तक भुगत रहा है. इंदिरा गांधी ने सरकारीकरण कर के निजी क्षेत्र का गला घोंट दिया और रिश्वत की खुली छूट को निमंत्रण दे दिया. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को मान कर समाज में एक गतिरोध पैदा कर दिया जिस का परिणाम यह हुआ कि सवर्ण वर्ग इस बार नरेंद्र मोदी को जिताने में जीजान से जुटा और कामयाब भी हुआ.
मनमोहन सिंह ने शांति का मार्ग अपनाया. सोनिया गांधी से मिल कर कई सामाजिक प्रभाव वाले कानून बनवाए जिन का असर धीमा रहा, कोई जलजला नहीं पैदा हुआ. मनमोहन सिंह ने अपने दोनों प्रधानमंत्रित्व कालों में राजनीतिक उठापटक नहीं होने दी. वर्ष 2002 जैसे विनाशक दंगे नहीं हुए. देश की अर्थव्यवस्था ठीकठाक रही. घोटाले, रिश्वतखोरी के मामले जरूर हुए पर उन में से कितने सही साबित होंगे, यह तो अब नई सरकार के गठन के बाद पता चलेगा क्योंकि अभी तक कुछ ज्यादा साबित नहीं हो पाया है.
मनमोहन सिंह सभाओं में दहाड़ते नहीं हैं तो इस का अर्थ यह नहीं कि वे ढुलमुल या कठपुतली प्रधानमंत्री रहे हैं. दुनिया के कितने ही देशों में प्रधानमंत्री, कई दलों के सर्वमान्य व्यक्ति होने के कारण, पद पाते हैं और उन्हें निर्णय सब से पूछताछ कर के लेने होते हैं. मनमोहन सिंह को अगर निर्णय सोनिया गांधी से पूछ कर लेने पड़ते थे तो यह कोई बड़ी बात नहीं है. महाराष्ट्र में शिवसेना सरकार के मुख्यमंत्री सदा बाल ठाकरे के इशारों पर चलते रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हमेशा सुननी पड़ी है.
मनमोहन सिंह ने इस बात को आसानी से पहचान लिया कि उन की राजनीतिक शक्ति है ही नहीं, वे प्रधानमंत्री हैं पर प्रधानमंत्री हमेशा भारीभरकम दल का नेता ही हो, जरूरी नहीं.
मनमोहन सिंह इतिहास में अपना नाम नहीं लिखा कर जा रहे पर उन पर वे धब्बे भी नहीं हैं जो पिछले कई प्रधानमंत्रियों पर रहे. देश को अगर प्रधानमंत्री चाहिए तो ऐसा ही जो अपने तर्कों से विभिन्न वर्गों को साथ ले कर चल सके न कि जिस के आने पर एक वर्ग में खुशी हो तो दूसरे में डर और असमंजस.