पत्रकार का गिरहबान

सब से पहले और चटपटी खबर लाने की होड़ देशभर के पत्रकारों में इस तरह मची हुई है कि वे अब आंतों तक में झांकने लगे हैं. सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की छोटी आंत संक्रमण ग्रस्त है या नहीं, इस का जवाब तो मुंबई के  मशहूर गेस्ट्रोएंट्रोलौजिस्ट जयंत एस वर्बे ही दे सकते हैं, जिन के यहां बीते दिनों अमिताभ बच्चन का आनाजाना छिप नहीं पाया.

यही सवाल बीती 8 मई को मुंबई के एक कार्यक्रम में एक पत्रकार ने अमिताभ बच्चन की पत्नी जया बच्चन से पूछ लिया तो उन्होंने भड़क कर उस का गिरहबान पकड़ पत्रकारिता की तमीज सिखाती नसीहत दे डाली. बात आईगई हो गई लेकिन यह जता गई कि पत्रकार का गिरहबान बहुत सस्ता हो चला है जो नौकरी बजाने के चक्कर में ठसक तो दूर की बात, अपना स्वाभिमान तक भी सुरक्षित नहीं रख पा रहे.

चिंतक का अज्ञातवास

लोकसभा चुनाव के दौरान प्रख्यात हिंदूवादी चिंतक गोविंदाचार्य का गायब रहना चिंता की बात थी जो अकसर भाजपा तो भाजपा, सभी दलों को निशुल्क ‘इलैक्शन टिप्स’ देने के लिए जाने जाने लगे थे. इस महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अनुष्ठान में इस बार उन्होंने कोई वैचारिक आहुति नहीं दी. वे दिखे तक नहीं, यहां तक कि झांसी भी नहीं गए, जहां उन की मौजूदगी की उम्मीद करने वाले कर रहे थे.

चिंतन हमारे यहां पेशा नहीं है, शौक और लत है जिस की गिरफ्त में एक दफा कोई आ जाए तो फिर बाहर नहीं आ पाता. मजबूरी में चुनावी छिछोरेपन से छुटकारा दिलाने का जिम्मा बनारस की तरफ के काशीनाथ सरीखे कुछ साहित्यकारों ने लिया. इस बहाने ही सही, लोगों को कुछ नया तो सोचने को मिला पर हिंदुत्व पर जितनी गहराई से गोविंदाचार्य बोलते हैं उतना कोई दूसरा नहीं बोल पाता.

राष्ट्रपति ने नहीं डाला वोट

इस बार मतदान के प्रोत्साहन पर काफी जोर दिया गया. लगने यह लगा मानो वोट न डालना कोई पाप है. चुनाव आयोग ने अरबों रुपए ‘वोट डालो अभियान’ पर फूंक डाले. नेता, अभिनेता, उद्योगपति और खिलाड़ी वोट डालने के बाद अपनी स्याही लगी उंगली दिखाते रहे लेकिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मतदान को ठेंगा दिखा दिया. राष्ट्रपति भवन के सूत्रों ने

10 मई को स्पष्ट किया कि निष्पक्ष दिखने के लिए राष्ट्रपति वोट नहीं डालेंगे. इस से आम मतदाताओं में अच्छा संदेश नहीं गया है और वे खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. जिस देश में प्रथम नागरिक ही वोट न डाले वहां मतदान की अनिवार्यता की बात करना बेमानी लगता है. प्रणब मुखर्जी का वोट दक्षिण कोलकाता की सीट पर है. अगर उन्हें निष्पक्ष दिखने का इतना ही शौक था तो नोटा वाले बटन को दबाना चाहिए था.

धर्मगुरुओं की चालाकी

द्वारका शारदापीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती को मई के पहले सप्ताह में एकाएक ही ज्ञान प्राप्त हुआ जिसे वितरित करवाने उन्होंने पत्रकारों को बुलाया और जो कहा उस का सार यह था कि उन्होंने कभी वाराणसी तो दूर, किसी चौपाल से भी नरेंद्र मोदी का विरेध नहीं किया, न ही उन की पत्नी जसोदा बेन को ले कर कोई टिप्पणी की, वे कांग्रेसी नहीं हैं. अहम बात यह कि शंकराचार्य की भूमिका राष्ट्रपति सरीखी होती है जिस की नजर में सभी भारतीय बराबर होते हैं.

धर्मगुरुओं का चंचल स्वभाव नहीं, बल्कि इसे चालाकी कहा जाएगा जिन की कथनी और करनी में कोई तालमेल ही नहीं होता. मठों में बैठ कर राजनीति करने वाले इन धर्मगुरुओं की पहली कोशिश अपना साम्राज्य बनाए रखने और दूसरी मौका देख कर पाला बदलने की होती है जिस से दुकानदारी पर आंच न आए.

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