Hindi Kahani : उस दिन सुबह से ही मौसम खुशगवार था. निशांत के घर में फूलों की महक थी, हवा गुनगुना रही थी. उस के मम्मी और डैडी कल ही कानपुर से आ गए थे. निशांत ने उन्हें सबकुछ बता दिया था. उन्हें खुशी थी कि बेटा 5 साल बाद ही सही, ठीक रास्ते पर आ गया था वरना न जाने उसे कौन सा रोग लग गया था कि शादी के नाम से भड़क जाता था.
मम्मीपापा के सामने स्निग्धा को खड़ा कर के निशांत ने कहा, ‘‘अब आप देख लीजिए. जैसा आप चाहते थे वैसा ही मैं ने किया. आप एक सुंदर, पढ़ीलिखी और अच्छी बहू अपने बेटे के लिए चाहते थे. क्या इस से अच्छी व सुंदर बहू कोई और हो सकती है?’’
स्निग्धा निशांत की मम्मी के चरण स्पर्श करने के लिए नीचे की तरफ झुकने लगी, परंतु उन्होंने स्निग्धा को अपने कदमों पर झुकने का मौका ही नहीं दिया. उस के पहले ही उसे अपने सीने से लगा लिया.
स्निग्धा पहली नजर में ही सब को पसंद आ गई थी.
निशांत ने मम्मीडैडी को स्निग्धा के बारे में बताना उचित नहीं समझा. वह जानता था कि स्निग्धा के दुखद और कष्टमय विगत को बताने से मम्मीडैडी को मानसिक संताप पहुंच सकता था. इसलिए उस ने थोड़े से झूठ का सहारा लिया और उन्हें केवल इतना बताया कि स्निग्धा को एक रिश्तेदार ने पालापोसा और पढ़ायालिखाया था. इलाहाबाद में वह उस के साथ पढ़ती थी, तभी उन दोनों की जानपहचान हुई थी. अब वह अपने पैरों पर खड़ी थी और दिल्ली में रह कर एक प्राइवेट फर्म में नौकरी कर रही थी. निशांत के परिवार वाले समझदार थे. स्निग्धा की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए उस के परिवार के बारे में कोई बात नहीं की.
निशांत और स्निग्धा की शादी हो गई. बहुत सादगी और परंपरागत तरीके से उन दोनों की शादी का आयोजन किया गया था. निशांत तथा उस के घर वाले शादीब्याह में बहुत ज्यादा तामझाम और दिखावे के खिलाफ थे. थोड़े से खास रिश्तेदारों और मित्रों के बीच में उन की शादी संपन्न हो गई.
शादी के पहले एक दिन एकांत में निशांत ने स्निग्धा से पूछा, ‘अगर तुम्हारा मन हो तो हम दोनों चल कर तुम्हारे मम्मीपापा को मना लाते हैं. उन का आशीर्वाद मिलेगा तो हम सब को अच्छा लगेगा.’
‘चाहती तो मैं भी हूं परंतु अभी मेरे पास इतना नैतिक साहस नहीं है. एक बार तुम्हारे साथ शादी कर के घरगृहस्थी सजा लूं तब फिर चल कर मम्मीपापा से मिलेंगे. तब वे मेरे अतीत की भूलों को माफ भी कर सकेंगे.’
‘जैसी तुम्हारी इच्छा,’ और बात वहीं समाप्त हो गई थी.
पति, सास, ससुर और एक पारिवारिक जीवन, बिलकुल नया अनुभव था स्निग्धा के लिए. कितना सुखद और स्निग्ध, वसंत के फूलों की खुशबू से भरा हुआ, वर्षा की पहली फुहारों की तरह मदहोश करता हुआ और पायल की मधुर झंकार की तरह कानों में संगीत घोलता हुआ, यह था जीवन का असली संगीत, जिस की धुनों के बीच हर व्यक्ति झूमझूम जाता है. और आज स्निग्धा जीवन के बीहड़ रास्तों के घुमावदार मोड़ों को पार करती हुई अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुई थी.
शादी के बाद स्निग्धा ने निशांत के घरपरिवार को ही नहीं, बल्कि उस के व्यक्तित्व को भी संवार दिया था. इस में निशांत की मम्मी का बहुत बड़ा हाथ था. उन्होंने स्निग्धा को एक बेटी की तरह घरपरिवार की जिम्मेदारी से अवगत कराया. उस ने भी अपनी सास से कुछ सीखने में संकोच नहीं किया. नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों में उस ने एक समझदार पत्नी, आदर्श बहू और सुलझी हुई गृहिणी के रूप में सब के दिलों में स्थान बना लिया.
अब उसे स्वयं विश्वास नहीं होता था कि वह 5 साल पहले की एक बिगड़ैल और गैरजिम्मेदार, सामाजिक परंपराओं को तोड़ने वाली लड़की थी.
निशांत इतना शांत और सरल स्वभाव का व्यक्ति था कि वह कभी भी स्निग्धा के अतीत की चर्चा नहीं करता था, परंतु वह स्वयं कभीकभी एकांत के क्षणों में सोचने पर मजबूर हो जाती थी कि शादी के पहले वह किस प्रकार का गंदा जीवन व्यतीत कर रही थी. उस ने तब अपने जीवन के लिए जो राह चुनी थी वह एक न एक दिन उसे पतन के गर्त में डुबो देती. बिना शादी के किसी पुरुष के साथ रहना और शादी कर के अपने पति व एक परिवार के बीच रहने में कितना अंतर था. अब उसे महसूस हो रहा था कि शादी के पहले वह एक डरासहमा, उपेक्षित और घृणास्पद जीवन व्यतीत कर रही थी.
अपने रूप और सौंदर्य पर स्निग्धा को बहुत अभिमान था. वह सुशिक्षित और संपन्न परिवार की लड़की थी, इसलिए लालनपालन बहुत प्यार व दुलार के साथ हुआ था. उस ने अपने जीवन में किसी अभाव को कभी महसूस नहीं किया था, उस के ऊपर किसी प्रकार के पारिवारिक और सामाजिक प्रतिबंध नहीं थे, वह जिद्दी और विद्रोही स्वभाव की हो गई थी.
सामाजिक और पारिवारिक वर्जनाओं को तोड़ने में उसे मजा आता. समाज के स्थापित मूल्यों की खिल्ली उड़ाना और उन के विपरीत काम करना उस के स्वभाव में शामिल था और प्यार, प्यार से बच कर आज तक इस दुनिया में शायद ही कोई रह पाया हो. प्रेम एक भाव है, एक अनुभूति है, जो मन की सोच और हृदय के स्पंदन से जुड़ा हुआ होता है. प्रेम एक प्राकृतिक अवस्था है, इसलिए इस से बचना बिलकुल असंभव है. परंतु वह किसी से प्यार भी करती थी या नहीं, यह किसी को पता नहीं चला था, क्योंकि वह बहुत चंचल थी और हर बात को चुटकियों में उड़ाना उस का शगल था.
कालेज के दिनों में वह हर तरह की गतिविधियों में भाग लेती थी. खेलकूद, नाटक, साहित्य और कला से ले कर विश्वविद्यालय संगठन के चुनाव तक में उस की सक्रिय भागीदारी होती थी. वह कई सारे लड़कों के साथ घूमती थी और पता नहीं चलता था कि वह पढ़ाई कब करती थी. बहुत कम लड़कियों के साथ उस का उठनाबैठना और घूमनाफिरना होता था, जबकि वह गर्ल्स होस्टल में रहती थी.
एक दिन पता चला कि वह यूनियन अध्यक्ष राघवेंद्र के साथ एक ही कमरे में रहने लगी थी. दोनों ने विश्वविद्यालय के होस्टलों के अपनेअपने कमरे छोड़ दिए थे और ममफोर्डगंज में एक कमरा ले कर रहने लगे थे. उस कालेज के लिए ही नहीं, पूरे शहर के लिए बिना ब्याह किए एक लड़की का एक लड़के के साथ रहने की शायद यह पहली घटना थी. वह छोटा शहर था, परंतु इस बात को ले कर कहीं कोई हंगामा नहीं मचा. राघवेंद्र यूनियन का लीडर था और स्निग्धा के विद्रोही व उग्र स्वभाव के कारण किसी ने खुले रूप में इस की चर्चा नहीं की. स्निग्धा के घर वालों को पता चला या नहीं, यह किसी को नहीं मालूम, क्योंकि उस के परिवार के लोग फतेहपुर जिले के किसी गांव में रहते थे. उस के पिता उस गांव के एक संपन्न किसान थे.
अगर कहीं कोई हलचल हुई थी तो केवल निशांत के हृदय में जो मन ही मन स्निग्धा को प्यार करने लगा था. वे दोनों सहपाठी थे और एक ही क्लास में पढ़तेपढ़ते पता नहीं कब स्निग्धा का मोहक रूप और चंचल स्वभाव निशांत के मन में घर कर गया था और उस के हृदय ने स्निग्धा के लिए धड़कना शुरू कर दिया था. स्निग्धा के दिल में निशांत के लिए ऐसी कोई बात थी, यह नितांत असंभव था. अगर ऐसा होता तो स्निग्धा राघवेंद्र के साथ बिना शादी किए क्यों रहने लगती?
यह उन दोनों का यूनिवर्सिटी में अंतिम वर्ष था. निशांत प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. एमए करने के तुरंत बाद उसे नौकरी मिल गई और वह स्निग्धा की छवि को अपने दिल में बसाए दिल्ली चला आया.
निशांत के सिवा किसी को पता नहीं था कि वह स्निग्धा को प्यार भी करता था. 5 साल तक उसे यह भी पता नहीं चला कि स्निग्धा कहां और किस अवस्था में है. उस ने पता करने की कोशिश भी नहीं की, क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि स्निग्धा अब न तो किसी रूप में उस की हो सकती थी न उसे कभी मिल सकती थी. दोनों के रास्ते कब के जुदा हो चुके थे.
फिर एक दिन कश्मीरी गेट जाने वाली मैट्रो ट्रेन में वे दोनों आमनेसामने बैठे थे. भीड़ नहीं थी, इसलिए वे एकदूसरे को अच्छी तरह देख सकते थे. पहले तो दोनों सामान्य यात्रियों की तरह बैठे अपनेआप में मग्न थे. लेकिन थोड़ी देर बाद सहज रूप से उन की निगाहें एकदूसरे से टकराईं. पहले तो समझ में नहीं आया, फिर अचानक पहचान के भाव उन की आंखों में तैर गए. लगातार कुछ पलों तक टकटकी बांध कर एकदूसरे को देखते रहे. फिर उन की आंखों में पूर्ण पहचान के साथसाथ आश्चर्य और कुतूहल के भाव जागृत हुए.
निशांत का दिल धड़क उठा, बिलकुल किशोर की तरह, जिसे किसी लड़की से पहली नजर में प्यार हो जाता है. अपनी अस्तव्यस्त सांसों के बीच उस ने अपनी उंगली उस की तरफ उठाई और फिर एकसाथ ही दोनों के मुंह से निकला, ‘आप…’
उन के बीच में कभी अपनत्व नहीं रहा था. एकसाथ एक ही कक्षा में पढ़ते हुए भी कभीकभार ही उन के बीच बातचीत हुई होगी, परंतु उन बातों में न तो आत्मीय मित्रता थी, न प्रगाढ़ता. इसलिए औपचारिकतावश उन के मुंह से एकसाथ ‘आप’ निकला था.
वह अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ और उस के नजदीक आ कर बोला, ‘स्निग्धा.’
‘हां,’ वह भी अपनी सीट से उठ कर खड़ी हो गई और उस की आंखों में झांकते हुए बोली, ‘मैं तो देखते ही पहचान गई थी.’
‘मैं भी. परंतु विश्वास नहीं होता. आप यहां…?’ उस के मुंह में शब्द अटक गए. गौर से स्निग्धा को देखने लगा. वह कितनी बदल गई थी. पहले और आज की स्निग्धा में जमीनआसमान का अंतर था. उस का प्राकृतिक सौंदर्य विलुप्त हो चुका था. चेहरे का लावण्य, आंखों की चंचलता, माथे की आभा, चेहरे की लाली और होंठों का गुलाबीपन कहीं खो सा गया था. उस के होंठ सूख कर डंठल की तरह हो गए थे. आंखों के नीचे कालीकाली झाइयां थीं, जैसे वह कई रातों से ढंग से सोई न हो. वह पहले से काफी दुबली भी हो गई थी. छरहरी तो पहले से थी, लेकिन तब शरीर में कसाव और मादकता थी.
परंतु अब उस की त्वचा में रूखापन आ गया था, जैसे रेगिस्तान में कई सालों से वर्षा न हुई हो. निशांत को उस का यह रूप देख कर काफी दुख हुआ, परंतु वह उस के बारे में पूछने का साहस नहीं कर सकता था. उन के बीच बस पहचान के अलावा कोई बात नहीं थी. वह भले ही उसे प्यार करता था परंतु उस के भाव उस के मन में थे और मन में ही रह गए थे. क्या स्निग्धा को पता होगा कि वह कभी उसे प्यार करता था? शायद नहीं, वरना क्या वह दूसरे की हो जाती और वह भटकने के लिए अकेला रह जाता.
यह तो वही जानता था कि उस का प्यार अभी मरा नहीं था, वरना अच्छीभली नौकरी मिलने और घर वालों के दबाव के बावजूद वह शादी क्यों न करता? उसे स्निग्धा का इंतजार नहीं था, परंतु एकतरफा प्यार करने की जो चोट उस के दिल पर पड़ी थी उस से अभी तक वह उबर नहीं पाया था और आज स्निग्धा फिर उस के सामने बैठी थी. क्या सचमुच जीवन में…कह नहीं सकता. वह तो आज दोबारा मिली ही है. क्या पता यह मुलाकात क्षणिक हो. कल फिर वह वापस चली जाए. उस के जीवन में तो पहले से ही राघवेंद्र बैठा है. उस ने अपने दिल में एक कसक सी महसूस की.
‘हां, मैं यहां,’ वह बोली. स्निग्धा स्वयं भी निशांत के साथ अकेले में समय बिताने को व्याकुल थी, ‘पर क्या सारी बातें हम ट्रेन में ही करेंगे?’ वह बोली, ‘कहीं बैठ नहीं सकते?’
‘क्या इतनी फुरसत है आप के पास? मैं तो औफिस से छुट्टी कर लेता हूं.’
‘हां, अब मेरे पास फुरसत ही फुरसत है. बस, कुछ देर के लिए बाराखंबा रोड के एक औफिस में काम है. उस के बाद मैं तुम्हारी हूं,’ स्निग्धा के मुरझाए चेहरे पर एक चमक आ गई थी. उस की आंखों की चंचलता लौट आई थी. निशांत ने आश्चर्य से उस की तरफ देखा. उस की अंतिम बात का क्या अर्थ हो सकता था? क्या वह सचमुच उस की हो सकती थी?
दोनों ने आपस में सलाह की. निशांत ने अपने औफिस फोन कर के बता दिया कि तबीयत खराब होने के कारण वह आज औफिस नहीं आ सकता था. वह लोधी रोड स्थित सीजीओ कौंप्लैक्स के एक सरकारी दफ्तर में जूनियर औफिसर था.
स्निग्धा ने बताया कि उसे बाराखंभा रोड स्थित एक प्राइवेट औफिस में इंटरव्यू के लिए जाना था. दिल्ली आने के बाद वह एक सहेली के साथ पेइंगगेस्ट के रूप में पीतमपुरा में रहती थी. निशांत भी उसी तरफ रोहिणी में रहता था. कनाट प्लेस या सैंट्रल दिल्ली जाने के लिए उन दोनों का मैट्रो से एक ही रास्ता था, परंतु उन दोनों की मुलाकात आज पहली बार हुई थी.
स्निग्धा का इंटरव्यू लगभग साढे़ 10 बजे खत्म हो गया था. उस के बाद वे दोनों खाली थे. उन के कदम साउथ इंडियन कौफी हाउस में जा कर रुके. वहां एकांत होने के साथसाथ नीम अंधेरा रहता था. वे दोनों खुल कर अपने मन की गांठें खोल सकते थे और एकदूसरे की आंखों के रास्ते मन की बातें जान सकते थे. कोल्ड कौफी का और्डर देने के बाद निशांत ने उस के सूखे उदास चेहरे की तरफ देखा. वह तो जैसे लगातार उसे ही देखे जा रही थी. वे दोनों एकदूसरे को देख तो रहे थे परंतु उन के मन में संकोच था. बातचीत का सिलसिला कहां से आरंभ हो, कौन पहल करे, यही बात उन दोनों के मन में घुमड़ रही थी.
तब तक कोल्ड कौफी के लंबेलंबे 2 गिलास उन के सामने रखे जा चुके थे.
स्निग्धा वैसे चंचल रही थी परंतु आज चुप थी. निशांत स्वभाव से ही अंतर्मुखी था. अंतर्मुखी नहीं होता तो स्निग्धा आज उस की होती. तब वह अपने मन की बात उस से नहीं कह पाया था. क्या आज कह पाएगा? आज स्निग्धा के पास समय भी था और वह उस के सामने बैठी थी, उस की बात सुनने के लिए परंतु एक रुकावट थी जो बारबार निशांत को परेशान किए जा रही थी. स्निग्धा पहले से ही राघवेंद्र की है. उस को छोड़ कर क्या वह उस की हो सकती थी? ऐसा संभव तो नहीं था. स्निग्धा के विद्रोही स्वभाव से वह परिचित था. वह जो ठान लेती थी उसे कर के ही मानती थी. भले ही बाद में उसे नुकसान उठाना पड़े.
कई पल खामोशी से गुजर गए. यह खामोशी उबाऊ लगने लगी तो स्निग्धा ने ही कहा, ‘क्या हम यहां ऐसे ही बैठने के लिए आए हैं? कुछ मन की नहीं कहेंगे?’
‘आप ही कुछ बताओ,’ उस ने ऐसे कहा जैसे उसे कुछ बोलना नहीं था. वह केवल उस की बातें सुनने के लिए ही उस के साथ आया था. वैसे वह उस के विगत जीवन के बारे में जानने का इच्छुक नहीं था, परंतु जाने बिना उसे कैसे पता चल सकता था कि इलाहाबाद और राघवेंद्र को छोड़ कर वह दिल्ली में क्या कर रही थी? आजकल किस के साथ रह रही थी? ऐसी लड़कियां क्या एक पल के लिए अकेली रह सकती हैं? एक मर्द छोड़ती हैं तो दूसरा पकड़ लेती हैं. इस तरह के संबंधों में कोई प्रतिबद्धता नहीं होती, न एकदूसरे के प्रति कोई जिम्मेदारी और लगाव यही तो आधुनिकता है.
‘मुझे विश्वास नहीं होता हम यहां एकसाथ,’ कह कर स्निग्धा ने बात आरंभ की.
निशांत ने यह नहीं पूछा कि उसे किस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था, फिर उस के मुंह से निकला, ‘और मुझे भी.’
वह मुखर हो उठी. एक बार बात शुरू हो जाए तो स्निग्धा की जबान को पर लग जाते थे. उस ने कहा, ऐसी ही घटनाओं से लगता है कि दुनिया वाकई बहुत छोटी है. जीवन के एक मोड़ पर हम अलग होते हैं तो अगले मोड़ पर फिर मिल जाते हैं.’
स्निग्धा बातें करते हुए अब काफी प्रफुल्लित लग रही थी. कुछ देर पहले की उदासी उस के चेहरे से गायब हो गई थी. ऐसा लग रहा था, जैसे उसे अपनी खोई हुई बहुत कीमती चीज मिल गई थी. उस के बदन में थिरकन आ गई थी और आंखों की पुतलियां नाचने लगी थीं.
निशांत उसे एकटक देखता जा रहा था. उस ने सोचा, वह इसी तरह खुश रहेगी तो शायद उस का खोया हुआ यौवन और सौंदर्य एक दिन वापस आ जाएगा.
वह दिल की धड़कन को संभाले बैठा रहा. फिर भी विचार उमड़घुमड़ रहे थे. स्निग्धा जैसी लड़की उस के साथ, बिलकुल उस के सामने बैठी हो और वह निरपेक्ष व निस्पृह रहे, क्या ऐसा संभव था?
वह स्निग्धा के चेहरे के चढ़तेउतरते और बदलते भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहा था कि अचानक स्निग्धा ने पूछ लिया, ‘क्या तुम ने शादी कर ली?’ वह अवाक् रह गया. स्निग्धा पहली बार अनौपचारिक हुई थी. उस ने निशांत को ‘तुम’ कहा था.
निशांत ने अपना चेहरा नीचे झुका लिया, ‘अभी शादी के बारे में सोचा नहीं है. नौकरी मिलने के बाद अपने पांव जमाने का प्रयास कर रहा हूं. जिस दिन लगेगा कि अब जीवन में हर प्रकार का स्थायित्व आ गया है, आर्थिक और सामाजिक, तो शादी के बारे में सोचूंगा.’
‘तब सोचोगे?’ स्निग्धा ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ‘नौकरी मिलने के बाद भी क्या शादी के लिए सोचना पड़ता है? नौकरी ही तो हर प्रकार का स्थायित्व देती है. अब क्या सोचना. यहां तो लोग बिना किसी आय के शादी के बारे में सोचते हैं. मांबाप भी, चाहे बेटा बेरोजगार क्यों न हो, उस के जवान होते ही उस की शादी करने के लिए उतावले हो जाते हैं. फिर तुम तो हर प्रकार से सक्षम हो. बात कुछ मेरी समझ में नहीं आ रही है.’
इस संबंध में उस ने स्निग्धा को कोई स्पष्टीकरण देना उचित नहीं समझा. कोई आवश्यकता भी नहीं थी. वह चुप रहा तो स्निग्धा ने ही शरारती मुसकराहट के साथ कहा, ‘तुम अभी तक मुझे भूले नहीं हो, क्यों? है न यही बात?’
निशांत के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. उस की आंखें स्निग्धा की आंखों से जा टकराईं, जैसे पूछ रही थीं, ‘तो तुम जानती थीं?’
स्निग्धा उस के भावों को समझते हुए बोली, ‘हां, मुझे पता था. मेरा जिस तरह का स्वभाव था और जिस प्रकार मैं यूनियन के कार्यों व खेलकूद में भाग लेती थी, हर प्रकार के व्यक्ति से मेरा वास्ता पड़ता था, किसी के व्यक्तित्व के बारे में जानना मेरे लिए मुश्किल नहीं था. उन दिनों लड़के जिस प्रकार मेरे लिए पागल थे, मैं महसूस करती थी. जो खुल कर मेरे सामने आते थे, उन को भी और जो चुपचाप अपने मन की बात मन की पर्तों में छिपा कर रखते थे, उन के बारे में भी जानती थी.
किसी लड़की के लिए लड़कों की निगाहों के भाव पढ़ना मुश्किल नहीं होता और फिर जिस प्रकार कक्षा में पीछे बैठ कर तुम मुझे देखा करते थे. डिपार्टमैंट के अंदर आतेजाते, सीढि़यां चढ़तेउतरते मुझे देख कर जिस प्रकार तुम्हारी आंखों में चमक आ जाया करती थी, वह मुझ से कभी छिपी नहीं रही थी. परंतु ये वे दिन थे जब सैकड़ों लड़के मेरे सौंदर्य के कायल थे और मेरा तनमन जीतने के युद्ध में सम्मिलित थे वैसी स्थिति में तुम्हारे जैसे सच्चे प्रेमी को नकार देना किसी भी लड़की के लिए बहुत आसान था. उस समय समझदार से समझदार लड़की भी यश और धन की चमक में खो कर सच्चा प्रेम नहीं पहचान पाती है. वह मगरूर हो जाती है और प्रेमियों की भीड़ में सच्चा प्यार खो देती है.’
कहतेकहते उस ने निसंकोच निशांत का दाहिना हाथ पकड़ लिया और प्यार से उसे सहलाते हुए बोली, ‘मुझे खेद है कि मैं ने तुम्हारे जैसा हीरा खो दिया, परंतु अफसोस तो मुझे इस बात का अधिक है कि आजादी और समाज से विद्रोह के नाम पर परंपराओं को तोड़ने का जो नासमझी भरा कदम मैं ने इलाहाबाद जैसे पारंपरिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक शहर में किया था, वह मेरे जीवन की सब से बड़ी भूल थी. उस भूल का परिणाम तुम देख ही रहे हो कि आज मैं कैसी हूं और कितनी तन्हा. इतनी तन्हा, जितना किसी गुफा का सन्नाटा हो सकता है.’
स्निग्धा की आंखों में आंसू छलक आए. निशांत ने उस की आंखों को देखा, परंतु उस ने उस के आंसू पोंछने का कोई प्रयास नहीं किया. बस, अपने हाथों को धीरे से उस के हाथों से अलग कर के कहा, ‘हर आदमी जीवन में कोई न कोई भूल करता है, परंतु उस के लिए अफसोस करने से दुख कम नहीं होता, बल्कि बढ़ता ही है,’ उस के स्वर में दृढ़ता थी.
‘सच कहते हो तुम,’ उस ने झटके से अपने आंसू पोंछ डाले और मुसकराने का प्रयास करती हुई बोली, ‘मैं अपना अतीत याद नहीं करना चाहती, परंतु उसे बताए बिना तुम मेरी बात नहीं समझ पाओगे. विगत की हर एक बात मैं तुम्हें नहीं बताऊंगी. बस, उतना ही जितने से तुम मेरे मन को समझ सको और यह समझ सको कि मैं ने अपने विद्रोही स्वभाव के कारण क्या पाया और क्या खोया.’
‘इतना भी आवश्यक नहीं है,’ वह गंभीरता से बोला, ‘तुम सामान्य बातें करोगी तो मुझे अच्छा लगेगा.’
‘मैं तुम्हारे मन की दशा समझ सकती हूं. तुम मेरे दुख से दुखी नहीं होना चाहते हो.’
‘मैं तुम्हारे सुख से सुखी होना चाहता हूं,’ उस ने स्पष्ट किया.
स्निग्धा को उस की बात से घोर आश्चर्य हुआ. वह हकबका कर बोली, ‘मैं कुछ समझी नहीं?’
‘जिस जगह तुम मुझे छोड़ कर गई थीं, उसी जगह पर मैं अभी तक खड़ा हो कर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं,’ उस ने निसंकोच कहा.
स्निग्धा के हृदय में मधुर वीणा के तारों सी झंकार हुई, ‘लेकिन तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं बिना शादी के राघवेंद्र के साथ रह रही थी. तुम्हें पता नहीं है कि पिछले 5 सालों में मेरे साथ क्याक्या गुजरा है?’
निशांत ने प्रश्नवाचक भाव से उस की तरफ देखा और अपने दोनों हाथों को मेज पर रख कर उस की तरफ झुकता हुआ बोला, ‘तुम चाहो तो बता सकती हो.’
स्निग्धा ने एक राहत भरी सांस ली और बोली, ‘मैं बहुत लंबा व्याख्यान नहीं दूंगी. मेरी बातों से ऊबने लगो तो बता देना.’
उस ने सहमति में सिर हिलाया और तब स्निग्धा ने धीरेधीरे उसे बताया, ‘मैं ने परंपराओं, सामाजिक मर्यादा और वर्जनाओं का विरोध किया. बिना शादी के एक युवक के साथ रहने लगी. परंतु जिसे मैं ने आजादी समझा था वह तो सब से बड़ा बंधन था. सामाजिक बंधन में तो फिर भी प्रतिबद्धता होती है, एकदूसरे के प्रति लगाव और कुछ करने की चाहत होती है परंतु बिना बंधन के संबंधों का आधार बहुत सतही होता है. वह केवल एक विशेष जरूरत के लिए पैदा होता है और जरूरत पूरी होते ही मर जाता है.
‘मैं राघवेंद्र के साथ रहते हुए बहुत खुश थी. हम दोनों साथसाथ घूमते, राजनीतिक पार्टियों में शामिल होते. मेरी अपनी महत्त्वाकांक्षा भी थी कि राघवेंद्र के सहारे मैं राजनीति की सीढि़यां चढ़ कर किसी मुकाम तक पहुंच जाऊंगी, परंतु यह मेरी भूल थी. 3 साल बाद ही मुझे महसूस होने लगा कि राघवेंद्र मुझे बोझ समझने लगा था. अब वह मुझे अपने साथ बाहर ले जाने से भी कतराने लगा था. बातबात पर खीझ कर मुझे डांट देता था.
मैं समझ गई, वह केवल अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए मुझे अपने साथ रखे हुए था. मेरा रस चूस लेने के बाद अब वह मुझे बासी समझने लगा था. वह मुरझाए फूल की तरह मुझे फेंक देना चाहता था. उस की बेरुखी से मैं ने महसूस किया कि हम जिस शादी के बंधन को बोझ समझते हैं, वह वाकई वैसा नहीं है. बिना शादी के भी तो 2 व्यक्ति वही सबकुछ करते हैं, परंतु बिना किसी जिम्मेदारी के और जब एकदूसरे से ऊब जाते हैं तो बड़ी आसानी से जूठी पत्तल की तरह फेंक देते हैं. लेकिन मान्यताप्राप्त बंधन में ऐसा नहीं होता.
‘मैं ने भी अगले 2 साल तक और बरदाश्त किया, परंतु एक दिन राघवेंद्र ने मुझ से साफसाफ कह दिया कि मुझे अपना राजनीतिक कैरियर बनाना है. तुम अपने लिए कोई दूसरा रास्ता चुन लो. तुम्हारे साथ रहने से मेरी बदनामी हो रही है. अगला आम चुनाव आने वाला है. अगर तुम मेरे साथ रहीं तो मेरी छवि धूमिल हो जाएगी और मुझे टिकट नहीं मिलेगा.’
‘मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई. मेरी सारी शक्ति, समाज से बगावत करने का जोश जैसे खत्म हो गया. मैं समझ गई, नारी चाहे जितना समाज से विद्रोह करे, पुरुष के हाथों की कठपुतली न बनने का मुगालता पाल ले, परंतु आखिरकार वह वही करती है जो पुरुष चाहते हैं. वह पुरुष की भोग्या है. जानेअनजाने वह उस के हाथों से खेलती रहती है और सदा भ्रम में जीती है कि उस ने पुरुष को ठोकर मार कर आजादी हासिल कर ली है.
‘जिस समाज से मैं विद्रोह करना चाहती थी, जिस की मान्यताएं, परंपराओं और वर्जनाओं को तोड़ कर मैं आगे बढ़ना चाहती थी, उसी समाज के एक कुलीन और सभ्य व्यक्ति ने मेरा सतीत्व लूट लिया था या यों कहिए कि मैं ने ही उस के ऊपर लुटा दिया था. बताओ, एक शादीशुदा औरत और मुझ में क्या फर्क रहा? शादीशुदा औरत को भी पुरुष भोगता है और बिना शादी किए मुझे भी एक पुरुष ने भोगा. उस ने अपनी भूख मिटा ली. परंतु नहीं, हमारी जैसी औरतों और शादीशुदा औरतों में एक बुनियादी फर्क है. जहां शादीशुदा औरत यह सब कुछ एक मर्यादा के अंतर्गत करती है, हम निरंकुश हो कर वही काम करती हैं. एक पत्नी को शादी कर के परिवार और समाज की सुरक्षा मिलती है, परंतु हमारी जैसी औरतों को कोई सुरक्षा नहीं मिलती. पत्नी के प्रति पति जिम्मेदार होता है, उस के सुखदुख में भागीदार होता है, जीवनभर उस का भरणपोषण करता है, परंतु हमें भोगने वाला व्यक्ति हर प्रकार की जिम्मेदारी से मुक्त होता है. वह हमें रखैल बना कर जब तक मन होता है, भोगता है और जब मन भर जाता है, ठोकर मार कर गलियों में भटकने के लिए छोड़ देता है.’
वह बड़ी धीरता और गंभीरता से अपनी बात कह रही थी. निशांत पूर्ण खामोशी से उस की बातें सुन रहा था. बीच में उस ने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की, न कुछ बोला. अपनी बात खत्म करतेकरते स्निग्धा भावों के अतिरेक से विह्वल हो कर रोने लगी. परंतु निशांत ने उसे चुप नहीं कराया.
कुछ देर बाद वह स्वयं शांत हो गई.
पता नहीं, निशांत क्या सोच रहा था. उस का सिर झुका हुआ था और लग रहा था जैसे वह स्निग्धा की सारी बातों को मन ही मन गुन रहा था, उन पर मनन कर रहा था. फिर और कई पल गुजर गए. इस बीच वेटर आ कर कई बार पूछ गया कि कुछ और चाहिए या बिल लाऊं. उस ने इशारे से उसे 2 और कोल्ड कौफी लाने को आदेश दे दिया था.
वह सारा दिन उन दोनों ने साथसाथ व्यतीत किया. पालिका बाजार, सैंट्रल पार्क, कनाट प्लेस से ले कर पुराने किले से होते हुए वे इंडिया गेट तक गए और रात 8 बजे तक वहीं बैठ कर उन्होंने जीवन के हर पहलू के बारे में बात की. निशांत हवा के साथ उड़ रहा था तो स्निग्धा के मन में अपने विगत को ले कर एक अपराधबोध था. निशांत हर प्रकार की खुशबू अपने दामन में समेटने के लिए आतुर था तो स्निग्धा संकोच के साथ अपने पांव पीछे खींच रही थी.
निशांत के जीवन की खोई हुई खुशियां जैसे दोबारा लौट आई थीं. उस के जीवन में 5 साल बाद वसंत के फूल महके थे. स्निग्धा को उस के घर के बाहर तक छोड़ कर जब वह वापस लौट रहा था तब उस के कानों में स्निग्धा के मीठे स्वर गूंज रहे थे, ‘बाय निशू, गुड नाइट. एक अच्छे दिन के लिए बहुतबहुत धन्यवाद. आशा है, हम कल फिर मिलेंगे.’
‘हां, कल शाम को मैं तुम्हें फोन करूंगा, ओके.’
स्निग्धा के घर से उस के घर के बीच का रास्ता कितनी जल्दी खत्म हो गया, उसे पता ही न चला. अपने 2 कमरों के किराए के मकान में पहुंच कर उसे लगा, जैसे पूरा घर ताजे फूलों से सजा हुआ हो और उन की मादक सुगंध चारों तरफ फैल कर उस के दिमाग को मदहोश किए दे रही थी. वह एक लंबी सांस ले कर पलंग पर धम से गिर पड़ा.
उसे स्निग्धा के साथ मिलने के संयोग पर विश्वास नहीं हो रहा था.
विश्वास तो स्निग्धा को भी नहीं हो रहा था. वह अपने कमरे की सीढि़यां चढ़ते हुए यही सोच रही थी कि निशांत से मिलने के बाद क्या उस के जीवन में कोई बड़ा परिवर्तन होने वाला है. क्या यह परिवर्तन सुखद होगा? कमरे में पहुंची तो उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, जैसे वह फूल की तरह हलकी हो गई थी और उसे लग रहा था कि हवा का एक हलका झोंका भी आया तो वह आसमान में उड़ जाएगी. कोई उसे पकड़ नहीं पाएगा.
उस की रूममेट रश्मि ने जब उस का हंसता हुआ चेहरा देखा तो पहला प्रश्न यही किया, ‘लगता है, तुम्हारा खोया हुआ प्यार तुम्हें मिल गया है?’
उस ने पर्स को मेज पर पटका और रश्मि को गले से लगा कर भींच लिया. रश्मि कसमसा उठी और उसे परे करती हुई बोली, ‘इतना ज्यादा मत इतराओ. अभी एक प्यार की चोट पूरी तरह से भरी नहीं है और फिर से तुम प्यार करने लगी हो. कहां तो समाज की हर चीज से बगावत करने पर तुली हुई थीं, कहां अब एक आम लड़की की तरह बारबार प्यार में इस तरह गिर रही हो, जैसे गीले गुड़ में मक्खी…क्या यही है तुम्हारा आदर्श?’
‘अरे, भाड़ में जाए समाज से विद्रोह. वह मेरी बेवकूफी थी कि मैं नैतिकता को बंधन समझती थी. दरअसल, यही सच्चा जीवनमूल्य है, जो हमें एक नैतिक और मर्यादित बंधन में रख कर समाज और राष्ट्र को आगे बढ़ाने में मदद करता है. निरंकुश आजादी मनुष्य को गैरजिम्मेदार और तानाशाह बना देती है, जबकि सामाजिक मूल्य हमें एक निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करते हैं.’
‘वाह, तुम तो एक दिन ही में सारे जीवनमूल्यों को पहचान गईं. किस ने ऐसा गुरुमंत्र दिया है जो अपनी बनाई हुई लीक को तोड़ने पर मजबूर हो गई हो? क्या पहले प्यार में धोखा खाने के बाद तुम्हें यह एहसास हुआ है या किसी ने तुम्हें भारतीय दर्शन और संस्कृति का पाठ पढ़ाया है?’
वह पलंग पर बैठती हुई बोली, ‘नहीं रश्मि, बहुतकुछ हम अपने अनुभवों से सीखते हैं और बहुतकुछ हम अपने संपर्क में आने वाले लोगों से. इस से कुछ कटु अनुभव होते हैं और कुछ मृदु. यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि अपने द्वारा किए गए गलत कामों के कटु अनुभवों से हम क्या सीखते हैं और हम किस प्रकार अपने को बदल कर सही मार्ग पर आते हैं.
समाज में हर चीज गलत नहीं होती. हमें अपने विवेक से देखना पड़ता है कि क्या सही है, क्या गलत. सामाजिक कुरीतियां, अंधविश्वास, अति पूजापाठ और धर्मांधता अगर बुरे हैं तो शादीब्याह जैसी संस्थाएं बुरी नहीं हैं. यह परिवार और समाज को एक बंधन में बांध कर राष्ट्र को मजबूत बनाने में मदद करती हैं. मेरी गलती थी कि मैं समाज की हर चीज को बुरा समझने लगी थी. मनमाने ढंग से जीवन जीने का परिणाम क्या हुआ? एक व्यक्ति जिसे मैं अपना समझती थी कि वह जीवनभर मेरा साथ देगा, मेरे सुखदुख बांटेगा, वही मेरा उपभोग कर के एक किनारे हो गया.
‘यही काम अगर मैं शादी कर के करती तो समाज में गर्व से अपना सीना तान कर चल सकती थी. आज मैं अपने मांबाप, परिजनों और संबंधियों के सामने नहीं पड़ सकती, उन को अपना मुंह नहीं दिखा सकती. इतनी नैतिक शक्ति मेरे पास नहीं है,’ और उस के चेहरे पर फिर से पहले जैसी उदासी व्याप्त हो गई.
रश्मि बहुत समझदार लड़की थी. वह उस के पास आ कर उस के सिर पर हाथ रख कर बोली, ‘तुम बहुत साहसी लड़की हो. कभी इस तरह हिम्मत नहीं हारतीं. आज तुम कितना खुश थीं. मुझे अफसोस है कि मैं ने तुम्हारी दुखती रग पर हाथ रख कर तुम्हें ज्यादा दुखी कर दिया. चलो, भूल जाओ अपना अतीत और नए सिरे से अपना जीवन शुरू करो. अब मैं तुम से पिछले जीवन के बारे में कोई बात नहीं करूंगी. बस, तुम खुश रहा करो.’
‘मैं खुश हूं, रश्मि,’ उस ने हंसने का खोखला प्रयास किया और बाथरूम की तरफ जाती हुई बोली, ‘तुम देखना, मैं हमेशा हंसतीमुसकराती रहूंगी.’
‘ये हुई न कोई बात.’
स्निग्धा ने अपने मन को इतना कठोर बना लिया था कि राघवेंद्र के साथ व्यतीत किए गए जीवन के कड़वे पलों को पूरी तरह भुला दिया था. अगर कभी यादें उसे हरा देतीं तो उस को उबकाई आने लगती.
आज वह एक सच्चे प्यार की तलाश में थी, तन की भूख की अब उस में कोई ललक नहीं थी.
रश्मि एक कौल सैंटर में काम करती थी. लखनऊ की रहने वाली थी. स्निग्धा से उस की मुलाकात इसी गैस्ट हाउस में हुई थी. रश्मि पहले से यहां रह रही थी. बाद में स्निग्धा आ गई तो उन्होंने एकसाथ एक कमरे में रहने का निर्णय लिया. इस से उन पर किराए का बोझ कम हो गया था.
स्निग्धा जब से आई थी, बहुत उदास और गुमसुम सी रहती थी. बहुत पूछने और साथ रहने के कारण स्निग्धा ने उस से अपने जीवन की बहुत सारी बातें बांट ली थीं. रश्मि ने भी उसे अपने बारे में बहुतकुछ बताया था. धीरेधीरे स्निग्धा खुश रहने लगी थी परंतु आज बाहर से आने के बाद वह जितना खुश थी उतना दिल्ली आने के बाद कभी नहीं रही.
स्निग्धा दिल की बुरी नहीं थी. अत्यधिक प्यारदुलार और अनुचित छूट से वह उद्दंड और उच्छृंखल हो गई थी. वह हर उस काम को करती थी जिसे करने के लिए उसे मना किया जाता था. इस से उसे मानसिक संतुष्टि मिलती. जब लोग उसे भलाबुरा कहते और उस की तरफ नफरतभरी नजर से देखते तो उसे लगता कि उस ने इस संसार को हरा दिया है, यहां के लोगों को पराजित कर दिया है. वह इन सब से अलग ही नहीं, इन सब से महान है. दूसरे लोगों के बारे में उस की सोच थी कि ये लोग परंपराओं और मर्यादाओं में बंधे हुए गुलामों की तरह अपनी जिंदगी जी रहे हैं.
शादी को वह एक बंधन समझती थी. इसे स्त्री की पुरुष के प्रति गुलामी समझती थी. उस की सोच थी कि शादी करने के बाद पुरुष केवल स्त्री पर अत्याचार करता है. इसलिए उस ने ठान लिया था कि वह शादी कभी नहीं करेगी.
परंतु बिना शादी किए किसी पुरुष के साथ रहना उसे अनुचित न लगा.
उसे इलाहाबाद के वे दिन याद आते हैं जब राघवेंद्र के साथ रहते हुए पीठ पीछे उसे लोग न जाने किनकिन विशेषणों से संबोधित करते थे, जैसे- ‘चालू लड़की’, ‘चंट’, ‘छिछोरी’, ‘रखैल’ आदिआदि. तब उसे इन संबोधनों से कोई फर्क नहीं पड़ता था. वह किसी की बात पर कान नहीं धरती थी. वह बेफिक्री का आलम था और राघवेंद्र जैसे राजनीतिक नेता से उस का संपर्क था. वह सातवें आसमान पर थी और जमीन पर चल रहे कीड़ेमकोड़ों से वह कोई वास्ता नहीं रखना चाहती थी. उन दिनों उसे अच्छी बात अच्छी नहीं लगती थी और बुरी बात को वह सुनने के लिए तैयार नहीं थी. लोग उस के बारे में क्या सोचते थे, इस से उस को कोई लेनादेना नहीं था.
स्निग्धा के जीवन के साथ खिलवाड़ करने के लिए केवल राघवेंद्र ही जिम्मेदार नहीं था, इस के लिए स्निग्धा स्वयं जिम्मेदार और दोषी थी. अपनी गलती से उस ने सबक लिया था कि परंपराओं का उल्लंघन हमेशा उचित नहीं होता. राघवेंद्र ने भी स्निग्धा के शरीर से खेलने के बाद उसे छोड़ कर अच्छा नहीं किया था. इस प्रकार के चरित्र से उस का राजनीतिक जीवन तहसनहस हो गया था. इलाहाबाद बहुत आधुनिक शहर नहीं था कि बिना ब्याह के स्त्रीपुरुषों के संबंधों को आसानी से स्वीकार कर लेता. अगले आम चुनाव में उसे पार्टी की तरफ से टिकट नहीं दिया गया. उस ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा, परंतु बुरी तरह हार गया.
स्निग्धा को आज एहसास हो रहा था कि अपने अति आत्मविश्वास के कारण मांबाप द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता का उस ने नाजायज फायदा उठाया था और अपने पांवों को गंदे दलदल में फंसा दिया था. वह अपने परिवार, संबंधियों और परिचितों से दूर हो गई. दोस्त उस का साथ छोड़ गए और आज वह इतनी बड़ी दुनिया में अकेली है. कोई उसे अपना कहने वाला नहीं है. थोड़ी देर के लिए अगर कोई सुखदुख बांटने वाला है तो वह है रश्मि, जो सच्चे मन से उस की बात सुनती है और सलाह देती है.
दिल्ली आ कर वह अपने इलाहाबाद के दिनों की कड़वी यादों को भुलाने में काफी हद तक सफल हो गई थी. वहां रहती तो शहर के रास्तों, गलीकूचों और बागबगीचों से गुजरते हुए अपने कटु अनुभवों को भुला पाना उस के लिए आसान न था. अब निशांत से मिलने के बाद क्या वह अपना पिछला जीवन भूल सकेगी? उस के मन में कोई फांस तो नहीं रह जाएगी कि वह निशांत को धोखा दे रही है. परंतु वह ऐसा क्यों सोच रही है? क्या वह समझती है कि निशांत उसे अपना बना लेगा? उस के दिल में एक टीस सी उठी. अगर निशांत ने उसे ठुकरा दिया तो. इस तो के आगे उस के पास कोई जवाब नहीं था. हो भी नहीं सकता था, परंतु संसार में क्या अच्छे पुरुषों की कमी है? अगर वह चाहती है कि शादी कर के अपना घर बसा ले और एक आम गृहिणी की तरह जीवन व्यतीत करे तो उसे कौन रोक सकता था. निशांत न सही, कोई भी पुरुष उस का हाथ थामने के लिए तैयार हो जाएगा. उस में कमी क्या है?
सच तो यह है कि आज पहली बार उस का दिल सच्चे मन से किसी के लिए धड़का है और वह है निशांत.
स्निग्धा को बाराखंभा वाली जौब मिल गई, उस के जीवन में खुशियों के पलों में इजाफा हो गया, लेकिन जीवन में एक ठहराव सा था. पुरुष हो या स्त्री, एकाकी जीवन दोनों के लिए कष्टमय होता है. यह बात निशांत भी जानता था और स्निग्धा भी, परंतु अभी तक उन्होंने अपने मन की पर्तों को नहीं खोला था. ताश के खिलाडि़यों की तरह दोनों ही अपनेअपने पत्ते छिपा कर चालें चल रहे थे.
प्रतिदिन शाम को वे दोनों मिलते थे. मिलने की एक निश्चित अवधि थी और निश्चित स्थान. इंडिया गेट के लंबेचौड़े, खुले मैदान. कभी बैठ कर, कभी घास पर चलते हुए और कभी फूलों के पौधों के किनारे चलते हुए वे दुनियाजहान की बातें करते, वहां घूम रहे लोगों के बारे में बातें करते, चांदतारों की बातें करते और लैंपपोस्ट की हलकी रोशनी में एकदूसरे की आंखों में चांद ढूंढ़ने की कोशिश करते.
उन को मिलते हुए कई महीने बीत गए. चांद अभी भी उन की पकड़ से दूर था. स्निग्धा पहले जितनी वाचाल और चंचल थी, अब उतनी ही अंतर्मुखी हो गई थी या शायद निशांत के संसर्ग में आ कर उस के जैसी हो गई थी. यह उस के स्वभाव के विपरीत था, परंतु मानव मन परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है. स्निग्धा उस के सामने अपने मन को बहुत ज्यादा नहीं खोल सकती थी, क्योंकि निशांत उस के बारे में सबकुछ जानता था. परंतु वह न तो उस के भूतकाल की कोई बात करता, न भविष्य के बारे में कोई बात. दोनों के बीच अनिश्चितता का एक लंबा ऊसर पसरा हुआ था. क्या इस ऊसर में प्यार का कोई अंकुर पनपेगा?
वोट क्लब के छोटेछोटे कृत्रिम तालाबों के किनारे चलते हुए निशांत ने पूछा, ‘जीवनभर अकेले ही रहने का इरादा है या कुछ सोचा है?’
‘क्या मतलब…?’ उस ने आंखों को चौड़ा कर के पूछा.
निशांत गंभीर था.
‘मांबाप के पास जाने का इरादा है?’ निशांत ने घुमा कर पूछा.
स्निग्धा के हृदय में कुछ चटक गया. फिर भी अपने को संभाल कर कहा, ‘उस तरफ के सारे रास्ते मेरे लिए बंद हो चुके हैं. न मुझ में इतना साहस है, न कोई इच्छा. उन के पास जा कर मुझे क्या मिलेगा? मुझे ही इस संसार सागर को पार करना है, अकेले या किसी के साथ?’ उस का स्वर भीगा हुआ था.
‘किस के साथ?’ निशांत ने उस का हाथ पकड़ लिया.
स्निग्धा के शरीर में एक मीठी सिहरन दौड़ गई. वह सिमटते हुए बोली, ‘जो भी मेरे मन को समझ लेगा.’
‘तो कोई ऐसा मिला है?’ वह जैसे उस के मन को परखने का प्रयास कर रहा था. स्निग्धा मन ही मन हंसी, ‘तो मुझ से बनने की कोशिश की जा रही है.’
वह आसमान की तरफ देखती हुई बोली, ‘देख तो रही हूं, सूरज के रथ पर सवार हो कर कोई औरों से बिलकुल अलग एक पुरुष मेरे जीवन में प्रवेश कर रहा है,’ आसमान में तारों का साम्राज्य था. चांद कहीं नहीं दिख रहा था, परंतु तारों की झिलमिलाहट आंखों को बहुत भली लग रही थी.’
‘परंतु आसमान में तो कहीं सूरज नहीं है, फिर उस का रथ कहां से आएगा?’ उस ने चुटकी ली.
‘अभी रात्रि है. रथ में जुते घोड़े थक गए हैं, वे विश्राम कर रहे हैं. कल फिर यात्रा मार्ग पर निकलेंगे,’ वह हंसी.
‘अच्छा, तो कल शाम तक यहां पहुंच जाएंगे?’
‘कह नहीं सकती. मार्ग लंबा है, समय लग सकता है,’ वह जमीन पर देखने लगी.
निशांत ने उस की कमर में हाथ डाल दिया. वह उस से सट गई.
‘जब सूरज का रथ तुम्हारे पास आ जाए तो उस पुरुष को ले कर मेरे पास आना, मेरे घर.’
‘अवश्य.’
एक दिन स्निग्धा ने मिलते ही एटम बम फोड़ा.
‘मैं तुम्हारे घर आना चाहती हूं.’
‘क्या सूरज का रथ और वह पुरुष आ चुका है?’ उस ने मुसकराती आंखों से स्निग्धा को देखते हुए पूछा.
‘हां,’ उस ने शरमाते हुए कहा.
‘कहां है?’
‘तुम्हारे घर पर ही उस से मिलवाऊंगी.’
‘तो फिर मुझे 2 दिन का समय दो. आने वाले इतवार को मैं घर पर तुम्हारा इंतजार करूंगा. ढूंढ़ लोगी न, भटक तो नहीं जाओगी?’
‘अब कभी नहीं,’ स्निग्धा ने आत्मविश्वास से कहा.
अगले इतवार को स्निग्धा उस के घर पर थी और कुछ ही महीनों बाद उस की बांहों में. कुछ साल में वह 2 बच्चों की मां बन चुकी थी. यह तो बताने की जरूरत नहीं पर दोनों बच्चे मां से ज्यादा दादादादी से चिपटे रहते और दादादादी बहू के बिना न कहीं जाते न उस से पूछे बिना कुछ करते. निशांत कई बार कहता, ‘‘तुम भी अजीब हो, मैं ने तुम्हें पाया, बदले में मेरे मातापिता को छीन कर तुम ने अपनी तरफ कर लिया.’’