पश्चिम बंगाल में सारदा चिटफंड का हादसा हुए भले ही अरसा हो गया हो लेकिन राज्य की ममता सरकार की एक स्वीकारोक्ति ने सियासत में इन फर्जी कंपनियों की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए हैं. आखिर ममता बनर्जी इन चिटफंड कंपनियों पर मेहरबानी क्यों दिखा रही हैं, पड़ताल कर रही हैं साधना शाह.

पश्चिम बंगाल इन दिनों चिटफंड रूपी बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है जिस में कभी भी विस्फोट हो सकता है. चिटफंड कंपनियों का अस्तित्व वाम जमाने में भी था. लेकिन अब ये कंपनियां पहले से कहीं अधिक सक्रिय हैं और बड़े पैमाने पर फलफूल भी रही हैं. बल्कि अब तो ज्यादातर ऐसी फर्जी कंपनियां अपना चरित्र बदलने के जुगाड़ में लग गई हैं. यहां की सारदा कंपनी के कारण आम लोगों की बरबादी का जो ट्रेलर पूरे देश ने देखा है, कभी भी उस की अगली कड़ी पूरे बंगाल में देखने को मिल सकती है. और तब कानून व्यवस्था का मामला गंभीर हो जाएगा.

राज्य में सैकड़ों कंपनियां इस फर्जीवाड़े में लगी हैं. लेकिन इन पर कोई कार्यवाही नहीं हो रही है. वहीं एक तरफ सारदा ग्रुप के मालिक सुदीप्तो सेन बचाव की उम्मीद में मुख्यमंत्री को क्लीन चिट दे रहे हैं, तो दूसरी ओर खुद मुख्यमंत्री ने अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव के मद्देनजर चिटफंड कंपनी से पैसे पाने की बात को मान लिया है.

ममता की स्वीकारोक्ति

बंगाल में पार्टी फंड से ले कर चुनाव खर्च तक का भार चिटफंड कंपनियां उठा रही हैं. बदले में कारोबारी सुकून हासिल करती हैं ये फर्जी कंपनियां. ये सब वाम जमाने में भी हो रहा था और अब भी हो रहा है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में सारदा ग्रुप का बड़ा हाथ रहा है, अब यह जगजाहिर है.

गौरतलब है कि सारदा मामले की सीबीआई जांच की मांग के लिए कोलकाता हाईकोर्ट में एक मामला विचाराधीन है. उधर कुणाल घोष की गिरफ्तारी भी हो गई है. लेकिन गिरफ्तारी से पहले पत्रकार सम्मेलन बुला कर और फिर फेसबुक में कुणाल ने सारदा मामले में ममता बनर्जी, मुकुल राय सहित तृणमूल के 12 मंत्रियों-नेताओं के नाम भी लिए हैं.

अहम बात यह है कि हाल ही में ममता बनर्जी ने एक जनसभा में इस बात को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार भी कर लिया. हालांकि वे कार्यकर्ताओं को यह कहते हुए नसीहत दे रही थीं कि ‘खाओ, पर जितना जरूरी हो, उतना ही. ज्यादा खा लिया तो हजम नहीं होगा.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘मुझे रुपए की जरूरत नहीं. हजारोंहजार करोड़ रुपए कमाना मेरा मकसद नहीं. इलैक्शन के लिए ‘मिनिमम’ जितने की जरूरत है, उतना होने से ही मेरा काम चल जाएगा.’

अब यहां सवाल उठता है कि तृणमूल सांसद व पत्रकार कुणाल घोष ने क्या ज्यादा ‘खा’ लिया था, इसलिए उन्हें ‘बदहजमी’ हो गई? और यह भी कि इलैक्शन के लिए जरूरी ‘मिनिमम’ रुपए कहां से आए और वह रकम कितनी थी? साफ है, सारदा ग्रुप से. ममता का यह बयान मुख्यमंत्री के दिमागी दिवालिएपन की ओर संकेत करता है.

फर्जीवाड़े की खुली छूट

राज्य में लगभग 125 फर्जी कंपनियां सक्रिय हैं और लगभग 1 लाख एजेंट इन कंपनियों से जुड़े हुए हैं. सारदा कांड के बाद भी इन चिटफंड कंपनियों के खिलाफ अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है. इन का धंधा बदस्तूर जारी है और ऐसा भी नहीं है कि 3-4 सालों में ये कंपनियां स्थापित हुई हैं, बल्कि वाममोरचा शासन काल से ये कंपनियां सक्रिय हैं. और तब वाममोरचे ने भी इन कंपनियों पर लगाम नहीं लगाई.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि वाममोरचा के भी कुछ नेता चिटफंड कंपनियों से व्यक्तिगत रूप से या पार्टी फंड में मोटी रकम लिया करते थे. यह और बात है कि 2010 में ही हवा के रुख के साथ इन कंपनियों ने अपना आका बदल लिया.

यह भी सही है कि वाम जमाने में कई चिटफंड कंपनियों ने पश्चिम बंगाल में अपना कारोबार शुरू किया था. लेकिन आज तृणमूल शासन में वे चिटफंड कंपनियां पूरी तरह से बाकायदा फलफूल चुकी हैं. ऐसी फर्जी कंपनियों में प्रमुख हैं: एमपीएस ग्रुप औफ कंपनीज, पताका ग्रुप, यूरो ग्रुप, वारिस ग्रुप, रोजवैली ग्रुप औफ कंपनीज, प्रयाग ग्रुप, रूपसी बांग्ला, सनशाइन आदि. ये कंपनियां एग्रो से ले कर मनोरंजन, होटल रिसोर्ट व रियल एस्टेट क्षेत्र में सक्रिय हैं. बांग्ला फिल्म उद्योग में चिटफंड का पैसा लगा हुआ है. हाल ही में प्रयाग ग्रुप ने पश्चिम मेदिनीपुर में प्रयाग फिल्मसिटी की स्थापना की और उस का उद्घाटन शाहरुख खान ने किया.

सीआईडी जांच ठंडे बस्ते में

सारदा कांड से 3 साल पहले तृणमूल विधायक, अभिनेता तापस पाल की शिकायत पर सीआईडी की एक टीम चिटफंड कंपनियों की जांच में लगी थी. हालांकि खुद तापस पर भी चिटफंड कंपनी से जुड़े होने का आरोप है. माना जा रहा है कि किसी खुन्नस की वजह से ही तापस पाल ने चिटफंड कंपनी के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी. बहरहाल, अचानक किन्हीं अनजान कारणों से जांच का काम बीच में ही ठंडे बस्ते में चला गया. इस के बाद सारदा कांड का मामला सामने आया.

लेकिन सीआईडी की आधीअधूरी जांच में जो तथ्य निकल कर सामने आया वह यह कि उस समय राज्य में 873 चिटफंड कंपनियां सक्रिय थीं. राज्य सीआईडी की आर्थिक भ्रष्टाचार दमन शाखा ने जांच के दौरान यह भी पाया कि सारदा कांड से 3 साल पहले ही इन कंपनियों ने 3 हजार करोड़ रुपए बाजार से उठा लिए थे. आज वह रकम लगभग 20 हजार करोड़ रुपए हो चुकी है.

एक तरफ सुमंगल नामक चिटफंड कंपनी ‘सब का मंगल’ का नारा दे कर आलू में निवेश के नाम पर उस की जमाखोरी करती चली गई. आलू में निवेश के लिए 2 तरह की स्कीम ले कर आई थी सुमंगल. 1 लाख 20 हजार रुपए के निवेश में 15 महीने में 2 लाख रुपए का रिटर्न और 1 लाख रुपए निवेश पर 15 महीने की अवधि में 1 लाख 40 हजार रुपए रिटर्न का सपना दिखाया. इतना रिटर्न देने की सफाई में कंपनी ने विदेश में आलू निर्यात करने और आलू की कीमत बढ़ने पर इसे कोल्ड स्टोरेज से बाहर निकाल कर खुले बाजार में बेच कर मुनाफा कमाने का भरोसा दिया था. लेकिन 15 महीने बीत जाने पर आलू की पैदावार खराब होने या कम होने की बात कह कर कंपनी टालमटोल करती गई.

सहकारी संस्था का चोला

सरकार की नाक तले अपना धंधा कर रही तकरीबन 125 चिटफंड कंपनियां अपना चरित्र बदलने में लगी हुई हैं. राज्य वित्त विभाग के अधिकारियों का मानना है कि कानूनी लूपहोल का फायदा उठा कर कई चिटफंड कंपनियां सहकारिता की ओर कदम बढ़ा रही हैं.

सारदा कांड के बाद राज्य की बहुत सी चिटफंड कंपनियां अपने कारोबार को वैध बनाने के लिए सहकारी संस्था के रूप में अपनेआप को स्थापित करने में जुट गई हैं.

कोलकाता शेयर बाजार के जानकार रमेश शर्मा का कहना है कि कलैक्टिव इन्वैस्टमैंट स्कीम के तहत किसी प्रोजैक्ट के लिए लोगों से पैसे इकट्ठा करने के लिए सेबी से अनुमति जरूरी है. यह मिलना कठिन होने के कारण ये कंपनियां सहकारी कंपनी के रूप में अपने पैर मजबूत बनाने में लगी हुई हैं. दरअसल, सहकारिता कानून के तहत क्षेत्रीय आधार पर ही मंजूरी की जरूरत होती है.

रमेश शर्मा बताते हैं कि नियमानुसार अगर कोलकाता में सहकारिता की मंजूरी प्राप्त करनी हो तो 10 लोगों की एक समिति संयुक्त रूप से सहकारिता के लिए आवेदन कर सकती है. लेकिन 10 लोगों की समिति में 1500 सदस्यों का होना अनिवार्य है. देखने में आता है कि परिसेवा सहकारी कंपनी के रूप में पंजीकरण करवा कर कंपनियां लोगों से पैसे इकट्ठा करती हैं और उन्हें अपने सदस्य के रूप में पेश कर देती हैं.

सहारा का हवाला देते हुए रमेश शर्मा कहते हैं कि सेबी ने जब सहारा को लोगों से पैसे इकट्ठा करने पर रोक लगा दी तो कंपनी ने अपना चरित्र बदल कर सहकारिता का चोला पहन लिया. वहीं, 2002 के सहकारी कानून के नियमानुसार 4 महीने के भीतर आवेदन अगर खारिज नहीं हुआ तो मान लिया जाता है कि आवेदन स्वीकार कर लिया गया है. अब तक 200 से अधिक आवेदन किए जा चुके हैं. जाहिर है, इसी रास्ते चल कर चिटफंड कंपनियां अपने कारोबार को वैध बनाने की जुगत में हैं.

ममता की दरियादिली पर सवाल

सारदा चिटफंड कांड में बरबाद हुए बहुत सारे निवेशकों ने आत्महत्या कर ली है. इस पर भी राज्य में चल रही इतनी सारी फर्जी कंपनियों के खिलाफ कार्यवाही करने के बदले मुख्यमंत्री ने दरियादिली दिखाते हुए प्रभावित लोगों के लिए अपने राहत कोष का द्वार खोल दिया.

मुख्यमंत्री के निजी कोष से सारदा ग्रुप के 3 हजार से भी ज्यादा मीडिया कर्मचारियों में से चुनिंदा 168 कर्मचारियों को एकमुश्त 16-16 हजार रुपए दिए गए. इस के अलावा चिटफंड में पैसा गंवाए लोगों को भी मुख्यमंत्री के इसी कोष से रुपए बांटे गए हैं. साथ ही, सारदा मीडिया के अधिग्रहण की भी उन्होंने घोषणा की थी, लेकिन फिलहाल यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया है.

सवाल उठता है कि केवल कुछ कर्मचारियों के प्रति ममता की ऐसी मेहरबानी का औचित्य क्या है? एक चिटफंड कंपनी के मालिकों के बंद हुए चैनलों, अखबारों के पसंदीदा पत्रकारों पर राहत कोष का पैसा मुख्यमंत्री कैसे लुटा सकती हैं?

गौरतलब है कि मुख्यमंत्री राहतकोष का महत्त्व आमतौर पर प्राकृतिक आपदा, गरीब बच्चों का इलाज, शिक्षा में है. पंचायत चुनाव के मद्देनजर प्रचार के मकसद से मुख्यमंत्री ने सारदा ग्रुप के चैनल का जिम्मा उठा लिया. जबकि राज्य परिवहन विभाग की हालत बहुत ही नाजुक है. परिवहन विभाग के कर्मचारियों को नियमित रूप से वेतन नहीं मिल पा रहा है. नई नियुक्तियां नहीं हो रही हैं.

50 फीसदी बसें और ट्राम सड़क से उठा लिए गए हैं. कुल मिला कर आर्थिक रूप से राज्य दिवालिया है, आकंठ कर्ज डूबी है सरकार. राज्य का बजट घाटा बढ़ता चला जा रहा है. बावजूद इन सब के, ममता बनर्जी भ्रष्टाचार के प्रति ममतामयी बनी हुई हैं.

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