सरित प्रवाह, नवंबर (द्वितीय) 2013
संपादकीय टिप्पणी ‘आरएसएस के मोदी’ प्रभावोत्पादक व सराहनीय लगी. आप ने यह बिलकुल ठीक लिखा है कि नरेंद्र मोदी फैक्टर देश पर छा गया है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता है और यह सूखे में बादलों की तरह है. नरेंद्र मोदी पर इतना वादविवाद हो रहा है कि अब ज्यादा कहनेसुनने की गुंजाइश नहीं है क्योंकि मुद्दा नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व नहीं है, उन की शासन सक्षमता नहीं है, उन की नेतृत्व कला नहीं है. मुद्दा तो कट्टर हिंदूवाद की पुनर्स्थापना का है.
आप का यह कहना भी अत्यंत सत्य है कि जनूनियों की भीड़ जनता का मत स्पष्ट नहीं करती. हां, मौजूद लोगों का उत्साह जरूर दर्शाती है. नरेंद्र मोदी ने छिन्नभिन्न होती, दिशाहीन भारतीय जनता पार्टी में एक नई जान फूंकी है. सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और लालकृष्ण आडवाणी से ऊबे लोगों को नरेंद्र मोदी में एक नया उत्साही, वाक्पटु नेता मिला है जो उन की पार्टी को नई ऊर्जा दे रहा है और पार्टी के निराश समर्थक व कार्यकर्ता जोश में आ गए हैं. सच है कि भाजपा में यह बात प्राण फूंकती है.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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आप की टिप्पणी ‘आरएसएस के मोदी’ पढ़ी. नरेंद्र मोदी की सभाओं में उमड़ती भीड़ आप को मात्र ‘कुंभ’ के अवसर पर एकत्रित होने वाली भीड़ इसलिए लगी क्योंकि ‘नमो’ कट्टरपंथी हों या न हों, मगर आप न केवल भाजपा बल्कि मोदी के भी धुर विरोधी हैं. आप जैसे दिग्भ्रमित मीडिया वालों को वही भीड़, तब वास्तव में भीड़ नजर आने लगती है, जब वह या अन्ना हजारे के आंदोलन स्थलों पर उमड़ती नजर आने लगती है या फिर कोई रैली नीतीश सरीखे तथाकथित धर्मनिरपेक्षों द्वारा संबोधित की जा रही होती है.
आश्चर्य तो यह भी जान कर हुआ कि बावजूद इस के आप नमो फैक्टर को स्वीकार भी रहे हैं. नमो उत्थान को तो उमर अब्दुल्ला तथा केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम तक भी स्वीकार कर चुके हैं. ऐसे में अगर अब यह मान लिया जाए कि ‘नमो’ भविष्य में पीएम बनेंगे ही तो अनुपयुक्त भी नहीं होगा. कारण स्वयमेव ही स्पष्ट भी है कि ‘उन्होंने न केवल भाजपा में ही जान फूंकी है बल्कि अब देश के अचंभित समर्थकों, मतदाताओं को भी उन में सुयोग्य, कर्मठ, जुझारू, दृढ़निश्चयी तथा लगनशील चरित्र नजर आने लगा है.
ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)
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संपादकीय टिप्पणी ‘जनतंत्र और जनता’ इस देश के लोगों के विचारों की सच्ची तसवीर प्रस्तुत करती है. वास्तव में आज जीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र बचा हो जो भ्रष्टाचारमुक्त हो. वरना नित नए घोटाले खबरिया टीवी चैनलों की सुर्खियां बने दिखते हैं जिस के लिए हम भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं.
नेता तो खैर अपने भाईभतीजे, बेटाबहू को टिकट देंगे ही. परंतु हम क्यों मतदान के समय केवल जातिपांति, धर्म और समुदाय को ही वरीयता देते हैं. क्यों हमें उस वक्त नित नई हेराफेरी की याद नहीं आती? फिर हम भ्रष्टाचार और महंगाई का रोना रोते हैं यह भूल कर कि हम ने ही इन्हें चुना है. इसलिए दोष हमारा भी है.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
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‘जनतंत्र और जनता’ संपादकीय में आप के विचार पढ़े. हमारी नौकरशाही को चमचाशाही भी कहा जाता है. हौंगकौंग के एक शोध संस्थान ‘राजनीतिक और आर्थिक दायित्व परामर्शदाता’ की जनवरी 2012 की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय नौकरशाही एशिया में सब से ज्यादा निकृष्ट है.
विदेशों से जो नेता मिलने आते हैं उन की रूपरेखा नौकरशाह तैयार करते हैं. शिमला समझौते के समय नौकरशाहों के कारण इंदिरा गांधी अकेले में जुल्फिकार अली भुट्टो से 1 घंटे के लिए मिलीं. उस समय भुट्टो ने इंदिरा से कहा कि वे कश्मीर समस्या पर उन के समाधान पर सहमत हैं. जो कश्मीर भारत के पास है वह भारत का अंग और जो पाकिस्तान के पास है वह पाकिस्तान के पास रहे ताकि कश्मीर के कारण युद्ध न हो. परंतु इस को शिमला समझौते में लिखित में नहीं आना चाहिए. क्योंकि इस से पाकिस्तान में गृहयुद्ध हो जाएगा.
नौकरशाहों के दबाव के चलते इंदिरा गांधी ने भुट्टो की यह बात मान ली. नतीजतन, पाकिस्तान 41 सालों से शिमला समझौते का उल्लंघन कर रहा है. 1965 और 1971 की लड़ाई के बाद नौकरशाहों ने बिना फौजी जनरलों से सलाह लिए समझौते तैयार किए. युद्ध के बाद जनरलों को बातचीत में शामिल करना या उन की सलाह लेना जरूरी होता है क्योंकि नौकरशाहों को पूरी जानकारी नहीं होती कि फौज को किनकिन मुसीबतों का सामना करना पड़ा. अमेरिका के एक पत्रकार के अनुसार, पाकिस्तान के 92 हजार कैदियों की जो मेहमाननवाजी की गई वह विश्व के इतिहास में फौजी कैदियों की कहीं नहीं की गई. फिर भी पाकिस्तान हमारे फौजियों के गले काट कर भेज रहा है.
आई प्रकाश, अंबाला (हरियाणा)

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कुरसी किस को सौंपें

देश के भावी आम चुनावों में भाजपा की 272 से कम सीटें आईं तो उस को दूसरी पार्टियों की मदद लेनी पड़ेगी. ऐसे में सुषमा स्वराज प्रधानमंत्री बन सकती हैं क्योंकि एनडीए के सदस्य नरेंद्र मोदी के खिलाफ हैं.
सरिता पत्रिका के माध्यम से मैं देशवासियों को जागरूक कर रहा हूं कि गठबंधन सरकारों के कारण भारत में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है. सरकार को गिरने से बचाने के लिए सत्ता के लोग सहारा देने वाली पार्टियों को पैसा देते हैं. भारत का प्रजातंत्र भ्रष्टाचार के कारण कमजोर हो गया है. यह मिलीजुली पार्टियों के गठबंधन के सहारे कब तक चलेगा. लोग महंगाई के कारण विपक्ष को वोट देंगे. परंतु सत्ता में आने वाली दूसरी सरकार भी महंगाई को कम नहीं कर सकती. इसलिए जनता अपने मत का काफी सोचविचार कर मतदान करे.
आई पी गांधी, करनाल (हरियाणा)

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सोने के फेर में देश
नवंबर (द्वितीय) अंक में लेख ‘खजाने की खोज : अकर्मण्य देश के मुंगेरी सपने’ पढ़ कर लगा कि यह बहुत बड़ी विडंबना ही है कि एक तरफ देश मंगल ग्रह पर यान भेजने की सफलता के गीत गा रहा है, दूसरी तरफ साधु के सपने में मिले खजाने की खोज में सरकार खुदाई कर रही है और तीसरी तरफ सारे देश में पिछड़ा, भूखा वर्ग खाद्य की खोज में तड़प रहा है. ताज्जुब की बात है, सामने आए बिना ही शोभन सरकार ने सपने देख कर सरकार की नींद उड़ा दी.
मजे की बात तो यह है कि डौंडियाखेड़ा गांव में खजाना पाने की बात सपने में ही थी कि दावेदारों की लाइन लग गई. सरकार को लगा था, लौटरी लग गई. जो भी गंवाया था, एक खुदाई में भरपाई हो जाएगी. लेकिन ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ वाली कहावत चरितार्थ हो गई. अफवाहों की उड़ती हवा में पुरातत्त्व विभाग के अधिकारियों का ध्यान भी भंग हो गया.
उन्नाव जिले के डौंडियाखेड़ा गांव में राजा राव रामबख्श सिंह के किले ने भी यह साबित कर दिया कि खजाना खाली है, इसलिए महंगाई आकाश छू रही है. दिसंबर 2012 तक की जीडीपी की रकम की 50 प्रतिशत संपत्ति यदि काले धन में बदल गई है, इस की खोज अगर सरकार ठीक से करती तो देश और देश के गरीब लोगों का चेहरा बदल जाता. भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण यानी जीएसआई और भारतीय पुरातत्त्व विभाग यानी एएसआई ने क्याक्या पढ़ कर और समझ कर खुदाई शुरू की, समझ से परे है.
बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.)
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‘खजाने की खोज : अकर्मण्य देश के मुंगेरी सपने’ लेख पढ़ कर आश्चर्य हुआ कि जिस देश में कृष्ण ने गीता के माध्यम से उपदेश दिया है कि कर्म ही जीवन है. यदि कर्म है तो इस देश की ऐसी कोई जगह नहीं है जो मेहनत व कर्म के बल पर सोना नहीं उगलती हो.
देश की एक सीमा पर हिंद, अरब व बंगाल की खाड़ी पर महासागर है, दूसरी सीमा पर प्राकृतिक गैस, तेल से भरा रेगिस्तान है, तीसरी तरफ वृक्ष, औषधियों से भरी पहाडि़यां हैं और चौथी सीमा पर हिमालय पहाड़ सीना ताने खड़ा है जिस से गंगा, जमुना, सरस्वती व कई दूसरी नदियां निकलती हैं. इन सब के बीच स्थित भारत सोनेचांदी से भरा पड़ा है.
अफसोस, इस देश के ज्यादातर लोग अकर्मण्य, अंधविश्वासी हैं जो बगैर मेहनत किए हर समय सपनों के सोने का महल बनाना चाहते हैं. इस के लिए अकर्मण्य व्यक्ति तो दोषी हैं ही साथ ही देश के साधुसंत, राजनेता, नौकरशाह, मीडिया भी राष्ट्रधर्म न निभा कर सवा अरब की आबादी को अंधविश्वास व मुंगेरी सपनों में जीना सिखा रहे हैं.
जगदीश प्रसाद पालड़ी ‘शर्मा’, जयपुर (राज.)
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अग्रलेख ‘खजाने की खोज : अकर्मण्य देश के मुंगेरी सपने’ शीर्षक सटीक इसलिए भी है क्योंकि हम देशवासी आविष्कारों से चाहे प्रभावित हों या न हों, मगर ऐसे काल्पनिक/मनगढ़ंत चमत्कारों से कुप्रभावित इतनी बुरी तरह हैं कि भेड़चाल का अंग बनने में तनिक भी असहज, अपमानित या अविवेकी अनुभव नहीं करते. शायद इसीलिए डौंडियाखेड़ा क्षेत्र में दबे तथाकथित सोने को पाने, हिस्सा लेने, देखने के लिए हजारों की संख्या में सभी तबकों के लोग यों
जा पहुंचे.
टीसीडी गाडेगावलिया, करोल बाग (दिल्ली)
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वैज्ञानिक युग में भी धूर्त बाबाओं के चक्कर में आना ही बहुत बड़ी मूर्खता है. सपने भी कभी सच हुए हैं? मुझे याद आती है हाल ही में आई अक्षय कुमार की फिल्म ‘जोकर’ की. उस के गांव वाले ने एलियन का सहारा ले कर इन्हीं नेता और मीडिया वाले के चलते अपने गांव का नाम भारत के नक्शे पर ला दिया था. शोभन सरकार ने भी वही चाल चल कर गांव डौंडियाखेड़ा को रातोंरात भारत में चर्चित कर दिया.
मैं वहां के सांसद, विधायक तथा देश के पुरातत्त्व विभाग के पदाधिकारियों से पूछना चाहता हूं कि एक आदमी के सपनों की बातों में आ कर इतना घटिया कदम कैसे उठाया? इस झूठे सपनों के कारण सरकार का कितना समय बरबाद हुआ, साथ ही कितने धन का दुरुपयोग हुआ, इस की जवाबदेही किस की है?
 नंद किशोर प्रसाद, फरीदाबाद (हरियाणा)
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जोड़तोड़ की राजनीति से देश कमजोर
नवंबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘जोड़तोड़ के दलदल में फंसा हर दल’ पसंद आया. जब बिहार में नीतीश कुमार जीते थे, लालू का जादू करीबकरीब खत्म ही था. इतनी जल्दी हालात बदल जाएंगे और तोड़फोड़ की राजनीति इस हद तक पहुंच जाएगी, इस का किसी को अंदाजा नहीं था. गलती तो इस में सरासर नीतीश कुमार की ही है. किस लालच में आ कर वे भाजपा और एनडीए का साथ छोड़ कर, कांग्रेस और यूपीए से दोस्ती बढ़ा रहे हैं यह तो वही जाने, इस का हर्जाना तो उन्हें अब भुगतना ही होगा.
जोड़तोड़ की राजनीति कोई नई तो नहीं है, यह तो राम, कृष्ण के समय से चल रही है और आजादी के पहले व बाद में बखूबी देखी गई है. इस से सत्ता में तो आदमी बना रह सकता है पर देश कमजोर होता जाता है. बड़ी पार्टियां जोड़तोड़ करवाती हैं और मरनेकटने के लिए उन को छोटे दल प्यादों की तरह मिल भी जाते हैं. केंद्र की सरकार में प्यादों की भूमिका निभाने वालों में मुख्य रूप से मायावती, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव आते हैं.
हाल में हुए 5 राज्यों के चुनावी नतीजों पर नजर डालें तो वे कुछ अलग से दिखते हैं. दिल्ली के नतीजे और उस के बाद के हालात जोड़तोड़ वाली राजनीति से कतई अलग हैं. और यह देश के लिए अच्छा संकेत है बशर्ते पूरा देश इस फार्मूले से सबक ले. अभी तक सरकारें पूर्ण बहुमत न मिलने पर एकदूसरे के जोड़तोड़ से ही बनी है. फिर इस बार दिल्ली में भाजपा और आम आदमी पार्टी दोनों ही ‘पहले आप पहले आप’ का राग अलापती दिखीं.
यह तो मैं नहीं कह सकता कि अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’
21वीं सदी के युवाओं का सही तौर पर प्रतिनिधित्व करती है परंतु यह तय है कि सचाई और ईमानदारी के रास्ते पर यह एक अच्छा कदम है. दिल्ली की जनता, आम आदमी पार्टी और चुनाव आयोग शाबाशी के बराबर हकदार हैं.
ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

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