देश की बदहाल अर्थव्यवस्था पर घडि़याली आंसू बहाने वाली सरकार और आमजन जानबूझ् कर यह समझ्ने को तैयार नहीं हैं कि हमारे मुल्क की गरीबी मंदिरों के तहखानों में कैद है. सोना और कालेधन, चाहे वे स्क्रैप में तबदील क्यों न हो जाएं, को जमा करने या छिपाने की मानसिकता क्या रंग दिखा रही है, बता रहे हैं लोकमित्र.
उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिलांतर्गत आने वाले डौंडियाखेड़ा गांव में सोने के जिस खजाने का सपना एक साधु शोभन सरकार द्वारा देखा गया था, वह सपना दम तोड़ चुका है. पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) को डौंडियाखेड़ा स्थित राजा राव रामबख्श सिंह के किले में खुदाई के दौरान कुछ भी हासिल नहीं हुआ. लेकिन सोने के प्रति हिंदुस्तान की सनातनी ख्वाहिश आज भी जहां की तहां खड़ी हुई है.
वास्तव में सोने के प्रति हिंदुस्तान की यह आसक्ति भी देश की दरिद्रता के लिए किसी हद तक जिम्मेदार है. यह तो पिछले महीनों में डौलर के विरुद्ध रुपए की ऐतिहासिक टूटन से पैदा हुआ डर था, जिस के चलते वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने सोना आयात पर कड़े प्रतिबंध लगाए और सोने की मांग तथा खपत में कुछ कमी आई नहीं तो 32 हजार रुपए प्रति 10 ग्राम की कीमत के बावजूद लोगों में धनतेरस पर सोना खरीदने की जो ललक देखी गई, वह डरावनी है.
धर्मभीरु सरकारें
वास्तव में इस साल की शुरुआत में पहली बार रिजर्व बैंक औफ इंडिया ने धार्मिक संवेदनाओं की परवा किए बिना एक सही बात कही थी कि मंदिरों में सोना चढ़ाना देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक है. हालांकि देश के अर्थशास्त्री यह बात हमेशा से जानते रहे हैं और कई इस संबंध में खुल कर कहते भी रहे हैं.
भारत में भले ही संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्षता का विधान हो लेकिन हकीकत में सभी सरकारें धर्मभीरु रही हैं या राजनीतिक वजहों से धार्मिक मसलों से डरती रही हैं. इसलिए न तो केंद्र सरकार ने और न ही किसी राज्य सरकार ने कभी मंदिरों में सोना चढ़ाए जाने पर पाबंदी लगाई है और न ही लोगों से ऐसा करने का आह्वान किया है.
मगर हां, जिस तरह से वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने सोने के आयात पर टैक्स लगाने की बात कही और फिर आयात शुल्क 400 फीसदी तक बढ़ाया, उस से पता चलता है कि हिंदुस्तानियों का सोने के प्रति मोह अर्थव्यवस्था के लिए कितना घातक है. शायद उसी से उत्साहित हो कर रिजर्व बैंक औफ इंडिया ने वह बात कही जो सालों पहले न सिर्फ कहनी चाहिए थी बल्कि मंदिरों में सोने के चढ़ाए जाने पर पाबंदी भी लगाई जानी चाहिए थी.
दरअसल, सिर्फ मंदिरों में ही नहीं, हिंदुस्तान के सभी धार्मिक स्थलों में सोना चढ़ाने का रिवाज है. देश में सोने के लिए जो मारामारी बनी रहती है और सोने की बिक्री में किसी भी तरह की तेजी का कोई असर नहीं पड़ता, उस के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है. यह अकारण नहीं है कि पिछले साल यानी 2012 में जहां पूरी दुनिया में सोने की मांग महज 1.2 फीसदी रही, वहीं भारत में 30 हजार रुपए प्रति 10 ग्राम की ऐतिहासिक कीमत पर पहुंच जाने के बावजूद सोने की मांग 11 फीसदी रही.
भारत में अप्रैल से अक्तूबर 2012 में ही सोना 398 टन आयात किया गया, जबकि पूरी दुनिया में कुल 500 टन से कम सोने का विभिन्न देशों द्वारा आयात किया गया. इस साल सोना 32 हजार रुपए प्रति 10 ग्राम के ऊपर भी काफी दिनों तक रहा फिर भी मांग बनी रही. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारी सोने को ले कर ललक किस हद तक है.
स्क्रैप बनता सोना
मंदिरों में सोना चढ़ाए जाने का खमियाजा देश की अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ रहा है. हर साल अमूमन 300 टन सोना स्क्रैप के रूप में देश में जमा हो रहा है और इस में बड़ी भूमिका देश के बड़े धार्मिक स्थलों की है जिन में मुख्यरूप से मंदिर हैं. वास्तव में स्क्रैप के रूप में हर साल जमा हो रहा सोना देश की अर्थव्यवस्था पर न सिर्फ एक बड़ा बोझ् है बल्कि यह सक्रिय पूंजी को निष्क्रिय पूंजी में बदलने वाली सब से बड़ी समस्या है.
दरअसल, सिर्फ मंदिरों में ही नहीं, घरों में भी बहुत बड़े पैमाने पर सोना टूटेफूटे गहनों या पुराने गहनों के रूप में मौजूद है. लोग उसे 2 वजहों से बेचते नहीं हैं और न ही अपनी खरीदफरोख्त का जरिया बनाते हैं कि उस से अर्थव्यवस्था में रफ्तार हासिल की जा सके. एक बड़ी वजह तो भविष्य के प्रति असुरक्षा की है. लोगों को लगता है कि जब संकट आएगा तो यह सोना हमारे काम आएगा. गलत भी नहीं है. लेकिन बड़ी और दूसरी प्रमुख बात यह है कि जब आप गहने बेचने जाते हैं तो दुकानदार आप को आधे से भी कम कीमत देता है और सरकार की कोई ऐसी एजेंसी नहीं है जो घरों में पड़े सोने को वाजिब कीमत पर खरीद ले.
जमाखोरी और कालाधन
देशभर में 10 लाख से ज्यादा धार्मिक स्थल हैं. वैसे धार्मिक स्थलों की संख्या इस से भी ज्यादा हो सकती है. इस की वजह यह है कि देश में 6,53,785 गांव हैं और शायद ही कोई ऐसा गांव हो जहां औसतन 1.5 धार्मिक स्थल न हों. कहने का मतलब यह है कि 2 गांवों में कम से कम 3 धार्मिक स्थल तो होते ही हैं. इन में शहरों में मौजूद मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारों या गिरजाघरों की संख्या शामिल नहीं है.
यह तय बात है कि देश के सभी धार्मिक स्थलों की संख्या भी सैकड़ों में है जहां औसतन 1 लाख रुपए हर दिन की आय है. आखिर हम ब्लैक मनी या काला धन कहते किसे हैं? वह धन जिस पर टैक्स न दिया गया हो और वह धन जो सरकारी निगरानी से बाहर हो. धार्मिक स्थलों की कमाई तकरीबन इन दोनों ही शर्तों को पूरा करती है. भले ही कुछ गिनेचुने धार्मिक स्थलों की कमाई का ब्योरा रखा जाता हो, लेकिन ज्यादातर धार्मिक स्थलों की कमाई का कोई ब्योरा नहीं रखा जाता और अगर रखा भी जाता होगा तो वह प्रशासन को नहीं बताया जाता, क्योंकि न तो ऐसी कोई कानूनी बाध्यता है और न ही ऐसा चलन. इसलिए धार्मिक स्थलों में होने वाली अंधाधुंध कमाई का अधिकतम हिस्सा ब्लैक मनी में ही तबदील होता है.
देश में हर साल आम हिंदुस्तानियों द्वारा औसतन 25 हजार किलो सोना खरीदा जाता है. इस सोने का लगभग 10 फीसदी किसी न किसी रूप में चढ़ावे में चला जाता है. अगर देश के 10 बड़ी कमाई वाले मंदिरों की ही संपत्ति को जोड़ें तो यह तकरीबन 60 खरब रुपए के आसपास पहुंचती है. अकेले दक्षिण भारत के तिरुअनंतपुरम स्थित स्वामीपद्मनाभ मंदिर की संपत्ति ही 10 खरब रुपए की आंकी गई है और सत्य साईं के मरने के बाद पुट्टापरथी स्थित उन के गुप्त खजाने से कई मन सोना निकला है. जिस से अंदाज लगाया जा सकता है कि कई अरब की संपत्ति तो यहां भी है.
मंदिरों में निष्क्रिय मुद्रा
भारत का कुल बजट 1 लाख करोड़ रुपए का है. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हिंदुस्तान में धार्मिक स्थलों में कितनी बड़ी तादाद में संपत्ति मौजूद है जो एक किस्म से ब्लैक मनी है. भारत शायद दुनिया में एकमात्र ऐसा देश है जहां 10 से 15 फीसदी करैंसी मंदिरों में हमेशा निष्क्रिय अवस्था में पड़ी रहती है.
देश में हर समय 12 लाख से ज्यादा नोट (करैंसी) चलन में रहते हैं. इन में अगर 1 लाख नोट विभिन्न मंदिरों में चढ़ावे के रूप में चढ़ जाते हैं तो अमूमन ये नोट महीनों या सालों निष्क्रिय अवस्था में पड़े रहते हैं.
बड़ेबड़े धार्मिक स्थलों, खासकर मंदिरों में तो फिर भी यह व्यवस्था है कि चढ़ावे में आने वाले नोटों को हर 2-3 दिन के अंदर बैंक में जमा करा दिया जाता है. लेकिन लाखों की तादाद में जो छोटे और मझोले मंदिर हैं, वहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. ऐसे में बड़ी तादाद में चढ़ावे के रूप में मंदिरों में आए नोटों को डंप कर दिया जाता है. देश की अर्थव्यवस्था में इस का नकारात्मक असर पड़ता है क्योंकि अगर चलन में नोटों की संख्या कम हो जाती है तो महंगाई बढ़ने की आशंकाएं पैदा हो जाती हैं.
उधर, इस संबंध में किसी के पास भी यह ठोस जानकारी या अध्ययन नहीं है कि वास्तव में कितनी ब्लैक मनी है जो स्विस बैंकों में जमा है? कोई इसे 27 खरब रुपए तो कोई 63 खरब रुपए बताता है. हां, रामदेव जैसे लोग जरूर इस के 400 खरब रुपए से ऊपर होने की बात कह रहे हैं. लेकिन देश के 10 बड़े मंदिरों की तो घोषित संपत्ति 30 खरब रुपए के ऊपर की बैठती है.
सवाल है धार्मिक स्थलों में बड़े पैमाने पर निष्क्रिय अवस्था में मौजूद इस अकूत संपत्ति का क्या किया जाए? क्या इस संपत्ति पर देश का, कानून का, सरकार का हक है या फिर इन धार्मिक स्थलों के मठाधीशों को ही इस की नियति तय करने का हक है? देश में अभी तक कोई ऐसा कानून नहीं है जो धार्मिक स्थलों में मौजूद संपत्ति के अधिग्रहण की वकालत करता हो लेकिन सरकार के पास यह अधिकार है कि वह किसी भी धार्मिक स्थल को अपने कब्जे में ले सकती है, उस के कामकाज को नियंत्रित कर सकती है, उस में निगरानी का पहरा बिठा सकती है लेकिन हमारी सरकारें भारत के धर्मनिरपेक्ष होने के बावजूद चुनावों और वोटों से इस कदर डरती हैं कि चाहे जिस भी पार्टी या घटक की सरकार सत्तासीन हो, कोई भी धार्मिक मामलों में टांग नहीं अड़ाना चाहता.
स्वामीपद्मनाभ मंदिर से मिले अकूत खजाने पर यों ही जब बहस शुरू हुई और एक पक्ष यह आया कि केरल सरकार इसे अपने कब्जे में ले कर केरल की बेहतरी के लिए इस्तेमाल करे तो एक बड़े तबके द्वारा इस का विरोध शुरू कर दिया गया. मुख्यमंत्री ओमन चांडी को यह सार्वजनिक बयान देना पड़ा कि मंदिर की संपत्ति की देखरेख मंदिर का बोर्ड ही करेगा. सरकार उसे अपने कब्जे में नहीं लेगी.
विकास में हो खर्च
सवाल है कि देश में खरबों रुपए की जो संपत्ति धार्मिक स्थलों में कुछ लोगों की बंधक बनी पड़ी है, क्या उस का देश के हित में सही उपयोग नहीं होना चाहिए? हम एक ऐसे कालेधन को ले कर व्यग्र हैं, आंदोलनरत हैं जिस के बारे में किसी को ठीकठीक अनुमान ही नहीं है कि वह कितना है? साथ ही, सरकार कालेधन पर श्वेतपत्र जारी करने के बाद भी यह बता पाने की स्थिति में नहीं है या बताना नहीं चाहती कि विदेश में कितना कालाधन है और किस का है? केंद्र सरकार ने बाकायदा सार्वजनिक घोषणा कर दी है कि वह कुछ अंतर्राष्ट्रीय नियमोंकानूनों में बंधे होने के चलते ऐसा नहीं कर सकती.
अगर हम मंदिरों में हर साल चढ़ने वाले सोने को विकास के कामों में खर्च करें तो रातोंरात देश का कायापलट हो सकता है. अगर सिर्फ बड़े धार्मिक स्थलों की ही एक सूची बनाएं तो 3 से 5 हजार मंदिर ही इतना सोना मुहैया करा सकते हैं जिस से सरकार देश का अधिसंरचनात्मक विकास कर सकती है.
इस से देश के विकास की मौजूदा रफ्तार छहगुना तेज हो सकती है. देश में अगर 2000 नई यूनिवर्सिटीज और 80 हजार नए विभिन्न क्षेत्रों के शिक्षण संस्थान खोल दिए जाएं तो देश में न सिर्फ साक्षरता दर तेजी से बढ़ेगी बल्कि हमें जरूरी प्रोफैशनल भी 10 साल के भीतर मिल जाएंगे. आज देश के सभी औद्योगिक और कारोबारी क्षेत्रों में 20 से 22 लाख प्रोफैशनलों की कमी है. एक तरफ जहां देश में 5 करोड़ से ज्यादा लोग बेरोजगार हैं, वहीं डेढ़ से पौने 2 करोड़ कुशल कामगारों, प्रशिक्षित प्रोफैशनलों की भारी कमी है.
देश के विभिन्न धार्मिक स्थलों से सरकार अगर ईमानदारी से उन की यह संपत्ति बतौर निवेश ले तथा उन्हें इस का जरूरी लाभ दे तो सभी तरह की उच्च शिक्षण की बुनियादी व्यवस्था की जा सकती है. देश के तेजी से विकास के लिए 100 खरब रुपए के बुनियादी निवेश की जरूरत है और इस की बहुत आसानी से धार्मिक स्थल पूर्ति कर सकते हैं.
हिंदुस्तान दुनिया के गरीब देशों की सूची में शुमार है और हमारी अमीरी तमाम मंदिरों के तहखानों में कैद है. अगर देश के धार्मिक स्थलों में मौजूद सोना और चांदी को इकट्ठा किया जाए तो वाकई यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत सोने की चिडि़या है. अगर सरकार इस सोने और चांदी को रिजर्व में रख ले और उस के बदले में इन स्थलों को उतनी ही कीमत का बौंड जारी कर दे तो हमारी अर्थव्यवस्था का मुद्रा आधार बहुत मजबूत हो सकता है.