मतदान के प्रति उदासीन होते मतदाताओं को मताधिकार का इस्तेमाल करते समय उम्मीदवारों को नापसंद करने का अधिकार आखिरकार मिल ही गया. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की क्या व क्यों अहमियत है और इस के क्या असर होंगे, यह जानने के लिए पढि़ए साधना का यह लेख.
तकरीबन 9 साल की लंबी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को किसी को भी वोट न देने का अधिकार आखिर दे ही दिया. इलैक्ट्रौनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में अब एक अलग बटन होगा जिस का नाम नोटा (नन औफ द अबव) होगा. लेकिन इस ‘विशेषाधिकार’ के औचित्य को ले कर कई मतभेद भी हैं.
इस सिलसिले में एक जनहित याचिका लगभग 9 साल पहले दायर की गई थी. याचिका में चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों में से मतदाताओं को कोई भी पसंद न आने पर किसी को भी वोट न देने का अधिकार दिए जाने की बात कही
गई थी. ‘नापसंदगी’ को सांविधानिक अधिकार का दरजा देते हुए कोर्ट ने कहा कि जनप्रतिनिधि कानून की धारा 128, चुनाव अधिनियम (1961) की धारा 41(2), (3) और धारा 49 (ओ) के ही न केवल खिलाफ है, बल्कि संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार की धारा 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के (1) (क) अनुच्छेद और धारा 21 (स्वतंत्रता का अधिकार) के भी विरुद्ध है.
मतदान के प्रति उदासीनता
इस में कोई शक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को यह ऐतिहासिक अधिकार दिया है. ऐतिहासिक इसलिए कि मतदाताओं के पास जनप्रतिनिधि चुनने के लिए मतदान का अधिकार तो था, लेकिन उन के पास इस का कोई विकल्प नहीं था. चुनाव क्षेत्र से खड़े होने वाला कोई भी उम्मीदवार पसंद आए या न आए किसी एक को वोट देने की मजबूरी थी. हम सब जानते हैं कि इस समय पूरे विश्व में चुने गए जनप्रतिनिधियों के प्रति मतदाताओं की मनोस्थिति लगभग एक जैसी ही है. पूरी दुनिया में मतदान के प्रति उदासीनता एक गंभीर बीमारी बनती जा रही है. दरअसल, जनप्रतिनिधियों के रवैये से हैरान, परेशान, हताश मतदाता अपने मतदान के अधिकार के प्रति उदासीन होते चले गए हैं.
अन्य देशों की मिसालें
मतदान न करने के अधिकार को ले कर दुनिया में चले अभियान की चर्चा करते हुए कोलकाता के जानेमाने मानवाधिकार सामाजिक कार्यकर्ता और लोकतांत्रिक अधिकार रक्षा समिति के सदस्य सुजात भद्र बताते हैं कि न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में इस तरह का आंदोलन समयसमय पर चलता रहा है. इस के मद्देनजर 27 सितंबर, 2011 को न्यूयार्क टाइम्स ने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रकाशित की.
इस से पूरे विश्व में मतदाताओं के मन में चुनाव के जरिए जनप्रतिनिधि चुनने की प्रक्रिया के तहत मतदान के प्रति उदासीनता के साथ एक विशेष तरह का नाराजगी का भाव देखने में आया. सर्वेक्षण से साफ हुआ है कि चुन लिए जाने के बाद जनप्रतिनिधियों के रवैये में आई तबदीली के कारण ही दुनिया के विभिन्न देशों में होने वाले चुनाव में मतदान का प्रतिशत दिनोंदिन घटता जा रहा है. मतदान प्रतिशत के ग्राफ को ऊपर ले जाने की गरज से बेल्जियम, लक्जमवर्ग, साइप्रस, ग्रीस जैसे लोकतांत्रिक देशों में मतदान का नियम बाध्यतामूलक कर दिया गया.
आस्टे्रलिया में वर्ष 1924 से मतदान बाध्यतामूलक रहा है लेकिन अब यहां भी इस बाध्यतामूलक नियम को रद्द किए जाने की मांग उठने लगी है.
1991 में स्वेटिक नामक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने बेलारूस में वोट न देने के अधिकार के सिलसिले में जनमत तैयार करने में अपनी जीजान लगा दी. इस के लिए उसे सरकार ने सजा सुनाई. तब यह मामला राष्ट्रसंघ तक पहुंचा. वर्ष 2004 में दक्षिण अफ्रीका में भी मतदान के बहिष्कार का आंदोलन चला. मतदान बहिष्कार का आह्वान करते हुए कहा गया कि जिन के पास जमीन नहीं, घरद्वार नहीं उन के लिए मतदान के कोई माने नहीं. इस को ले कर ऐसा प्रचार अभियान चलाया गया कि दक्षिण अफ्रीकी सरकार को दमन का रास्ता अख्तियार करना पड़ा. तब जा कर मामला काबू में आया. 2009 में मैक्सिको में भी ऐसा ही अभियान चला, जिस ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया. सुजात भद्र कहते हैं कि इस समय विश्व के कम से कम 13 ऐसे देश हैं जहां मतदाताओं को यह ‘विशेषाधिकार’ प्राप्त है.
भारत में सुगबुगाहट
इस मसले को ले कर भारत में भी जागरूकता आई और वोट न देने के अधिकार को ले कर सुगबुगाहट शुरू हो गई. साथ ही, पिछले कुछ सालों में मतदाताओं में मतदान के प्रति उदासीनता देखने को मिली है. देश में एक के बाद एक घोटाले से नाराजहताश नागरिक मतदान का अघोषित बहिष्कार करने लगे. तब मतदाताओं को मतदान केंद्र तक पहुंचाने के लिए कई प्रचार अभियान चलाए गए. सुजात भद्र बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में भी 90 के दशक में मतदान न करने का आह्वान किया गया था और तब भी पुलिस प्रशासन ने प्रचारसामग्री जब्त कर दमन का रास्ता अख्तियार किया था.
हालांकि भारत में अगर कोई मतदान न करना चाहे तो उन के लिए एक नियम जरूर रहा है, जिस के तहत मतदाता औपचारिक रूप से चुनाव के दिन अपने मतदान केंद्र के चुनाव अधिकारी को पत्र लिख कर या 19 नंबर फौर्म भर मतदान में हिस्सा न लेने के लिए आवेदन कर यह छूट हासिल कर सकता है. मतदान गोपनीय मामला है, लेकिन ऐसा करने से व्यावहारिक तौर पर मतदान न देने का उस का फैसला गोपनीय नहीं रहता है.
वहां, जब तक बैलेट पेपर पर मतदान होता था, तब तक कोई उम्मीदवारी पसंद न आने पर कोरा बैलेट पेपर डाल देने या एक से अधिक पार्टी के निशान के आगे ठप्पा लगा कर मतदान को अवैध करने की गुंजाइश थी. लेकिन ईवीएम मशीन आ जाने के बाद इस गुंजाइश पर भी खाक पड़ गई. कहा जा सकता है कि ईवीएम पर मतदान किसी को एक वोट दिलवाने का अघोषित रूप से बाध्यतामूलक तरीका है. ऐसे में मतदान के प्रति उदासीन मतदाता अगर बूथ तक नहीं गया तो फर्जी मतदान की शतप्रतिशत संभावना बन जाती है.
वर्ष 1999 में पहली बार लोकतांत्रिक अधिकार रक्षा समिति की ओर से एक जनहित याचिका कलकत्ता हाईकोर्ट में दायर की गई थी. लेकिन हाईकोर्ट ने 2000 में याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है इसीलिए इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है.
संशय और सवाल
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट द्वारा मतदाताओं के पक्ष में फैसला दिए जाने के बाद कुछ हलकों में इस को ले कर न केवल संशय जाहिर किए गए, सवाल उठाए गए, बल्कि इस की आलोचना भी हो रही है.
सुजात भद्र का इस पर कहना है कि राजनीतिक दलों की आलोचना एक हद तक हास्यास्पद ही कही जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने देश पर कोई नया कानून नहीं थोपा है, बल्कि 2 कानूनों-मतदान का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व स्वतंत्रता के अधिकार के मौलिक अधिकार के फर्क की व्याख्या मात्र की है.
हालांकि इस के उलट नजरिया रखने वाले कोलकाता के एक स्कूल शिक्षक शुभ्रांशु कुमार राय कुछ संभावनाओं पर विचार करते हुए कहते हैं कि 5 राज्यों के चुनाव के बाद 2014 में लोकसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में मतदान के दौरान अगर ईवीएम मशीन में ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ का बटन ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं ने दबाया तो हो सकता है कि बहुत ही कम अंतर से कोई जनप्रतिनिधि चुना जाए.
सवाल यह है कि अगर यह पहली संभावना काम नहीं करती है तो दूसरी संभावना यह बन सकती है कि बहुसंख्यकों ने अगर इस विशेष बटन को दबाया तो क्या होगा? क्या उस केंद्र का वोट ही रद्द हो जाएगा? अगर ऐसा होता है तो दोनों ही संभावना लोकतंत्र के लिए सही नहीं होंगी. महंगी चुनाव प्रक्रिया के बाद यह नतीजा, निश्चित तौर पर लोगों के लिए सही नहीं होगा. वैसे भी आजकल तो महज 1 वोट के अंतर से सरकार बनती और गिरती है.
इस संबंध में आशावादी सुजात भद्र का कहना है कि वर्तमान समय में भारत में जिस तरह का राजनीतिक धु्रवीकरण है, ‘नापसंदगी’ को बहुमत मिलने की संभावना लगभग नहीं के बराबर है.
चुनाव सुधार के मद्देनजर एक और चर्चित मुद्दा है, राइट टू रिकौल का. सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल किसी को भी वोट न देने के अधिकार को स्वीकृति प्रदान कर दी है. संसद या विधानसभा का चुनाव जीत जाने के बाद जनप्रतिनिधियों के अयोग्य साबित होने या भ्रष्टाचार व दंगा करवाने जैसे अपराध में लिप्त होने पर उन्हें वापस बुला लेने के प्रस्ताव ‘राइट टू रिकौल’ के नाम से जाना जाता है, और इस तरह के चुनाव सुधार का प्रस्ताव 15 साल से लंबित पड़ा है. जाहिर है अब इस के लिए जोरदार संघर्ष होगा. आने वाले समय में शायद इसे भी स्वीकृति मिल जाए.