राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के आधार पर अलग तेलंगाना राज्य की मांग अरसे से उठती रही है पर हर बार इस मुद्दे को सत्तासीन कांग्रेस के राजनीतिक छलबल का शिकार होना पड़ा. अब उसी कांग्रेस की सरकार ने तेलंगाना को हरी झंडी दे दी है. नतीजतन, देश में नए सिरे से कई अलग राज्यों की मांगें उठने लगी हैं. पढि़ए लोकमित्र का विश्लेषणपरक लेख.
सालों के रायमशवरे के बाद भी तेलंगाना मसले पर जब इस साल के शुरू में कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं की राय आपस में बंटी हुई थी तो राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान यही था कि शायद इस की बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर नेता तेलंगाना के मुद्दे को वर्ष 2014 के आम चुनावों से जोड़ कर देख रहे हैं. लिहाजा, सोचा यह गया कि तेलंगाना को ले कर शायद अगले साल की शुरुआत में ही कोई बड़ा फैसला हो. लेकिन 10 जनपद की हरी झंडी के बाद आंध्र प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी दिग्विजय सिंह ने 30 जुलाई की शाम को एक बड़ी ब्रेकिंग न्यूज दी. यह बड़ी सुर्खी थी तेलंगाना को हरी झंडी.
इस तरह भारत के नक्शे में तेलंगाना नाम के 29वें राज्य का उदय होना तय हो गया है. वैसे घोषणा के बाद का स्वाभाविक हंगामा अभी तक थमा नहीं है. अब तक कई दर्जन विधायक और सांसद तेलंगाना के विरोध में इस्तीफा दे चुके हैं. इन में दूसरी पार्टियों के साथसाथ कांग्रेस के विधायक और सांसद भी हैं.
वैसे कांग्रेस में मुख्यधारा के बड़े नेता कभी भी तेलंगाना के पक्ष में नहीं रहे. इतिहास गवाह है कि एम चेन्ना रेड्डी से ले कर वाई एस राजशेखर रेड्डी तक इसीलिए बारबार वादा कर के मुकर जाते रहे हैं. शायद यह इतिहास का हैंगओवर ही था कि 28 दिसंबर, 2012 को आंध्र प्रदेश में सक्रिय राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से मुलाकात करने के बाद जब केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार श्ंिदे ने घोषणा की थी कि 1 माह के भीतर तेलंगाना के मुद्दे पर अंतिम निर्णय ले लिया जाएगा, तब भी किसी को इस की उम्मीद नहीं थी.
भले ही इस घोषणा के बाद आंध्र प्रदेश में यह उम्मीद बढ़ गई थी कि 28 जनवरी, के गठन का ऐलान कर देगी. लेकिन 28 जनवरी से पहले ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार अपने वादे से पीछे हट गई और इस के लिए बहुत भोला सा कारण गृहमंत्री ने ही दिया कि हमें इस संवेदनशील मुद्दे पर फैसला करने के लिए अभी और वक्त चाहिए. बहरहाल, अब कांग्रेस से मिली सरकार को हरी झंडी के बाद तेलंगाना का अलग राज्य के रूप में स्थापित होना लगभग तय है.
भारत में राज्यों के गठन का इतिहास जो लोग जानते हैं उन्हें पता है कि तेलंगाना को ले कर कांग्रेस की दुविधा नई नहीं थी. दरअसल, जब 22 दिसंबर, 1953 को न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ तब पंडित जवाहरलाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का विरोध कर रहे थे, मगर ज्यादातर लोग इस के पक्ष में थे. आयोग का गठन हुआ और इस ने 30 सितंबर, 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी.
आयोग के 3 सदस्यों में जस्टिस फजल अली के अलावा हृदयनाथ कुंजरू और के एम पणिक्कर थे. आयोग की रिपोर्ट आने के बाद 1956 में नए राज्यों का गठन हुआ और 14 राज्य व 6 केंद्र शासित प्रदेश अस्तित्व में आए. 1 नवंबर, 1956 को मद्रास रैजिडेंसी से अलग हो कर आंध्र प्रदेश देश का पहला भाषाई आधार पर राज्य गठित हुआ. लेकिन पहले दौर से ही बात नहीं बनी. यही कारण है कि 1956 में जहां आंध्र प्रदेश के गठन के साथ ही देश में भाषाई आधार पर राज्यों की गठन की कहानी शुरू हुई वहीं आंध्र प्रदेश के बंटवारे के साथ ही भाषाई आधार पर गठित राज्यों का तर्क बेमानी हो गया.
1960 में एक बार फिर से राज्य पुनर्गठन का दूसरा दौर चला जिस के चलते 1960 में बंबई राज्य को तोड़ कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाए गए. 1966 में पंजाब का बंटवारा हुआ और हरियाणा व हिमाचल प्रदेश 2 नए राज्य अस्तित्व में आए. हिमाचल में जहां हिमाचली और डोगरी बोली जाती थी, वहीं हरियाणा में हिंदी का बोलबाला था और मौजूदा पंजाब, पंजाबी का गढ़ था. हालांकि लग रहा था कि भाषाओं के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन एक वैज्ञानिक तरीका है लेकिन बहुत जल्द ही इस विचार की भी सीमाएं नजर आने लगीं. क्योंकि दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग के बाद भी नए राज्यों की मांगों का सिलसिला खत्म नहीं हुआ.
कई और राज्यों में बंटवारे की मांग उठने लगी और इसे चाहे राजनीतिक मजबूरी कहें या राजनीतिक फायदे का गणित, कई और राज्यों का गठन करना ही पड़ा. 1972 में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा बनाए गए. 1987 में मिजोरम का गठन किया गया और केंद्र शासित राज्य अरुणाचल प्रदेश और गोआ को पूर्ण राज्य का दरजा दिया गया. आखिर में 2000 में भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की गठबंधन सरकार ने उत्तराखंड, ?ारखंड और छत्तीसगढ़ का गठन किया.
इस पूरी हलचल में तेलंगाना का मुद्दा बारबार आताजाता रहा, लेकिन किसी फैसले तक नहीं पहुंचा. दरअसल, यह उस राज्य पुनर्गठन के आधार पर ही सवाल खड़ा कर रहा था जो भाषा के आधार पर टिका था. क्योंकि तेलुगुभाषियों की अस्मिता को ध्यान में रख कर 1956 में देश में सब से पहला राज्य आंध्र प्रदेश गठित हुआ था.
अब उसी आंध्र प्रदेश को 2 टुकड़ों में विभाजित करने के लिए अगर तेलुगु भाषा को वैचारिक आधार बनाया जाए तो यह हास्यास्पद ही होता क्योंकि तेलंगाना में तो तेलुगु बोली ही जाएगी, शेष आंध्र प्रदेश की भी मुख्य भाषा यही होगी. शायद यही एक बड़ी वजह थी जिस के चलते 2000 के पहले कांग्रेसियों को यह नहीं सू?ा रहा था कि तेलंगाना बंटवारे को तार्किक कैसे ठहराया जाए. मगर जब 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने 3 हिंदी भाषी प्रांतों को बांट कर एक नया इतिहास रचा तो तेलंगाना की मांग और तेज हो गई.
हालांकि गौरतलब तथ्य यही है कि तेलंगाना की मांग के पीछे न तो मजबूत अस्मिता का सवाल है और न ही कुशल प्रशासन और विकास ही मुख्य मुद्दे हैं. क्योंकि अस्मिता की बात करेंगे तो रौयल सीमा और तटीय आंध्र की भी तेलुगु अस्मिता ही है इसलिए अलग से तेलंगाना को इस का ?ांडा उठाने की जरूरत नहीं थी. इसी तरह अगर विकास या प्रशासनिक चुस्ती मुद्दा होती तो अलग राज्य के बजाय एक अलग विकास परिषद या प्राधिकरण की मांग होती जैसे पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड मौजूद है. वास्तव में अलग तेलंगाना की मांग अलग राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की मांग थी. फिर भी इस के लिए केंद्र में मौजूदा सत्तासीन कांग्रेस का राजनीतिक छलबल देखने लायक है.
दरअसल, तेलंगाना को ले कर कांग्रेस द्वारा लिया गया निर्णय बताता है कि उस के लिए मौजूदा राजनीतिक समीकरण में आंध्र प्रदेश बहुत महत्त्वपूर्ण है. पिछले 2 आम चुनावों से यह आंध्र प्रदेश ही है जो कांग्रेस के लिए केंद्र में सत्ता हासिल करने का जरिया बन रहा है. लेकिन अब राज्य में बंटवारे की बात जिस हद तक पहुंच गई थी उस को ले कर कांग्रेसी दांव भी खेलना चाहते थे और डरे हुए भी थे. लंबे समय तक वे समझ नहीं पा रहे थे कि बंटवारे के बाद उन्हें राजनीतिक रूप से फायदा होगा या नुकसान.
बहरहाल, कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को तेलंगाना के मसले को ले कर पार्टी के अंदर ही अलगअलग तरह की आवाजें सुनने को मिल रही हैं. जो लोग बंटवारा चाहते थे वे खुश हैं. उन के मुताबिक, अगर तेलंगाना नहीं बनता तो कांग्रेस का जहाज इस बार के लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश की दलदल में डूब जाता और जो कह रहे हैं बंटवारा नहीं होना चाहिए, उन का मानना है कि अब आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की लुटिया डूब जाएगी.
ज्ञात हो कि पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश कांग्रेस का शक्ति केंद्र बन कर उभरा है. कांग्रेस आंध्र प्रदेश में अपनी शानदार जीत की बदौलत ही केंद्र में सत्तासीन हुई है. 2004 में संपन्न आम चुनावों में कांग्रेस को 42 में से 29 लोकसभा सीटें मिली थीं जबकि तेलंगाना राष्ट्र समिति ने 5 सीटें जीती थीं. 2009 के चुनावों में राजनीतिक पंडितों को भी यह आशा नहीं थी कि कांग्रेस 5 साल पहले के अपने विजय अभियान को दोहरा सकेगी लेकिन कांग्रेस ने न सिर्फ यह कर के दिखाया बल्कि 2009 में अपने पुराने आंकड़े को और बेहतर बनाया. उस ने 42 में से 33 सीटों पर कब्जा जमाया. कांग्रेस ने केंद्र में सरकार बनाने के लिए अगर 200 सीटों का जादुई आंकड़ा पार किया तो इस में आंध्र प्रदेश में जीती गई 33 सीटों का बड़ा हाथ था.
शायद इसी वजह से कांग्रेस में तेलंगाना को ले कर पक्ष और विपक्ष के 2 खेमे बन गए थे. अपने त्वरित राजनीतिक फायदों को ध्यान में रखने के कारण पिछले कुछ सालों में कांग्रेस ने तेलंगाना के मामले को धीरेधीरे बरगलाया भी है जिस की शुरुआत एम चेन्ना रेड्डी ने तेलंगाना ‘प्रजा राज्यम’ के कांग्रेस में विलय के साथ शुरू की थी, लेकिन नए सिरे से 2004 में इसे बरगलाने का काम कांग्रेस के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी ने किया. उन्होंने धमाकेदार जीत और तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ सम?ौता कर के इस मुद्दे को तकरीबन अप्रासंगिक बना दिया.
सच बात तो यह है कि कांग्रेस को आंध्र प्रदेश में तेलंगाना को ले कर उस के पैरों के नीचे से खिसकती मिट्टी का पता ही नहीं चलता अगर पिछले साल उपचुनावों में कांग्रेस को करारी शिकस्त का सामना नहीं करना पड़ता. पिछले साल आंध्र प्रदेश में 18 विधानसभा सीटों और 1 लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए. इन उपचुनावों में वाई एस राजशेखर के बेटे जगनमोहन रेड्डी ने कांग्रेस को पूरी तरह से बौखला दिया क्योंकि 18 विधानसभा सीटों में से 15 के साथसाथ अकेली लोकसभा सीट का उपचुनाव भी वाई एस आर कांग्रेस के खाते में गया. इस से कांग्रेस चौंकी कि वाई एस आर की ही तरह उन का बेटा भी प्रदेश में गेमचेंजर न साबित हो. वास्तव में तेलंगाना को ले कर कांग्रेस की असमंजस की रणनीति और जगनमोहन रेड्डी को ले कर उस का ढुलमुल रवैया इसी का नतीजा था. अब जबकि कडप्पा से सांसद जगन मोहन रेड्डी अपनी मां विजय लक्ष्मी और पार्टी के सभी विधायकों और इस मुद्दे को ले कर इस्तीफा दे चुके हैं तो कांग्रेस एक बार फिर पसोपेश में है कि कहीं यह दांव उलटा न पड़ जाए.राज्य में इन उपचुनावों ने उन कांग्रेसियों को यह हल्ला मचाने का मौका दे दिया जो तेलंगाना के पक्ष में हैं. इसी के जरिए उन्होंने यह माहौल बनाना शुरू कर दिया कि अगर तेलंगाना को जल्द नहीं बनाया गया तो यह कांग्रेस के लिए घातक होगा.
इन राजनेताओं का कहना है कि अलग राज्य का निर्णय ही कांग्रेस को राज्य में अपना अस्तित्व बरकरार रखने दे सकता है और इस से कांग्रेस टीआरएस पर भारी पड़ सकती है. इस धड़े के नेताओं के मुताबिक अगर कांग्रेस तेलंगाना राज्य बनाती है तो फिर टीआरएस के साथ मिल कर वह बाकी राजनीतिक पार्टियों का सूपड़ा साफ कर सकती है. इन की राय में यही एक तरीका है जिस से क्षेत्र में कांग्रेस एक बार फिर से 2014 में अपना डंका बजा सकती है.
बहरहाल, तेलंगाना राज्य का जो मुद्दा कांग्रेस के लिए अब भावुक सियासत के गले में हड्डी सा बन गया है, अब गले उतर चुका है. वह कई बार राज्य की जनता को इस आश्वासन पर बरगला चुकी थी कि वही अलग तेलंगाना राज्य बनाएगी और अब वही कांग्रेस इस चिंता में है कि कहीं तेलंगाना की घोषणा मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ना न साबित हो क्योंकि देश के अलगअलग क्षेत्रों से अलग राज्य बनाने की पुरानी और नई मांगें फिर से जोर पकड़ रही हैं, जिन में असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, महाराष्ट्र में विदर्भ, उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश, पूर्वांचल और व्रज प्रदेश के अलावा बुंदेलखंड की भी मांग नए सिरे से उठाई जाएगी तो मध्य प्रदेश में महाकौशल राज्य की मांग नाक में दम कर सकती है.
-साथ में साधना शाह