केदारनाथ-गौरीकुंड तीर्थ मार्ग पर बादल फटने और?भीषण वर्षा के कारण जो तबाही हुई और जिस तरह हजारों की मृत्यु हुई और हजारों कई दिनों तक ठंड में भूखेप्यासे फंसे रहे, दिल दहलाने वाला है. प्रकृति का विकराल रूप कोई नई बात नहीं है पर इस तरह मानव को कम ही झेलना पड़ता है. सुनामियों और भूकंपों की तरह इस बार साधारण लोगों ने जो देखा और सहा, वह भुक्तभोगी ही जानते हैं.

पहाड़ों पर बादलों के फटने, अतिवृष्टि, भूस्खलन आम बातें हैं पर पहले वे सुर्खियां नहीं बन पाती थीं क्योंकि मरने या फंसने वाले कम होते थे. इस बार तीर्थ के नाम पर इस क्षेत्र में हजारों लोग धर्म  पुण्य कमाने और सैर करने के लिए पहुंचे हुए थे. चूंकि मामला धर्म से जुड़ा है, हर अफसर, नेता, पंडापुजारी, व्यवसायी बहती गंगा में हाथ धोने को पहले से तैयार था.

घटना ने विभीषिका का रूप इसलिए लिया कि देशभर से लोगों को धर्म के नाम पर चार धाम की यात्रा के लिए धकेला जाता है. साक्षात शिव के दर्शन कराने के नाम पर हिमालय की पहाडि़यों को पाखंड के धंधे का शिकार बना लिया गया. धर्म के नाम पर गंगा और उस की सहयोगी नदियों के किनारे धर्मशालाएं, होटल, गैस्ट हाउस बना डाले गए. पेड़ काट कर सड़कें बन गईं. जहां पहले इक्केदुक्के लोग चलते थे वहां सैकड़ों बसें चलने लगीं.

प्रकृति का प्रकोप इस कारण आया या नहीं, पर जनधन की हानि पक्की बात है  कि इस कारण हुई और अगर सेना के हैलिकौप्टरों की सुविधा न होती तो हजार दुआएं करने के बावजूद मरने वालों की संख्या लाख तक पहुंच जाती. यह किसी ईश्वर का कमाल नहीं, विज्ञान व तकनीक का कमाल है कि टूटी सड़कों के बावजूद फंसे लोगों को निकाल लिया गया.

होना तो यह चाहिए था न कि ये लोग जहां फंसे थे वहीं यज्ञहवन, दानपुण्य शुरू कर देते और ईश्वर से कहते कि उन्हें सुरक्षा दे. पर वे गिड़गिड़ाए सेना के हैलिकौप्टरों के लिए, बरसे मंत्रियों पर. जब पंडों के कहने पर पुण्य कमाने के लिए घर से निकले थे तो सरकार को दोष देने का क्या औचित्य था. जब पंडों का सीधा भगवानों से संबंध था तो क्यों नहीं उन्होंने भक्तों की रक्षा की और क्यों सेना व सरकार को आना पड़ा?

प्रकृति अपना प्रकोप दिखाती रहेगी. और कर्मठता इसी में है कि अपनी सूझबूझ, तकनीक, सहयोग से उस से निबटा जाए. अंधविश्वासों और धर्म के दुकानदारों के बस का न आज मानव रक्षा करना रहा है, न पहले कभी. बातें बनाने से जीवन सुरक्षित नहीं रहता.

 

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