Bihar Election Result 2025: बिहार में एनडीए गठबंधन भारी बहुत से जीत गई है. वजहें चाहे जो हों पर इसे विपक्ष की हार कहना गलत नहीं होगा क्योंकि 20 सालों बाद भी वे नीतीश को सत्ता से हटा नहीं पाए. आखिर क्या कारण है कि समाजवादी राजनीति दक्षिणपंथ के खिलाफ हिंदी पट्टी में दम तोड़ती नजर आ रही है?

 

बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस की अगुवाई वाले महागठबंधन की हार ने नए राजनीतिक चिंतन को जन्म दिया है. समाजवादी विचारधारा सत्तावाद के दवाब में बिखर क्यों जाती है ? दूसरी तरफ भगवावाद है जो अपने विचारों को खुद से चिपका कर रखता है. वह अपने वोटर को विचारधारा से अलग नहीं होने देते हैं. उदाहरण के लिए भारतीय जनसंघ को ही लें, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी वह धर्म के सिद्वांत पर पहले की तरह की कायम है. दूसरी तरफ समाजवादी विचारधारा से बने दल अपने सिद्धांत को भूल कर परिवारवाद के चक्कर में उलझ कर रह गए हैं.

समाजवाद और परिवारवाद के सिद्धांत अलगअलग हैं. समाजवाद निजी संपत्ति और लाभ पर आधारित पूंजीवाद का विरोध करता है. समाजवाद का लक्ष्य सामूहिक हित और समानता को बढ़ावा देना है. समाजवाद सभी के लिए एक समान अवसर लाने की बात करता है. समाजवाद उत्पादन के साधनों और धन के वितरण पर सार्वजनिक नियंत्रण का समर्थन करता है. समाजवाद पारंपरिक लिंग भूमिकाओं पर सवाल उठाता है और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने का प्रयास करता है.

यह परिवारवादी मूल्यों के विपरीत होते हैं. परिवार के भीतर संपत्ति के उत्तराधिकार और हस्तांतरण की पारंपरिक प्रथाओं से अलग है. परिवारवाद में अकसर पितृसत्तात्मक संरचनाएं शामिल होती हैं जहां परिवार के भीतर पुरुश और महिला की भूमिकाएं अलग होती हैं. समाजवाद का तर्क है कि सार्वजनिक स्वामित्व आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है, जबकि परिवारवाद इस सुरक्षा को परिवार के भीतर से प्राप्त करने पर निर्भर करता है.

लालू प्रसाद यादव समाजवादी विचारधारा के नेता रहे हैं, जिन्होंने सामाजिक न्याय और सांप्रदायिक सदभाव को अपनी राजनीति के मूल सिद्धांत माना था. उन की राजनीति जनता पार्टी के शुरू हुई. जो समाजवादी विचारों पर आधारित थी. लालू प्रसाद यादव ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने में भी अहम भूमिका निभाई. वह हमेशा सामाजिक रूप से पिछड़े और हाशिए पर रहने वालों के हितों की बात करते रहे. 1997 में राष्ट्रीय जनता दल यानि राजद की स्थापना की. जिस की विचारधारा में सामाजिक न्याय और सांप्रदायिक सदभाव को केंद्र में रखा.

राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी नेताओं के विचारों को ले कर चलने की बात करते थे. यह समाजवादी विचारधारा गांधीवादी विचारों से प्रभावित थी. विचारों से अलग राजनीतिक सत्ता के दबाव में कभी एक साथ रहे बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव और जार्ज फर्नाडिस बिखरने लगे. 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनता ने राजद के बदले स्वरूप को नकार दिया. लालू यादव अगर अपने पुराने सहयोगी नीतीश कुमार और समाजवादी विचारों को साथ ले कर चल सकते तो वह चुनाव नहीं हारते.

 

क्यों हावी हुआ परिवारवाद?

करीब 20 साल से बिहार में जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं. इस लंबे कार्यकाल के बाद भी विपक्ष उन के खिलाफ किसी भी तरह के आरोप लगाने में असफल रहा. महागठबंधन यह बताने में असफल रहा कि वह बिहार के लिए किस तरह उपयोगी होंगे. राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद के मुखिया लालू प्रसाद यादव ने समाजवाद के नाम पर अपनी राजनीति को विस्तार दिया था. सत्ता हासिल करने के बाद वह समाजवाद को भूल गए. उन के लिए समाजवाद का मतलब केवल परिवारवाद रह गया. वह अपनी विचारधारा के लोगों को साथ ले कर चलने में फेल हो गए.

1975 में जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगी थी तब लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव और रामविलास पासवान जैसे नेता गैर कांग्रेसवाद के नाम पर जेल में थे. 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो गैरकांग्रेसवाद के नाम पर समाजवादी नेता और जनसंघ (पहले की भारतीय जनता पार्टी) एक ही सरकार में हिस्सा थे. जनता पार्टी सरकार ने पिछड़ी जातियों को उन के हक और अधिकार देने के लिए 1979 में मंडल कमीशन का गठन किया था. यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई. जब जनता पार्टी सरकार गिर गई तो जनसंघ के नेताओं ने अलग भारतीय जनता पार्टी बना ली.

समाजवाद से जुडे लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव और रामविलास पासवान जैसे नेता एक साथ रहे. 1990 में जनता दल के नेता वीपी सिंह प्रधानमंत्री थे. तब समाजवादी नेता उन के साथ जनता दल में शामिल थे. वीपी सिंह ने पिछड़ों को उन को हक देने के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशें मान ली. देश में अलग किस्म की राजनीति ने जन्म ले लिया. जिस में पिछड़ी जाति के नेताओं को आगे आने का मौका मिला. इस बदलाव को समझते हुए भारतीय जनता पार्टी ने अपने दल में पिछड़ी जातियों से आए नेता उमा भारती, कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री तक बना दिया.

वीपी सिंह के बाद पिछड़ी जातियों के नेताओं ने समाजवाद के नाम पर परिवारवाद का बढ़ावा दिया. इस का असर धीरेधीरे यह हुआ कि पिछड़ी जातियां अलगअलग खेमों में बंट गईं. धीरेधीरे इन सभी ने अपनी गोलबंदी करनी शुरू कर दी. पिछड़ी जातियों में आपसी फूट का लाभ भारतीय जनता पार्टी ने उठाया. भाजपा ने सरकार और संगठन में पिछड़ी जातियों को स्थान देना शुरू किया. इन को अपनी धर्म की राजनीति का हिस्सा बनाना शुरू कर दिया. धीरेधीरे दक्षिणवाद का विरोध करने वाले समाजवादी नेता धर्म के समर्थक बनने लगे. भाजपा ने इन के अलग देवताओं और महापुरुषों का अपनाना शुरू कर दिया.

भाजपा में भले ही कमान ऊंची जाति के नेताओं के हाथ में रखी लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी दलित पिछड़ी जातियों को देना शुरू किया. इसी सोच पर भाजपा ने 1998 में एनडीए यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाया. इस में गैर कांग्रेसी दल शामिल हुए. उत्तर प्रदेश और बिहार के दो बड़े दल समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल इस का हिस्सा नहीं बने. बिहार से जदयू, लोक जनशक्ति पार्टी और टीएमसी एनडीए के साथ रहे. राष्ट्रीय दलों की खेमेबंदी में कुछ दल कांग्रेस के साथ हुए तो कुछ भाजपा के साथ रहे. यानी कुछ एनडीए में रहे तो कुछ यूपीए का हिस्सा बन गए.

समाजवाद छोड़ कर परिवारवाद की राह पकड़ चुके दल जब सत्ता में आए तो अपने सामाजिक समीकरणो को छोड़ कर खुद आगे बढ़ने लगे. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ने कोई सामाजिक गठजोड़ नहीं बनाया. उन को लगा कि जातीय नेताओं को टिकट देने से ही जनता उन के साथ हो जाएगी. भाजपा ने इस कमी को महसूस किया और दलित पिछड़े नेताओं और गठजोड़ दोनों को ही सत्ता में भागीदारी देनी शुरू की. 2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बना दिया.

इस के पहले 1997 में जब राजद नेता लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में जेल जाने लगे तो उन्होंने अपना उत्तराधिकारी अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बनाया वह मुख्यमंत्री बन गई. बताया जाता है कि यह काम लालू प्रसाद यादव ने उस समय के प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल की सलाह पर किया था. 25 जुलाई 1997 को राबड़ी देवी ने बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी. यहां से बिहार ही नहीं पूरे देश की राजनीति में बदलाव आया. राजनीति से दूर एक साधारण गृहिणी को अचानक मुख्यमंत्री बना दिया गया. जो लालू प्रसाद यादव की पत्नी, एक घरेलू महिला और राजनीति से बिल्कुल अनजान थी. लालू प्रसाद यादव के इस सियासी कदम उठाया जिस ने बिहार ही नहीं पूरे देश को चैंका दिया. इस ने समाजवाद की जगह परिवारवाद के लिए एक रास्ता खोल दिया. यहां तक की खुद राबड़ी देवी इस के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थीं.

राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री बनने की घोषणा किसी राजनीतिक मंथन या पार्टी की आंतरिक सहमति से नहीं, बल्कि लालू प्रसाद यादव की रणनीतिक जरूरत से हुई थी. लालू प्रसाद जानते थे कि अगर उन्होंने किसी अन्य नेता को मुख्यमंत्री बनाया, तो सत्ता उन के हाथों से जा सकती है. लेकिन अगर पत्नी मुख्यमंत्री बनती हैं, तो वे परोक्ष रूप से सत्ता की पकड़ बनाए रख सकते हैं.

राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री के रूप में अपना काम संभालने में काफी दिक्कतें आ रही थीं. वे विधानसभा में भाषण देने से बचती थीं. सचिवालय जाना उन्हें असहज करता था. इस वजह से उन को ‘रबर स्टांप’ मुख्यमंत्री कहा जाने लगा था. लालू प्रसाद यादव के करीबी नेताओं रघुवंश प्रसाद सिंह, रामचंद्र पूर्वे और अब्दुल बारी सिद्दीकी इस फैसले के साथ थे. लालू के बाद वह राबड़ी का साथ देते रहे जिस से लालू की पकड़ पार्टी पर बनी रही.

राबड़ी देवी का जन्म 1956 में बिहार के गोपालगंज जिले में हुआ था. उन्होंने 1973 में लालू प्रसाद यादव से विवाह किया. तब उन की उम्र महज 17 वर्ष थी. इन की बड़ी बेटी का जन्म उस समय हुआ था जब लालू प्रसाद यादव इमरजेंसी के दौरान जेल में थे. इसलिए उस का नाम ‘मीसा‘ रखा गया. इमरजेंसी को डीआईआर मीसा के नाम से जाना जाता था. 2000 के विधानसभा चुनाव में राबड़ी देवी ने अपनी पार्टी को जीत दिलाई. इस के बाद वह पूरे 5 साल मुख्यमंत्री रहीं. लालू प्रसाद यादव के बच्चे छोटे थे तो कई नाते रिश्तेदार जैसे उन के साले साधू यादव सत्ता पर काबिज रहे. इस का पार्टी पर बुरा प्रभाव पड़ा.

इस दौरान लालू प्रसाद जेल से बाहर भी आए, लेकिन उन्होंने दोबारा मुख्यमंत्री बनने की बजाय पर्दे के पीछे से राजनीति को साधने का रास्ता चुना. 2015 में जब तेजस्वी यादव ने बड़े हो कर राजनीति में कदम रखा तो उन की उम्र 26 साल थी. वैसे उन के बड़े भाई तेजप्रताप भी थे पर उन की रूचि राजनीति में नहीं थी. लालू प्रसाद यादव तेजप्रताप की जगह पर तेजस्वी यादव को ज्यादा प्रतिभाशाली मानते थे. इस कारण 2022 में जब नीतीश कुमार राजद के सहयोग से मुख्यमंत्री बने तो तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री बने और लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप यादव को कैबिनेट मंत्री का पद दिया गया.

सत्ता को ले कर परिवार में भी झगड़ा शुरू हो गया. राजद ही नहीं दूसरे दल भी इस का शिकार होने लगे. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने के बाद समाजवादी पार्टी में आपसी झगड़े शुरू हो गए. मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल यादव अलग हो गए. आपसी कलह में समाजवादी पार्टी 2017 में विधानसभा का चुनाव हार गई. तब से लगातार समाजवादी उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर है. दूसरी तरफ भाजपा ने पिछड़ी जाति के नेताओं को आगे कर के सत्ता पर कब्जा जमा लिया.

भाजपा को यह पता था कि धर्म की राजनीति में मुसलिम उन को वोट नहीं देगा. ऐसे में उस ने दलित पिछड़ों को पार्टी में स्थान देना शुरू किया. धीरेधीरे दलित और पिछड़ों को धर्म से जोड़ना शुरू किया. समाजवादी विचारधारा के नेता इस बात को समझ ही नहीं पाए. वह केवल अपने परिवारवाद में फंसे रहे.

नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ इंडिया गठबंधन का मोर्चा बना दिया. इस में गैर भाजपाई कई दल शामिल हो गए. बिहार में राजद और केन्द्र में कांग्रेस नीतीश कुमार को साथ ले कर चलने के लिए तैयार नहीं थी. इंडिया गठबंधन में नीतीश कुमार को अलगथलग कर दिया गया. दूसरी तरफ भाजपा नीतीश कुमार के महत्व को समझ चुकी थी. उस ने नीतीश कुमार को अपनी तरफ करने की पहल की. नीतीश कुमार यह समझ गए थे कि कांग्रेस और राजद की जगह भाजपा के साथ रहने में लाभ है.

2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार वापस भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल हो गए. इस का असर यह हुआ कि 2024 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा 240 सीटे पा कर बहुमत के आंकड़े से दूर हुई तो नीतीश कुमार उन के सहयोगी बन गए. अगर कांग्रेस ने नीतीश के महत्व को समझा होता तो लोकसभा चुनाव में नीतीश कांग्रेस के साथ खड़े होते. केन्द्र में सहयोग करने वाले नीतीश कुमार बिहार में भी भाजपा के साथ बने रहे. कांग्रेस और राजद ने नीतीश कुमार को भड़काने का बहुत प्रयास किया. उन की उम्र और सेहत को ले कर आलोचना की. नीतीश कुमार ने बिना कोई विवादित बयान दिए चुनाव प्रचार किया. जनता ने मोदी और नीतीश की जोड़ी को वोट दे दिया.

पूरे राजनीतिक परिदृष्य को देखें तो पता चलता है कि एक राजद और कांग्रेस थी जिन में आपसी तालमेल का अभाव था आपसी खींचतान थी, दूसरी तरफ भाजपा, जदयू, लोक जनशक्ति पार्टी और दूसरे दलों का आपसी तालमेल था. यह दल विचारधारा के स्तर पर भले ही भाजपा के साथ न हो लेकिन आपस में एकजुट थे. ऐसे में भाजपा ने राजनीतिक स्तर पर बेहतर तालमेल रखा. वहीं राजद और कांग्रेस सामाजिक स्तर पर भी लोगों को जोड़ नहीं पाई. जिस से बिहार विधानसभा में करारी हार का सामना करना पड़ा.

हार का प्रभाव लालू प्रसाद यादव के परिवार पर पड़ा. तेजस्वी यादव के खिलाफ बड़े भाई तेज प्रताप यादव पहले ही अलग हो चुके थे. चुनाव के बाद बहन रोहणी आचार्य ने घर छोड़ दिया. अपने सोशल मीडिया एक्स पर अपने साथ मारपीट और घर से निकाले जाने की बात कही. यानी सत्ता के लिए जिस राजद ने परिवार को बढ़ावा दिया उसी में आपसी झगड़े हो गए. यही मुलायम सिंह यादव के परिवार में भी हुआ था. समाजवाद के जो सिद्वांत थे वह परिवारवाद में बदल गए. एक तरफ समाजवाद को ले कर चल रहे दल परिवारवाद में उलझ कर रह गए, दूसरी तरफ भगवा विचारधारा पर बनी भाजपा ने अपने आधार वोटबैंक को बढ़ाना शुरू कर दिया. वह अपनी भगवा विचारधारा पर कायम रहे.

 

सामाजिक गठजोड़ बनाने में सफल रही भाजपा

1962 में जनसंघ ने बिहार में 3 सीट जीत कर अपना खाता खोला था. 63 साल बाद जनसंघ से बनी भाजपा 89 सीट जीत कर सब से बड़ी पार्टी बन गई है. भाजपा ने 101 सीट पर अपने उम्मीदवारों को उतारा था जिस में सवर्ण समुदाय से 49, पिछड़ा अति पिछड़ा से 40 और 12 दलित थे. जातीय आधार पर देखें तो 21 राजपूत, 16 भूमिहार, 11 ब्राह्मण, एक कायस्थ, 13 वैश्य, 12 अति पिछड़ा, 7 कुशवाहा, 2 कुर्मी, 6 यादव और 12 दलित थे.

भाजपा ने जातीय समीकरणों को देखते हुए धर्मेन्द्र प्रधान को चुनाव प्रभारी बनाया था. साथ ही केन्द्रीय जलशक्ति मंत्री सीआर पाटिल और उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को सह प्रभारी बनाया था. ओबीसी समुदाय से आने वाले धर्मेन्द्र प्रधान और केशव प्रसाद मौर्य पर ओबीसी वोटर्स को साधने के साथसाथ जीत की रणनीति तैयार करने की जिम्मेदारी थी. सीआर पाटिल ने बूथ मैनेजमेंट पर काम किया. गुजरात चुनाव में भाजपा की जीत के बाद सीआर पाटिल का नाम चर्चा में था. उन को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की बात भी चल रही थी.

चुनाव में महिलाओं के महत्व को देखते हुए पांच राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली से 200 महिला कार्यकर्ताओं को बिहार भेजा. यह महिलाएं चुनाव से तीन महीने पहले ही बिहार आ गई थी. भाजपा की स्थानीय महिला नेताओं ने इन के साथ काम किया. इस के अलावा कई प्रदेश के मुख्यमंत्रियों जैसे रेखा गुप्ता, योगी आदित्यनाथ, मोहन यादव सहित कई बड़े नेताओं को चुनावी मैदान में उतारा. नाराज नेताओं से बात कर के उन को पार्टी के साथ काम करने के लिए तैयार किया गया.

 

बिहार की जीत में महिलाओं की भूमिका

बिहार में चुनाव परिणामों को ले कर अलग बहस चल रही है. चुनाव से पहले ही एसआईआर का मुददा उठा था. चुनाव के बाद जिस तरह से नीतीश कुमार के पक्ष में वोट पड़े उस के कारणों की समीक्षा की जा रही है. इस में सब से अधिक चर्चा महिला वोटर की हो रही है. बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे देखें तो नीतीश की अगुवाई वाले एनडीए को 202 सीटे, तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन केवल 35 सीटें ही मिल सकी.

एनडीए की सफलता में महिलाओं की भूमिका अहम मानी जा रही है. बिहार विधानसभा चुनाव में कुल मतदान 67.13 प्रतिशत रहा था. इस में महिलाओं की हिस्सेदारी 71.78 प्रतिशत थी. जबकि पुरुषों ने 62.98 प्रतिशत मतदान किया था. यानी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं ने चुनाव में अधिक हिस्सेदारी की. इस की प्रमुख वजह नीतीश कुमार की महिलाओं के प्रति केंद्रित रही योजनाओं का माना जा रहा है. शराबबंदी और कानून सब से प्रमुख मुददा बन गया. जनस्वराज पार्टी के प्रशांत किशोर शराबबंदी के पक्ष में नहीं थे और तेजस्वी यादव की जीत से बिहार में वापस जंगल राज आने का खतरा लग रहा था. ऐेसे में महिलाएं नीतीश कुमार के पक्ष में खड़ी हो गईं.

2005 में सत्ता संभालने के बाद नीतीश कुमार ने लड़कियों की शिक्षा पर विशेश ध्यान दिया था. तब बिहार में महिलाओं की शिक्षा दर 33.57 प्रतिशत थी. जो अब बढ़ कर 73.91 प्रतिशत हो गई है. नीतीश कुमार ने लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए मुफ्त साइकिल योजना शुरू की थी, इन योजनाओं से मुख्य रूप से माध्यमिक स्तर पर ड्रापआउट दर में बड़ी कमी दिखी. नीतीश सरकार ने लड़कियों को छात्रवृत्ति और मुफ्त यूनिफौर्म स्कीम से भी जोड़ा और 12वीं तक पढ़ाई पूरी करने के लिए प्रोत्साहित किया.

बिहार में 10वीं, 12वीं और ग्रेजुएशन पास करने पर लड़कियों को वित्तीय प्रोत्साहन भी दिया जाता है. ग्रेजुएशन पूरी करने पर छात्राओं को 50 हजार रूपए तक का पुरस्कार मिलता है. पढ़ाई के बाद महिलाओं के लिए नौकरी और सुरक्षा पर भी नीतीश कुमार ने काम किया है. बिहार में सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण है. यह महिलाए अब न केवल खुद वोटर हो गई बल्कि उन के बच्चे भी बड़े हो गए हैं.

बिहार में महिला पुलिसकर्मियों का प्रतिशत भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले काफी अच्छा है. बिहार पुलिस में 37 प्रतिशत महिलाएं हैं. एनडीए ने इस चुनाव में ‘जंगल राज’ का मुद्दा जोर शोर से उठाया. नीतीश सरकार ने पिछले दो दशकों में ग्रामीण विकास को प्राथमिकता दी है. 2016 से बिहार के पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया. एनडीए की सफलता में जीविका योजना का प्रभाव देखने को मिला. यह योजना 2007 से चल रही है. इस ने महिलाओं को संगठित किया है और उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाया. बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में 80 प्रतिशत महिलाएं ‘जीविका दीदी’ से जुड़ी हैं.

 

आचार संहिता का उल्लंघन

चुनाव के ठीक पहले नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 10 हजार रुपए सीधे महिलाओं के बैंक खातों में ट्रांसफर कर दिए. इस का लाभ राज्य की 25 लाख महिलाओं को मिला. यह राशि लोन नहीं है और ना ही इसे लौटाना होगा. अब विपक्षी दल इस को रिश्वत मान रहा है. यह चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन बताया जा रहा है. बिहार के 34 प्रतिशत से अधिक परिवार हर महीने सिर्फ छह हजार रूपए या उस से कम पर गुजर बसर करते हैं. ऐसे गरीब परिवारों के लिए एक बार में मिले 10 हजार रूपए उन की एक महीने की आमदनी के बराबर थे. गांव की इन महिलाओं ने इस राशि से बैल, बकरी या पशु खरीदे थे.

नगद रूपए अधिक असर करते हैं. ऐसा ही असर उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त मिले गैस सिलेंडर का भी था. इस 10 हजार रुपए के ट्रांसफर का मुकाबला तेजस्वी यादव ने महिलाओं को मकर संक्रांति पर 30 हजार रुपए देने की घोषणा की थी लेकिन महिलाओं ने उस पर भरोसा नहीं दिखाया. इस के अलावा नीतीश कुमार की शराब बंदी योजना भी महिलाओं के हित में है. यह महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा से सीधे जुड़ी है. नीतीश कुमार ने साल 2016 में शराब पर पूरी तरह पाबंदी लागू कर दी थी.

प्रशांत किशोर ने चुनाव के दौरान बयान दिया कि उन की पार्टी जन सुराज सत्ता में आई, तो एक घंटे में शराबबंदी हटाई जाएगी. उन का तर्क था कि बिहार में अवैध शराब का कारोबार बढ़ा है. जिस से राज्य को करोड़ों रुपए का राजस्व नुकसान हुआ. ऐसे में महिलाओं को लगा कि एनडीए और नीतीश कुमार ही सब से जरूरी है. एनडीए ने छठ पूजा को भी मुददा बना दिया. कई प्रदेशों से छठ पूजा में हिस्सा लेने आए लोगों के लिए मुफ्त बस सेवा शुरू की.

 

सवालों के घेरे में चुनाव आयोग

भाजपा और जदयू की बहुत सारी खूबियों के बीच उन की खामियों की चर्चा के बिना सही विष्लेषण करना मुश्किल है. चुनाव आयोग की भूमिका को ले कर सवाल उठ रहे हैं. इन में एसआईआर यानी वोटर लिस्ट में गड़बड़ी के साथ ही साथ चुनाव के बीच में महिलाओं के खातों में 10 हजार रूपयो को भेजना वोट खरीदने का आरोप लग रहा है. चुनाव आयोग का काम देश में निष्पक्ष चुनाव कराना होता है. जिस तरह से चुनाव आयोग केन्द्र सरकार के दबाव में दिख रहा है उस को ले कर सवाल उठ रहे हैं. कई नेताओं ने चुनाव आयोग के अध्यक्ष ज्ञानेश कुमार को निशाने पर ले कर कहा कि इस जीत में चुनाव आयोग की भूमिका सब से अधिक है.

कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ईवीएम को जिम्मेदार ठहराते हुए एक्स पर लिखा ‘जो मेरा शक था वही हुआ. 62 लाख वोट कटे 20 लाख वोट जुड़े, उस में से 5 लाख वोट बिना एसआईआर फौर्म भरे बड़ा दिए गए. अधिकांश वोट गरीबों के दलितों के अल्प संख्यक वर्ग के कटे. उस पर चुनाव आयोग पर तो शंका बनी हुई है.’

कांग्रेस ने कहा है कि जहां चुनाव शुरू होने से पहले 6 अक्तूबर को बिहार में वोटरों की संख्या करीब 7.42 करोड़ थी, वहीं यह आंकड़ा चुनाव के बीच 11 नवंबर को 7.45 करोड़ हो गया. चुनाव आयोग ने अब तक आधिकारिक तौर पर इन आरोपों पर कोई जवाब नहीं दिया है.

चुनाव आयोग पर यह आरोप लग रहा है कि एसआईआर कर 69 लाख वोट काट दिए. जिन के वोट काटे गए, वे विपक्ष के वोटर थे, जिन्हें टारगेट कर लिस्ट से बाहर किया गया. कांग्रेस ने चुनाव आयोग से सवाल किया है कि बिहार चुनाव के बीच अचानक से 3 लाख वोटर कैसे बढ़े ? कांग्रेस के कोषाध्यक्ष अजय माकन ने कहा कि नतीजे अप्रत्याशित हैं, इन की जांच होनी चाहिए. हमारे लोग डेटा इकट्ठा कर रहे हैं. हम फार्म 17सी, मतदाता सूची देखेंगे और तथ्यों और आंकड़ों के साथ अपना पक्ष रखेंगे. वोट चोरी का मुददा लंबे समय से चल रहा है. चुनाव आयोग कांग्रेस से हलफनामे पर शिकायत लिख कर देने को कह रहा है.

कांग्रेस इस के लिए तैयार नहीं है. वह केवल चुनाव आयोग पर निशाना लगा रही है. चुनाव आयोग ने एसआईआर का काम देश के बाकी राज्यों में भी शुरू कर दिया है. चुनावों में असल लड़ाई संगठन लड़ता है. वोट लेने के लिए बूथ लेवल मैनेजमेंट करना पड़ता है. इस के लिए कांग्रेस के पास कार्यकर्ता नहीं है. क्षेत्रीय दलों के पास कार्यकर्ता है लेकिन उन को संगठित कर के काम कराना सरल नहीं है.

दूसरी तरफ भाजपा के पास कार्यकर्ता और साधन दोनों हैं. इस के अलावा भाजपा ने धर्म को जोड़ कर ऐसे कार्यकर्ता तैयार कर लिए हैं तो मुफ्त में काम करते है. भाजपा ने धर्म और समाज को जिस तरह से जोड़ दिया है उस से निपटना सरल नहीं है. भाजपा ने जातीय स्तर पर भी धर्म का ऐसा प्रचार कर दिया है कि दलित और पिछड़ी जातियों का बड़ा हिस्सा भाजपा के धर्म प्रचार का हिस्सा हो गया है. पिछड़ों की अगुवाई करने वाली सपा और राजद जैसी पार्टियां अलग थलग पड़ गई है. इस कारण धीरेधीरे भाजपा अपने पांव फैलाने में सफल हो रही है. Bihar Election Result 2025.

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