Tokophobia : टोकोफोबिया बीमारी से ज्यादा एक मानसिक अवस्था है जिस में महिलाएं प्रैग्नैंसी को ले कर डर जाती हैं. बेंगलुरु में हुई एक रिसर्च के मुताबिक 55 फीसदी महिलाएं इस का शिकार हैं. लेकिन यह कोई गंभीर बात नहीं है, थोड़ी सी समझ और इलाज से इस से छुटकारा पाना आसान है.

केस–1 : “इसी साल जनवरी की बात है. मैं और अनिमेष (बदला नाम) एक फ्रैंड के यहां पार्टी में गए थे. शुक्रवार का दिन था, दोनों बेफिक्र थे कि अगले 2 दिन छुट्टी है. हमारी पार्टियां हंगामेदार होती हैं.” एनसीआर की एक नामी कंपनी में 24 लाख रुपए सालाना के पैकेज पर जौब कर रही 28 वर्षीया संभावना (बदला नाम) आगे बताती है, “उस रात हम दोनों ने ही ड्रिंक्स कुछ ज्यादा ले ली थी. कड़कड़ाती ठंड थी. रात कोई 3 बजे हम दोनों अपने ढाई कमरे के फ्लैट पर आए, तब खुमारी भी थी और थकान भी थी. इसी हालत में ड्राइंगरूम में सोफे पर ही लुढ़क गए. तभी एकाएक ही अनिमेष ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपनी तरफ खींच लिया.

“हमें इतना भी होश नहीं रहा कि जा कर बेडरूम से कंडोम यानी प्रोटैक्शन ले आते. हलके नशे में मन में खटका जरूर था कि कहीं वह गड़बड़ न हो जाए जिस से बचने के लिए हम लोग शादी के ढाई साल बाद से एहतियात बरत रहे थे. अकसर मन के ऐसे डर सच हो जाते हैं, वही मेरे साथ हुआ. टाइम पर पीरियड्स नहीं आए तो दिल धड़क उठा. स्ट्रिप ला कर प्रैग्नैंसी की पुष्टि की तो मैं तो घबरा उठी, क्योंकि हम दोनों ही अभी अगले 2 साल तक बच्चा नहीं चाहते थे. अनिमेष भी चिंता में पड़ गया और तुरंत कोई फैसला न ले सका कि बच्चा रखें या न.

“आखिर 15 दिन की ऊहापोह और सोचविचारी के बाद हम लोगों ने अबौर्शन कराने का फैसला लिया जो मानसिक रूप से मेरे लिए आसान काम नहीं था लेकिन फिर भी मैं इस के लिए तैयार हो गई क्योंकि प्लान के मुताबिक हमारी फाइनैंशियल पोजीशन ऐसी नहीं थी कि हम लोग बच्चा अफोर्ड कर पाते.

“हालांकि अबौर्शन में कोई परेशानी नही हुई, सबकुछ आराम से हो गया, मुझे पता भी नहीं चला. डाक्टर के मुताबिक तो मैं शाम को भी घर वापस जा सकती थी लेकिन कोई रिस्क उठाना ठीक नहीं समझा इसलिए एक रात हम ने बड़े से अस्पताल के लक्जरी वार्ड में गुजारी जो सहज नहीं थी. शायद, संस्कारों के चलते मन में गिल्ट था. खैर, अब सबकुछ ठीक है और पहले की तरह सामान्य है. लेकिन मन में प्रैग्नैंसी को ले कर एक अजीब सा डर बैठ गया है जिस का असर हमारी सैक्स लाइफ पर भी पड़ रहा है. डर यह कि कहीं एहतियात बरतने के बाद भी मैं प्रैग्नैंट न हो जाऊं जबकि मैं जानती हूं कि यह डर फुजूल है.

“दूसरा डर पहले डर से ज्यादा डरावना है कि कहीं ऐसा न हो कि जब हम बच्चा चाहें तब गर्भ ठहरे ही न. औपरेशन के दौरान कहीं कोई अंदरूनी गड़बड़ न हो गई हो. मम्मी अकसर उन की एक दूर की देवरानी का किस्सा बताया करती थीं कि उन्होंने यों ही सैक्स लाइफ एंजौय करने के लिए अबौर्शन करवा लिया था लेकिन फिर कभी मां नहीं बन सकीं. उन्हें दोतीन बार अपनेआप मिसकैरेज दूसरेतीसरे महीने में ही हो जाता था. लिहाजा, उन्होंने और चाचा ने बच्चे का खयाल ही छोड़ दिया. दो डाक्टर्स से कंसल्ट किया और तमाम चैकअप भी कराए. दोनों ने ही कहा कि कोई दिक्कत नहीं. आप के डर बेकार हैं, आप जब चाहें तब बच्चा प्लान कर सकते हैं.

“हालांकि अनिमेष मुझे हिम्मत बंधाते और हर तरह से समझाते रहते हैं लेकिन मैं अकसर महसूसती हूं कि वे भी पहले की तरह सहज नहीं हैं और उस रात के लिए खुद को दोष देते रहते हैं. अब 2 साल बाद जब प्रैग्नैंट हो कर बच्चे को जन्म दूंगी तभी यह डर पीछा छोड़ेगा.”

केस-2 : 26 वर्षीया आस्था (बदला नाम), जो चेन्नई में एक अंतर्राष्ट्रीय बैंक में कार्यरत है, का अनुभव भी संभावना सरीखा ही है. वह बताती है, “पिछले साल गरमी में मैं और शाश्वत (बदला नाम) एक रिश्तेदार की डैस्टिनेशन मैरिज में शामिल होने ऋषिकेश के पास एक रिजौर्ट में ठहरे थे. रिश्तेदार ने ही ट्रेन का रिजर्वेशन करा दिया था, इसलिए उसी से जाना मजबूरी हो गई थी. सफर लंबा था और मारे गरमी के बुरा हाल हो गया था. रात को ऋषिकेश के भव्य रिजौर्ट के अपने रूम में पहुंचे तो वहां की गुलाबी ठंडक ने हमें मदहोश कर दिया.

डिनर के बाद रूम में पहुंचे थे. बदले मौसम ने हमें यह सोचने का मौका भी नहीं दिया कि पास में कंडोम नहीं है. हम लोग 5 दिन ऋषिकेश घूमेफिरे, शादी अटेंड की. अच्छा यह हुआ कि शाश्वत कंडोंम ले आए थे. पर जो होना था वह पिछली रात ही हो चुका था यानी मैं प्रैग्नैंट हो चुकी थी. इस का पता मुझे चेन्नई पहुंचने के बाद चला. शादी को अभी एक साल ही हुआ था, हम लोग मांबाप बनने की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते थे.

भागेभागे डाक्टर के पास गए तो उन्होंने अबौर्शन की सलाह दी जो शाश्वत से सलाह के बाद मैं ने बिना देर किए करवा लिया. लेकिन 10 – 15 दिनों बाद ही पेट में दर्द शुरू हो गया. हलकीहलकी ब्लीडिंग भी हुई तो हम दोनों घबरा गए. फिर डाक्टर के पास भागे तो उन्होंने आश्वस्त किया कि चिंता की या घबराने की कोई बात नहीं, दवाइयों से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं बिलकुल ठीक हो गई हूं. अंदर कुछ गड़बड़ जरूर हो गई है, ऐसा मुझे लगता है और अकसर बिना किसी वजह के डर भी लगता है. कई बार तो लगता है कि अब दोबारा शायद ही प्रैग्नैंसी झेल पाऊंगी.

यह सैकंडरी टोकोफोबिया है

ये दोनों ही मामले दरअसल सैकंडरी टोकोफोबिया नाम की बीमारी के हैं जिस का संबंध शरीर से ज्यादा मन से होता है. चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक, टोकोफोबिया एक मनोवैज्ञानिक स्थिति है जिस में महिला को प्रैग्नैंसी या डिलीवरी से बहुत ज्यादा चिंता होती है या तेज डर लगता है. इस की वजह उस का पहले का तकलीफदेह अनुभव होता है. संभावना और आस्था इसी सैकंडरी टोकोफोबिया की गिरफ्त में अनजाने में ही सही आ गई थीं. टोकोफोबिया शब्द टोको और फोबिया से मिल कर बना है. टोक का मतलब प्रसव होता है. इस के दूसरे नाम मेसियोफोबिया और पट्युरीफोबिया हैं.

इस हालत में महिला को दोबारा प्रैग्नैंट होने से डर लगने लगता है और वह प्रैग्नैंसी से बचने की कोशिश करती है. कुछ महिलाएं तो सैक्स से ही कतराने लगती हैं. ऐसा तब ज्यादा होता है जब वे पिछले अबौर्शन या डिलीवरी के बारे में सोचने लगती हैं. सोचतेसोचते ही गुजरा हादसा हकीकत सा लगने लगता है जिस से वे घबरा उठती हैं. दिमाग में तरहतरह के खयाल आने लगते हैं जो आमतौर पर नैगेटिव ही होते हैं.

“कुछ दिनों तक तो मैं ढंग से सो ही नहीं पाई थी,” संभावना बताती है, “सोचतेसोचते हार्ट बीट बढ़ जाती थी. सांस तक मुश्किल से ले पाती थी और पसीना भी आने लगता था. ऐसे में अनिमेष मुझे संभालता था. हम दोनों रातरातभर बैठे मोबाइल पर गेम खेलते रहते थे. इस से हमारे कामकाज पर भी असर पड़ने लगा था. अब हालांकि बहुत कुछ कंट्रोल में है लेकिन इसे सबकुछ नहीं कहा जा सकता.

असमंजस में महिलाएं

कभीकभी, अभी भी, यह सोचते घबराहट होने लगती है कि जब जरा से अबौर्शन से यह हालत हो गई तो डिलीवरी में क्या होगा, भले ही फिर वह नौर्मल न हो कर मेरी इच्छा के मुताबिक सिजेरियन हो. कई बार यह भी लगता है कि बच्चे की झंझट ही क्यों पालें, गोद भी तो ले सकते हैं. इस में क्या हर्ज है. फिर लगता है कि अपना बच्चा अपना ही होता है और मेरी मां और सास दोनों की इच्छा है कि मैं वक्त रहते मां बन जाऊं और उन्हें भी नातीपोते खिलाने का सुख और ख़ुशी मिले. इसी डर से उन्हें या किसी को भी अबौर्शन के बारे में नहीं बताया था.

अपनेआप को समझातेसमझाते मैं थक भी जाती हूं और झल्ला भी उठती हूं कि बेमतलब को फसाद मोल ले लिया. उस दिन खुद पर कंट्रोल कर पाते या कंडोम इस्तेमाल कर लेते तो यह नौबत तो न आती.

इन दोनों जैसी कई महिलाओं को ऐसी हालत से रूबरू होना पड़ता है जिस का असर उन के व्यक्तित्व के अलावा कैरियर सहित पारिवारिक और सामाजिक जीवन पर भी पड़ता है. कुछ महिलाएं तो इतनी घबरा जाती हैं कि फिर कभी मां न बनने का अप्रिय फैसला बेमन से ले लेती हैं. कई बार यह डर पीटीएसडी यानी पोस्ट ट्रामेटिक स्ट्रैस डिसऔर्डर से भी कनैक्ट रहता है.

पीटीएसडी भी एक मनोस्थिति है जिस में महिला का कोई अनुभव दर्दनाक, भयावह या किसी अप्रिय घटना का गवाह बनने के चलते होता है, मसलन किसी भीषण एक्सिडैंट को देख लेना या हिंसक लड़ाईझगड़ा देख लेना या फिर किसी प्राकृतिक आपदा को देख लेना. ऐसी घटनाएं महिलाओं को मानसिक और भावनात्मक रूप से डिस्टर्ब कर देती हैं.

आस्था और संभावना ने तो खुद अबौर्शन करवाया था लेकिन किसी और वजह से भी अबौर्शन का हो जाना महिला को सैकंडरी टोकोफोबिया का मरीज बना सकता है. संभावना का मामला इस से जुड़ा लगता है क्योंकि उस ने अपनी मम्मी से चाची के अबौर्शन के बारे में सुन रखा था जो उस के अचेतन में कहीं सुरक्षित रखा था.

लेकिन यह कोई खास चिंता की बात नहीं है. सैकंडरी टोकोफोबिया कोई ऐसी स्थिति नहीं है जिस से बचा न जा सके या जिस का इलाज न हो. इस स्थिति का निदान मनोचिकित्सक और गायनीकोलौजिस्ट से होने के बाद इलाज संभव है. इस में आमतौर पर एंटी डिप्रैशन दवाएं डाक्टर्स देते हैं. इस के अलावा सीबीटी यानी काग्निटिव विहेवियोरल थेरैपी भी कारगर साबित होती है. और भी कई थेरैपी फर्क डालती हैं लेकिन सब से अहम है परिवारजनों, खासतौर से पति, का हर स्तर पर सहयोग जो आस्था और संभावना को तो मिला हुआ है लेकिन सभी को मिले, यह जरूरी नहीं.

यह होता है प्राइमरी टोकोफोबिया

अब यह जिम्मेदारी पति की बनती है कि वह पत्नी की दिमागी हालत और परेशानी को समझते उस का सहयोग करे और बच्चे की जिद न करे जो कि पत्नी पर एक बड़े दबाब का काम करता है. सास और ससुराल वालों को टरकाना एक दफा आसान होता है लेकिन पति की इच्छा या दबाब की बहुत ज्यादा अनदेखी पत्नी नहीं कर पाती. इस हालत से गुजर रहीं महिलाएं शारीरिक सबंध बनाने से भी बचने की कोशिश करती हैं. इसलिए पति को समझ और सब्र से काम लेना चाहिए.

यह तो रही एक अप्रिय अनुभव या हादसे की बात लेकिन कई युवतियां बिना इन से रूबरू हुए भी प्रैग्नैंसी या डिलीवरी से डरने लगती हैं जिसे प्राइमरी टोकोफोबिया कहा जाता है. इस में भी युवतियां प्रैग्नैंट होने से डरती हैं जिस से उन की स्थिति सैकंडरी टोकोफोबिया की महिलाओं सरीखी हो जाती है. यह डर आमतौर पर कहेसुने की बिना पर पैदा होता है कि डिलीवरी में असहनीय दर्द होता है और बच्चा मुश्किल से जन्म ले पाता है.

फिल्मों में प्रसव के ऐसे दृश्य इफरात से दिखाए जाते हैं जिन में बच्चे को जन्म दे रही महिला भीषण दर्द से छटपटा रही होती है. उस के दोनों हाथ पीछे पलंग को पकड़े हुए होते हैं, दांत बंधे होते हैं वगैरहवगैरह. इस से डर जाना स्वभाविक है लेकिन यह भी याद रखा जाना चाहिए कि प्रसव भी बेहद स्वाभाविक है लगभग पहली बार के सहवास की तरह जिस के बाद का सुख और तृप्ति सारा दर्द भुला देते हैं.

हरेक युवती को यह भी याद रखना चाहिए कि वह कोई पहली या आखिरी नहीं है जो इस से हो कर गुजरेगी. उस से पहले करोड़ोंखरबों अनगिनत प्रसव सफलतापूर्वक हो चुके हैं. अब तो काफी सहूलियतें, दवाएं और तकनीकें मौजूद हैं जो दर्द से राहत दिलाती हैं वरना एक दौर वह भी था जब महिलाएं एक के बाद एक दर्जनभर तक बच्चों को जन्म देती थीं और उन्हें आराम करने की भी इजाजत न होती थी.

प्राइमरी टोकोफोबिया का इलाज भी सैकंडरी टोकोफोबिया जैसा ही है. इन दोनों से बचने के लिए एक स्वस्थ और व्यस्त दिनचर्या के साथसाथ प्रसव के बारे में जानकारियां हासिल करते रहना है जिस से डर कम हो या खत्म ही हो जाए.

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