Best Hindi Story : मां बनना एक स्त्री के लिए सब से बड़ा सुख है लेकिन सिंधु इसी सुख से महरूम थी. ऐसे में रेशमा एक आस बन कर आई. आखिर कौन थी यह रेशमा?

‘‘भैया, जल्दी घर आइए, दीदी फिर से बेहोश हो गई हैं,’’ सविता लगभग हांफती हुई बोली तो अविनाश भी हड़बड़ा गया. पूरे 15 दिनों बाद वह औफिस आया था मगर उस के बगैर सिंधु एक घंटे से ज्यादा ठीक न रह सकी.
‘‘तुम डाक्टर मुक्ता को फोन करो. देखो, डायरी में सब से ऊपर उन का ही नंबर है, अच्छा सुनो, मैं करता हूं, तुम पानी के छींटे डालो.’’
‘‘डाक्टर, जल्दी से घर पर आ जाइए सिंधु फिर से बेहोश हो गई.’’

अपने सेक्रेटरी को मीटिंग संबंधी जानकारी दे कर जल्दीजल्दी लैपटौप और जरूरी सामान समेट कर अविनाश घर पहुंचा तो डाक्टर मुक्ता सिंधु के साथ हंसीमजाक करती दिखीं. पत्नी को सहीसलामत देख कर उस की जान में जान आई.

उन्हें देखता हुआ वह सोचने लगा आखिर ऐसे कब तक चलेगा. शादी के 15 साल हो गए मगर सिंधु की गोद नहीं भरी. ऐसा नहीं है कि गर्भ ठहरता नहीं है, 2 या 3 महीने होतेहोते सबकुछ खत्म हो जाता है और उस हादसे से उबरने में लगभग 6 महीने लग जाते हैं.

ये सब झेलती सिंधु अब तो थायरायड पेशेंट हो गई है. न तो उस की माहवारी का ठिकाना रहता है और न ही वह कभी खुशी से उस के नजदीक आने की इच्छा ही जताती है. ऐसा लगता है जैसे अजन्मे शिशुओं संग उस का मन भी मर गया है. जब भी वह उस से कुछ हलकीफुलकी बातें करता है, वह बुरी तरह से रोना शुरू कर देती है और आज तो डाक्टर मुक्ता के जाने का भी इंतजार न किया.
‘‘सब तुम्हारी वजह से अविनाश, न तुम नजदीक आते न यह होता. सोचो अविनाश, किसी का हम ने क्या बिगाड़ा है? एकएक कर हम और कितने खून और कब तक?’’
‘‘बसबस शोना, अब और नहीं.’’

कहते हुए अविनाश ने जब उस के बालों पर हाथ फिराया तो वह बिफर पड़ी. डाक्टर ने इशारा किया कि रो लेने दीजिए. हां, उसे चुप कराना किसी के बस में नहीं था.
‘‘क्या हो गया बाबू, बच्चा मेरा, तुम हो न मेरे बच्चे और मैं तुम्हारा. हमें किसी की जरूरत नहीं,’’ कह कर अविनाश ने उसे सीने में छिपा लिया. ऐसा न करता तो वह डिप्रैशन में चली जाती और उस के बिजनैस की तो ऐसे ही वाट लगी हुई थी. ऐसे में डाक्टर मुक्ता का एहसान था जो उन दोनों का खयाल रख रही थीं. उन के कहने पर ही तो उस ने चौथा रिस्क लिया था और नतीजा सामने आया तो आखिर में उन्होंने ही सुझाया.
‘‘अविनाश, तुम किसी और तरीके से सिंधु को मातृत्व का सुख दे सकते हो.’’
‘‘वह नहीं मानेगी, डाक्टर.’’
‘‘मैं लेटैस्ट टैक्निक की बात कर रही हूं. बच्चा तुम दोनों का, बस, कोख किराए की होगी.’’
‘‘पर कैसे, यह तो अवैध है?’’
‘‘व्यवसाय के रूप में भले अवैध हो मगर परोपकार के लिए जो भी किया जाए, बिलकुल वैध है. किसी नजदीकी रिश्तेदार से बात करो.’’
‘‘आप सिंधु को जानती हो न, वह स्वाभिमानी होने के साथ जिद्दी भी है. शायद ही किसी परिचित का एहसान ले.’’
‘‘मगर उसे जिंदा रखना है तो उस की गोद में बच्चा देना होगा. रुको, मैं ही कुछ करती हूं.’’

जब उसे छोड़ने गया तो पोर्टिको में ये बातें हुईं और सचमुच मुक्ता ने रेशमा को सामने ला खड़ा किया. रेशमा को डाक्टर मुक्ता कुछ सालों से जानती थी. डाक्टर के कुछ पेशेंट्स जो निसंतान थे, रेशमा की कोख का इस्तेमाल कर मातापिता बन चुके थे. रेशमा नजदीक के गांव से आई थी. बहुत संघर्ष के बाद भी जब मन लायक काम न मिला तो मजबूरी में उस ने यह रास्ता अपना लिया था.

डाक्टर मुक्ता ने जब पहली बार उसे अपने एक मरीज के साथ देखा तो अकेले में काफी समझाया था तब रेशमा का यही जवाब था, ‘हम हमेशा से ऐसे नहीं थे. हम ने भी मन लगा कर पढ़ाई की मगर बड़े शहर में रहने के लिए मकान का किराया, अच्छा कपड़ा कहां से लाते. हमारे भाईबहन जो हमें अपना आदर्श मानते हैं. आखिर उन के सामने हम खुद को हारा हुआ कैसे दिखाते. मां और बाबा जो इतनी उम्मीदों के साथ मेरे द्वारा भेजे गए पैसों की राह देखते हैं वे टूट जाते. इतने के बाद भी आप को लगता है कि हम गलत कर रहे हैं तो हमें पुलिस में दे दीजिए. हम खुशी से चले जाएंगे.’
‘तुम्हारी इन दलीलों से तुम्हारा गुनाह माफ नहीं हो जाता. आखिर ये सब तुम पैसों के लिए ही तो कर रही हो. पैसों के लिए अपनी कोख बेच रही हो. इस से तुम्हारा शरीर कमजोर होगा और फिर कमाने के और भी तो तरीके हैं.’
‘अभी तो सिर्फ मैं ही कमाने निकली हूं और बाकी के लोग पढ़ाई कर रहे हैं अगर पैसे न बनाऊं तो मजबूरी में मेरा पूरा परिवार सड़क पर आ जाएगा. फिर शायद गलत काम और भी बढ़ जाए, इस से तो अच्छा है कि अपने परिवार को पालने के लिए मैं ही क्यों न त्याग करूं? कोई तो करेगा न?’ उस रोज उस के चेहरे पर रौबिनहुड वाली मुसकान और दलील थी जिसे सुन कर मुक्ता चुप हो गई थीं.

रेशमा का ध्यान आते ही उस में डाक्टर मुक्ता को सिंधु का समाधान दिखाई दिया. उस ने रेशमा की डिटेल्स अविनाश को भेजीं तो उस की जान में जान आई. लैब में अविनाश के शुक्राणु और सिंधु के एग्स फर्टिलाइज कर उस के गर्भ में प्रत्यारोपित किए गए. बस, उन के सपनों का संसार कुछ ही महीनों में बसने वाला था कि गांव जाने के रास्ते में रेशमा के स्कूटी से गिरने की बुरी खबर आई.

उफ, अब क्या होगा. आंखों में अपने नवजात को देखने की आस में बड़ी मुश्किल से सिंधु की हालत कुछ सुधरी थी. कहीं फिर से कोई अनहोनी हो गई तो. यह सोच कर ही अविनाश के हाथपांव ठंडे होने लगे तो डाक्टर मुक्ता को फोन किया.

‘‘आप को सिंधु की हालत पता है न डाक्टर. इस बार शायद न झेल पाए. कुछ करिए मगर रेशमा और बच्चा दोनों को बचा लीजिए.’’
‘‘आईसीयू में है, कुछ और दिन औब्जरवेशन में रखना होगा.’’
‘‘जितने दिन रखना पड़े, रखिए. पैसों की चिंता बिलकुल मत करिए.’’ यही उस ने दिन में कई बार दोहराया. सिंधु को उस के ऐक्सिडैंट के विषय में कोई जानकारी नहीं दी थी.

माना संसार के अपने नियम हैं. झुठ की उम्र छोटी और सच की लंबी होती है मगर जिस झुठ से किसी की जिंदगी संवरे उसे बोलने में दोष नहीं लगता. उस के कानों में महाभारत का वह वाक्य गूंज रहा था, ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो…’

तभी उस के अपने बच्चे की आवाज कानों में आई. केहोंकेहों की आवाज सुन कर उसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. आज अविनाश पिता और सिंधु मां बन गई थी. सचमुच बच्चे को पा कर मानो जग जीत लिया था उन्होंने. वहीं, रेशमा भी स्वस्थ व सुरक्षित थी.

आखिर में अविनाश ने उस की कोख के फूल को सिंधु की गोद में डाल दिया तो सिंधु जैसे जी उठी. सिंधु की इस मुसकराहट पर वह सबकुछ कुरबान कर सकता था. फिलहाल एक ब्लैंक चैक रेशमा को थमाते हुए बोला, ‘‘तुम्हें नहीं पता है कि तुम ने हमें क्या दिया है. इस चैक में इतनी रकम भर लो कि तुम्हें पैसों के लिए कभी अपनेआप को कष्ट न देना पड़े.’’
‘‘इस बार मैं ने पैसों के लिए नहीं, सिंधु दीदी की जिंदगी के लिए यह किया.’’

रेशमा के मुंह से यह सुन कर डाक्टर मुक्ता मुसकरा उठीं. वाकई रेशमा ने एक जीव को जन्म दे कर एकसाथ कई जीवन संवार दिए. उस की दरियादिली पर समाज सुधारक कबीरदासजी का वह दोहा याद आ गया-

‘‘माला फेरत जुग भया फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे मन का मनका फेर.’’

लेखिका : आर्या झा

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