‘Phule’ controversy : फिल्म ‘फुले’ की रिलीज से पहले मात्र ट्रेलर देख कर ब्राह्मण संगठनों ने विरोध दर्ज किया तो सैंसर बोर्ड ने फिल्म की कांटछांट कर दी. इसे बहुजन सिनेमा पर ब्राह्मणवादी हमले की तरह देखा गया. मगर यह इकलौता वाकेआ नहीं जो सैंसर बोर्ड की क्रैडिबिलिटी पर प्रश्नचिह्न लगा रहा हो.
11 अप्रैल को महात्मा ज्योतिबा फुले की 197वीं जयंती थी. इसी दिन अनंत नारायण महादेवन निर्देशित फिल्म ‘फुले’ सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली थी. लेकिन पुणे के कुछ ब्राह्मण संगठनों के विरोध के बाद केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सैंसर बोर्ड ने यह फिल्म अटका दी जिसे बाद में 25 अप्रैल को रिलीज किया गया.
हाल के दिनों में बौलीवुड में ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विषयों पर आधारित फिल्मों या वैब सीरीज को धार्मिक संगठनों व राजनीतिक दलों से आई कड़ी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ा है फिर चाहे वह वैब सीरीज ‘तांडव’ हो या ‘छावा’ या मलयालम फिल्म ‘एल 2 इम्पूरन’ या ‘फुले’ हो.
वास्तव में फिल्म ‘फुले’ का ट्रेलर आने के बाद फिल्म पर जातिवाद को बढ़ाने व इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश करने के आरोप पुणे, महाराष्ट्र के कुछ हिंदू व ब्राह्मण संगठनों के साथ ही परशुराम आर्थिक विकास महामंडल ने लगाए और फिल्म के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया. सिर्फ ट्रेलर के आधार पर ब्राह्मण महासभा के आनंद दवे ने विरोध जताया कि फिल्म में ब्राह्मण को विलेन की तरह दिखाया गया.
उन का कहना था कि ट्रेलर के कुछ दृश्य एकतरफा व इतिहास को गलत तरीके से पेश करते हैं. आनंद दवे को इस तरह के आरोप लगाने से पहले पूरी फिल्म देखनी चाहिए थी. 2 मिनट 18 सैकंड के ट्रेलर में पूरी कहानी समेटी नहीं जा सकती खासकर बात जब ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद के बीच के फर्क की हो.
वास्तव में यह सारा खेल फिल्म ‘फुले’ की आड़ में अपनीअपनी राजनीतिक रोटी सेंकने और अपने वोटबैंक को मजबूत करने का था. फिल्म को ले कर जिन तबकों को दिक्कत हुई, क्या उन पर सवाल नहीं खड़े किए जा सकते कि जब इतिहास गैरबराबर और जातिवादी रहा तो इसे परदे पर दिखाने में क्या दिक्कत? क्या इसे दिखाने से रोकना ब्राह्मणवाद नहीं?
उधर, महाराष्ट्र में सरकार के साथी बने हुए ‘वंचित बहुजन अघाड़ी’ के प्रकाश अंबेडकर भी अपने लोगों के साथ फिल्म के समर्थन में सड़क पर उतर कर फिल्म को टैक्स फ्री करने तक की मांग कर बैठे.
कारण यही था कि निर्माताओं ने फिल्म को 25 अप्रैल को रिलीज करने का निर्णय लिया. कुछ लोगों का आरोप है कि यह खेल कुछ और ही है. ब्राह्मण संगठन अब तक ‘ब्राह्मणवाद’ व ‘ग्राम्हात्व’ और धर्म के अंतर को समझ नहीं पाए या समझना नहीं चाहते.
सीबीएफसी ने ‘फुले’ के निर्माताओं से कहा-
सैंसर बोर्ड ने संवादों को संशोधित करने या बदलने के लिए कहा. पहला, ‘शूद्रों को ?ाड़ू बांध कर चलना चाहिए’ इस की जगह पर ‘सब से दूरी बना के रखनी चाहिए’; दूसरा, ‘3000 साल पुरानी गुलामी’ की जगह ‘कई साल पुरानी गुलामी’; 43 सैकंड का एक संवाद ‘यहां 3 एम हैं और हम वही करने जा रहे हैं’ को हटाया जाए.
फिल्म के एक दृश्य में ब्राह्मण लड़का सावित्री फुले के चेहरे पर गोबर व कीचड़ फेंकता है, इसे हटाया जाए. महार, पेशवाई, मांग जैसे शब्दों को हटाना, जाति व्यवस्था से शूद्रों की दुर्दशा का वौयसओवर हटाया जाए वगैरह. कुछ लोगों ने इस कदम को इतिहास को दबाने व दलितबहुजन की कहानी को कमजोर करने की साजिश बताया. यह सच है कि इतिहास में पहले पढ़नेलिखने का हक ऊंची जातियों को ही था. ऊंची जातियों के ही पढ़लिख पाए तो उन्होंने अपने अनुसार ही आधुनिक इतिहास लिखा. इस के चलते बहुजन इतिहास को कभी स्पेस ही नहीं मिल पाया.
निर्देशक अनंत नारायण महादेवन ने कहा, ‘‘हम ने फिल्म में वही दिखाया है जोकि इतिहास में पहले से लिखा है. मैं खुद ब्राह्मण हूं, फिर मैं अपने समुदाय को क्यों बदनाम करूंगा. हम ने यह भी दिखाया कि किस तरह कुछ ब्राह्मणों ने ज्योतिबा फुले का साथ भी दिया. उन्होंने उन के स्कूल व अस्पताल खोलने में उन की मदद की. हम ने जरूरी सभी कागजात व दस्तावेज जमा कर दिए हैं. यह फिल्म सिर्फ ज्योतिबा या सावित्रीबाई की कहानी ही नहीं है, बल्कि एक प्रेरणा है जोकि हर इंसान को देखनी चाहिए.’’
उठते अहम सवाल
दक्षिण भारत के दलित एक्टिविस्ट व लेखक कांचा इलैया ने सैंसर बोर्ड पर सवाल खड़े किए थे, कहा था, ‘‘सीबीएफसी फिल्म से जाति संबंधी उल्लेखों को हटाने के लिए कैसे कह सकता है जब फुले का संघर्ष जाति और उस समय की ब्राह्मण समुदाय की अमानवीय प्रथाओं के खिलाफ था.’’
कांग्रेस नेता व सांसद राहुल गांधी ने आरएसएस और भाजपा पर गंभीर आरोप लगाते हुए ट्वीट किया था, ‘भाजपा और आरएसएस के नेता एक तरफ फुलेजी को दिखावटी नमन करते हैं, दूसरी तरफ उन के जीवन पर बनी फिल्म को सैंसर करने पर जोर दिया. महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुलेजी ने जातिवाद के खिलाफ लड़ाई में पूरा जीवन समर्पित कर दिया. मगर सरकार उस संघर्ष और उस के ऐतिहासिक तथ्यों को परदे पर नहीं आने देना चाहती.’’
कौन थे महात्मा ज्योतिबा फुले
11 अप्रैल, 1927 को माली जाति यानी कि फूलों का व्यापार करने वाले परिवार में जन्मे ज्योतिबा फुले उन समाज सुधारकों में से हैं जिन्हें भारत में सब से पहले ‘महात्मा’ की उपाधि दी गई थी. वे उच्चशिक्षित व बहुत बड़े कौन्ट्रैक्टर भी थे. उन्होंने मुंबई व पुणे की कई सड़कों का निर्माण किया था. उन्होंने कुछ बांध भी बनाए थे. 1 जनवरी, 1848 को उन्होंने दलितों व महिलाओं की शिक्षा के लिए पहला स्कूल पुणे के बुधवारपेठ में शुरू किया था.
1890 में उन का देहांत हो गया था. उन्होंने 1873 में किताब ‘गुलामगीरी’ लिखी थी और 1873 में ही ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की. उस के बाद उन्होंने कई किताबें लिखीं. उन्होंने ब्राह्मण महिला के विधवा होने पर उस का सिर मुंडन करना बंद करवाया और विधवा पुनर्विवाह की वकालत की. इस तरह ज्योतिबा फुले व उन की पत्नी सावित्री फुले ने अपने जीवन में समाज सुधार के कई कार्य किए.
महात्मा ज्योतिबा फुले ने आवाज उठाई थी कि शूद्र और ब्राह्मण कंधे से कंधा मिला कर क्यों नहीं चल सकते? शूद्रों और औरतों को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार क्यों नहीं? उस जमाने में ब्राह्मणों को राजा/ब्रिटिश सरकार की तरफ से ‘दक्षता’/दान मिलता था, जिसे ब्राह्मण समाज धार्मिक मसला मानता था. ज्योतिबा फुले ने इस का विरोध करते हुए ब्राह्मण लेखकों को यह धन देने की बात कही थी. उन का मानना था कि मराठी भाषा का उत्थान भी शूद्रों का उत्थान है.
एक विधवा ब्राह्मण काशीबाई के साथ उस के ही रिश्तेदार ने गलत काम कर उसे गर्भवती कर दिया, तब ज्योतिबा ने उस विधवा काशीबाई को अपने घर में रखा और उस के जन्मे बच्चे यशवंत को खुद गोद लिया. उन्होंने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया. वे कहते थे कि धार्मिक कहलाने वाले ग्रंथों ने ही उन्हें शूद्र बनाया.
धार्मिक ग्रंथों का लेखन ईश्वर ने नहीं किया. वेद ईश्वर ने नहीं लिखे. मनु और मनुवादियों ने शूद्रों पर गुलामी मढ़ी. उस वक्त के मशहूर सुधारवादी नेता गोविंद रानाडे ने जब 11 साल की लड़की से दूसरा विवाह किया तो ज्येतिबा फुले ने इस पर विरोध जताया था.
महात्मा ज्योतिबा फुले पर यह पहली फिल्म नहीं
महात्मा ज्योतिबा फुले पर यह पहली फिल्म नहीं बनी. सब से पहले 1954 में आचार्य प्रह्लाद केशव अत्रे ने महात्मा ज्योतिबा फुले पर फिल्म ‘महात्मा फुले’ बनाई थी, जिस के लेखक डाक्टर बी आर अंबेडकर थे. उस फिल्म को भारत सरकार द्वारा ‘रजत कमल’ के पुरस्कार से नवाजा गया था. फिर 1986 में श्याम बेनेगल ने दूरदर्शन के लिए सीरियल ‘भारत एक खोज’ में एपिसोड नंबर 45 ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले पर बनाया था. यह एपिसोड आज भी यूट्यूब पर मौजूद है.
गत वर्ष प्रवीण तावड़े ने ज्योतिबा फुले और सावित्री फुले पर फिल्म ‘सत्यशोधक’ बनाई थी, जोकि ओटीटी प्लेटफौर्म अमेजन प्राइम पर है. इस का लेखन व निर्देशन नीलेश जालंकर ने किया था. संदीप कुलकर्णी और राजश्री देशपांडे की इस में अहम भूमिकाएं थीं. इन फिल्मों व श्याम बेनेगल के सीरियल में भी ब्राह्मण लड़के द्वारा स्कूल से बाहर निकलते ही सावित्री फुले के चेहरे पर गोबर व कीचड़ फेंकने के दृश्यों के साथ ही वे सभी संवाद हैं, जिन्हें अब अनंत नारायण महादेवन की फिल्म ‘फुले’ से हटाने के लिए सैंसर बोर्ड ने कहा है. हैरानी यह कि पहले इतनी असहिष्णुता नहीं थी. आलोचनाओं के लिए द्वार खुले रहते थे और अपनी बात कहने की आजादी थी. मगर अब यह सिकुड़ता जा रहा है. इस का एक बड़ा उदाहरण ‘फुले’ फिल्म का विवाद है.
अब सवाल उठता है कि जिन दृश्यों के साथ बनी फिल्म को सरकार रजत कमल पुरस्कार दे कर सम्मानित करती है, जिस तरह के दृश्यों को 1986 में दूरदर्शन प्रसारित करता है, उन दृश्यों या संवादों पर ‘ब्राह्मण सभा’ के आनंद दवे या ‘परशुराम मंडल’ को आपत्ति क्यों नहीं हुई थी? तब ये सब कहां थे? अब उन्हीं दृश्यों व संवादों को फिल्म ‘फुले’ में देख कर सैंसर बोर्ड या हिंदू या ब्राह्मण संगठनों को आपत्ति क्यों होने लगी?
यह अहम व अति विचारणीय सवाल है? आखिर आज हम और हमारा देश किस दिशा में जा रहे हैं? हम अपनी भावी पीढ़ी को क्या सिखाना चाहते हैं? हम कैसा समाज बनाना चाहते हैं?
क्रिएटिव फील्ड पर रोक क्यों
मोहनलाल और पृथ्वीराज सुकुमारन अभिनीत फिल्म ‘एल 2 इम्पूरन’ 27 मार्च को रिलीज हुई थी. लेकिन फिल्म के रिलीज होते ही केरल में हिंदू संगठनों व भाजपा ने जबरदस्त विरोध किया. फिल्म में कुछ दृश्य थे, जिन पर लिखा था, इंडिया 2002. फिल्म में कहीं भी गोधरा कांड का जिक्र नहीं था पर हिंदू संगठनों व भाजपा कार्यकर्ताओं ने इन दृश्यों को सीधे 2002 के गोधरा कांड से जोड़ कर देखा. उस के बाद वहां के क्षेत्रीय सैंसर बोर्ड ने फिल्म को ‘री सैंसर’ करते हुए वे सारे दृश्य हटा दिए जिन पर लोगों को आपत्ति थी.
इतना ही नहीं, दबाव में आ कर अभिनेता मोहनलाल ने मीडिया में आ कर उन दृश्यों के लिए अपनी गलती की माफी मांगी. मोहनलाल ने यह सब क्यों कहा, यह सब आसानी से समझ जा सकता है. जब मोहनलाल इन दृश्यों की शूटिंग कर रहे थे तब उन्हें एहसास नहीं था कि वे क्या गलती कर रहे हैं. खैर, इतना सब होने के बावजूद फिल्म ‘एल 2 इम्पूरन’ के निर्माताओं के 78 स्थानों पर ‘ईडी’ ने 2 अप्रैल से 4 अप्रैल तक लगातार छापेमारी की. इस घटना से भी फिल्म ‘फुले’ के निर्माताओं के साथ ही पूरे देश के हर फिल्मकार को एक सबक मिला.
‘एल 2 इम्पूरन’ को वहां के सैंसर बोर्ड द्वारा री सैंसर किया जाना कानून का उल्लंघन नहीं है. 2024 से पहले ही केंद्र सरकार ने कुछ संशोधन कर एक नियम बना दिया है कि फिल्म के रिलीज होने पर अगर फिल्म के कुछ दृश्यों पर समाज या लोगों की आपत्ति सामने आती है तो सैंसर बोर्ड उस फिल्म की रिलीज को रुकवा कर उस फिल्म को फिर मंगवा कर उस की फिर से जांच करने का अधिकार रखता है.
इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने 2014 से 2024 के बीच सिनेमा के विकास के नाम पर कार्यरत 4 संगठनों का विलय करने के साथ ही ‘केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड’ में कुछ नियम बदलने के साथ ही बहुतकुछ बदला. मसलन, पहले हर फिल्म को सब से पहले चार सदस्यीय परीक्षण समिति देख कर अपना निर्णय देती थी. परीक्षण समिति व रिवाइजिंग कमेटी के सदस्यों को केंद्र सरकार का सूचना प्रसारण मंत्रालय ही नौमिनेट करता है. ये 2-2 साल में बदलते रहते हैं. मगर कुछ सदस्य तो लगातार कई साल से कार्यरत हैं.
एफसीएटी का खात्मा: निर्माता के पास अदालत का रास्ता 4 अप्रैल, 2021 को केंद्र सरकार के कानून मंत्रालय ने अध्यादेश जारी कर ‘सिनेमेटोग्राफी एक्ट’ में बदलाव के साथ ही ‘एफसीएटी’ को ही खत्म कर दिया और अब फिल्म निर्माता के पास रिवाजिंग कमेटी के निर्णय से असहमत होने पर अदालत का दरवाजा खटखटाने का ही विकल्प रह गया.
फिल्म ‘फुले’ के निर्माता व निर्देशक ने ‘सीबीएफसी’ की परीक्षण समिति के ही आगे घुटने टेक दिए थे. हो सकता है कि कुछ हद तक राजू पारुलेकर ने जो शंका व्यक्त की है वह सच हो. लेकिन फिल्म ‘फुले’ के निर्देशक अनंत नारायण महादेवन एक बार ‘एक्जामिनिंग कमेटी’ के खिलाफ रिवाइजिंग कमेटी में जा सकते थे पर उन्होंने ऐसा कदम क्यों नहीं उठाया, इस का सच कभी सामने आएगा, ऐसा लगता नहीं क्योंकि वर्तमान समय में जो हालात बने हुए हैं, उसे देखते हुए फिल्म ‘फुले’ से जुड़े लोग खुल कर सच बयां करेंगे, ऐसी उम्मीद करना मूर्खता है.
पर इन दिनों केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के जो मैंबर हैं उन से शायद फिल्म ‘फुले’ के निर्माताओं को उन का पक्ष सुने जाने की उम्मीद कम रही होगी. इस बोर्ड में विवादास्पद मैंबर भी हैं. ऐसे मैंबर कितना निष्पक्ष हो कर रचनात्मक स्वतंत्रता का साथ देते हैं, इस का दावा कोई नहीं कर सकता.
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन का कार्यकाल 3 वर्ष का होता है. मगर इस पद पर गीतकार व पटकथा लेखक व एक ऐड एजेंसी के मालिक प्रसून जोशी 12 अगस्त, 2017 से आसीन हैं. प्रसून जोशी कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में कविताएं लिख चुके हैं.
कुल मिला कर फिल्म ‘फुले’ का विवाद इस ओर इंगित करता है कि जब भी आप इतिहास, समाज व संस्कृति पर कुछ बोलने की कोशिश करेंगे तो किसी न किसी कोने से विरोध के स्वर उभरेंगे, जोकि सही अर्थों में देखा जाए तो लेखक या फिल्मकार की रचनात्मक स्वतंत्रता पर बंदिश ही है.
दूसरी बात, 2025 के घटनाक्रम इस बात की ओर इशारा करते हैं कि आज की तारीख में हर फिल्मकार डर के साए में जी रहा है.