Trending Debate : एक देहाती कहावत के मुताबिक जीभ बाबरी होती है वह तो कुछ भी कह कर दांतों के बीच जा कर सुरक्षित बैठ जाती है लेकिन उस के बोले का खामियाजा कपाल यानी माथे को भुगतना पड़ता है. इन दिनों बोलने के नाम पर कुछ भी बक देने का रिवाज शबाब पर है जिसे देख लगता है कि हमें आप को संभल कर बोलना जरुरी है.

महाभारत के युद्ध के आखिरी दिन हैं पितामह के खिताब से नवाज दिए गए भीष्म तीरों की शैय्या पर पड़े सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार कर रहे हैं. वे बहुत तकलीफ में हैं शारीरिक भी और मानसिक भी. चारों तरफ हिंसा है, खूनखराबा है, सैनिकों के कटे सर और अंग कुरुक्षेत्र में कचरे की तरह बिखरे पड़े हैं. खुद भीष्म के शरीर से भी खून बह रहा है. पूरा शरीर तीरों से घायल है लेकिन हश्र जानते हुए भी इस भीषण युद्ध का अंत देखना चाहते हैं.

महाभारत के अनुशासन पर्व में उल्लेख है कि उन्होंने इस दौरान युधिष्ठिर को जो ज्ञान की बातें बताईं उन में से एक प्रमुख और प्रचिलित है –

अहिंसा परमो धर्म, धर्म हिंसा तथैव च.

अर्थात – अहिंसा सर्वोच्च धर्म है लेकिन धर्म की रक्षा के लिए हिंसा भी धर्म हो सकती है.

धर्म ग्रन्थों में वर्णित दूसरी हजारों लाखों बातों की तरह यह भी एक घुमावदार बात है जिस की टाइमिंग को ले कर कहा जा सकता है कि यह बात तो उन्हें तब कहनी चाहिए थी जब भरी सभा में द्रोपदी का चीर हरण हो रहा था. सभा में विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य सहित खुद भीष्म भी सारा तमाशा ख़ामोशी से देखते रहे थे. जाने क्यों तब उन्हें यह ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था और हो गया था तो उन्होंने इस पर अमल करने की जरूरत महसूस नहीं की थी कि दुर्योधन के आदेश पर दुशासन जो कर रहा है वह अधर्म से भी बदतर चीज है. लिहाजा प्यार और शराफत से न मानने पर हिंसा किया जाना भी धर्म है क्योंकि आख़िरकार उस की ही तो रक्षा करनी है.

और इस के लिए उन्हें कोई तलवार वगैरह नहीं चलानी थी बल्कि पूरी शांति से अपने आसन से उठ कर दुशासन का टेंटुआ भर दबा देना था. भीष्म इतने बलशाली थे कि उन के सामने दुशासन की हैसियत वही थी जो शतरंज की बिसात पर वजीर के सामने एक प्यादे की होती है. लेकिन ऐसा उन्होंने नहीं किया तो इस की दो प्रमुख वजहें ये हैं. पहली यह कि धर्म के ठेकेदारों को स्त्री को अपमानित होते देख एक विचित्र सा अवर्णीय सा सुख मिलता है फिर यहां तो भयंकर अपमान सार्वजनिक रूप से हो रहा था. इसलिए मुंह से धर्म अहिंसा और रक्षा टाइप का कोई उपदेश बाहर की तरफ नहीं फूटा.

दूसरी वजह भी बोलने से ही ताल्लुक रखती है कि द्रोपदी अपने जुआरी पतियों की लत की नहीं बल्कि अपने बड़बोलेपन की सजा भुगत रही थी. एक प्रचिलित प्रसंग के मुताबिक जब इन्द्रप्रस्थ में युधिष्ठिर के राज्याभिषेक की तैयारियां हो रहीं थीं तब राजमहल में बने एक मायावी कुंड में दुर्योधन गिर गया था. इस पर हंसते हुए द्रोपदी ने दुर्योधन को अंधे पिता का अंधा पुत्र कह कर बेइज्जत किया था. दुर्योधन ने तभी द्रोपदी से बदला लेने की कसम खा ली थी.

द्रोपदी ऐसा न बोलती तो शायद महाभारत की लड़ाई न होती जिस का रक्तपात देख भीष्म भी घबरा उठे थे और उन्हें सामने तय हार देख अहिंसा नजर आने लगी थी. यानी बोलना अहम है. आम जिन्दगी में अकसर लोग तय नहीं कर पाते कि उन्हें कब कहां कितना बोलना है.

ऐसा ही कुछ भारत पाकिस्तान युद्ध के सीजफायर के बाद मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ मंत्री विजय शाह के साथ हुआ जिन्होंने इन्दोर के नजदीक महू के रायकुंडा की एक सभा में बोलने की मर्यादाएं (बशर्ते अगर कहीं होती हों तो ) पार कर दीं. उन्होंने कहा, “जिन लोगों ने हमारी बेटियों का सिंदूर उजाड़ा था मोदीजी ने उन्हीं की बहन भेज कर उन की ऐसीतैसी कर दी. उन्होंने कपड़े उतारउतार कर हमारे हिंदुओं को मारा और मोदीजी ने उन की बहन को उन की ऐसीतैसी करने उन के घर भेजा. अब मोदीजी तो कपड़े उतार नहीं सकते इसलिए उन की समाज की बहन को भेजा कि तुम ने हमारी बहनों को विधवा किया है तो तुम्हारे समाज की बहन आ कर तुम्हें नंगा कर छोड़ेगी. देश का सम्मान और मानसम्मान और हमारी बहनों के सुहाग का बदला तुम्हारी जाति समाज की बहनों को पाकिस्तान भेज कर बदला ले सकते हैं.”

इस घोर आपत्तिजनक भाषण पर जो बबंडर मचा वह किसी सबूत का मोहताज नहीं. खुद जबलपुर हाईकोर्ट ने संज्ञान ले कर पुलिस से एफआईआर दर्ज करने का हुक्म दिया. मामला अभी कोर्ट में चल रहा है लेकिन धर्मरक्षक पार्टी भाजपा ने अपने बड़बोले मंत्री को इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नहीं हटाया था और न ही मंत्री ने इस्तीफा देने की जरूरत समझी थी. यानी अपनी नजर में उन्होंने जो बोला था वह ठीक था. अब उन का अंजाम जो भी हो लेकिन गलत नहीं कहा जाता कि धनुष से निकला तीर और मुंह से निकले शब्द वापस नहीं आते.

बात इन्हीं मंत्रीजी की नहीं है बल्कि मध्य प्रदेश के उप मुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा ने भी बड़बोलेपन की बहती गंगा में हाथ धोते औपरेशन सिंदूर की सफलता पर जबलपुर में सिविल डिफैन्स वालिन्टियर्स के ट्रेनिंग प्रोग्राम में यह कह डाला कि पूरा देश देश की सेना और सैनिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चरणों में नतमस्तक हैं.

इन्होने भी जो जी में आया या ऊपर से प्राप्त निर्देशों के मुताबिक बोल दिया. लेकिन सुनने वालों के मुंह खुले के खुले रह गए कि आखिर यह हो क्या रहा है क्यों भाजपाई खामोख्वाह नरेंद्र मोदी को हीरो साबित करने तुले हुए हैं. दरअसल में यह उन्माद एक किस्म की खीझ और खिसियाहट है क्योंकि युद्ध में भारत जीता नहीं है जिसे ले कर सरकार की छीछलेदार हो रही है. क्रिकेट के भाषा में कहें तो मेच ड्रा रहा और इस की एम्पायरिंग बिलाशक इन से भी बड़बोले कलयुग के नए पितामह अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने की, इस पर भी खूब सवाल जवाब होते रहे और कटघरे में मोदी और उन की सरकार रही.

नेताओं का बड़बोलापन अब बेहद आम है जो अकसर अपने एजेंडे के तहत बोलते हैं. एक तिहाई देशों में दक्षिणपंथियों का राज है और वे सिर्फ बोल रहे हैं करने के नाम पर कुछ खास नहीं कर रहे.

मुट्ठी भर लोगों के आदर्श बन गए इन नेताओं में सीखने लायक कुछ नहीं है सिवाय इस के कि हम अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में संभल कर बोलें क्योंकि बोलना एक कला है जिस में बहुत कम लोग पारंगत हैं. डोनाल्ड ट्रम्प और नरेंद्र मोदी से ले कर विजय शाह और जगदीश देवड़ा जैसे नेताओं का कुछ नहीं बिगड़ना है लेकिन हमारा आप का काफी कुछ बड़बोलेपन से बिगड़ सकता है. घर हो दफ्तर हो रिश्तेदारी हो या फिर महफिल हो हमारा बोलना काफी कुछ बना और बिगाड़ सकता है.

ज्यादा बोलने के फायदे तो कुछ खास नहीं लेकिन नुकसान बेहिसाब हैं. बातूनी, वाचाल या बड़बोला होना अकसर बहुत महंगा साबित होता है क्योंकि ज्यादा बोलने वालों के पास तथ्य और तर्क कम होते हैं बकवास ज्यादा होती है. भोपाल के एक प्रोफैसर की मानें तो इन दिनों पारिवारिक समारोहों तक में उपयोगी बातें न के बराबर होती हैं बेवजह की बहस ज्यादा होती है. कहने को ही यह वैचारिक होती है नहीं तो लोग एकदूसरे के प्रति अपनी भड़ास और घृणा ज्यादा निकालते हैं.

अपना ही उदाहरण देते वह बताते हैं कि एक बार ऐसी ही यार दोस्तों की छोटी सी महफिल में सीजफायर को ले कर बहस छिड़ गई. एक मित्र मोदी सरकार को ले कर हमलावर थे तो दूसरे उस के बचाव में सोशल मीडिया से हासिल किया हुआ ज्ञान बघार रहे थे. बहस होतेहोते व्यक्तिगत जिन्दगी पर आ गई. मैं जानता हूं तुम्हारी औकात क्या थी तुम्हारे पिताजी मामूली मुनीम थे,……. तो क्या तुम्हारे पिताजी कहां के अफसर थे जैसी बातें होने लगीं तो यूएन छाप दोस्तों ने मध्यस्ता कर जैसेतैसे माहौल संभाला लेकिन तब तक दोनों के 25 साल पुराने संबंध स्थाई रूप से बिगड़ चुके थे.

इस और ऐसी बातों और बहसों से किसी को कुछ हासिल नहीं होता यह हर कोई जानता है लेकिन अपने बोलने पर काबू कोई नहीं रख पाता. बात तब और बिगड़ती है जब जाती जिंदगी में भी ऐसा होता है. पतिपत्नी का रिश्ता बहुत अंतरंग होता है पर इस में बड़बोलापन आ जाए तो नौबत अलगाव और तलाक तक भी पहुंच जाती है. एक गारमेंट व्यापारी और उन की पत्नी अब एक ही घर में अजनबियों की तरह रहते हैं.

दोनों के बीच विवाद शुरू हुआ तो वे एकदूसरे के खानदान की बघिया उधेड़ने लगे. इसी तूतू मैंमैं में पत्नी ने कह दिया कि मैं जानती हूं तुम्हारे घर की हालत क्या थी जब मैं शादी हो कर आई थी तो तुम भी लट्ठे के कपड़े की चड्डी पहनते थे. इस बात पर पति बिगड़ा तो पूरे घर का सुख चैन छिन गया. ये गैरजरुरी बातें संबंध बहुत तेजी से बिगाड़ रही हैं.

घरों और रिश्तेदारी में भी दो गुट हो गए हैं पहला दो टूक कहें तो भाजपाई है और दूसरा एक हद तक कांग्रेसी कहा जा सकता है. पहला भक्ति आस्था और पूजापाठ को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है तो दूसरा तर्क करतेकरते लड़खड़ा जाता है क्योंकि आस्था के आगे तर्क कम ही टिकते हैं. दोस्ती यारी भी इसी रोग की गिरफ्त में है युवाओं में अव वैश्विक सामयिक समस्याओं पर बहस या चर्चा नहीं होती क्योंकि वे कुछ पढ़लिख ही नहीं रहे. उन की जिंदगी और दुनिया धर्म कर्म तक सीमित हो कर रह गई है. नतीजतन अपनी बात मनवाने या थोपने वे कुछ भी अनर्गल बोल जाते हैं.

आजकल तो नई मुसीबत स्मार्ट फोन है जिस पर ज्यादा बातें होती हैं. सोशल मीडिया पर कुछ बोलने यानी लिखे को मिटाने का तो एक मौका उसे हटा लेने का होता है लेकिन बातचीत अगर रिकौर्ड हो रही हो तो अपने कहे से मुकरना मुमकिन नहीं रह जाता. विजय शाह जैसे नेता इसी रिकौर्डिंग के चलते दिक्कत में हैं वर्ना तो वे कह देते कि मैं ने ऐसा कहा ही नहीं था.

बातचीत में रिकौर्डिंग संबंधों को बहुत औपचारिक बनाए दे रही है इसलिए मोबाइल फोन पर भी संभल कर बोलने की जरूरत है. कब कौन क्या रिकार्ड कर ले और जरूरत पड़ने पर या यूं ही पोल खोल दे या पब्लिक कर दे कहा नहीं जा सकता. हालत तो यह है कि पतिपत्नी तक एकदूसरे की बातें रिकौर्ड कर रख लेते हैं जाहिर है इस का एक खास मकसद होता है जो यह बताता है कि रिलेशन अकसर ढहने के मुकाम पर रहते हैं.

यह अविश्वास दरअसल में धर्म की ही देन है जिस ने जोजो बोलना सिखाया है वह सारा का सारा महाभारत में वर्णित है. दुर्योधन को अंधे का बेटा कह कर द्रोपदी ने उस का मजाक उड़ाया तो कितना खून खराबा हुआ था यह हर कोई जानता है. बचना इस बात से चाहिए कि बोलने के चलते घर कुरुक्षेत्र न बन जाए और इस के लिए जरुरी है बोलने पर नियंत्रण रखना. कम बोलना कभी नुकसानदेह साबित नहीं होता इसलिए एक चुप सौ सुख वाली कहावत को हमेशा ध्यान रखना चाहिए.

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