India-Pakistan War : युद्ध खतम नहीं हुआ है बल्कि पोस्टपोन हुआ है लेकिन इस से आतंकवाद के खतम होने की बात आयुर्वेदिक दवाओं की तरह है जिन का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता. लड़ाई से हमें क्या हासिल हुआ यह भी लोग सोचने और पूछने लगे हैं कि क्या यह महज नरेंद्र मोदी की ध्वस्त होती इमेज को चमकाने के लिए किया गया था.
10 मई की शाम देशभर के लोगों ने राहत की सांस ली थी क्योंकि भारत और पाकिस्तान युद्ध बंद करने सहमत हो गए थे. यह घोषणा चूंकि एकाएक ही महाभारत के कृष्ण की भूमिका में आ गए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने की थी इसलिए भी लोगों का भरोसा सीजफायर पर बढ़ा था.
लेकिन 3 घंटे बाद ही पाकिस्तान ने जताबता दिया कि शांति की मोगरी में उस की पूंछ टेढ़ी ही है. लिहाजा फिर दोनों तरफ से गोलाबारी शुरू हो गई. चंद घंटों के होहल्ले और दहशत के बाद बात फिर संभली फिर सीजफायर का ऐलान हुआ जिस के चलते हालफिलहाल हालात सामान्य हैं लेकिन कब क्या हो जाए कहा नहीं जा सकता.
डोनाल्ड ट्रंप कृष्ण की तरह लड़ा रहे हैं या लड़ाई बंद कराना चाह रहे हैं यह कहना मुश्किल है क्योंकि उन्होंने 2 दिन पहले ही कहा था कि इस से हमें कोई मतलब नहीं हमारे लिए तो सिरहाने बैठा पाकिस्तान और पंगायते बैठा भारत दोनों बराबर हैं. पर दरअसल में ऐसा है नहीं.
आम भारतीय ट्रंप पर विश्वास नहीं करता है. उन की और नरेंद्र मोदी की दोस्ती का गुब्बारा तो उसी दिन फुस्स हो गया था जिस दिन सैकड़ों भारतीयों को जंजीरों में जकड़ कर वापस भेजा गया था. दूसरे कई मसलों की तरह टैरिफ के मामले में भी वे कोई रियायत भारत के साथ नहीं बरत रहे हैं.
तो पाकिस्तान की तरह अमेरिका का भी भरोसा नहीं इस के बाद भी उस की सुननी तो सभी को पड़ेगी क्योंकि उस के हाथ में दुनिया की सब से बड़ी ताकत होने का तमगा ‘सुदर्शन चक्र’ जो है.
यह युद्ध है या आतंकवाद के खिलाफ जंग जैसा कि भारत कह रहा है तय कर पाना मुश्किल है क्योंकि हिंसा विध्वंस और जानमाल का नुकसान दोनों में ही होते हैं. बल्कि युद्ध में ज्यादा होते हैं यह दो दिन की लड़ाई में साफ दिखा भी. इस की दहशत की धमक कन्याकुमारी तक रही. 22 अप्रैल को पहलगाम हमले में 26 बेगुनाह मारे गए थे लेकिन 8-9 मई को कितने निर्दोश कहांकहां मारे गए इस का सटीक आंकड़ा जब आएगा तब आएगा पर दो दिन में ही आम लोग लड़ाई बंद होने की दुआ करने लगे थे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर पहलगाम हमले को ले कर महज 8-10 फीसदी लोगों का दबाव था कि भारत व पाकिस्तान को सबक सिखाए जो कि उस ने सिखाया. हमारी सेना का शौर्य और पराक्रम वाकई बेमिसाल है. यह युद्ध के दौरान उस ने साबित भी कर दिखाया.
2 दिन में ही देश में चारों तरफ से शांति की मांग उठने लगी थी. युद्ध विराम के लिए घोषित तौर पर कोई मांग नहीं कर रहा था लेकिन इस से पहले युद्ध करने की मांग करने वाले सड़कों पर आ गए थे. युद्ध शुरू होते ही उन्होंने मंदिरों में पूजापाठ हवनकीर्तन शुरू कर दिए थे. मकसद यह जताना था कि सेना का शौर्य और आधुनिक हथियार कहने भर की बातें हैं नहीं तो करता तो सब भगवान ही है.
यही वे लोग थे जो युद्ध चाह रहे थे. ये भक्त हैं दक्षिणपंथी हैं जिन्होंने पहलगाम हादसे को ले कर जो हल्ला मचाना शुरू किया तो नरेंद्र मोदी दबाब में आ गए. लेकिन युद्ध विराम की मांग या इच्छा उन 80 फीसदी लोगों की थी जिन्हें यह समझ आ गया था कि इस से न तो आतंक खतम होगा और न ही आतंकवादी खतम होने वाले क्योंकि इस की जड़ में मजहब है. हां अस्थाई तौर पर सबक सिखा कर इन्हें काबू किया जा सकता है. हुआ भी यही हालांकि लड़ाई अभी खतम नहीं हुई है ऐसा भी हर कोई मान रहा है.
अब जो होगा सो होगा लेकिन 3 दिन की लड़ाई में ही ऐसा एक और नुकसान हो चुका है जिस की भरपाई आने वाले कई सालों तक नहीं होने वाली. पहलगाम की विधवाओं की तरह ही युद्ध ने कितनी महिलाओं के मांग का सिंदूर औपरेशन सिंदूर ने पोंछा इस के सटीक आंकड़े अब आएंगे. यह युद्ध क्या बहुत जरूरी था इस सवाल का जवाब हां में ही ज्यादा निकलता है.
पहलगाम हमले से साबित हो गया था कि आतंकियों के हौसले कितने बुलंद हैं. उन्हें सबक सिखाया जाना जरूरी हो गया था पर इस के वैकल्पिक तरीके भी हो सकते थे.
22 अप्रैल के बाद से ही भक्तों ने यह नेरैटिव गढ़ना शुरू कर दिया था कि पाकिस्तान को सबक सिखाया जाना चाहिए. यानी यह मान लिया गया था कि फसाद की जड़ पाकिस्तान है जो पूरी तरह से गलत बात भी नहीं क्योंकि इस्लामिक आतंकवाद की बड़ी मंडी पाकिस्तान है लेकिन इस की जड़ें पाताल से ले कर आकाश तक फैली हुई हैं.
भारत ने इसे जस्टिफाई करने की जरूरत महसूस नहीं की, इस से उन लोगों को शह मिली जो किसी भी कीमत पर जंग चाहते थे. लिहाजा इन उन्मादियों जिन में शिक्षित लोग ज्यादा थे ने माहौल ऐसा बना दिया मानो लड़ाई नहीं हुई तो हम कहीं के नहीं रहेंगे.
सरकार चौतरफा घिर गई थी जिन में पहला दबाव तो भक्तों का था ही दूसरा दबाव खुद के झूठे और खोखले दावों का था कि अब कश्मीर में शांति है वहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता और अब तो लाल चौक पर शान से तिरंगा फहराया जाता है.
370 के बेअसर होने के बाद कश्मीर में खुशहाली है, रौनक है और सभी लोग सुकून से रह रहे हैं. नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहित पूरी भगवा गैंग बड़बोलेपन का शिकार 2014 से ही रही है. इस गैंग ने पूरे आत्मविश्वास से दावा किया था कि एक नोटबंदी से बहुत से दूसरी समस्याओं की तरह आतंकवाद भी खतम हो जाएगा.
इस से लगता है कि इन्हें ही अपने फैसलों पर शक ज्यादा रहता है. 12 मई को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में भी नरेंद्र मोदी पुराने वादे इरादे दोहराते दिखे कि आतंकवाद को जड़ से खतम कर देंगे ये कर देंगे वो कर देंगे.
लेकिन कश्मीर में कुछ भी ठीक नहीं था. आम लोगों ने सरकार के दावों पर भरोसा किया और कश्मीर जा कर पछताए भी. पहलगाम की एक विधवा ने तो बहुत खुल कर सरकार को निशाने पर लिया था. विरोध और असंतोष बढ़ते देख खुद सरकार ने मान लिया था कि उस से चूक हुई है. लेकिन तब तक नरेंद्र मोदी की चमत्कारिक इमेज के चिथड़े उड़ने लगे थे.
पाकिस्तान को सबक सिखाओ जैसा हल्ला मचा रहे भक्तों को इस की चिंता ज्यादा थी कि उन के हीरो की भद्द पिट रही है जिसे अब युद्ध से ही चमकाया जा सकता है.
तो लड़ाई का फैसला इमेज चमकाने ज्यादा था वरना तो हर कोई जानता है कि युद्ध से आतंकवाद खत्म नहीं किया जा सकता. हां अस्थाई तौर पर उसे दबाया जरूर जा सकता है. 22 अप्रैल के बाद से ही यह माहौल बनाया जाने लगा था कि युद्ध ही आखिरी विकल्प है और एक हद तक ऐसा था भी क्योंकि सवाल अब मोदी सरकार या भक्तों का नहीं बल्कि पूरे देश के स्वाभिमान का था.
लेकिन 8 मई आतेआते लोग घबरा भी उठे थे वजह उन्हें युद्ध की वीभ्त्सता दिखने लगी थी सरहद पर सैनिक और आम लोग मारे जा रहे थे. जानमाल का नुकसान होने लगा था खासतौर से औरतें डर गई थीं कि अब जाने क्या होगा.
ऐसे में डोनाल्ड ट्रंप की इंट्री हुई जिस पर अब ऊंगलियां उठने लगी हैं पर सरकार के पास कोई जवाब नहीं कि हम अमेरिका के इतने मोहताज क्यों हैं. क्या दूसरों के इशारे पर नाच कर हम विश्वगुरु बनने का सपना देख रहे हैं क्या हम से ताल्लुक रखते फैसले अमेरिका लेगा अगर हां तो किस हैसियत और रिश्ते से किस हक से और यह उसे दिया किस ने.
एक हकीकत यह भी थी कि पाकिस्तान उतना कमजोर पड़ नहीं रहा था जितना कि शुरू में अंदाजा लगाया गया था. शुरूआती दौर में ही भारत के रिहायशी इलाकों को निशाने पर ले कर उस ने जता दिया था कि वह करो या मरो के इरादे से जंग में कूदा है और आतंकियों की तरह किसी भी किस्म का रहम नहीं करने वाला. अब तक यह भी साबित हो गया था कि युद्ध में भारत का नुकसान भी बराबरी से हो रहा है.
युद्ध से आतंकवाद खतम करने की बात सब से पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने 2001 में कही थी तब ओसामा बिन लादेन का खौफ किसी के दिलोदिमाग से उतरा नहीं था. लादेन को तो अमेरिका ने मई 2011 में खतम कर दिया लेकिन आतंकवाद का प्रेत ज्यों का त्यों खड़ा है. इस बार उस का कहर भारत पर बरपा तो नौबत परमाणु युद्ध तक की आ गई जिसे बकौल डोनाल्ड ट्रंप उन्होंने रुकवाया.
इधर मीडिया खासतौर से न्यूज चैनल्स ने भी जम कर अफवाहें उड़ाई. किसी ने लाहौर के खतम होने की बात कही तो किसी ने स्टूडियो में बैठेबैठे ही इस्लामाबाद को ध्वस्त कर दिया किसी ने कराची के खाली हो जाने की बात कही.
युद्ध को ले कर मीडिया कतई गंभीर नहीं दिखा, टीआरपी के चक्कर में तबियत से मनमानी की. एंकर सब्जी मंडी की तरह चिल्लाते नजर आए. इसे ले कर आम लोगों ने जम कर कोसा और मजाक भी उड़ाया.
किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था कि युद्ध किस से और क्यों अगर यह आतंकवाद के खिलाफ है तो उस के खतम हो जाने की गारंटी क्या और तीन दिन में जो नुकसान हुआ उस की भरपाई कैसे होगी. पाकिस्तान अगर दोषी है तो उस के खिलाफ हम दुनियाभर को सहमत क्यों नहीं कर पा रहे?