Temples : आजकल हर सोसाइटी में मंदिर होना आम बात हो चली है. इस की आड़ में सोसाइटी में रहने वालों से मनमाना चंदा और भांतिभांति के कार्यक्रमों के नाम पर पैसे ऐंठे जा रहे हैं. लाउडस्पीकर का शोर और फुजूल का हल्लागुल्ला तो अलग बात है.

85 वर्षीय मिश्राजी आगरा की एक पौश कालोनी में अपनी पत्नी के साथ रहते हैं. बच्चों के विदेश में सैटल होने के बाद उन्होंने स्वतंत्र घर बेच कर सोसाइटी में फ्लैट इसलिए लिया ताकि बच्चों के पास जाने पर खाली घर में चोरीचकारी से तो बचे रहें, साथ ही, अकेलापन भी न महसूस हो परंतु जब से वे यहां आए हैं, हर दिन एक अलग तरह की समस्या से परेशान हैं.

फर्स्ट फ्लोर पर स्थित उन के फ्लैट के ठीक सामने ही मंदिर है जिस में कभी भजन, कभी सुंदरकांड, कभी गणेशोत्सव तो कभी दुर्गापूजा और सावन-सोमवार पर भांतिभांति के कार्यक्रम होते हैं. हर कार्यक्रम में लाउडस्पीकर पर जोरजोर से गाने बजाए जाते हैं जिस से उन का शांति से रहना, सोना सब हराम हो गया है. अब उन्हें सम झ ही नहीं आ रहा कि कैसे इस समस्या का निराकरण करें.

अवैध है मंदिर

आजकल तकरीबन हर सोसाइटी में जोरशोर से मंदिर निर्माण किया जाता है जबकि वास्तव में उन का निर्माण ही अवैध है क्योंकि जब बिल्डर किसी भी सोसाइटी को बनवाने के लिए सरकार से परमिशन लेता है तो उस के नक्शे में कहीं पर भी मंदिर का जिक्र नहीं होता. इसी तरह ग्राहक को की जाने वाली रजिस्ट्री के नक्शे में भी कहीं पर भी मंदिर का उल्लेख नहीं होता.

इस के बावजूद आजकल हर सोसाइटी में मंदिर बनवाया जाता है. यही नहीं, उसे भव्य बनवाने में जम कर पैसा खर्च किया जाता है. यदि मंदिर छोटा है तो उसे विशाल और भव्य बनवाने के लिए नागरिकों से चंदा भी वसूला जाता है जिसे हर निवासी हंसीखुशी देता भी है.

फायदे कम नुकसान अधिक शोरशराबे के अतिरिक्त सोसाइटी में मंदिर होने के फायदे कम, नुकसान अधिक हैं. जैसे-

निवासियों में धार्मिक भेदभाव

किसी भी सोसाइटी में विभिन्न धर्मों व जातियों के लोग निवास करते हैं. ऐसे में सोसाइटी में रहने वाले अन्य धर्म के निवासियों के प्रति हिंदू जनता भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है. एक पौश सोसाइटी की निवासी आशिमा कहती हैं, ‘‘मंदिर के अधिकांश प्रोग्राम्स में अपने परिवार सहित शामिल होना मेरी मजबूरी है क्योंकि यदि हम शामिल नहीं होंगें तो हमें अलगथलग कर दिया जाएगा. अकेले पड़े रहें, इस से अच्छा है कि उन्हीं के साथ घुलमिल कर रहें.’’

इसी तरह के कुछ विचार क्रिस्टोफर पौल के हैं. वे कहते हैं, ‘‘हिंदू के अलावा हर धर्म के लोगों के साथ अजीब सा व्यवहार किया जाता है. भले ही कितना भी शोरशराबा होता रहे, हम आवाज नहीं उठा सकते. उसे हर हाल में सहना ही हमारी विवशता है.’’

नसीम सिद्दीकी कहती हैं, ‘‘गणेश पूजा के समय होने वाले अनेक कार्यक्रमों में अपने साथियों को देख कर हमारे बच्चे भी भाग लेना चाहते हैं परंतु आज के माहौल को देखते हुए हमें उन्हें भेजने में डर लगता है क्योंकि धर्म के नाम पर कब कौन सा तूफान आ जाए, हमें नहीं पता.’’

अनावश्यक आर्थिक बोझ

प्रत्येक सोसाइटी में मंदिर की देखभाल के लिए पुजारी और साफसफाई के लिए एक कर्मचारी को नियुक्त किया जाता है, जिस का वेतन सोसाइटी के फ्लैट्स औनर्स से लिए जाने वाले प्रतिमाह के मैंटिनैंस की राशि में से दिया जाता है.

मंदिर में प्रतिदिन सामान्य रूप में और विशेष अवसरों पर अच्छीखासी मात्रा में जलने वाली बिजली का बिल और गणेशोत्सव, दुर्गापूजा व अन्य धार्मिक कार्यक्रमों के लिए एकत्रित किया जाने वाला चंदा निवासियों पर अतिरिक्त भार होता है. यदि कोई निवासी इस राशि को देने से मना करता है तो उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है जिस से निवासियों में परस्पर द्वेष की भावना उत्पन्न होती है.

वन बीएचके में रहने वाली वीणाजी कहती हैं, ‘‘हर प्रोग्राम के लिए 500 रुपए से कम की राशि नहीं होती. एक पैंशनर महिला के लिए हर दूसरे महीने 500 रुपए निकालना काफी मुश्किल होता है पर यदि न दो तो यहां के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के तानों का शिकार होना पड़ता है, ‘अरे, 500 रुपए भगवान के नाम पर निकालने से क्या हो जाता है, 500 रुपए तो एक बार की सब्जी में ही खर्च हो जाते हैं.’ ‘‘लोगों की कुदृष्टि का शिकार होने से अच्छा है कि 500 रुपए दे ही दो ताकि मिलने पर चार ताने तो न सुनने पड़ें.’’

निवासियों पर अतिरिक्त भार है मंदिर

मंदिर के लिए ली जाने वाली चंदे की राशि का आमतौर पर कोई हिसाबकिताब नहीं दिया जाता. सोसाइटी के प्रतिमाह लिए जाने वाली मैंटिनैंस की राशि का वार्षिक औडिट कराया जाता है, सोसाइटी के ग्रुप पर भी हर दूसरेतीसरे माह में खर्चे का हिसाबकिताब का विवरण दिया जाता है परंतु मंदिर के खर्चों, दानपेटी में आने वाली राशि का कोई हिसाब नहीं दिया जाता और आश्चर्य इस बात का है कि इस बारे में कभी कोई प्रश्न भी नहीं करता.

450 फ्लैट वाली बड़ी सोसाइटी में निवास करने वाले शर्माजी कहते हैं, ‘‘प्रतिमाह 1,800 रुपए की भारीभरकम मैंटिनैंस की राशि देने के बावजूद हर प्रोग्राम के लिए अलग से चंदा इकट्ठा किया जाता है. यही नहीं, कई बार इसे आवश्यक भी कर दिया जाता है. अच्छाखासा अमाउंट इकट्ठा हो जाने के बाद इस का कोई हिसाब नहीं रहता. यदि कभी गलती से पूछ लिया तो मानो सारे लोगों पर कयामत आ जाती है.’’

चुगली का अड्डा है मंदिर

आशिमा सोसाइटी में प्रति मंगलवार को सुंदरकांड का पाठ होता है जिस में महिला और पुरुष सभी भाग लेते हैं. सुंदरकांड के बाद पुरुष तो देशविदेश की चर्चा में मशगूल हो जाते हैं जबकि महिलाएं टोली बना कर सास, बहू, पड़ोसी और पड़ोसिनों की चुगली करना शुरू कर देती हैं. किसी साथी के घर पर मिलने के बजाय महिलाएं मंदिर में एकत्रित होना ज्यादा पसंद करती हैं जहां पर बैठ कर वे आपस में उन महिलाओं की चुगली करती हैं जो उस समय उपलब्ध नहीं होतीं. यहां पर कोई भी उत्पादक कार्य कभी नहीं होता बल्कि एकदूसरे की बुराई ही की जाती है.

अंधविश्वास को बढ़ावा

हमेशा से कर्म में विश्वास करने वाली सुलोचना अपनी मित्र के कहने पर एक दिन अपनी सोसाइटी के मंदिर में चली गई. बीमार सास के बारे में बताने पर मंदिर की वरिष्ठ महिलाओं ने उसे महामृत्युंजय मंत्र का जाप करवाने, एकादशी का व्रत करने जैसी सलाह दे डाली. सब के प्रैशर में आ कर उस ने महामृत्युंजय मंत्र का जाप करवाने का मन बना लिया. 11,000 रुपए की राशि पंडितजी को भी दे दी. जिस दिन महामृत्युंजय पाठ शुरू हुआ उसी दिन उस की सास परलोक सिधार गईं. यह बात अलग है कि उसे 11,000 रुपए का चूना जरूर लग गया.

मंदिर में पूजा करने के बाद अकसर महिलाओं में भांतिभांति की पूजाओं के बारे में परिचर्चा की जाती है. इस महिमामंडन से प्रभावित हो कर दूसरी महिलाएं भी व्रत और पूजा करने का संकल्प ले लेती हैं. इस प्रकार से मंदिर महिलाओं में अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले केंद्रबिंदु होते हैं.

परिवारों में तनाव का कारण

रजनी हर रोज सुबह 5 बजे उठ कर मंदिर जा कर शंकर की पूजा करती है. उस के पति से हर दूसरे दिन इसी बात को ले कर झगड़ा और बहस हो जाती है क्योंकि उस के पति इस समय मौर्निंग वाक पर उसे अपने साथ ले जाना चाहते हैं. अकसर इस तरह के झगड़े अनेक पतिपत्नी में देखे जाते हैं क्योंकि महिलाएं हमेशा अपने स्वास्थ्य को तरजीह नहीं देतीं. चूंकि मंदिर सोसाइटी में ही होता है इसलिए वहां पहुंचना भी काफी आसान हो जाता है.

प्रदूषण का केंद्रबिंदु है मंदिर

हमारी 450 फ्लैट वाली सोसाइटी में दीवाली के अवसर पर हर घर से एकएक दीया मंदिर परिसर में जलाने के लिए कहा गया. इन दीपकों से निकलने वाला धुआं हमारे श्वसन तंत्र के लिए नुकसानदायक होता है. इस प्रकार मंदिर ध्वनि और वायु प्रदूषण के केंद्रबिंदु भी होते हैं.

आश्चर्यजनक बात यह है किसी फ्लैट में स्टूडैंट्स द्वारा मनाई जाने वाली पार्टी या फिर किसी फ्लैट में चलने वाले देररात्रि के फंक्शन से आसपास के निवासियों को परेशानी होनी शुरू हो जाती है परंतु मंदिर में चलने वाले भजनकीर्तन का शोर उन्हें आनंददायक लगता है.

वास्तव में सत्यता यह है कि बिना किसी हिचकिचाहट के हमें जो पसंद है या हमारे लिए सुविधाजनक है उसे हम सहजता से स्वीकार कर लेते हैं. सोसाइटी में मंदिर होना ही नहीं चाहिए परंतु इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि आजकल हर सोसाइटी में मंदिर होता ही है. ऐसी स्थिति में यदि आप को मंदिर के किसी भी प्रोग्राम से कोई परेशानी हो रही है तो आवाज उठाने में तनिक भी हिचकिचाहट न करें. साथ ही, अपनी मेहनत से कमाई गई राशि का ब्योरा लेने में संकोच भी न करें.

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