Private Hospitals : आज कुकुरमुत्तों की तरह जगहजगह उग रहे निजी अस्पताल पैसा बनाने की फैक्टरी बन गए हैं, जो छोटी सी बीमारी में भी तमाम तरह के टैस्ट करवाते हैं और वह भी अपने कहे हुए पैथलैब्स में.
बात जनवरी 2019 की है. लखनऊ के रहने वाले मोहम्मद हाफिज की बेटी उमराव को अचानक रात में पेटदर्द और उलटी की शिकायत हुई. पतिपत्नी बेटी को ले कर पास बने एक नए अस्पताल की इमरजैंसी विभाग में पहुंचे. वहां उस को एक इंजैक्शन लगाया गया. रात की ड्यूटी पर तैनात जूनियर डाक्टर ने कहा कि इस से दर्द में आराम आ जाएगा. मगर कुछ देर बाद उमराव के हाथपैर सूजने लगे.
हाथों व गरदन की त्वचा के नीचे खून जमा होने लगा. जिस के चलते वे हिस्से लाल हो गए. यह हालत देख जूनियर डाक्टर के हाथपैर फूल गए. उस ने मोहम्मद हाफिज से कहा कि अपने मरीज को तुरंत किसी बड़े अस्पताल या पीजीआई ले जाओ. देर न करो क्योंकि उस की नब्ज नहीं मिल रही.
मोहम्मद हाफिज घबरा गए. बेटी की जान बचानी थी तो बिना सवालजवाब किए तुरंत एम्बुलैंस में ले कर शहर के मशहूर अपोलो मैडिक्स हौस्पिटल पहुंचे. वहां उमराव को आईसीयू में भरती किया गया.
दूसरे दिन सुबह अन्य रिश्तेदार भी अस्पताल पहुंच गए. आईसीयू में दिन में सिर्फ एक बार परिवार के किसी एक व्यक्ति को मरीज को देखने की अनुमति थी. मां उसे देख कर आई. उस समय उमराव बात कर रही थी. शाम को डाक्टर ने कहा कि उमराव को सांस लेने में दिक्कत है, इसलिए उस को वैंटिलेटर पर रखा जा रहा है. परिजन इस से इनकार नहीं कर पाए. जो भी पैसे लगें पर बच्ची की जान बचनी जरूरी थी. शाम को मां देखने गई तब भी वह सांस ले रही थी. आंख खोल कर देख रही थी.
तीसरे दिन दोपहर में डाक्टर ने उमराव के पिता को केबिन में बुलाया और कहा कि उमराव की किडनी काम नहीं कर रही है. उस को डायलिसिस की जरूरत है. आप फौर्म पर साइन कर दीजिए. मोहम्मद हाफिज को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि उन की बेटी को क्या हो गया है. उस को तो बस पेटदर्द और उलटी की शिकायत हुई थी. डाक्टर भी साफसाफ नहीं बता रहे थे कि आखिर अचानक उस को क्या बीमारी हो गई.
मोहम्मद हाफिज डायलिसिस के लिए राजी हो गए और फौर्म पर साइन भी कर दिए. तभी उन की पत्नी ने उन को बाहर बुलाया, बोली, “मैं उमराव को देख कर आई हूं. वैंटिलेटर पर उस की सांस चलती दिख रही है पर डाक्टर ने उस की दोनों आंखों पर छोटे टेप चिपकाए हुए हैं. कह रहा है, कोमा में है. मुझे तो लगता है वह ख़त्म हो चुकी है.”
मोहम्मद हाफिज ने अपने एक मित्र को फोन किया जो पुलिस में थे. वे कृष्णानगर थाने के इंस्पैक्टर को ले कर जब पहुंचे और थानेदार ने जब डाक्टर से मरीज का हाल पूछा तो डाक्टर बोला, “उस को तो अभी कार्डियक अटैक पड़ा है. उस की डैथ हो चुकी है. हम पेपर्स बना रहे हैं.”
मोहम्मद हाफिज ने डाक्टर का कौलर पकड़ लिया, बोले, “अभी तो तू मेरी बच्ची को डायलिसिस के लिए ले जा रहा था? अभी तूने मुझ से फौर्म पर साइन करवाए. बता, मेरी बच्ची कब मरी? थानेदार ने भी जब केस दर्ज करने की धमकी दी तब पता चला कि उमराव की डैथ पिछली रात ही हो गई थी.”
हौस्पिटल का संचालक डाक्टर एक मृत शरीर को वैंटिलेटर पर रख कर परिजनों से और पैसा वसूलने के चक्कर में था. वह जीवित है और कोमा में है, यह दिखाने के लिए उस को वैंटिलेटर पर रखा हुआ था जहां मशीन के जरिए हवा उस के फेफड़ों में भर रही थी और निकल रही थी. ऐसा मालूम पड़ रहा था कि वह सांस ले रही है.
मोहम्मद हाफिज उमराव को पहले जिस हास्पिटल में ले कर गए थे वहां इमरजैंसी वार्ड में तैनात जूनियर डाक्टर ने बिना एलर्जी टैस्ट के उस को जो इंजैक्शन दर्द दूर करने के लिए दिया था, दरअसल उस का रिएक्शन हो गया और उमराव पर सेप्टिसीमिया का अटैक पड़ा जिस में शरीर के खून की नाड़ियां फटने लगीं.
बाद में अपोलो मैडिक्स हौस्पिटल में भी उस को उचित इलाज नहीं मिला और दूसरे दिन रात में उस की मृत्यु हो गई. मगर इस की जानकारी परिजनों को देने के बजाय उमराव के मृत शरीर से भी धनउगाही की तैयारी इस हौस्पिटल ने कर डाली थी. अगर मोहम्मद हाफिज अपने पुलिस मित्र की मदद न लेते तो उमराव को कोमा में कह कर न जाने कितने दिन तक मोहम्मद हाफिज से यह हौस्पिटल धनउगाही करता. मात्र दो दिन वैंटिलेटर पर रखने के लिए ही उस ने मोहम्मद हाफिज से डेढ़ लाख रुपए चार्ज किया था.
शहर के इस बड़े प्राइवेट हौस्पिटल के बारे में पहले भी इस तरह की खबरें अखबारों में छपती रही हैं. मगर कोई कार्रवाई नहीं होती. इस की कई वजहें हैं. मरीज के मरने के बाद परिजन गहरे दुख की अवस्था में होते हैं. वे कहते हैं अस्पताल के खिलाफ शिकायत करने से हमारा मरीज तो अब जिंदा नहीं हो सकता. पुलिस में रिपोर्ट करवाने पर मृतक का पोस्टमार्टम सरकारी अस्पताल में होगा. उस के शरीर की छीछालेदर होगी. डेड बौडी दोतीन दिनों बाद मिलेगी.
अस्पताल के खिलाफ एफआईआर करेंगे तो हमें भी तो कोर्टकचहरी के चक्कर लगाने पड़ेंगे. हमारे पास न पैसा है न समय और ये प्राइवेट अस्पताल जो करोड़ोंअरबों में खेल रहे हैं, इन का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता. ये पुलिसकचहरी सब को खरीदने का माद्दा रखते हैं.
आएदिन अखबारों में इस तरह की खबरें छपती हैं कि मरीज की मौत के बाद परिजनों ने लापरवाही का इलजाम लगाते हुए हंगामा किया या डाक्टरों से मारपीट की या हौस्पिटल में तोड़फोड़ की. बस, बात यहीं तक आ कर ख़त्म हो जाती है. आगे कोई एफआईआर या जांच नहीं होती.
ऐसा नहीं है कि इन अस्पतालों में अच्छे डाक्टर नहीं हैं या यहां सब के साथ इस तरह का व्यवहार होता है. इन्हीं अस्पतालों से मरीज ठीक हो कर भी जाते हैं. मगर जिन मरीजों के परिजन बहुत सचेत और जागरूक नहीं होते उन से ये अस्पताल अधिक धन वसूलने के लिए कई तरह के करतब करते हैं. जैसे उन मरीजों को भी आईसीयू वार्ड और वैंटिलेटर पर ले जाते हैं जिन को उस की जरूरत नहीं. वे दवाएं अपने बताए कैमिस्ट से ही खरीदने का दबाव भी बनाते हैं.
मरीज के पास आईसीयू में परिजनों को जाने की मनाही होती है तो उन्हें यह भी पता नहीं चलता कि जो महंगीमहंगी दवाएं और इंजैक्शंस मंगाए जा रहे हैं वे उन के मरीज को चढ़ भी रहे हैं या नहीं.
21 जनवरी, 2025 को रांची सदर अस्पताल में मरीज की मौत के बाद परिजनों ने हंगामा किया और डाक्टरों पर इलाज में लापरवाही का आरोप लगाया. इस के बाद सदर अस्पताल प्रबंधक को पुलिस बुलानी पड़ी.
दरअसल, एनआईटी के छात्र अमन को 18 जनवरी को मैडिकल अस्पताल से सदर अस्पताल लाया गया था, जहां उस की मौत हो गई. मृतक के चाचा कौशल मिश्रा कहते हैं कि राज्य का एकमात्र हेमेटोलौजिस्ट सदर अस्पताल में है, इसलिए वे अपने भतीजे को मेडिका से सदर अस्पताल ले कर आए. सदर अस्पताल में करीब सवा लाख रुपए की दवा बाहर से मंगवाई गई और 58 हजार रुपए की जांच कराई गई. जब औक्सीजन की जरूरत पड़ी तो यहां औक्सीजन न मिली.
अमन प्लास्टिक एनीमिया (कैंसर) नामक एक गंभीर बीमारी से पीड़ित था. सदर हौस्पिटल के हेमेटोलौजिस्ट डा. अभिषेक रंजन उस का इलाज कर रहे थे. उन का कहना है कि उस मरीज का ब्लड और प्लेटलेट्स बहुत कम थीं. प्लास्टिक एनीमिया में बोनमैरो सूख जाता है, खून और प्लेटलेट्स में अचानक कमी आ जाती है, जिस से स्थिति गंभीर हो जाती है. गंभीर बीमारी और इलाज के दौरान होने वाले जोखिम के बारे में सारी जानकारी परिजनों को दे दी गई थी. इलाज में किसी भी तरह की लापरवाही के आरोप बेबुनियाद हैं.
लखनऊ में चौक के एक निजी अस्पताल यूनाइटेड हौस्पिटल में भी पिछले दिनों एक मरीज की मौत के बाद वैंटिलेटर पर रख कर धनवसूली करने पर परिजनों ने खूब हंगामा मचाया. मोहनलालगंज के रिटायर शिक्षक नरेश गुप्ता (74) के बेटे गोविंद के मुताबिक, 26 दिसंबर को उन्होंने पिता को इलाके के सिग्मा ट्रामा सैंटर में कूल्हे के औपरेशन के लिए भरती कराया था.
वहां आयुष्मान योजना से औपरेशन के बाद छुट्टी कर दी गई. कुछ दिनों बाद उन की सांस फूलने के साथ टांके पकने लगे. दर्द भी असहनीय हो गया. फिर गोविंद अपने पिता को आशियाना स्थित क्रिटी केयर अस्पताल में ले गए. वहां इलाज में करीब ढाई लाख रुपए खर्च हो गए, फिर भी सुधार नहीं हुआ.
यहां से डाक्टरों ने बड़े अस्पताल के लिए रैफर कर दिया. गोविंद जब पिता को ले कर केजीएमयू पहुंचे तो वहां उन्हें बेड ही नहीं मिला. मगर वहां गोविंद को एक दलाल मिल गया, जिस ने झांसा दे कर चौक के निजी अस्पताल यूनाइटेड हौस्पिटल में नरेश को भरती करवा दिया. अस्पताल के संचालक ने आश्वासन दिया था कि 3 दिनों में मरीज स्वस्थ हो जाएगा.
गोविंद का कहना है कि पिता के भरती होने के बाद उन्हें देखने के लिए कोई डाक्टर नहीं आया. क्योंकि अस्पताल में कोई कुशल डाक्टर था ही नहीं. 3 दिन उस के पिता को भरती रखा गया. वहां डाक्टर से फोन पर बात कर के कर्मचारियों के जरिए पिता का इलाज किया जा रहा था. गोविंद के मुताबिक पिता की मौत होने के बाद भी संचालक ने शव को वैंटिलेटर पर रखा और उन से पैसे वसूले. इस के अलावा वे अपने कहे हुए कैमिस्ट से लगातार दवाएं और इंजैक्शन मंगवाते रहे.
चिकित्सा जगत से जुड़ी इस तरह की खबरें आएदिन अखबारों की सुर्खिया बनती हैं. कई मामले तो ऐसे भी हुए जब गुस्साए परिजनों ने डाक्टरों के साथ इतनी बदसुलूकी की कि उन्हें शासन से अपनी सुरक्षा की गुहार लगनी पड़ी. हड़ताल पर जाना पड़ा. लेकिन इस में गलती लापरवाह और धनलोलुप डाक्टरों की है, जिन की वजह से मरीज ठीक होने के बजाय मौत के मुंह में चले जाते हैं.
दरअसल, सतर्कता और नियमित जांचों के अभाव में कुछ अस्पताल धनउगाही में ज्यादा लगे हुए हैं. धनलोलुप दवा विक्रेताओं, कैमिस्टों, डाक्टरों, पैथलैब्स और निजी अस्पताल संचालकों का एक कौकस बना हुआ है. मरीज अगर ऐसे किसी चंगुल में फंस गया तो उस का बच निकलना मुश्किल ही होता है.
आज कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे निजी अस्पताल पैसा बनाने की फैक्टरी बन गए हैं, जो छोटी सी बीमारी में मरीज को आईसीयू में रख लेते हैं. इलाज शुरू करने से पहले तमाम तरह के टैस्ट करवाते हैं और वह भी अपने कहे हुए पैथलैब्स में.
अब गलीमहल्लों में एक या दो कमरों की क्लीनिक में बैठने वाले डाक्टर्स बहुत कम हो गए हैं जो साधारण सर्दीजुकाम से ले कर टीबी तक का इलाज कुछ सस्ती गोलियों से कर देते थे. वे नाड़ी पकड़ कर रोगी के शरीर का पूरा हाल जान लेते थे. वे दुनियाभर के टैस्ट नहीं करवाते थे. उन का अनुभव ज्यादा था और फीस बहुत कम. एक बार परचा बनवा लिया तो उसी पर बारबार दवा लिखा ली जाती थी.
ये डाक्टर्स फैमिली डाक्टर भी होते थे. रातबिरात किसी की तबीयत बिगड़े तो डब्बा ले कर घर तक मरीज को देखने चले आते थे. बहुत गंभीर स्थिति होने पर ही मरीज को अस्पताल में भरती होने की सलाह देते थे, वह भी किसी सरकारी अस्पताल में. इन में सेवाभाव तो था ही, महल्ले में अपनी इज्जत बनी रहे, इस की भी चिंता थी क्योंकि लोगबाग इन को भगवान के रूप में देखते थे.
आज भी कुछ महल्लों में ऐसे डाक्टर्स हैं जो डाक्टरी के पवित्र पेशे की इज्जत संभाले हुए हैं. दिल्ली के कीर्तिनगर में 75 वर्षीय डाक्टर अजमानी अपनी क्लिनिक पर आने वाले पहले 3 मरीजों से कोई चिकित्सा शुल्क नहीं लेते और कोई गरीब आदमी इलाज करवाने पहुंच जाए तो मुफ्त परचा लिख देते हैं. कई बार दवाएं भी अपने पास से दे देते हैं.
गाजियाबाद के होम्योपैथिक डाक्टर एस के गुप्ता फोन पर ही मरीज का पूरा हाल जान कर व्हाट्सऐप पर दवा लिख कर भेज देते हैं, फिर चाहे औनलाइन उन की फीस पहुंचे या न. लखनऊ के हजरतगंज में डाक्टर भाटिया के क्लीनिक पर सुबहशाम मरीजों की लंबी कतार देखी जाती थी. डाक्टर भाटिया जीवनभर अपनी छोटी सी क्लीनिक पर बैठ कर मरीजों का इलाज करते रहे. उन की 2 दिनों की दवा में गजब का जादू था कि उस के बाद रोगी बिलकुल ठीक हो जाता था. वे भी पहले आने वाले 10 मरीजों से कोई फीस नहीं लेते थे. पिछले वर्ष 80 वर्ष की उम्र में उन का देहांत हो गया. आज भी उन के अनुभव, दयाभाव और दरियादिली की तारीफ करते लोग थकते नहीं हैं.