New Education Policy : सरकार की नई शिक्षा नीति में खेलकूद का कोई स्थान ही नहीं है. तीसरी कक्षा से आठवीं कक्षा के बच्चों के बैग पर नजर डालिए, उन से ज्यादा वजनी तो उन के स्कूल बैग मालूम पड़ते हैं. जिन्हें सारा दिन पीठ पर ढोने में उन की रीढ़ झुकी जा रही है.
उत्तराखंड के नैशनल गेम्स की ओपनिंग सेरेमनी के दौरान अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बच्चों में बढ़ते मोटापे पर चिंता जाहिर करते हुए इस से बचाव के लिए खेलकूद को अपनाने की सलाह दी. उन्होंने खाने में तेल के इस्तेमाल पर भी लोगों से सावधानी बरतने की अपील की. मोटापे से लड़ाई को मोदी एक अभियान के रूप में शुरू करना चाहते हैं. उन के इस अभियान में कई फिल्मी हस्तियां भी कूद पड़ी हैं, जिन में सब से आगे हैं अक्षय कुमार.
अक्षय ने मोदी के भाषण वाले वीडियो को एक्स पर साझा कर मोटापे से लड़ाई के हथियारों पर अपनी बात रखी. एक्स पर उन्होंने लिखा, “पर्याप्त नींद, साफ हवा, सूर्य की भरपूर रौशनी, खेलकूद, व्यायाम और स्वास्थवर्धक भोजन जिस में तेल कम हो, वह अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है.”
प्रधानमंत्री मोदी या उन के समर्थक अक्षय कुमार जिन बातों का जिक्र कर रहे हैं, वह बातें कौन नहीं जानता? खेलकूद और व्यायाम की कमी के चलते आज बड़े ही नहीं बल्कि छोटेछोटे बच्चे भी हार्ट के मरीज हो रहे हैं. बच्चों में सांस फूलना, थकान, कमजोरी, चिड़चिड़ापन, अस्थमा जैसे रोग मुख्यतः इसी कारण बढ़ रहे हैं क्योंकि एक तरफ वे खेलकूद से दूर हो गए हैं, और दूसरी तरफ पौष्टिक और सुपाच्य भोजन की जगह फास्ट फूड पर ज्यादा निर्भर हो गए हैं.
दो दशक पहले तक स्कूलों में पीटी, योग और खेलकूद के लिए अलग से एक पीरियड होता था. लंच ब्रेक में भी बच्चे खेलते थे और बहुत सारे बच्चे तो स्कूल खत्म होने के बाद भी स्कूल के प्लेग्राउंड में काफी देर तक खेलते रहते थे. स्कूल से लौटने के बाद भी बच्चे दोस्तों के साथ खेलने निकल जाते थे और देर शाम तक पार्क या मैदान में खेलते रहते थे. क्रिकेट, गिल्ली डंडा, कंचे, पतंग उड़ाना, फुटबौल, बैडमिंटन, खोखो, कबड्डी जैसे न जाने कितने तरह के खेल वे खेलते थे. क्या अब ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं?
सरकार की नई शिक्षा पौलिसी में खेलकूद का कोई स्थान ही नहीं है. तीसरी कक्षा से आठवीं कक्षा के बच्चों के बैग पर नजर डालिए, उन से ज्यादा वजनी तो उन के स्कूल बैग मालूम पड़ते हैं. जिन्हें सारा दिन पीठ पर ढोने में उन की रीढ़ झुकी जा रही है. बच्चों पर पढ़ाई का इतना बोझ है कि 8 पीरियड स्कूल में पढ़ कर आने के बाद वे ट्यूशन भी पढ़ने जाते हैं. वहां से लौटे तो स्कूल और ट्यूशन दोनों जगह का होमवर्क पूरा करने में उन का दिन खतम हो जाता है. वे खेलने कब जाएं?
इंटरनेट और स्मार्टफोन ने बच्चों की आदतें और सेहत दोनों बिगाड़ रखी हैं. अगर थोड़ा सा वक्त उन को पढ़ाई से मिलता भी है तो वह समय फोन पर कार्टून देखने, रील्स देखने या चैट करने में वे बिताते हैं. वे खेलते कब हैं?
किशोरों के माइंड हैल्थ कोशेंट पर आधारित अध्ययन से पता चलता है कि स्मार्टफोन के शुरुआती उपयोग और किशोरों के बीच मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट के बीच एक महत्त्वपूर्ण संबंध है, जिस में आक्रामकता, क्रोध, चिड़चिड़ापन और मतिभ्रम जैसे लक्षणों में वृद्धि हो रही है.
जो किशोर छोटी उम्र में स्मार्टफोन का उपयोग करना शुरू करते हैं, उन में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अधिक गंभीर होती हैं. अवसाद और चिंता के अलावा, अंतरविरोधी विचार और वास्तविकता से अलगाव जैसे नए लक्षण भी देखे जा रहे हैं, जो एक गंभीर मानसिक स्वास्थ्य संकट का संकेत देते हैं.
स्मार्टफोन तक कम उम्र में पहुंच से किशोर अनुपयुक्त सामग्री के संपर्क में आ जाते हैं, नींद में व्यवधान पड़ता है, तथा वैयक्तिक संपर्क में कमी आती है, जो सामाजिक कौशल विकसित करने और संघर्षों से निपटने के लिए महत्वपूर्ण है. ऐसे बच्चे जो फोन में अधिक खोए रहते हैं, परिवार से अलगथलग होने लगते हैं. अकेले रहने में उन को ज्यादा सुकून महसूस होता है. वे किसी से ज्यादा घुलमिल नहीं पाते. अपने विचार घरवालों या दोस्तों से शेयर नहीं करते. अपनी परेशानियां तक नहीं बता पाते. धीरेधीरे वे असामाजिक होते जाते हैं.
फील्ड में जा कर अन्य बच्चों के साथ खेलने में जो आनंद है, उस से आज के बच्चे अनभिज्ञ से हैं. दूसरों के साथ मिल कर खेलने से सामाजिकता और सामंजस्य की भावना विकसित होती है. भाईचारा बढ़ता है, विचारों और भावनाओं का आदानप्रदान होता है, हारनेजीतने की अनुभूति होती है, हारने पर भी उत्साह बना रहता है, अवसाद जैसे रोगों से बच्चा दूर रहता है.
घर के बाहर निकल कर कोई भी खेल खेलने से शरीर में चुस्तीस्फूर्ति बढ़ती है. हड्डियों के विकास के लिए विटामिन डी की भरपूर मात्रा धूप से मिलती है. फेफड़ों को खुली हवा मिलती है. शरीर के एक एक अंग का व्यायाम हो जाता है. नतीजा भूख बढ़ती है और शरीर तंदरुस्त होता है. जो बच्चे खेलतेकूदते रहते हैं वे बीमार भी बहुत कम पड़ते हैं. उन का इम्यून सिस्टम स्ट्रांग होता है.
प्रधानमंत्री बच्चों के बढ़ते मोटापे से चिंतित हैं मगर उन्हें इस बात की भी चिंता करनी चाहिए कि फास्ट फूड बेचने वाली विदेशी कंपनियों ने कैसे बाजारों और शिक्षण संस्थाओं में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है. फास्ट फूड जिस में मैदा, मक्खन, चीज, मेयोनीज, अजीनोमोटो जैसे स्वास्थ्य को खराब करने वाले पदार्थ भरे होते हैं, आज उन का इतना विज्ञापन हो रहा है कि बच्चे उन को खाने की जिद में जिद्दी होते जा रहे हैं.
घरघर में टीवी पर बच्चे पिज्जा, बर्गर, चिप्स, कोला, मोमोज के विज्ञापन देख रहे हैं. यहां तक कि बच्चों के लिए आने वाले कार्यक्रमों में भी किसी न किसी रूप में इन चीजों के विज्ञापनों ने अपनी जगह बना रखी है. बच्चे मातापिता से इन्हीं चीजों की फरमाइश करते हैं. पहले घरों में नमकीन बनता था. डोनट, शक्करपारे, नमकपारे, गुझिया, दालमोठ, लैयाचना मुरमुरा आदि, जो स्वादिष्ट होने के साथसाथ हेल्दी भी था.
बाजार में बनने वाली चीजें कैसे तेल में बन रही हैं यह हमें नहीं मालूम, पर घर में तो हम अच्छा तेल या घी ही इस्तेमाल करते हैं. फास्ट फूड में इस्तेमाल होने वाली मेयोनीज में मैदा और क्रीम ही भरी होती है जो सेहत के लिए नुकसानदेह है. चीज, पनीर, फ्राइड चिकेन आदि मोटापा ही बढ़ाता है. मगर इन चीजों का इतना क्रेज है कि अब ठेले वाले भी फास्ट फूड बनाने और बेचने लगे हैं. उन को इस में ज्यादा मुनाफा प्राप्त होता है, भले लोगों की सेहत खराब होती रहे.
पहले छोटे वैंडर्स फ्रूट चाट बेचते थे, लैयामुरमुरा, भुनी शकरकंदी बेचते थे. यह चीजें भारतीय लोगों की सेहत के लिए अच्छी थीं. बेल का शरबत, गन्ने का शरबत पेट को ठंडा रखता था. यह चीजें मोटापा नहीं बढ़ातीं. मगर आज ठेलों पर मोमोज बिक रहे हैं. मैदे की रोटी में लिपटे चिकन रोल बिक रहे हैं. पीजा भी अब ठेलों पर बनने लगा है. आप सोचिए कि पिज्जा हट या डोमिनोज जैसी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां पिज्जा बनाने के लिए जिस तरह की महंगी ब्रेड और चीज का इस्तेमाल करती हैं, क्या गलीगली खड़े ठेलों पर उतनी महंगी ब्रेड और चीज इस्तेमाल होती होगी? कतई नहीं.
ये लोग बहुत सस्ता पनीर (सोयाबीन का बना पनीर), घटिया तेल, सस्ता चीज, घटिया क्वालिटी की मेयोनीज, सड़ेगले टमाटरों का सौस इस्तेमाल करते हैं, तभी इन के पिज्जा के दाम भी काफी कम होते हैं. मगर बच्चों की जुबान को चूंकि इन चीजों का चस्का लग गया है तो वे इन्हें खरीदते और खाते हैं. अब तो स्कूलकालेज की कैंटीनों में भी सस्ते फास्ट फूड ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है.
प्रधानमंत्री एक तरफ बच्चों के बढ़ते मोटापे और बीमारियों की चिंता करें और दूसरी तरफ फास्ट फूड बनाने वाली कंपनियों को भी बढ़ावा दें, स्कूलकालेजों में क्या खाना परोसा जा रहा है, कैंटीनों में क्या बिक रहा है, उस पर उन की संस्थाएं कोई नजर न रखें तो ऐसी चिंता का क्या मतलब है?
आज गलीगली में कुकुरमुत्तों की तरह स्कूल खुल रहे हैं. खासतौर पर प्ले स्कूल, जहां प्रीनर्सरी से प्रेप तक बच्चे अपने जीवन के चार साल बिताते हैं. जिन के पास भी चार कमरे का खाली मकान है, वह ऐसे स्कूल खोल कर बैठा है. जिस में खेलकूद और व्यायाम के लिए तो स्पेस ही नहीं है. सुबह की असैंबली के लिए भी इतनी जगह नहीं होती कि बच्चे एक लाइन में खड़े हो सकें. स्कूल खोलने के तमाम मानक ताक पर धरे हैं. जिन सरकारी संस्थाओं को इन मानकों के अनुरूप स्कूल होने की जांच करनी होती है, उन के अधिकारी कुछ लाख रुपए में बिक जाते हैं और बिना जांचपड़ताल के एनओसी से देते हैं.
बच्चों की शारीरिक एक्टिविटी के नाम पर ऐसे स्कूलों में कुछ खिलौने या छोटेछोटे झूले होते हैं. इन स्कूलों में न धूप है न साफ हवा. बच्चों की सेहत कैसे ठीक रहे? इन से ज्यादा सेहतमंद तो वे बच्चे होते हैं जो गांवदेहातों में पेड़ के नीचे टाटपट्टी पर बैठ कर पढ़ते हैं और खेतों मैदानों की मिट्टी में खेलते हैं. उन के शरीर को धूप और हवा तो मिलती है. उन का इम्यून सिस्टम कहीं ज्यादा मजबूत होता है.
शहर के स्कूलों में अब पीटी, एनसीसी, योगा आदि के क्लास भी बहुत कम देखने को मिलते हैं. पहले एक पीरियड इन एक्टिविटीज के लिए हुआ करता था. साल में एक या दो बार स्कूल से बाहर बच्चों के कैंप लगते थे. स्पोर्ट्स डे होते थे. इंटरस्कूल कम्पीटीशंस होते थे. पर अब ये एक्टिविटीज बहुत कम स्कूलों में होती है. शहरों के स्टेडियम में भी अब बच्चों की संख्या बहुत कम दिखती है. पहले स्टेडियम में बच्चे तैराकी सीखने, क्रिकेट सीखने, बैडमिंटन आदि खेल सीखने आते थे.
खुद मातापिता अपने बच्चों का नाम स्टेडियम में लिखवाने आते थे. अब नहीं आते क्योंकि न उन के पास टाइम है और न बच्चों के पास. बच्चों पर पढ़ाई का बोझ इतना है, कि सुबह से शाम तक किताबों से सिर नहीं निकाल पाते. बच्चों से मातापिता की एक्सपैक्टेशंस इतनी बढ़ चुकी हैं कि हर पेरैंट चाहता है कि उस का बच्चा ही क्लास में अव्वल हो. अगर बच्चा कुछ कम मार्क्स ले आए तो फिर उस की डांटफटकार, लानतमलामत शुरू हो जाती है.
मांबाप की चाहतों का नाजायज बोझ आज हर बच्चा उठा रहा है. बच्चे मानसिक दबाव में हैं. लिहाजा खायापिया भी उन के तन को नहीं लगता. तनाव की स्थिति अनेक रोगों को जन्म देती है. जिस में अवसाद, डायबिटीज और हृदय रोग मुख्य हैं. शहरी बच्चों में यह तीन बीमारियां बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं.
बच्चे देश का भविष्य हैं. वे सेहतमंद होंगे, बीमारीमुक्त होंगे, ताकतवर होंगे तभी देश के विकास में उन की अच्छी भागीदारी हो पाएगी. हमारे बच्चे तंदरुस्त होने इस के लिए पूरे सिस्टम को एकजुट होना होगा. सिर्फ चिंताभर कर देने से काम नहीं चलेगा. एक्शन भी चाहिए. ऐसे स्कूल बंद होने चाहिए जहां खेल के मैदान नहीं हैं. सभी स्कूलों को यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि वे छात्रों के लिए व्यायाम और खेलकूद को नियमित करें. बच्चों की कैंटीनों में खाने का क्या सामान बिक रहा है, कैसे तेल में बन रहा है, इस की निगरानी सरकारी एजेंसियों की तरफ से होनी चाहिए.
माना कि आज इंटरनेट, कंप्यूटर और मोबाइल फोन जीवन के जरूरी अंग बन गए हैं. बच्चों को भी इन की पूरी जानकारी आवश्यक है. परंतु इन चीजों में जरूरत से ज्यादा समय लगाना न बच्चों की मानसिक सेहत के लिए ठीक है और न शारीरिक सेहत के लिए.