26 January 2025 : 965 की लड़ाई चल रही थी. यूनिट को मोरचाबंदी करने के लिए बहुत कम समय दिया गया था. पूरा डिव 5 सितंबर को सांबा से आगे बैजपुरा इलाके में फैल गया था.
मुझे याद है 7 सितंबर को रात में 11 बजे हमारे तोपखाने ने अपनी तापों के मुंह खोल दिए थे. पूरा पश्चिम लाल हो गया था. सभी जवान और अधिकारी बाहर आ गए थे. उसी समय आदेश आया कि एडवांस वर्कशौप डिटैचमेंट जाएगी. उस के लिए पहले से 2 गाड़ियां तैयार की गई थीं. एक में जनरल स्टोर, वैपन स्टोर और इलैक्ट्रौनिक स्टोर था जिस का इंचार्ज मैं था. दूसरी गाड़ी में गाड़ियों और टैंकों के स्पेयरपार्ट्स थे जिस का इंचार्ज एक बंगाली स्टोरकीपर अमल कुमार दत्ता था. मैं पंजाब का और दत्ता बंगाल का, दोनों ही निडर थे. मेरी गाड़ी का ड्राइवर एक मद्रासी लड़का सिपाही राजू था. दूसरी गाड़ी का ड्राइवर सिपाही सुरिंदर पंजाब से था. बंगाल और पंजाब का संगम था. सब निडर थे.

जब हम ने और गाड़ियों के साथ मूव किया तो रात को एक बज चुका था. बिना लाइट के चलना था. लड़ाई में लाइट जला कर नहीं चला जाता. लाइट जले, तो गोला वहीं आता है. यह अच्छा हुआ था कि चांदनी रात थी. हालांकि पाकिस्तान चौकी ज्यादा दूर नहीं थी लेकिन पाकिस्तान में घुसने में सुबह के 5 बज गए. डोगरा रैजिमैंट के जवान हमें गाइड कर रहे थे. उन्होंने कहा, ‘गाड़ियों को तुरंत डिस्पर्स करें. एयरअटैक होने वाला है. ऐसे समय वृक्षों के नीचे जहां भी जगह मिलती है, गाड़ियां पार्क की जाती हैं. वहीं लेट जाना होता है.

अभी गाड़ियां पार्क हो ही रही थीं कि जबरदस्त एयरअटैक हुआ. ऐसे अटैक फर्स्ट लाइट में किए जाते हैं जब सभी रिलैक्स होते हैं और जंगल-पानी जाने के चक्कर में रहते हैं. एयरअटैक खत्म हुआ तो सभी पाकिस्तान में आसपास के खेतों में चले गए. हमारे पास घिसी करने के अलावा कोई चारा नहीं था. मेरे स्टोर में लिक्विड सोप था. उसे हाथ पे मला और वाटर टैंक से बूंदबूंद आते पानी से हाथ साफ कर लिए. कई तो यह भी नहीं कर सके. हैंडटूहैंड लड़ने वाले जवान ऐसी स्थिति से कैसे निबटते होंगे, केवल अनुमान ही लगा सकते हैं. ये नैचुरल कौज किसी के रोके नहीं रुकती है. पर सब मैनेज करना पड़ता है.

पौ फट रही थी. उसी समय हुकम हुआ कि अपनाअपना नाश्ता और लंच ले लो. हमें तुरंत आगे मूव करना है. नाश्ता क्या था, नमकीन शकरपारे थे. उन्हें ही हमें नाश्ते और लंच के लिए इस्तेमाल करना था. आदेश ऐसा था जो भी खाकी यूनिफौर्म में दिखाई दे उसे तुरंत गोली मार दें. फ्रंट सीट पर मैं बैठा था. गाड़ी के ऊपर का ढकन खोल कर सीट पर खड़ा हो गया. कारबाइन मशीन को फायरिंग पोजिशन पर ले आया. चार्ज मैंगजीन कर लिया यानी एक गोली चैंबर में चली गई. सेवटी कैच को रैपिडफायर पर कर लिया ताकि फायर करने की जरूरत पड़े तो बैरल से एकएक या दोदो गोलियां निकलें.

हमारे अगले डैस्टिनेशन के बीच पाकिस्तान का केवल चारवां गांव था. हमें महाराजके गांव में मोरचाबंदी करनी थी. दोनों गांवों में काफी दूरी थी. हमें चारवां में कोई दुश्मन नहीं मिला. हां, रास्ते के दृश्य देख कर मन विचलित हुआ. सैकड़ों लाशें जगहजगह पड़ी थीं. लाशें फूल कर डरावनी हो गई थीं. आसमान में हजारों चीलकौए मंडरा रहे थे मानव मांस खाने का लुत्फ उठाने के लिए. उन के लिए हिंदुस्तानपाकिस्तान के शवों में कोई अंतर न था. वे नरभक्षी थे.

मुझे आश्चर्य हुआ कि यह जानते हुए भी कि हिंदुस्थान कई फ्रंट खोल सकता है, पाकिस्तान ने अपने गांव खाली क्यों नहीं करवाए. मरने वाले सभी सिविलयन थे. शवों को बुल्डोजर से इकट्ठा कर के दफनाया जा रहा था. सेना के इंजीनियर विभाग के जवान इस कार्य को अंजाम दे रहे थे. सेना में आए मुल्ले उन के लिए कलमा पढ़ रहे थे, सजदा कर रहे थे. यह भारतीय सेना का मानवीय पक्ष था कि वे दुश्मन के शवों को भी सम्मान देते हैं. हमारे शहीद जवानों को पीछे अस्पतालों में भिजवाया जा रहा था जिस से उन के घरवालों के आने तक सुरक्षित रखा जा सके.

महाराजके गांव तक पहुंचने के रास्ते में 2 बार एयरअटैक हुए. गाड़ियां जल्दी से दूरदूर डिस्पर्स कर के, जिस को जहां जगह मिली, लेट गए. सुरक्षा के लिए ऐसा करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं होता. गाडियों का नुकसान भरा जा सकता है लेकिन जवान शहीद हो जाएं तो उस नुकसान को भरना मुश्किल होता है. यह अच्छा हुआ कि दोनों एयरअटैक में हमारा कोई नुकसान नहीं हुआ.

महाराजके के सामने बड़े मैदान में यूनिट ने राउंडशेप में मोरचाबंदी कर ली. यानी, चारों तरफ मोरचे, बीच में दूरदूर गाड़ियों का डिस्पले. गाड़ियां भी इस तरह पार्क की जातीं कि एक का मुंह अगर पूर्व की तरफ है तो दूसरी का मुंह पश्चिम की तरफ होता. उस के बाद कैमाफ्लाइज नेट लगा कर इस तरह छिपाया जाता कि किसी को पता नहीं चलता कि यहां कोई गाड़ी पार्क है.

लड़ाई में हमारी वर्कशौप पर जबरदस्त लोड था. हालांकि, हमारी रिपेयर टीमें फास्टमूविंग लाइटें ले कर रैजिमैंटों के साथसाथ चलती थीं. टैंक या गाड़ियां रिपेयर कर के तुरंत लड़ाई में शमिल कर देते थे. टैंक या गाड़ियां पीछे वर्कशौप में वही आती थीं जो रिपेयर टीमें ठीक नहीं कर पातीं.

उस समय हमारे पास सेंचुरियन और शरमन टैंक थे. दोनों टैंक ब्रिटिश मेड थे. सारे पश्चिमी देश पाकिस्तान के साथ थे. शरमन टैंक ठीक चल रहे थे लेकिन सेंचुरियन टैंक में गन को घुमाने वाला पुर्जा ‘फंक्शन एंड कंट्रोल यूनिट’ खराब हो जाता था. गन फायर तो करती लेकिन चारों तरफ घूम नहीं पाती थी. ब्रिटेन ने इस पुर्जे के लिए हाथ खड़े कर दिए थे.

शरमन टैंक पाकिस्तान के पैर्टन टैंक का मुकाबला नहीं कर पाते थे. स्टोर में जितना फंक्शन एंड कंट्रोल था, वह खत्म सा हो गया था. हमारा चेक यह होता था कि पुराना ले कर नया देते.

टैलीकौम आइटम था. सभी अफसर और टैलीकौम मेकैनिक इसे ठीक करने में लगे हुए थे. इस छोटे से पुर्जे के कारण जिस तरफ गन का मुंह होता उसी तरफ वह फायर कर पाती थी. पाकिस्तान के पैर्टन टैंक उन्हें आसानी से शिकार बना लेते. काफी नुकसान हो रहा था.

फिर एक टैलिकौम मेकैनिक हवलदार लाल सिंह के मन में आइडिया आया कि यह एक फ्यूज है जिस के कारण यह पुर्जा काम नहीं कर पाता. अगर इसे किसी गुडकंडक्टर से जोड़ दिया जाए तो वह फ्यूज का काम करने लगेगा. वे मेरे पास स्टोर में आए और 2 तरह की पैकिंगवायर ले कर गए. मैं पैकिंगवायर की डिस्क्रिप्शन नहीं दे सकता. उन्होंने प्रयोग किया और वे सफल रहे. टैंक पर लगा कर उसे टैस्ट किया गया. गन चारों तरफ घूमने लगी. समस्या का समाधान हो गया था. रिपेयर टीम को बता दिया गया कि यह पैकिंगवायर का टुकड़ा फ्यूज का काम करेगा. फिर टैंक नहीं रुके.

रन-औॅफ-कछ की छोटी सी लड़ाई में कुछ पैर्टन टैंक पकड़े गए थे. उन पर प्रयोग किए गए कि कौन से गोले से इसे बरबाद किया जा सकता है. तीन तरह के गोले तैयार किए गए. एक गोला ऐसा था जो टैंक में सुराख कर के अंदर के क्रीयू को खत्म करता. टैंक को वैसे ही कैप्चर कर लिया जाता. एक गोला हवा में फट कर आसपास लेटे दुश्मनों को समाप्त करता. एक गोला ऐसा था जो टैंक में आग लगा देता. आदेश यह था कि ज्यादा से ज्याद टैंक कैप्चर किए जाएं. आज देश में जगहजगह वही टैंक खड़े हैं.

हमारा रियर कपूरथला में था. वहां से जल्दी मूवमैंट के कारण बहुत सा स्टोर रह गया था. लड़ाई में उन की सख्त जरूरत थी.

एक पार्टी बनाई गई जिसे कपूरथला से सारा स्टोर लाने के लिए कहा गया. उस पार्टी में मैं भी था. एक और हवलदार सरदूल सिंह थे जिन का घर जालंधर के पास किसी गांव में था. मेरा घर अमृतसर में था. हम दोनों से कहा गया 2 दिन अपने घर में रह कर कपूरथला रिपोर्ट करना. मकसद यह था कि जिन के घर पंजाब में हैं और रास्ते में आते हैं, वे अपने घरवालों से मिल लें. उन्हें कुछ तसल्ली हो जाएगी कि वे ठीक हैं.

कपूरथला के लिए गाड़ी लंच के बाद चली. चाहते थे, दिन में जितना सफर हो जाए, अच्छा है. लेकिन पठानकोट पहुंचते ही रात के 8 बज गए थे. वहां साथ लाया डिनर किया और आगे का सफर शुरू किया. गाड़ी से बटाला-बाबा-बकाला होते हुए जालंधर से कपूरथला चले जाना था. अंधेरे में ही सफर करना था. लड़ाई में गाड़ी की लाइटें नहीं जला सकते थे.

गाड़ी अमृतसर के रास्ते जाती तो मैं अमृतसर उतरता. मैं ने गुरदासपुर में उतरने का निर्णय किया. गुरदासपुर में मेरी मौसी रहती थी. रात वहां गुजारने की सोची. ड्राइवर ने जब मुझे गुरदासपुर उतारा तो रात के 10 बज चुके थे. चारों तरफ गुप अंधेरा था. बलैकआउट था. कोई बंदा दिखाई नहीं दे रहा था. मैं यूनिफौर्म में था और कारबाइन मशीन मेरे कंधे पर थी.

मैं पैदल ही मौसी के घर की ओर चल पड़ा. उसी समय पंजाब पुलिस का एक सिपाही मेरे पास आया. वह बरसते गोलों में भी अपनी ड्यूटी कर रहा था. साइकिल उस के पास थी. पंजाबी में पूछा, ‘‘बाऊजी, तुसीं कित्थे जाना ऐ?’’

मैं ने कहा, ‘‘कृष्णा महल्ले में मेरी मौसी रहती है. मैं ओथे जा रहया हां.’’

‘‘बाऊजी, मेरी साइकिल ते बैठो. मैं तुहानू छड देदां हां. चाहे तुसीं फौजी हो, लड़ाई दा टाइम ऐ. मैं कोई रिस्क नई लैना चाहदां.’’

मुझे बहुत अच्छा लगा. मैं ने कहा, ‘‘कोई गल नई, तुसीं छड दो.’’

पुलिस के सिपाही ने मुझे मौसी के घर छोड़ा. मैं ने उस का धन्यवाद किया. मैं ने मौसी का दरवाजा खटखटाया और कहा कि, ‘मैं बिंदी हूं.’ दरवाजा तुरंत खुल गया. सिपाही तब तक नहीं गया जब तक मैं घर के अंदर नहीं चला गया. सभी बैठक में रेडियो के पास बैठे खबरें सुन रहे थे. मैं ने मौसाजी को प्रणाम किया. कलानौर से मेरे मझले मामाजीमामीजी भी आए हुए थे. कलानौर डेरा बाबानानक के पास था और तोप के गोलों की रेंज में था. मैं ने उन्हें भी प्रणाम किया.

मेरा नाना परिवार और दादा परिवार जानते थे कि मैं लड़ाई में गया हूं. वे सब मेरे लिए चिंतित थे. मुझे यूनिफौर्म और हथियार के साथ देख कर थोड़ी देर के लिए चिंता मिट गई. मैं ने बताया कि हमारी यूनिट पाकिस्तान में चविंडा के पास महाराजके गांव में है. हम तोप के गोलों से तो दूर हैं लेकिन एयरअटैक से बच नहीं पाते हैं. फिर भी रातदिन काम करते हैं. गुप अंधेरे में भी. दो दिन अमृतसर रह कर कपूरथला से स्टोर ले कर लड़ाई में शमिल होना है. कपूरथला में हमारा रियर है.

‘‘चविंडा में तो बहुत जबरदस्त लड़ाई चल रही है. रेडियो पर यही बताया जा रहा,’’ मौसा जी ने कहा.

‘‘जी, मौसाजी. चविंडा हम से 3 किलोमीटर आगे है. हमारे वापस जाने तक उन्हें सियालकोट से पीछे धकेल दिया जाएगा. वैसे, अल्लड़ रेलवे स्टेशन पर हमारा कब्ज़ा हो गया है. इस से सियालकोट से डेरा बाबा नानक की रेल सप्लाई बंद हो गई है. सड़कों के रास्ते पहले ही बंद कर दिए गए थे.’’

मामीजी ने मेरे लिए आलू के परांठे बनाए और खा कर मैं सो गया. सुबह नाश्ता कर के मैं अमृतसर के लिए निकला. लड़ाई में भी बसें चल रही थीं. मझले मामाजी भी मेरे साथ हो लिए. मैं यूनिफौर्म में और हथियार के साथ था. प्राइवेट बस थी, फिर भी बस वाले ने मुझ से किराया नहीं लिया. बस में बैठी सवारियों के चेहरों पर कोई डर नहीं था. सभी मुझ से लड़ाई के बारे जानना चाहते थे. मैं ने कहा, ‘‘मैं ज्यादा नहीं बता सकता लेकिन उन की बैंड बज रही है.’’

वे जानना चाहते थे कि मैं इस समय कहां हूं. मैं ने कहा, ‘‘मैं सुरक्षा कारणों से अपनी लोकेशन नहीं बता सकता. हां, सियालकोट सैक्टर में हूं.’’

फिर किसी ने कोई सवाल नहीं किया. एक जगह बस रुकी. दो युवा लड़कियां बस में चढ़ी. उन के हाथ में लिफाफे और चाय का थरमस व कप थे. वे फौजियों को ढूंढ़ रही थीं. मुझे देखा तो तुरंत मुझे एक लिफाफा और गरमगरम चाय दी. मैं ने मामू के लिए भी मांगा. उन्होंने खुशी से दी. पंजाब में फौजियों के लिए जगहजगह खानेपीने की व्यवस्था थी. कोई जवान भूखा न जाए, ऐसी व्यवस्था जम्मूपठानकोट रोड पर भी थी. लगा पूरा देश लड़ाई लड़ रहा है. लिफाफे में गरमगरम पकौड़े थे.

उन दिनों फौजी गाड़ियों की बहुत मूवमैंट थी. कोई भी फौजी बिना खाएपिए नहीं जा पाता था. यह देशवासियों की बहुत बड़ी सेवा थी. उन्हें किसी ने ऐसा करने के लिए नहीं कहा था. अपने मन से वे सब सेवा कर रहे थे. देश के प्रति उन का यह जज्बा आश्चर्यजनक था. एक मोरचा युद्ध के मैदान में था जिसे हम सैनिक संभाले हुए थे, एक मोरचा हमारे देशवासी यहां संभाले हुए हैं. मैं उन की इस सेवा के समक्ष नतमस्तक हो गया.

अमृतसर बसस्टैंड पर उतरा तो मामू मेरे साथ नहीं आए. मैं ने उन से कहा भी लेकिन उन्होंने कहा, ‘‘मैं पहले मौडल टाउन बड़ी बहन के पास जाऊंगा.’’

फिर मैं कुछ नहीं बोल पाया. स्टैंड से बाहर निकला तो कई रिक्शेवाले पूछने लगे कि बाऊजी कहां जाना है. हम छोड़ देते हैं. फिर एक रिक्शेवाले ने कहा, ‘‘मैनू तुहाडे घर दा पता ऐ. तहसीलपुरा में है.’’

मैं ने उसे ध्यान से देखा. यह ज्ञान सिंह था. मेरे साथ चौथी तक पढ़ा था. मैं उस के रिक्शे पर बैठ गया, कहा, ‘‘यार, मेरे कोल टुटे पैसे नहीं ए.’’

‘‘कोई गल नई, बाऊजी. तुसीं देश दी सेवा कर रहे हो. असीं फौज च जाके सेवा नई कर सकदे. एह छोटी जेई सेवा कर के सानू लग्गेगा कि असीं वी लड़ाई लड़ रहे हां.’’

मैं कुछ नहीं बोल पाया. भावुक हो उठा. मैं ने बात बदल दी, ‘‘ज्ञान, तुसीं अग्गे नई पढ़े?’’

‘‘कित्थे बाऊजी, गरीबी ऐनी सी दालरोटी नई चल पांदी सी. मैं छोटा सी, मैंनू मजदूरी वी नई मिलदी सी. मां कई जगह झाडूपोंचा करती थी. मैं बड़ा हुआ तां मेरे पास रिक्शा चलान दे अलावा कोई चारा नई सी.’’

घर आया तो मैं ने घर से पैसे ले कर देने की कोशिश की लेकिन उस ने नहीं लिए. घर वाले मुझे देख कर खुश हुए. दो दिन रह कर मैं जीटी रोड पर आ गया. बहुत सी फौजी गाड़ियां जालंधर जा रही थीं. एक गाड़ी में जगह मिल गई. उस ने जब मुझे कपूरथला रोड पर छोड़ा तो अंधेरा घिर आया था. उस समय बस मिलने का कोई चांस नहीं था. मैं पैदल ही कपूरथला की ओर चल पड़ा.

मेरे पीछे आ रहे एक साइकिल वाले ने पूछा, ‘‘साहब जी, तुसीं कित्थे जाना ऐ ते पैदल ही क्यों जा रहे हो?’’

उन दिनों फौजियों की पंजाब में बहुत इज्जत थी. मैं ने कहा, ‘‘मैंनू कपूरथला जाना ऐ. पैदल चलूंगा तो सुबह तक पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘साहब जी, कपूरथला ऐथों 20 किलोमीटर दूर ऐ. ऐस वेले कोई सवारी वी नई मिलनी ऐ. सवेरे 8 बजे बस आएगी, ओदे च चले जाना. रात मेरे घर रुको जी.’’

मैं जल्दी से निर्णय नहीं कर पाया. लड़ाई चल रही है, किसी अनजाने घर में रुकना ठीक रहेगा या नहीं?

‘‘तुसीं कुज न साचो जी. रात दा वेला ऐ. ऐस सड़क ते सारे पिंड पैरा दे रहे ने. कई तुहानू परेशान कर सकदे ने. चाहे तुसीं वर्दी च हो. कई घटनावां होइयां ने फौजियों से हथियार लूट कर ले गए हैं.’’

मैं ने कुछ देर सोचा, फिर उस के साथ हो लिया. उस के घर में मेरी जबरदस्त सेवा की गई. बढ़िया खाना मिला और शानदार बिस्तर दिया गया. रात मैं ने आराम से काटी. सुबह उस का धन्यवाद कर के बस के लिए मैं सड़क पर आ गया. उन अनजान लागों की सेवा को मैं जीवनभर भूल नहीं पाया.

थोड़ी देर बाद हवलदार सरदूल सिंह भी बस के लिए मेरे पास आ कर खड़े हो गए. मैं ने उन्हें जयहिंद कहा. उन्होंने मुझ से हाथ मिलाया. कपूरथला रियर में पहुंचे तो नाश्ता तैयार था. नाश्ता किया और वापस चल पड़े. स्टोर पहले ही गाड़ी में लोड कर दिया गया था. लंच नहीं बनाया गया था. जगहजगह लगाए गए लंगर से खाने का इरादा था.

शाम को हम पठानकोट पहुंचे. लंगर से लिया डिनर किया और आगे का सफर शुरू किया. यूनिट में हम रात को एक बजे पहुंचे. सभी मोरचों पर थे. गाड़ी पार्क कर के हम भी मोरचे पर खड़े हो गए. सोने का प्रश्न ही नहीं था. रात को एयरअटैक नहीं होते थे लेकिन घात लगा कर बैठे दुश्मन के अटैक करने का हमेशा खतरा था. उस के लिए पूरी यूनिट मोरचे पर रहती थी.

22 दिन की इस लड़ाई में न सो सके, न नहा सके और न ही ठीक से खाना मिला. पाकिस्तान के कई कुओं में जहर मिलाया गया था. वे नहाने के काबिल भी नहीं थे. स्किन डिजीज होने का खतरा था. वाटर टैंकों से हिंदुस्थान से पानी आता था. केवल 2 बोतल पानी मिलता. उस से आप कुछ भी कर लें. काम करते हुए खुद को बचाने की प्राथमिकता थी.

वर्कशौप में हमारे सैक्शन की जिम्मेदारी होती थी कि हम कलपुर्जों की कमी न होने दें. पहले कहा गया कि सिर्फ ब्रिगेड की गाडियों की रिपेयर करेंगे. फिर कहा गया, पूरे डिव की गाड़ियों को एंटेरटेन करेंगे. हमारी पूरी सप्लाई सिविल ट्रकों पर थी. उन पर एयरअटैक कम होते थे. उन्हें भी रिपेयर करने के आदेश आए. मैं और मेरे साथ एक अफसर रातदिन कलपुरजों को जम्मू, पठानकोट और जालंधर से कलपुरजे ला कर देते रहे. सभी सप्लायर दिल खोल कर सामान देते थे. विशेषकर पंजाब के सप्लायर. वे कहते थे, ‘‘तुसीं सामान लै जाओ जी. लैटरहेड ते लिख के दे दो. बिलिंग कर के पैसे आदें रहनगे. पर पाकिस्तान नू ओना दी नानी याद दिला दो.’’

सीजफायर के बाद वे खुद महाराजके आ कर सप्लाई करते रहे. उन के बिलों के 6 महीने बाद पेमेंट किया जाना शुरू किया गया. ट्रकों के पेमेंट एक साल बाद तक किए जाते रहे. लडाकू फौज के जवान बताते हैं कि जहां ट्रक में 10 टन माल आता था, वे 12 टन माल लाते थे. इतने बहादुर थे कि कहते थे, ‘‘साहब जी, तुसीं सिर्फ लड़ो. सानू दसों कि माल कित्थे अनलोड करना ऐ.’’ उन्होंने मोरचे तक सामान पहुंचाया बिना किसी डर के.

महाराजके गांव के तीन तरफ बड़ेबड़े गन्ने के खेत थे. बिलकुल पोने गन्ने. भूख लगती तो सभी गन्ने चूपते. नित्यकर्म के लिए हमारे स्टोर में कौटनवेस्ट आती थी. सभी उस का प्रयोग करते थे. कई बार ऐसा होता कि हम नाश्ता ले कर स्टोर में आ जाते. उसी समय एयरअटैक होता. एक बार मुझे नाश्ता गाड़ी की टेलबोल्ट पर रखने का समय नहीं मिला. मैं ने उसे जमीन पर रखा और मोरचे पर आ गया. मेरी आंखों के सामने कुत्ता नाश्ता खा गया, मैं कुछ नहीं कर सका. यह नहीं पता चला कि वह कुत्ता पाकिस्तान का था या हिंदुस्तान का. उन के लिए कोई बौर्डर का बंधन नहीं था.

मुझे बाऊजी कहा करते थे कि जो दाना समय में न हो, उसे मुंह से भी गिर जाना है. उन की यह बात कितनी सच थी.

सीजफायर के बाद एमईएस से कहा गया कि वे हर यूनिट में ट्यूबवैल लगाएं. कई कौमन ट्यूबवैल भी लगाए गए जहां से वाटरटैंक से मैस के लिए पानी आता था. पूरा खाना औयलकुकरों पर बनता था जो बहुत शोर करते थे. उन के लिए गहरे मोरचे खोदने पर भी शोर कम न होता था. हमें चाय के साथ कभी नमकीनपूरी मिलती और कभी शक्करपारे मिलते. 22 दिन तक यही सिलसिला रहा.

सीजफायर के बाद सारी व्यवस्थाएं हो गईं. तब सभी के चेहरों पर सुकून दिखाई देने लगा. लड़ाई फिर कभी भी शुरू हो सकती है, इसलिए रिपेयर का जबरदस्त लोड हो गया. हम रातदिन कलपुर्जों के लिए भागते रहे. हां, नहाने और खाने की व्यवस्था ठीक हो गई.

इस बीच, ताशकंद समझौते के बाद प्रधानमंत्री लालबहादुर शस्त्री जी के मरने की खबर आई. पूरा देश शोक में डूब गया. भारतीय सेना को उम्मीद थी कि पाकिस्तान के जीते हुए इलाके के बदले पीओके ले लिया जाएगा. लेकिन ऐसा न हो सका. सेना इस समझौते से निराश थी. 6 महीने वहां रहने के बाद आदेश आया, 31 मार्च, 1966 तक हमें सारा इलाका खाली करना है. भारतीय सेना अनुशासनप्रिय है. वह आदेशों का पालन करती है.

छोड़ते समय कैंप फेयर होता है. बड़ा खाना किया जाता है. शहीदों को नमन किया जाता है. उन के परिवारों के लिए शोकसभा आयोजित की जाती है. जो घायल हैं उन के जल्दी ठीक होने की उम्मीद व्यक्त की जाती है. ठीक होने पर भी वे दोबारा सर्विस में आने के काबिल नहीं रहते. किसी का बाजू नहीं होता, किसी की टांग नहीं होती है. हां, उन का अच्छी तरह इलाज कर के मैडिकल पैंशन के साथ अन्य सुविधाएं दे कर घर भेज दिया जाता है. जिला सैनिक बोर्डों के जरिए उन्हें सरकारी नौकरियों में एडजस्ट किया जाता है. शहीद परिवारों के साथ भी ऐसा ही किया जाता है. कोशिश होती है कि उन्हें यों ही सड़क पर न छोड़ा जाए.

पाकिस्तान छोड़ने के बाद हमें जम्मू के पास छनियां गांव में जगह मिली. वहां काफी देर रहे यह सोच कर कि पाकिस्तान फिर कोई गड़बड़ न करे. इतने बड़े डिव की यूनिटों को पंजाब में एडजस्ट करना मुश्किल था. हमारी यूनिट को पटियाला में राजिंदरा अस्पताल के पास अंगरेजों के समय की बनी बैरकों में जगह मिली. उस से थोड़ा आगे यूनिट को वर्किंग प्लेस मिला. पूरा स्टोर सैट करने में एक महीना लग गया. तब कहीं जा कर पहली लीवपार्टी गई. उस में मेरा नाम नहीं था. मैं ने घर में लिख दिया था कि मैं ठीक हूं, छुट्टी मिलने पर आऊंगा. मैं आता हूं या नहीं, घरवालों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था. उन्हें पैसा चाहिए होता था, वह मिल रहा था. बाऊजी को छोड़ कर पूरा परिवार मेरे प्रति अभावुक था. परिवार में यह स्थिति हमेशा रही.लड़ाई में देश की निडरता और देशवासियों के सहयोग को मैं कभी भूल नहीं पाया.

 

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