Film Review :  25 दिसंबर को सिनेमाघरों में रिलीज हुई वरूण धवन की फिल्म ‘बेबी जौन’ देख थिएटर से बाहर निकल रहे दर्शक गुनगुना रहे हैं- ‘‘दिल के अरमां आंसुओं में बह गए’’. वास्तव में भारतीय दर्शक दीवाली, होली, ईद या क्रिसमस के मौके पर एक बेहतरीन मनोरंजक फिल्म देखने के अरमा अपने सीने में पाल कर रखता है.

इसी तरह इस बार भी क्रिसमस पर एक बेहतरीन फिल्म देख कर मनोरंजन पाने के अरमा ले कर जब दर्शक सिनेमाघर पहुंचे तो उसे मनोरंजन की बजाए सिरदर्द और ऐसी यातना मिली कि वह सिनेमाघर से बाहर निकलते हुए गुनगुना रहें हैं, ‘दिल के…’

वास्तव में पिछले कुछ वर्षों से बौलीवुड के कलाकार और फिल्म सर्जक अपनी फिल्म के कथानक आदि पर मेहनत करने की बजाए इस कदर सरकार परस्ती का तमगा लेने पर उतारू हैं कि वह अपनी ‘कला’ का ही सत्यानाश करने पर आमादा हैं.

राजनीतिक दिग्गजों की प्रशंसा करना, यहां तक कि नेताओं को ‘हनुमान’ बताना बौलीवुड से जुड़े लोगों का एकमात्र मकसद बन गया है. लेकिन यही सितारे तब चुप रहते हैं, जब बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उस के परिवार के हत्यारों की सजा जल्दी कम कर दी जाती है और रिहाई पर उन्हें माला पहनाई जाती है. ऐसे कलाकार व फिल्मकार जब अपने सिनेमा में महिलाओं की सुरक्षा का ढिंढोरा पीटते हुए फिल्म के नायक से बलात्कारी को सजा दिलाते हैं, तो यह सब हर आम भारतीय को खोखला नजर आता है.

हमारी वर्तमान सरकार भी ‘नारी उत्थान’ के नाम पर कई तरह की मुहिम चला रही हैं. सरकारें महिलाओं को सशक्त करने के नाम पर उन्हें 1500 या 2000 रूपए की रेवड़ी भी बांट रही हैं. फिल्मकार ‘नारी सम्मान’ की बात करने वाली या बलात्कारियों को सजा देने वाली फिल्में भी बना रहे हैं, इस के बावजूद आएदिन छोटी लड़कियों के संग बलात्कार करने व उन की हत्यांए करने की घटनाएं सामने आती रहती हैं.

वरूण धवन के अभिनय से सजी फिल्म ‘बेबी जौन’ में भी नारी सम्मान, नारी सुरक्षा व बलात्कारी को सजा का मुद्दा ही उठाया गया है, मगर बहुत ही घटिया तरीके से.

अपनी इसी घटिया फिल्म को सफल बनाने के लिए अभिनेता वरूण धवन कुछ दिन पहले ही देश के गृहमंत्री अमित शाह से मिलने गए थे और वरूण धवन ने अमित शाह को ‘हनुमान’ बताया है, तो वहीं फिल्म ‘बेबी जौन’ में वरूण धवन की अति घटिया परफार्मेंस ने हर किसी को रूला दिया.
2016 में विजय जोसफ की एटली के निर्देशन में बनी ऐक्शन व रोमांचक तमिल फिल्म ‘थेरी’ ने बौक्स औफिस पर धमाल मचा दिया था, जिसे हिंदी में डब कर भी रिलीज किया गया था. इसी का हिंदी रीमेक ‘बेबी जौन’ अब 25 दिसंबर को रिलीज हुई है, जिस में वरूण धवन की मुख्य भूमिका है.

वैसे फिल्म के रिलीज से पहले वरूण धवन ने फिल्म ‘बेबी जौन’ को ‘थेरी’ का रीमेक कहे जाने पर एतराज जताया था. वैसे हालांकि यह याद रखना चाहिए कि थेरी स्वयं तमिल फिल्म चत्रियन (1990) और हौलीवुड फिल्म होमफ्रंट (2013) से काफी हद तक प्रेरित थी. यहां याद दिलाना जरुरी है कि करीब 10 करोड़ के आसपास व्यूज ‘थेरी’ के हिंदी में डब संस्करण को यूट्यूब पर ही मिल चुके हैं.

फिल्म की कहानी केरला में तब शुरू होती है, जब जौन उर्फ डीसीपी सत्या वर्मा (वरुण धवन) अपने अतीत को छिपा कर जौन के नाम से केरला में अपनी बेटी खुशी (जियाना), कुत्ते टाइगर व राम सेवक (राज पाल यादव) के साथ खुशनुमा जिंदगी जी रहा है. केरला में जौन एक बेकरी चलाता है, उसे उस की बेटी खुशी बेबी के नाम से पुकारती है. फिर जौन का अतीत सामने आता है.

पता चलता है कि लुंगी पहनने वाला बेबी जौन अतीत में मुंबई में एक पुलिसकर्मी सत्या वर्मा हुआ करता था, उस की प्रेमिका से पत्नी बन चुकी डाक्टर मीरा (कीर्ति सुरेश) और मां (शीबा चड्ढा) थी. उस वक्त डीसीपी सत्या वर्मा के साथ हवलदार रामसेवक (राज पाल यादव) था. लेकिन लड़कियों के देह व्यापार के सरगना बब्बर शेर उर्फ नानाजी की साजिश में फंस कर डीसीपी सत्या वर्मा को मां तथा मीरा को खोना पड़ता है.

पर बेटी खुशी को ले कर मीरा को दिए गए वादे के कारण सत्या वर्मा चुपचाप केरला आ कर नाम व बाल बड़े कर के रहने लगते हैं. लेकिन इसी बीच जौन की पिछली जिंदगी एक बार फिर उस के वर्तमान पर हावी होने लगती है, जब खतरनाक विलेन नानाजी (जैकी श्रौफ) के गुर्गों के चंगुल से मासूम बच्चियों को बचाने में कामयाब हो जाता है. कैसे नाना के खतरनाक मंसूबों से जौन खुद को और अपनी बेटी को बचा पाता है, फिल्म की कहानी इसी के इर्दगिर्द घूमती है.

फिल्म ‘बेबी जौन’ की सब से बड़ी कमजोर कड़ी इस की पटकथा और इस के स्तरहीन संवाद हैं. ऐसा लगता है जैसे कि कैमरामैन किरण कौशिक ने 40-50 दृश्य अच्छी लोकेशन पर फिल्माएं और निर्देशक कालीस ने उन दृश्यों को एडिटिंग टेबल पर जोड़ दिया. हैरानी की बात यह है कि इतनी घटिया फिल्म के साथ ‘जवान’ फेम निर्देशक एटली ने बतौर निर्माता बौलीवुड में अपने कैरियर की शुरूआत की है.

फिल्म में भावनाओं, रोमांस और मनोरंजन का घोर अभाव है. एक्शन सीक्वेंस पुराने, बहुत लंबे, थकाऊ और देखने में उबाऊ हैं. एक्शन दृश्यों में फिल्मकार ने बंदूकों, तलवारों, मुक्कों, या वह चीजें जिन्हें हथिायार में बदल सकते हैं का उपयोग कुछ भी फिल्माया है.

फिल्म के ज्यादातर एक्शन दृश्य व डीसीपी सत्या वर्मा की कार्यप्रणाली यथार्थ से परे है. फिल्म में मनोरंजन की बजाए टौर्चर ही टौर्चर है. काश फिल्मकार, लेखक व वरूण धवन ने बलात्कार पीड़ितों या उन के परिवारों के साथ बातचीत की होती.

क्लाइमैक्स में खुशी फिल्म के विलेन नानाजी के पास जा कर उन्हें दादू कह कर उन से कहती है कि उसे पता है कि उस की मां और उस की दादी को उन्होंने ही मारा था, अब वह सौरी बोल दें तो उस के पापा उन्हें माफ कर देंगे. जब कि यह कांड तब हुआ था, जब खुशी महज एक साल की थी और वह बाथ टब के अंदर थी, उस ने देखा ही नहीं था कि कौन किसे मार रहा है?

पर फिल्म में यह दृश्य देख कर फिल्मकार व लेखक की सोच पर तरस आता है. इसी तरह एक दृश्य में, सत्या अपनी मां (शीबा चड्ढा) को अपनी सरकारी कार में चेंबूर छोड़ने से नैतिकता का हवाला दे कर मना कर देता है. लेकिन कुछ ही देर में वह उन नैतिकताओं को पूरी तरह से त्यागते हुए, खुशीखुशी अपनी प्रेमिका मीरा (कीर्ति सुरेश) को उसी पुलिस वैन में छोड़ देता है. यह कैसी नैतिकता है?

फिल्मकार कालीस का डीएसपी कहीं भी पहुंच जाता है. मुंबई का डीएसपी खेतखलिहानों में जा कर वह विलेन के बेटे को अकेले ही मार दे रहा है? मजेदार बात यह है कि डीसीपी सत्या वर्मा जहां भी जाते हैं, हवलदार राम सेवक भी वहां उन के साथ मौजूद रहता है. यह कैसे संभव है? क्या इस बात की जरुरत समझ में नहीं आती है कि पुलिस की कार्यशैली पर बनने वाली फिल्मों के लेखकों को सब से पहले ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता’ को पढ़ना चाहिए.
इसी तरह से फिल्म में एक चौंकाने वाला दृश्य है. जिस में कंस्ट्रक्शन वर्क की जगह पर इमारत की छत से कुछ गरीब मजदूर मर जाते हैं. मृतकों में से एक महिला अपने पीछे 6 साल का बेटा छोड़ गई है. क्रूर भवन निर्माता व नाना का ही गुर्गा उस बच्चे को ‘नार्थ ईस्ट’ का बच्चा बताते हुए रूपयों का बंडल दिखा कर उस का मजाक उड़ाता है, फिर उसे चौकलेट के लिए केवल 10 रुपए देता है.

उसी शाम उसी क्रूर भवन निर्माता का अंत हो जाता है. इमारत से जब वह नीचे गिरता है, तब वही नार्थ ईस्ट का बालक हाथ में चौकलेट लिए हुए प्रकट होता है और मृत व्यक्ति को देख कर मुसकराता है. पहली बात तो सेंसर बोर्ड को इस पर औब्जेक्शन क्यों नहीं हुआ? फिल्म में जिस तरह ‘नार्थ ईस्ट’ का बालक कह कर उस का मजाक उड़ाया गया है, वह अक्षम्य है.

यह तो फिल्मकार की असंवेदनशीलता है. अब जिस फिल्म में इसी तरह के अवास्तविक व अविश्वसनीय दृश्य होंगे, वह फिल्म दर्शकों को मनोरंजन देने की बजाए रुलाने का ही काम करेगी.

फिल्म का क्लाइमैक्स तो बहुत ही घटिया है. इस फिल्म में बलात्कारी व लड़कियों की तस्करी से जुड़े इंसान को सजा दी गई या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है.
जहां तक अभिनय का सवाल है तो डीसीपी सत्या वर्मा उर्फ बेबी जौन के किरदार में वरुण धवन ने एक बार फिर बुरी तरह से निराश किया है.
वरुण धवन कहीं से भी एक्शन स्टार या पुलिस अफसर नजर नहीं आते. हर दृश्य में वह कालेज छात्र की तरह दिखते हैं. जब कि उन्हें 6 साल की बच्ची के पिता के रूप में परिपक्व नजर आना चाहिए. पिछले कुछ साल से वरूण धवन अपने अभिनय पर ध्यान देने की बजाए इंस्टाग्राम रील्स बनाने से ले कर उटपटांग बयानबाजी करने में ही अपनी सारी एनर्जी लगा रहे हैं.

तभी तो वह कलंक, बवाल, अक्टूबर, स्ट्रीट डासंर थ्री डी, सुई धागा, जुगजुग जीयो, दिलवाले, ढिशुम, भेड़िया जैसी असफल फिल्में दे कर अपने दर्शकों को निराश करते आए हैं. राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता कीर्ति सुरेश ने अपनी पहली हिंदी फिल्म में खुद को बरबाद ही किया है.
हिंदी में कीर्ति की शुरुआत भूलने योग्य है. अभिनय में उन का कोई योगदान नहीं है. केरला में तारा नामक शिक्षिका के छोटे किरदार में वामिका गाबी अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं. वह खराब लिखी गई भूमिका या स्क्रिप्ट को अपने ऊपर हावी नहीं होने देतीं.

राज पाल यादव ने वरूण धवन के चक्कर में अपनी अभिनय प्रतिभा पर कुल्हाड़ी मार ली है. पिछले चार दशकों में जैकी श्रौफ ने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी है. इतना ही नहीं दक्षिण भारत की 2010 में रिलीज हुई फिल्म ‘अरण्य कांडम’ में बतौर विलेन जैकी श्रौफ ने जो परफार्मेंस दी थी, उस के मुकाबले बेबी जौन में वह 10 प्रतिशत भी नहीं दे पाए. फिल्मकार ने उन्हें नानाजी के किरदार में अजीब सा मेकअप दे दिया है.

घनी मूंछें और हल्दी का लेप से तो वह विलेन की बजाए अघोरी ज्यादा नजर आते हैं. 6 साल की खुशी के किरदार में जियाना जरुर ध्यान खींचने में सफल रही हैं. सान्या मल्होत्रा ने भी निराश किया. इस फिल्म में सलमान खान ने अनावश्यक कैमियो क्यों किया, यह समझ से परे है.

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