Raj Kapoor नेहरुवादी सामाजिक सोच को ले कर चल रहे थे लेकिन उन की लगभग हर फिल्म के लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास साम्यवादी विचारधारा से प्रेरित थे. यह एक वजह भी है कि राज कपूर की फिल्मों में समाजवादी मिश्रण नजर आया और उन्होंने वर्ग संघर्षों से जनित आम लोगों पर हो रहे सामाजिक बदलाओं को परदे पर उतारा.
अब हिंदी फिल्में बेहूदगी परोसने पर उतर आई हैं, जबकि राज कपूर ने हमेशा सामाजिक मुद्दों, सामाजिक सरोकारों से जुड़ी फिल्मों का ही निर्माण किया. राज कपूर ने सदैव अपनी फिल्मों में सामाजिक अन्याय की दुनिया में आम आदमी के भाग्य पर केंद्रित सामाजिक संदेशों के साथ रोमांस का मिश्रण करती फिल्मों का ही निर्माण किया था.
Raj Kapoor का सफर
राज कपूर ने अपनी पहली फिल्म ‘आग’ से ही नई तरह की कहानी कहने की शुरुआत की और आवारा और श्री 420 जैसी फिल्मों में सामाजिक मुद्दों को संबोधित किया, जिस से वह स्वतंत्रता के बाद के सिनेमाई प्रतिभा के प्रतीक बन गए. उन की फिल्मों ने विभाजन के बाद के भारत की वास्तविकताओं, आम आदमी के सपनों और ग्रामीण-शहरी विभाजन की खोज की. जिस के चलते राज कपूर का सिनेमा भावना, नवीनता और मानवतावाद का पर्याय बन गया.
14 दिसंबर 1924 को पेशावर में जन्मे भारतीय सिनेमा जगत के शो मैन राज कपूर का जन्म शताब्दी है. Raj Kapoorके परिवार ने एनएफडीसी के साथ मिल कर 13 दिसंबर से 15 दिसंबर तक राजकपूर की सौंवी जयंती मनाई और इस अवसर पर देश के 40 सिनेमाघरों में दर्शकों ने कम कीमत पर राज कपूर की चुनिंदा 10 फिल्में दिखाई. अब 18 दिसंबर को मुंबई में फिल्म कलाकारों की संस्था ‘सिंटा’ ने राज कपूर की सौंवी जयंती पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया. अफसोस की बात है कि राज कपूर के परिवार ने या अन्य जो लोग राज कवूर की सौंवीं जयंती मनाते हुए उन की फिल्मों पर विचार गोष्ठी आदि का कोई आयोजन नहीं कर रही है.
जिस से दर्शक राज कपूर और उन के सिनेमा को बेहतर ढंग से समझ सकते. जबकि Raj Kapoor के निर्देशन में बनी दूसरी फिल्म ‘बरसात’ से प्रेरित हो कर करण जोहर से ले कर आदित्य चोपड़ा तक कई फिल्म निर्देशक खुद फिल्में बना चुके हैं. यही सचाई है.
राज कपूर की 1949 में रिलीज फिल्म ‘बरसात’ के एक दृश्य में रेशमा का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री नरगिस, प्राण का किरदार निभाने वाले राज कपूर की तरफ गाना सुनते हुए दौड़ती है. जब 46 बाद 1995 में आदित्य चोपड़ा ने फिल्म ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’ निर्देशित की, तो उन्होंने फिल्म ‘बरसात’ के ही दृश्य को ज्यों का त्यों अपनी इस फिल्म में चिपका दिया. बरसात के दृश्य की ही तरह ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में काजोल का किरदार सिमरन, शाहरुख खान के किरदार राज द्वारा बजाए गए संगीत को सुन कर सरसों के खेत की ओर खिंची चली आती है. लेकिन राज कपूर की सौंवी जयंती पर आदित्य चोपड़ा भी खामोश हैं.
राजकपूर की मूवीज और समाजिक मुद्दे
आग, आह, आवारा, बरसात, श्री 420, बूट पौलिश, अनाड़ी, अब दिल्ली दूर नहीं, जागते रहो, जिस देश में गंगा बहती है, मेरा नाम जोकर पर समाजवादी विचारधारा का असर दिखता है. उन्हें नेहरू युग के महत्वपूर्ण फिल्मकारों में गिना जाता है. लेकिन ‘बौबी’ से ले कर बाद की अपनी फिल्मों में राजकपूर शो मैन के तौर पर मशहूर हुए. वैसे हकीकत यह है कि नरगिस ने राज कपूर के साथ उन के निर्देशन में बनी पहली फिल्म आग से ले कर जब तक काम किया, तब तक राजकपूर की फिल्मों की दिशा एक अलग तरह की रही, लेकिन नरगिस का राज कपूर या यूं कहें कि आर के फिल्मस से दूरी बनाते ही राज कपूर के सिनेमा में कामुकता ने जगह ले ली. वास्तव में राज कपूर की फिल्मों खासकर ‘जागते रहो’, ‘श्री 420’ या ‘बूट पौलिश’ की कहानियां उस आदमी की थी, जिसे आज के सिनेमा में गायब कर दी गई हैं. आज भी हम विभाजित संसार में रहते हैं, पर अब यह सब फिल्मों में दिखाया नहीं जाता. ,मिडिल क्लास भी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है.
Raj Kapoor निर्देशित फिल्म ‘श्री 420’ में राज का किरदार नायिका से कहता है ‘‘मैं अपना इमान बेचने आया हूं”. इस से फिल्मकार ने इस बात का अहसास कराया है कि हम कुछ खो रहे हैं. सही मायनो में देखा जाए तो यह जरुरी है कि इंसान महसूस करे कि वह समाज व देश के राजनीतिक हालातों से क्या खो और क्या पा रहा है. राज कपूर पर नेहरू युग की समाजिकता की बात करने व रूमानी होने के आरोप लगते हैं, मगर उन की फिल्मों पर गंभीरता से नजर डाली जाए, तो पता चलता है कि राज कपूर की शुरूआती फिल्में सामाजिक होते हुए राजनीति को भी गहराई के साथ छूती हैं. वह नेहरू युग की बात करते हैं, मगर नेहरु और उन के शासन को ले कर क्रिटिकल भी हैं, इस के लिए उन्होंने रूमनियत का सहारा लिया.
नेहरू की नीतियों को ले कर क्रिटिकल होने के साथ ही राज कपूर ने अपनी कई फिल्मों में चेतावनी भी दी कि आने वाला वक्त में क्या हो सकता है. फिर चाहे वह फिल्म ‘श्री 420’ हो या ‘जिस देश में गंगा बहती है’ हो. तभी तो मशहूर फिल्मकार हृशिकेश मुखर्जी, राज कपूर को रोमांटिक सोशलिस्ट कहा करते थे.
वास्तव में आजादी के बाद जब पंडित जवाहर लाल नेहरु प्रधानमंत्री बने तो देश का मीडिया तीन धन्ना सेठों के हाथ में था, जिसे नेहरू की समाजिकता से तकलीफ थी. इसलिए भी मीडिया ने अप्रत्यक्ष रूप से राज कपूर पर सरकार परस्त और रूमानी होने के आरोप लगे थे. जबकि ऐसा नहीं था. राज कपूर ने नेहरू की खिलाफत की, पर रूमानी अंदाज में वह अपनी फिल्मों के गीत संगीत के माध्यम से.
नेहरू युग और राज कपूर की मूवीज
नेहरु युग, आजादी के बाद से 1964 तक का जो समय है, उस की जो रूमानियत है, देश निर्माण का जो एक नशा है, एक सपना है, उस को एक रूमानी रंग दे कर राज कपूर ने अपनी शुरूआती फिल्मों में पेश किया. उन की फिल्मों के माध्यम से उस वक्त का सामाजिक व ऐतिहासिक अध्ययन किया जा सकता है. उन की फिल्मों में सामान्य रूमानियत की बजाय उन में बहुत बड़ा मकसद जुड़ा रहा. ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में यह सब बहुत खास तरीके से नजर आता है. राज कपूर की फिल्मों में मौजूद रूमानियत के पीछे एक गंभीर सोच है. उन के साहसिक प्रयास को अनदेखा नहीं किया जा सकता. इतना ही नहीं राज कपूर को व्यवसायिकता का भी अच्छा अहसास रहा. उन की रूामनियत में भी सामाजिकता है.
Raj Kapoor पूरी तरह से नेहरु वाली सामाजिक सोच को ले कर चल रहे थे. लेकिन उन की लगभग हर फिल्म के लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास पूरी तह से साम्यवादी विचारधारा के थे. यही वजह है कि राज कपूर की फिल्मों में यह मिश्रण नजर आता है, तभी तो उन की फिल्म ‘आवारा’ को सोवियत संघ, चीन, तुर्की सहित कई देशों में पसंद किया गया. इन देशों में फिल्म ‘आवारा’ को नया नाम ‘द वागाबांड’ दिया गया. राज कपूर एक मात्र ऐसे इंसान हैं, जो बिना पासपोर्ट या वीजा के सोवियत संघ जा पाए. इस के अलावा ‘आवारा’ को सोवियत संघ चीन सहित कई देशों में वहां की भाषा में रीमेक भी किया गया.
यूं तो फिल्म ‘आवारा’ समाजिक सुधार की बात करती है. राज कपूर ने इस में सामाजिक और सुधारवादी विषयों को अपराध, रोमांटिक कौमेडी और संगीत मेलोड्रामा शैलियों के साथ मिश्रित किया है. लेकिन 1951 में प्रदर्शित राज कपूर के निर्देशन में बनी तीसरी फिल्म ‘आवारा’ आज की तारीख में बनाना या बनाने के बाद उसे सेंसर बोर्ड से पारित करना असंभव ही है. भारतीयों ने ‘आवारा’ को नेहरु सोशलिस्ट फिल्म की संज्ञा दी, जबकि सोवियत संघ व चीन जैसे देश के शासकों को फिल्म में साम्यवाद नजर आया. मगर इस फिल्म के कथानक की प्रेरणा सुन कर आप चौंक जाएंगे. जी हां ‘आवारा’ की कहानी हिंदू धर्म ग्रंथ ‘‘रामायण’’ से प्रेरित है.
‘रामायण’ में भगवान राम ने रावण द्वारा सीता का अपहरण कर लंका ले जाने पर रावण से युद्ध कर राम, सीता की अग्नि परीक्षा ले कर अयोध्या पहुंचते हैं. मगर एक धोबी की बात सुन कर वह अपनी पत्नी सीता का त्याग कर देते हैं. इसी तरह फिल्म ‘आवारा’ में वकील रघुनाथ, जो बाद में जज बनते हैं, भी अपनी पत्नी लीला का अपहरण व 4 दिन बाद अपहरणकर्ता द्वारा लीला को ससम्मान छोड़ दिए जाने पर भी परिवार के एक सदस्य की बात सुन कर रघुनाथ अपनी पत्नी लीला को सड़क पर भटकने के लिए त्याग देते हैं.
रामायण में राम द्वारा सीता के बेटों लव कुश को अपनाने के बाद सीता धरती में समा जाती हैं, लगभग उसी तरह ‘आवारा’ में रघुनाथ, लीला के बेटे राज को अपने बेटे के रूप में स्वीकार करते हैं और अस्पताल में लीला देह त्याग देती है. इस कहानी के बावजूद साम्यवादी विचारधारा के पोषक देशों सोवियत संघ व चीन में भी इस फिल्म को काफी पसंद किया गया था. वास्तव में इस फिल्म में राज कपूर ने एक अहम मुद्दा यह भी उठाया है कि अमीरों के अपराधों पर ध्यान नहीं दिया जाता, जो कि सोवियत संघ व चीन जैसे साम्यवादी विचारधारा के देशों के शासकों को आकर्षित किया था. तभी तो इस फिल्म के चीन व अन्य देशों में रीमेक बनाए गए. विदेशों में ‘आवारा’ को ‘द वागाबांड’ नाम दिया गया था.
फिल्म को वामपंथी दर्शन का उपदेशात्मक प्रचार बनने से रोकने में शंकर और जयकिशन की संगीत रचनाएं हैं, जिन्होंने दर्शकों को राशन की दुकानों पर लंबी लाइनों से दूर एक मधुर दुनिया में जाने में मदद की. चाहे वह अभावों से ग्रस्त जीवन से निराशा को दूर करने वाला फुर्तीला आवारा हूं, या रोमांटिक दम भर जो उधार मुंह फेरे, वो चंदा अपने जुनून के साथ स्क्रीन पर आग लगा रहा हो, फिल्म के कुछ गाने अभी भी प्रभावित कर सकते हैं आप एक खुशहाल जगह पर हैं, भले ही फिल्म का संदेश वर्तमान प्रासंगिकता के साथ घर कर जाता है.
फिल्म ‘आवारा’ पुरूष प्रधान समाज और पितृसत्तात्मक सोच का मुद्दा भी उठाती है. फिल्म में रीटा के किरदार नरगिस ने उसी व्यक्ति रघुनाथ के खिलाफ राज का बचाव करना चुना है जिस ने उसे शिक्षित किया और उसे वकील बनने में सक्षम बनाया. कोई ईर्ष्यापूर्ण कार्य नहीं है, लेकिन वह अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता को उजागर करने के लिए, रघुनाथ को समय में वापस ले जाती है, जब धार्मिक राम की तरह, उसने अपनी गर्भवती पत्नी को घर से बाहर निकालने के लिए सामाजिक दबाव डाला था क्योंकि उसे जग्गा डाकू द्वारा अपहरण कर लिया गया था. और चार दिन उन के घर में बिताए. जग्गा ने जस्टिस रघुनाथ से बदला लेने के लिए लीला का अपहरण कर लिया था, जिन्होंने एक बार उस के पिता के अपराधों के आधार पर उस के साथ गलत तरीके से न्याय किया था.
नारी सशक्तिकरण का मुद्दा
शिक्षा के माध्यम से नारी सशक्तिकरण का मुद्दा भी उठाया गया है. अगर लीला के छोटे बच्चे राज, जो कि गरीबी में पल रहा है, उसे अच्छी शिक्षा की व्यवस्था सरकार द्वारा दी जाती तो वह अपराध का रास्ता न चुनता. तो वही ‘आवारा’ के शुरूआती दृश्य में रीटा बनी नरगिस पुरुषों के प्रभुत्व वाले कोर्ट रूम में आत्मविश्वास से चलते हुए एक प्रभावशाली प्रवेश करती है. एक वकील का काला लबादा पहन कर, वह अपने बचपन के दोस्त राज का बचाव करती है, जिस ने स्कूल से निकाले जाने के बाद अपराध करना शुरू कर दिया था. फिल्म का यह दृश्य अपनेआप ही बहुत कुछ कह जाता है. देश के आज़ाद होने के 4 साल बाद बनी फिल्म ‘आवारा’ में दिखाया गया है कि कैसे बस्तियों में पल रहे बच्चे, बिना स्कूल गए, अपराधियों के लिए चारा बन जाते हैं. यही काम फिल्म के अंदर अपराधी जग्गा, राज के साथ करता है.
फिल्म मे ख्वाजा अहमद अब्बास लिखित भयानक विडंबनाओं से भरपूर शक्तिशाली संवाद ‘वर्ग दंभ’ की आलोचना करते हैं और अमीरों की वंचितों के साथ तुलना करते हैं. Raj Kapoor ने 73 साल पहले फिल्म ‘आवारा’ के माध्यम से संदेश दिया था कि यदि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को वर्ग, जाति और लिंग से परे सुलभ बनाया जा सके, तो विभाजनकारी आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं होगी. अफसोस हमारे देश के शुरुआती योजनाकारों ने इस पर अमल नहीं किया और अब करेंगे, ऐसा नजर नहीं आता. अब तो शिक्षा का पूरी तरह से व्यवसाई करण हो चुका है.
Raj Kapoor की मूवीज के अमीरगरीब कौन
एक बार सिमी ग्रेवाल से बात करते हुए ‘आवारा’ को ले कर राज कपूर ने कहा था, ‘‘यह स्क्रिप्ट ठीक उसी समय आई थी, जब भारत एक नया विकास कर रहा था. सामाजिक अवधारणा, इस लाखों लोगों के लिए एक स्वीकार्यता, सिर्फ मुट्ठी भर अमीरों के लिए नहीं और बाकी वंचितों के लिए एक तरफ. और मूलतः आवारा एक बहुत मजबूत…कहानी ले कर आई थी जिस के किरदार बहुत गहन थे. यह किशोर रूमानियत थी. यह एक रूमानियत थी, जैसा शायद आपने परियों की कहानियों में पढ़ा होगा, सड़क का बिल्कुल आवारा आदमी, जिस के पास कुछ भी नहीं है, वह महलों की एक महिला के बारे में सपने देखता है. तो वर्गभेद का मुद्दा भी उभर कर आता है.
राज कपूर ने 1951 में फिल्म ‘‘आवारा’’ में ‘बचपन में बिछुड़ने और युवावस्था में फिर से मिलने की कहानी पेश की थी. स्कूल दिनों में राज व रीटा में प्यार होता है, पर बाद में यह दोनों बिछुड़ जाते हैं, पर युवा होने के बाद फिर राज व रीटा का मिलन व प्रेम के अंकुर जागृत होते हैं. जबकि कमर्शियल फिल्मों के मशहूर फिल्म सर्जक मन मोहन देसाई ने इसी मूल कथानक के इिर्दगिर्द 70 व 80 के दशक में कई फिल्में बनाई थी. लोग तो उन पर तंज करते हुए कहते थे कि मन मोहन देसाई की फिल्म में मेले में बिछुड़ना और 20 साल बाद मिलने के अलावा कुछ नहीं होता. इसीलिए कहा जाता है कि राज कपूर ने अपने जीवन कल में ओरिजिनल काम किया, उसी को सीख कर यदि बौलीवुड आगे बढ़े, तो भी बौलीवुड नई उंचाइयों की तरफ निरंतर बढ़ता रह सकता है.’
नए राष्ट्र की बात करने वाला शोमैन Raj Kapoor
राज कपूर की फिल्म ‘‘आवारा’’ का गीत ‘‘सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ एक नए राष्ट्र के बारे में बात करता है, जो सोवियत संघ के सिद्धांतों को पूरी तरह से अपना रहा है, फिर भी दिल से भारतीय बना हुआ है और इसे शैलेन्द्र के शाश्वत गीतों, शंकर जयकिशन के जोशीले संगीत के अलावा और किसी ने नहीं दर्शाया. मुकेश का आसान गायन और निश्चित रूप से राज कपूर की औनस्क्रीन चार्ली चैप्लिन वाली छवि ‘राजू’ के रूप में एक शिक्षित व्यक्ति है जो तेजी से बढ़ती अनैतिक दुनिया में नौकरी की तलाश कर रहा है. यह निस्संदेह बहुत बाद में 1955 में हुआ था.
फिल्म ‘‘जागते रहो’ को ले लें. इस फिल्म के मुख्य प्रोटागानिस्ट, जिसे Raj Kapoor ने खुद ही निभाया है, के हिस्से संवाद लगभग अंत तक नहीं हैं. सिर्फ ‘मुझे पानी चाहिए’ जैसे एक दो संवाद हैं मगर प्रोटागानिस्ट बन कर वह हर घर में जा कर देख रहा है. इस तरह उस ने समाज के पूरे हलात पर रोशनी डाल दी. वह देखता है कि हर घर के अंदर जो अपराध हो रहा है, उसे करने वाले समाज के ‘सम्मानित’ लोग हैं. इस में नरगिस मेहमान कलाकार के तौर पर अंत में एक गाने में आती है और राज कपूर को पानी पिलाती है.
कुल मिला कर ‘जागते रहो’ और श्री 420 सामाजिक मुद्दा ले कर आती है, जिस में गुस्सा भी है. इन फिल्मों ने गलत पर सही की जीत की बात कही जाती रही. इस में प्रतीकात्मक बातें बहुत थीं. ‘श्री 420’ में एक तरफ शिक्षित गरीब व बेरोजगार प्रवासी युवक हैं, तो वहीं इस में क्रोनिकल कैपटलिस्ट यानी कि करप्ट सेठ सोनाचंद भी है. सेठ सोना चंद, नादिरा के किरदार के साथ मिल कर ताश के खेल में धोखाधड़ी करने से ले कर पोंजी कपनियों के माध्यम से और 100 रूपए में मकान देने के नाम पर धोखाधड़ी करते हैं. ‘श्री 420’ में जो कुछ राज कपूर ने चित्रित किया, वह आज भी शाश्वत सत्य है. राज कपूर ने फिल्म में युवा प्रवासी के मुद्दों और उस की नैतिक दुविधा को चित्रित करने के लिए व्यंग व हास्य का सहारा लिया है. फिल्म के एक दृश्य में गांधी, नेहरू, विवेकानंद भी नजर आते हैं. ‘दिल का हाल सुने दिल वाला…’ गाना बताता है कि जो क्लास का विभाजन है, वह कैसे मुद्दा बना रहा. बूट पौलिश में भी वही फ्लेवर है.
बच्चों के जीवन को भी बनाया फिल्म का हिस्सा Raj Kapoor ने
फिल्म ‘बूट पौलिस’ में राज कपूर ने चित्रित किया है कि जिन बच्चों के सामने जीवन जीने की चुनौती है,ऐसे अनाथ बच्चों को भीख मांगने का कटोरा पकड़ा दिया जाता है. उन के लिए शिक्षा, इज्जत से जीवन जीने के लिए कुछ नहीं किया जाता, जबकि यह दोनों मसले सरकार से जुड़े हैं. इस तरह उन्होंने नेहरु की कटु आलाचना की है. फिल्म ‘बूट पौलिश’ में जान चाचा का किरदार यही संदेश देता है कि भीख मांगना हमारा विकल्प नहीं हो सकता. हमारा विकल्प है काम. यह भीख की संस्कृति आज भी जीवित है. आज सरकारें जो रेवड़ियां बांट रही हैं कि 1500 रूपए देंगे या 2000 रूपए देंगें या बिजली का बिल माफ करेंगे. यह सब भीख की संस्कृति ही है. देश की सरकारें इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहती कि लोगों को काम व नौकरी चाहिए, जिसे देने की बातें सरकारें नहीं कर रही हैं. पर राज कपूर ने उस दौर में कहा था कि अनाथ बच्चों को शिक्षा और काम के साथ सम्मानजनक जीवन चाहिए. कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि राज कपूर की फिल्में यथार्थ से दूर सपना बेचती हैं. फैंटसी परोसती हैं. यदि हम मान लें कि राज कपूर की फिल्मों में यह सब सपना था तो आज की फिल्मों में तो इस तरह का सपना भी नजर नहीं आता. राज कपूर की फिल्में इस बात की ओर इशारा करती हैं कि बिना सपनों के कोई भी समाज जीवित नहीं रह सकता. ‘बूट पौलिश’ का संदेश यही है कि अच्छा जीवन, शिक्षा और काम हर बच्चे का अधिकार है.
राज कपूर के सिनेमा को समझने से पहले इस बात को नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि राज कपूर को गरीबी की समझ थी. वह नेपोकिड यानी कि नेपोटिजम की ही पैदाइश थे, मगर उन के पिता पृथ्वीराज कपूर ने राज कपूर की परवरिश सोने के चम्मच से नहीं की. राज कपूर को मुंबई की लोकल ट्रैन व बस में सफर करना पड़ा. राज कपूर को अपने पिता के निर्देश पर बौम्बे टौकीज स्टूडियो में निर्देशक केदार शर्मा के साथ बतौर सहायक काम करना पड़ा और वह भी ‘क्लैपर ब्वौय’ के रूप में. जब सेट पर राज कपूर से क्लैप देने में गलती हुई, तो केदार शर्मा ने उन के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया था.
राज कपूर ने अपनी हर फिल्म में कई ऐसे मुद्दे उठाए, जो कि उन्हें एक अलग तरह का फिल्मकार बनाता है. राज कपूर ने 1949 में अपने निर्देशन में बनी दूसरी फिल्म ‘बरसात’ में प्रेम कहानी के माध्यम से ‘औरत केवल भोग्य नहीं’ के साथ ही उस वैश्या की कहानी भी बयां की, जिसे अपने नवजात शिशु की परवरिश के लिए वैश्या बनना पड़ता है. तो वहीं 1982 में रिलीज ‘बौबी’ में वर्ग संघर्ष का मुद्दा उठाया. सिर्फ ‘बौबी’ ही क्यों ‘मेरा नाम जोकर’ भी वर्ग भेद की समस्या पर आधारित है.
राजू एक सर्कस जोकर का बेटा है जिसे अपने पिता की विरासत में यह पेशा मिला है. विदूषक की भूमिका निभाते हुए, कपूर उस झूठ के बारे में एक सामाजिक आलोचना करते हैं जिस पर समाज स्थापित है, और उस झूठ के बारे में जो आम भारतीय कहते हैं. गरीबी और भुखमरी के खिलाफ संघर्ष करने के लिए जीना होगा. इतना ही नहीं ‘मेरा नाम जोकर’ में सर्कस में एक मात्र महिला मीना को स्त्री-द्वेषी और पितृसत्तात्मक संस्कृति से खुद को बचाने के लिए एक लड़के का रूप धारण करना पड़ता है.
विधवों की स्थिति पर प्रेमरोग जैसी सशक्त मूवी बनाई Raj Kapoor
‘प्रेम रोग’ में विधवा विवाह के साथ ही हिंदू समाज पर हावी अंधविश्वासों पर कुठाराघाट किया, जिन्हें अकसर प्राचीन रीतिरिवाजों, परंपराओं और प्रथाओं के रूप में सराहा जाता है.जिस देश में गंगा बहती है में राजनीतिक भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया गया. इस फिल्म में बिनोबा भावे के सिद्धांत के अनुसार डकैतों के आत्मसमर्पण का भी मुद्दा उठाया गया.नेहरू व इंदिरा युग की समाप्ति के बाद 1985 में ‘राम तेरी गंगा मैली’ प्रभावी रूप से उन की बेहतरीन फिल्मों में से आखिरी थी, ‘राम तेरी गंगा मैली’ में गंगा के बदलते रंगों का पता लगाया गया है क्योंकि यह गंगोत्री से उतर कर ऋषिकेश और वाराणसी तक जाती है और अंत में बंगाल में गंगासागर में समुद्र में मिल जाती है, जिस में मंदाकिनी द्वारा अभिनीत गंगा नाम की लड़की का जीवन दिखाया गया है. राजनीतिक लाभ के लिए गंगा की सफाई के मुद्दे का परदाफाश करने के साथ ही राजनीतिक व सामाजिक पाखंड पर भी रोशनी डाली है.