रोजगार मुहैया कराने के नाम पर चल रही वर्षों पुरानी सरकारी व्यवस्था न सिर्फ अपने उद्देश्य से भटक चुकी है बल्कि सिफर नतीजे के बावजूद सरकारी धन का खूब अपव्यय भी कर रही है. नतीजतन, देश में प्राइवेट एंप्लौयमैंट एजेंसियां इसी काम को मनमाने ढंग से कर मोटी कमाई कर रही हैं. क्या है पूरा मामला, बता रहे हैं कपिल अग्रवाल.

समय से बड़ा कुछ नहीं है. समय बदलने के साथ परिवर्तन आते हैं. छोटेबड़े सभी को समय के साथ चलना पड़ता है. जो नहीं चला वह या तो खत्म हो गया या बरबाद. हमारी सरकार का भी यही हाल है. 50-50, 100-100 साल पुराने नियमकानून और व्यवस्थाएं आज भी ज्यों की त्यों बरकरार हैं और हर साल करोड़ों रुपए की धनराशि उन पर बरबाद की जाती है और ऐसा तब है जब खुद सरकार द्वारा बनाई गई समितियों की राय उन्हें तुरंत खत्म कर देने की होती है. ऐसी ही एक व्यवस्था है रोजगार कार्यालय.

50 साल से भी ज्यादा पुरानी इस व्यवस्था को रोजगार कार्यालय अधिनियम 1959 के तहत स्थापित किया गया था. जगहजगह स्थापित इन कार्यालयों की उपयोगिता आज पूरी तरह समाप्त हो चुकी है, फिर भी देशभर में इन का परिचालन बदस्तूर जारी है. वर्ष 2002 में प्रशासनिक सुधार आयोग ने इन्हें बंद करने या इन की संख्या कम करने की सिफारिश की थी पर वह सिफारिश मोटी फाइलों में दफन हो गई व इन के बजट बढ़ा दिए गए.

इस समय देश में कुल 968 रोजगार कार्यालय हैं. सब पर हर माह कई करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं, पर नतीजा बिलकुल जीरो मिलता है. एक स्वतंत्र एजेंसी की रिपोर्ट बताती है कि कई कार्यालयों में कंप्यूटर, कंप्यूटर स्टेशनरी, डीजल, वेतनभत्ते आदि के नाम पर हर माह सरकार लाखों रुपए खर्च कर रही है, पर पिछले 10 साल में वे एक भी व्यक्ति को रोजगार नहीं दिला पाए. कागजों पर तो निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों पर मैंडेटरी एंप्लौयमैंट ऐक्सचैंज ऐक्ट 1959 (कृषि के अलावा उन सभी विभागों पर लागू जहां 25 से अधिक लोग काम करते हैं) अनिवार्य है पर हकीकत में ऐसा है नहीं और न ही कोई इस का पालन करता है. निजी क्षेत्र के लिए इस की अनिवार्यता बेहद कम वेतन वाले स्तर के लिए ही है. कानून कुछ भी कहता रहे, हकीकत में देशभर में रोजगार कार्यालयों के बारे में कुछ भी अनिवार्य नहीं है.

सरकारी क्षेत्र की बात करें तो वर्ष 1996 में आए सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय में कहा गया था कि अगर रिक्तियों को भलीभांति विज्ञापित किया जाता है तो नियुक्तियों के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है कि ये रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत लोगों के बीच से ही की जाएंगी. इस के बाद से ही ये और ज्यादा महत्त्वहीन होने शुरू हो गए.

दरअसल, इन दफ्तरों की महत्ता शुरुआत में थी और वर्ष 1990 तक इन का भरपूर उपयोग हुआ, पर सर्वोच्च अदालत का निर्णय व रेलवे भरती बोर्ड, बैंकिंग सर्विस कमीशन, कर्मचारी चयन आयोग आदि के गठन के बाद से इन का महत्त्व बहुत तेजी से घटने लगा. अदालत के निर्णय के बाद तो ये दफ्तर अप्रासंगिक होते चले गए और समयसमय पर सरकारी व गैरसरकारी समितियां इन को बंद करने की सिफारिश करती रहीं पर सरकार के कान पर जूं न रेंगी. इस के विपरीत सरकार ने कई और कार्यालय खोले व बजट में भारी वृद्धि की.

जून 2012 तक के आंकड़ों पर गौर करें तो देश के सब से बड़े रोजगार कार्यालयों में से एक, दिल्ली की सफलता की दर मात्र 0.2 फीसदी है. दिल्ली से 9 जिला स्तरीय व 5 जोनल कार्यालय संबद्ध हैं. दूसरी ओर एक मध्यम दरजे की निजी प्लेसमैंट एजेंसी की सफलता की औसत दर 30 से 40 फीसदी के आसपास रहती है. एक व्यक्ति को रोजगार दिलाने पर दिल्ली सरकार के करीब पौने 3 लाख रुपए खर्च होते हैं. कर्नाटक, ओडिशा, मध्य प्रदेश जैसे तमाम राज्यों में स्थित रोजगार कार्यालयों से तो पिछले 8 सालों के दौरान एक भी व्यक्ति रोजगार प्राप्त नहीं कर सका.

एक तरफ जहां सरकारी कार्यालय खानेपीने का जरिया बने हुए हैं वहीं निजी रोजगार प्रदाता रोजगार देने के बदले बेहद मोटी कमाई कर रहे हैं. सब से पहले तो दोनों पक्षों से रजिस्ट्रेशन शुल्क के नाम पर खासी रकम ऐंठी जाती है. इस के बाद नौकरी लगते ही 1 से ले कर 3 माह का वेतन कर्मचारी से व नियोक्ता से कमीशन के तौर पर अलग लिया जाता है.

सब से हास्यास्पद व शोचनीय बात यह है कि अपने इन कार्यालयों पर होने वाले खर्चों आदि का संपूर्ण विवरण सरकार के पास या तो है नहीं या वह देना नहीं चाहती.
मार्च 2011 में एक निर्दलीय सांसद द्वारा लोकसभा में पूछे गए प्रश्न के जवाब में केवल इतना बताया गया कि गुजरात, तमिलनाडु व केरल के रोजगार कार्यालयों ने जरूरतमंदों को रोजगार दिलाने में उल्लेखनीय प्रदर्शन किया है. नवंबर 2012 में आरटीआई के तहत दिल्ली के एक वरिष्ठ नागरिक ने भी बिलकुल ऐसा ही सवाल

केंद्र सरकार के रोजगार एवं प्रशिक्षण महानिदेशालय से पूछा था, जिस के जवाब में केवल इतनी ही आधीअधूरी जानकारी दी गई कि जुलाई 2012 तक देश के समस्त 968 रोजगार कार्यालयों में कुल पंजीकरण 5.83 करोड़ का था. इस दौरान मात्र 3,78,451 लोगों को इन कार्यालयों की मदद से रोजगार हासिल हो पाया. बजट आदि के बारे में दोनों ही मौकों पर चुप्पी साध ली गई.

पिछले साल के मध्य में जारी एक स्वतंत्र एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार बुनियादी ढांचे, बिजली, कंप्यूटर, डीजल, रखरखाव व कर्मचारियों के वेतन आदि का मोटामोटा अनुमान लगाया जाए तो भी कम से कम सवा 3 लाख रुपए प्रतिमाह एक कार्यालय का खर्च बैठता है. यानी देशभर के कुल 968 कार्यालयों पर 1 माह में 31 करोड़ 46 लाख रुपए खर्च किए जाते हैं. यानी मोटे तौर पर सालाना बजट 400 करोड़ रुपए का बैठता है. एजेंसी की रिपोर्ट बताती है कि बजट की अधिकांश राशि का जम कर दुरुपयोग किया जाता है.

रिपोर्ट के मुताबिक इन कार्यालयों में इतना सारा पंजीकरण भी रोजगार प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि विभिन्न राज्यों द्वारा समयसमय पर चलाई जा रही बेरोजगारी भत्ता, जैसी स्कीमों के चलते हुआ है. कई राज्यों में तो कार्यालय केवल वेतन आदि के लिए महीने में 4-5 दिन के लिए खोले जाते हैं, वरना नए पंजीकरण तो दूर, पुरानों का रिकौर्ड भी चूहों की भेंट चढ़ गया है.

पर ऐसा नहीं है कि हर जगह अंधेरा ही अंधेरा है. 2-4 राज्य ऐसे भी हैं जो इन कार्यालयों का अधिकतम व उचित उपयोग करने हेतु प्रयत्नशील हैं. अन्य क्षेत्रों की तरह इस में भी गुजरात सरकार ने बाजी मार ली है. इस के बाद कर्नाटक व तमिलनाडु की सरकारें हैं. ये राज्य निजी सा झेदारों के साथ मिल कर काम कर रहे हैं. गुजरात सरकार ने रोजगार कार्यालयों का आधुनिकीकरण करने के अलावा पंजीकरण की दर में वृद्धि व रोजगार दिलाने हेतु एक अलग ही मौडल विकसित किया है. यह मौडल निजी सार्वजनिक भागीदारी पर आधारित है, जिस में कर्मचारियों के वेतनभत्ते, बुनियादी ढांचे आदि हर सुविधा व खर्चों में निजी कंपनियों की बराबर की भागीदारी व जिम्मेदारी है.

मात्र पंजीकरण केंद्रों की भूमिका निभा रहे रोजगार कार्यालयों को अब वहां आकलन, विश्लेषण, परामर्श, प्रशिक्षण व उचित अभ्यर्थी के लिए उचित रोजगार खोजने का काम भी करना पड़ता है.
राज्य सरकार के प्रोत्साहन व आग्रह से समयसमय पर विभिन्न कंपनियां रोजगार कार्यालयों में रोजगार मेलों (जौब फेयर) का भी आयोजन करती रहती हैं. गुजरात सरकार के इस मौडल को अन्य राज्य भी अपनाने की तैयारी कर रहे हैं. इन में गोआ, कर्नाटक, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, ओडिशा व राजस्थान प्रमुख हैं.

दरअसल, किसी भी सरकारी व्यवस्था में बदलाव या आमूलचूल परिवर्तन कम से कम हमारे देश में बेहद मुश्किल हैं. विश्व के तमाम देशों में रोजगार कार्यालय पूरी तरह व्यावसायिक रूप से चलाए जा रहे हैं. कदमकदम पर दाम बढ़ा कर जनता का शोषण करने वाली हमारी सरकार को भी इन का व्यवसायीकरण कर वाजिब कमाई के एक स्रोत के रूप में परिवर्तित करना चाहिए.

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