‘‘शु चि, ‘सा’ निकल रहा है, ‘सा’ क्यों छूटता है तुम्हारा, ऊपर, थोड़ा और ऊपर लो. ‘सा’ को पकड़ो तो सारे सुर अपनेआप पास रहेंगे.’’

संगीत क्लास में मेहुल की 18 वर्षीया छात्रा शुचि से यह कहते ही पास के कमरे से एक तीखा व्यंग्य तीर की तरह आ कर इन की पूरे क्लास को धुआंधुआं कर गया : ‘सा’ जिस का निकला जा रहा उसे तो अपना होश नहीं, किसी और का ‘सा’ पकड़ने चले हैं.’’

थोड़ी देर के लिए एक विकृत मौन पसर गया. मेहुल ने स्थिति संभाली, ‘‘राजन और दिव्या, तुम लोग शुचि के सम से अंतरा लो.’’

किसी के दिल में आग लगी थी. जन्नत से लटकती रोशनियों के गुच्छों से जैसे चिनगारियां फूटी पड़ती थीं. सांभवी कमरा समेटना छोड़ मुंह ढांप बिस्तर पर पड़ गई.

मन ही मन ढेरों उलाहने दिए, हजार ताने मारे, जी न भरा तो अपना फोन उठा लिया और स्वप्निल को टैक्स्ट मैसेज किया- ‘एक नई कहानी लिखना चाहती हूं, प्लौट दे रही हूं, बताएं.’ यही सूत्र था प्रख्यात मैगजीन एडिटर स्वप्निल सागर से जुड़े रहने का. और कैसे जिया जाए, कैसे जिया भरमाया जाए, कैसे भुलाए वह अपनी परेशानियों को?

टैक्स्ट देखापढ़ा जा चुका था, जवाब आया, ‘भेजो.’

लिखना शुरू किया उस ने. निसंदेह आज के समय की कमाल की लेखिका है वह.

कल्पना, भाषा, विचार और कहानियों की बुनावट में असाधारण सृजन करने की कला. पल में प्लौट भेजा और ओके होते ही लिखना शुरू.

सांभवी : 5 फुट हाइट, सांवलीसलोनी, हीरे कट का चेहरा, शार्प और स्मार्ट. उम्र करीब 28 वर्ष.

मेहुल को सोचते हुए उस के अंदर आग सी भड़क उठी, ‘वही मेहुल, वही आत्मकेंद्रित संगीतकार और वही उस के सिमटेसकुचे चेहरे की अष्टवक्र मुद्राएं, तनी हुई भौंहों और होंठों के बंद कपाट में फंसे हुए कभी न दिखने वाले दांत. मन तो हो रहा था उठ कर जाए और विद्यार्थियों के सामने ही वह मेहुल की पीठ पर कस कर एक मुक्का जमा आए. वह उठ कर गई मगर उस कमरे के बगल से निकल कर रसोई में जा कर चाय के बरतन पटकने लगी, यानी चाय बनाने का यत्न करते हुए गुस्सा निकालने की सूचना देने लगी किसी को.

हद होती है सहने की. महीनों से उस ने अपनी इच्छा जता रखी है कि मेहुल कहीं भी हो मगर उस के साथ चले, उस के साथ कुछ रूमानी पल बिताए, एक शाम सिर्फ ऐसा हो जो सिर्फ उन दोनों के लिए हो, दैनिक चालीसा से हट कर हो.

जब इतने दिनों तक यथार्थ के देवता से इतना भी न हुआ तो कम से कम बाजार ही साथ चलें. इसी बहाने सही वह अपने लिए कुछ महक गुलाब के निचोड़ ही लेगी, अलमारी खुलेगी, ड्रैस निकलेंगे- कुछ वह सजेगी तो कुछ मेहुल संवेरगा, दोनों बहुत दिनों बाद एकदूसरे पर कुछ पल अपलक नजर रखेंगे और सांभवी अब तक नकचढ़ी इमोशन के गुब्बारों को समर्पण की सूइयों से छेद कर उस के गले से लिपट जाएगी थोड़ी शरमा कर और थोड़ी बेहया सी.

इज्जत ताक पर रख सांभवी सुबह से 4 बार मेहुल को याद दिला चुकी थी कि आज क्लास की छुट्टी कर देना, बाजार चलना है. दरअसल सांभवी के लिए यह बड़ी बात थी कि आगे बढ़ कर वह अपनी खुशी के लिए किसी से कुछ मांगे, चाहे क्यों ही न वह मेहुल हो.

मगर मेहुल, स्कूल से आ कर वही रैगुलर रूटीन में बच्चों को ले कर संगीत क्लास में बैठा है. एक दिन की चाय भी सांभवी को मेहुल के साथ नसीब नहीं होती. वह हड़बड़ी में चाय बना कर देती है और वह अपने चायनाश्ते की प्लेट ले कर क्लास में घुस बैठता है. हां, बच्चों के लिए अलग से बीचबीच में नाश्ता भिजवाने की मांग करते समय हक देखते ही बनता है उस का. चिढ़े न भला क्यों सांभवी.

चार वर्षों में कहीं घूमने तो क्या, जिंदगी की सब से हसीं याद भी उस के पास नहीं है. हां, हनीमून की हसीन याद जिस के बिना वैवाहिक जीवन जैसे पानी के बिना सूखा ताल. कैसे होता उस का हनीमून, उस वक्त तो बच्चों के संगीत की वार्षिक परीक्षाएं चल रही थीं.

उस ने अपनी चाय बनाई और वापस अपने कमरे में आ गई. चाय और कलम की जुगलबंदी रात 8 बजे तक चलती रही.

क्लास खत्म कर के मेहुल बैडरूम में आ कर उस के सामने खड़ा हो गया.

‘‘अब तो देर हो गई है, दुकानें तो बंद ही हो रही होंगी, क्या सामान लाना है बता दो, जल्द पास ही से कहीं से ले आऊंगा.’’

कलम छोड़ सांभवी ने मेहुल को देखा. उस की नीरस, निर्लिप्त आंखों को देख घायल सर्पिणी की तरह सांभवी तड़प उठी, क्रोध ने उसे कुछ देर मौन कर दिया-

कैसा इंसान है, एक तो इसे साथी के क्रोध से कुछ लेना है न देना, न ही साथी के प्रेमनिवेदन से कोई वास्ता, न उसे साथी से मानमनौवल आता है, न साथी में डूब कर दुनिया में जीने का सुख लेना, कब्र से निकला मुर्दा कहीं का.

इस मौन में दिल की लगी बुझ लेने के बाद उस ने मेहुल से कहा, ‘‘तुम्हें जल्दी होगी, मुझे कोई जल्दी नहीं. अब तुम खाना खा कर सो जाना, सामान लाना हुआ तो मैं ही कल ले आऊंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ सपाट सा उत्तर दे कर मेहुल ड्राइंगरूम में न्यूजपेपर पढ़ने चला गया और सांभवी कहानी में डूबने की कोशिश के बावजूद सतह पर ही उतराती रह गई.

एक चेहरा रहरह उस की आंखों में घूम रहा था. वह चेहरा था स्वप्निल सागर का. वे तब सबएडिटर थे जब सांभवी ने इस मैगजीन में लिखना शुरू किया था.

उस वक्त वह 21 साल की थी और ग्रेजुएशन के बाद पत्रकारिता व एमए में दाखिला लिया था. मुलाकात भी बड़ी रोचक ही कही जाएगी उन दोनों की.

एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए वह जाना चाहती थी लेकिन मैटर पहले संपादक से अप्रूव हो जाए तो छपने की कुछ गारंटी रहे, ऐसा सोच उस ने संपादक को फोन किया. इस वक्त तक वह मैगजीन में अपनी रचनाएं डाक द्वारा भेजा करती थी, कभी रूबरू नहीं हुई थी. इस बार इंटरव्यू के लिए परमिशन मिले तो तैयार मैटर ले वह खुद जाए, इसी मंशा से सांभवी ने फोन पर मिलने का समय निर्धारित कर लिया.

कुछ दिनों में तैयार मैटर ले कर मैगजीन के औफिस पहुंची. कहानी और आलेख सैक्शन संभालने वाले संपादक स्वप्निल से मिलने की कोशिश करने लगी.

केबिन में पहुंची तो स्वप्निल नहीं थे. वह इंतजार करती रही. जब स्वप्निल आए तो बहुत हड़बड़ी में थे. सांभवी को देख एक पल ठिठक तो गए लेकिन तुरंत ही कहा, ‘आज तो मैं समय नहीं दे पाऊंगा, क्या आप लिखने के सिलसिले में आई हैं?’

‘जी, मैं सांभवी, आप से फोन पर बात हुई थी, मैं जिस इंटरव्यू…’

‘मतलब, अब तक हमारी मैगजीन की सब से छपने वाली राइटर. साहित्य दर्शन और विचारों पर आप की पकड़ देख मैं तो आप को 50 से ऊपर की कोई महिला समझता था. तो आप हैं वो सांभवी.’ अब तक जाने की हड़बड़ी में खड़ा सा शख्स अपनी कुरसी पर जा बैठा था. उस ने सांभवी का लिखा हुआ मैटर लिया और एक सरसरी निगाह डाल अपनी मेज की डैस्क में रख कर कहा, ‘पहले की तरह असरदार.’

इस बीच सांभवी ने उस की आंखों में देखा और देखती ही रह गई. गजब की रोमानी और बोलती आंखें, चेहरे पर नटखटपन और घनी सी छोटी मूंछ अल्हड़ से पौरुष की गवाही देती. सांभवी ने अनुमान लगाया 30 से ऊपर के होंगे.

स्वप्निल उठ खड़े हुए. भागती सी लेकिन बड़ी गहरी नजर डाल सांभवी से कहा, ‘सांभवी आज मैं जरा जल्दी में हूं, लेकिन जल्दी ही आप से लंबी बातचीत का दौर निकालूंगा.’

स्वप्निल निकल तो गए लेकिन सांभवी के लिए पीछे एक अदृश्य डोर छोड़ गए. पता नहीं कब क्यों वह उस अदृश्य डोर को पकड़े स्वप्निल के पीछे चलने लगी थी. खुशगवार लगी गरमी की उमसभरी शाम जैसे अचानक ठंडी हवा के झोंके आ गए हों.

इस बीच, वह कई बार स्वप्निल से मिली. स्वप्निल के व्यस्तताभरे समय से उसे जो भी पल मिले वे किसी फूल के मध्य भाग की खुशबू से कम नहीं थे.

दो महीने के अंदर उस ने न जाने कितनी ही रचनाएं लिख डाली थीं और न जाने कितनी बार वह स्वप्निल के दफ्तर जा चुकी थी.

इस बार जब वह गई तो दफ्तर में अलग तरह की गहमागहमी थी. सारे लोग काम के बीच काफी मस्तीभरे मूड में थे. पता चला आज स्वप्निल कोर्ट मैरिज कर रहे हैं. लड़की से प्रेम इसी दफ्तर में हुआ था. वह यहां आर्टिकल आदि लिखती थी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी साथ ही कर रही थी.

लोग खुश थे, बहुत खुश, इतने कि खुद के खर्चे पर मिठाई बांट रहे थे. लेकिन जाने क्यों सांभवी के अंदर क्याक्या चटक गया. ईर्ष्या, अभिमान, संताप आंसू बन कर आंखों के कोरों में जमा होने की जिद करने लगे और वह वहां से चुपचाप निकल आई. किस पर जताए अभिमान, संताप? कोई वजूद तो नहीं उस सूरत का, कोई निशान भी नहीं उस मूरत का दिल में.

इस बीच ऊंची डिग्री लेते 4 साल और गुजरे. सांभवी के घर में अब सभी फिक्रमंद थे सांभवी की शादी को ले कर. वह भी किस का बाट जोहे? स्वप्निल सागर अब पूरे मैगजीन के एडिटर बन चुके थे, अपने पारिवारिक जीवन और कैरियर में पूरी तरह व्यस्त. सांभवी कौन थी- सिवा एक लेखिका के.

मुलाकात करवाई गई मेहुल से उस की. पांच फुट नौ इंच की अच्छी हाइट में शांत, शिष्ट, भला सा नौजवान और आंखों में गहरी कोई बात. दोनों ने आंखें मिलाईं और जैसे गहरी एक संधि हो गई अनकहे संवाद में.

सांभवी को नया संसार मिला, रचनेगढ़ने को नया रिश्ता मिला, एक सखा मिला प्रेमपुष्प से सजाने को.

मेहुल की बात लेकिन कुछ अजीब रही.

मेहुल एक पब्लिक स्कूल में संगीत शिक्षक था, घरवापसी उस की 5 बजे होती.

कुछ चायनाश्ता, जो अब सांभवी बनाने लगी थी, के बाद शाम 6 बजे से 8 बजे तक संगीत क्लास में बच्चों के साथ बैठता. रविवार छुट्टी के माहौल का भी ऐसा नक्शा था कि सांभवी के सब्र की इंतहा हो जाती. इस दिन वह किसी न किसी संगीत की महफिल का हिस्सा होता या कहीं स्टेज प्रोग्राम कर रहा होता.

सांभवी एक बंधेबंधाए मशीन के पुर्जे में आ फंसी थी और इस पूरे कारखाने को उखाड़ फेंकने की कोई सूरत उसे नजर नहीं आती थी.

संगीत में नितनए धुन रचे जाते, नए सुरों का संगम होता. लेकिन सांभवी के लिए इस में अकेलेपन का बेसुरा आलाप ही था, किसी अलग हवा, अलग रोशनी, अलग मेघ ले कर वह इस मेहुल नाम के बिन दरवाजे के किले में कैसे प्रवेश करे?

रात का अंधेरा कुछ पल को प्यार की रश्मियों के लिए भले अवसर रचता लेकिन ज्यादातर वह भी या तो मेहुल के सांसारिक कर्मों के लेखेजोखे में या सांभवी के शरीर की ऊष्मा नापने में ही बीत जाता. रागअनुराग, खेलीअठखेली, मानमनुहार, प्रेम के इन शृंगारों से अछूते ही रह जा रहे थे सांभवी के यौवन के सपने.

34 साल के मेहुल का पतझर सा निर्मोही रूप सांभवी के कुम्हलाते जाने का सबब बन गया था. 4 साल से ऊपर हो गए थे मेहुल से शादी को लेकिन अब तक ऐसी कोई सूरत नहीं बन पाई कि सांभवी स्वप्निल को अपनी काल्पनिक दुनिया से पूरी तरह मिटा पाए.

मेहुल को अपनी दुनिया में डूबा देख वह भी खुद को लगातार लेखन में व्यस्त रखती और स्वप्निल उस के जेहन से ले कर कागज के पन्नों तक लगातार फैल रहा था.

वह नहीं जानती थी कि स्वप्निल अपनी बीवी से कितना प्यार करता था, शायद बहुत, तभी तो जमाने की परवा न करते हुए उस ने विजातीय विवाह किया. वह यह भी नहीं जानती कि स्वप्निल अपने बेटे से कितना प्यार करता है, पर हां, आज की तिथि में वह ये बातें जानना भी नहीं चाहती. वह अपनी यात्रा में खुश है.

अच्छा लगता है सांभवी को स्वप्निल के बारे में सोचना. अगर मेहुल इन 4 सालों में उस की परवा को मोल देता तो शायद यह न होता. उस के रार ठानने, तकरार करने को बचकानी हरकत कह कर नजरअंदाज नहीं करता, उस के प्रेमविलास को अनावश्यक मान कर उस की अनदेखी न करता तब शायद सांभवी स्वप्निल की दुनिया को वास्तव तक न ले आती.

अब मेहुल के आगे झोली नहीं फैलाएगी सांभवी. मेहुल अगर उस के बिना दुरुस्त है तो वह भी सामाजिक दायित्व निभा कर खुद के सपनों को सींचेगी.

कहानी के नए प्लौट पर विचारते हुए शाम को सांभवी मार्केट से घर आई तो मेहुल का क्लास चल रहा था. उस की नजर उठी उधर और वह परेशान व हैरान रह गई.

सारे बच्चे दूर से मेहुल को घेरे हुए थे, मेहुल अपनी कौपी में उन्हें कुछ दिखा रहा था लेकिन शुचि… उस की हिम्मत देख सांभवी अवाक रह गई. मेहुल भी कुछ नहीं कहता, क्या इस में खुद उस की शह नहीं? अगर ऐसा नहीं होता तो 18 साल की इस लड़की की सब के सामने इतनी हिम्मत कैसे होती?

सांभवी कोफ्त से भर उठी. कहीं इसलिए तो मेहुल उस की तरफ से उदासीन नहीं, कहीं यही तो कारण नहीं कि वह क्लास की छुट्टी कर कभी उस के साथ घूमने नहीं जाता?

शुचि मेहुल के शरीर पर पूरी तरह लदी हुई उस से ताल समझ रही थी. यहां बाकी सारे बच्चे भी हैं जो वही ताल समझ रहे हैं, फिर शुचि को मेहुल के शरीर पर ढुलकने की क्या जरूरत पड़ी?

उसे याद आया, बिस्तर पर मेहुल कैसे उसे पल में रौंद कर पीछे घूम जाता है. प्रेम से ज्यादा देह में विचरण करने वाला कहीं शुचि के नरम, नाजुक, कोमल, किशोर शरीर पर… छिछि.

फिर से स्वप्निल सागर में डूबने की तैयारी कर ली उस ने. वह स्वप्निल को संदेश लिखने लगी थी.

अब उसे स्वप्निल से बातें करने के लिए यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती कि कहानी का प्लौट दे रही हूं. अब सागर के किनारों की बंदिशें उस ने भेद ली हैं.

‘‘आहत हूं बहुत.’’ व्हाट्सऐप में टैक्स्ट किया. दो पल में सीन हो कर प्रत्युत्तर आया, ‘‘क्यों, क्या हुआ? तुम्हारी 2 कहानियां आ रही हैं अगले महीने.’’

‘‘बस, कहानी ही बन गई है जिंदगी मेरी.’’ उधर एक प्रश्नसूचक चुप्पी लेकिन सहानुभूति का स्पर्श पा रही थी सांभवी, लिखा, ‘18 साल की एक लड़की से बहुत क्लोज हो रहा है मेहुल.’’ लहजा शिकायती होने के साथ सागर को करीब पाने की छटपटाहट कम न थी.

‘‘सांभवी, तब तो मेरी पत्नी को भी तुम से गुस्सा होना चाहिए, काम के सिलसिले में पुरुषों के लिए यह नई बात नहीं.’’

सांभवी की ओर से सन्नाटा, विद्रूप और पश्चात्ताप के निशब्द पदचाप स्वप्निल को सुनते देर नहीं लगी, तुरंत उस ने बात संभाली, कहा, ‘‘अपने यौवन, सौंदर्य और टैलेंट की कद्र करो, जैसे मैं करता हूं तुम्हारी. तुम मेरी लकी चार्म हो. बी हैप्पी. मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’

टूटते हुए को फिर भी दिलासा हुई, गरम रेत पर स्वप्निल मेघ सा बरस गया था. मेहुल के रवैए की वजह से स्वप्निल के निकट जाने की उत्कंठा पर अब उसे कोई शिकवा नहीं.

रविवार को मेहुल का स्टेज प्रोग्राम था. मेहुल ने खुद आगे बढ़ सांभवी को अपने प्रोग्राम में साथ चलने को कहा था. यह दिन उस के लिए खास था. वह भी तो रहना चाहती है उस के संग, चाहती तो है कि मेहुल के संगीत में उस की खुशबू रहे और उस के साहित्य में मेहुल की.

सांभवी की चपल काया में इंडोवैस्टर्न ड्रैस खूब फब रही थी. सब की नजर उस की ओर अनायास ही उठ रही थी. प्रोग्राम खत्म होने के बाद सांभवी ग्रीनरूम में मेहुल के पास पहुंची.

अब यह तो उम्मीद न थी. उसे बेहद बुरा लगा, जैसे कि अभी एक बच्चे की तरह सांभवी जोरजोर से रो पड़े.

यहां भी शुचि पहले से मौजूद. मेहुल के आगेपीछे वह यहां क्या कर रही है?

घृणा और कोफ्त से भर गई सांभवी. मेहुल ने देखा सांभवी को, एक सहज दृष्टि, न प्रशंसा के भाव न संकोच का. कैसा छिपा रुस्तम है यह मेहुल. सांभवी के मन में लगातार मंथन चल रहा था .

‘‘आओ चलेंगे, बाहर आयोजकों ने गाड़ी तैयार रखी है, आओ शुचि,’’ सांभवी की ओर बढ़ते हुए मेहुल ने शुचि को साथ चलने का इशारा करते हुए कहा.

यह क्या, मतलब शुचि हमारे साथ? क्रोध ने सांभवी को मन ही मन जड़ कर दिया था. सबकुछ भूल कर एक बार फिर कोशिश करने का मन जो हुआ था उस का, उस पर क्यों मिट्टी डाल रहा है, मेहुल. रोना आ रहा है सांभवी को, काश, यहां एक बिस्तर मिल जाता और वह उलटेमुंह धम्म से गिर कर जोर से रो पड़ती.

काफी मशक्कत के बाद इतना बोल पाई सांभवी, ‘‘ये हमारे साथ?’’

‘‘हां, तो इसे अकेली कैसे छोड़ूं? यह तो मेरा ही प्रोग्राम सुनने आई है, अकेली इतनी दूर से?’’

‘‘तो आई कैसे थी?’’ प्रश्न पूछ लेना भी उसे कचोट रहा था लेकिन खुद को रोक भी तो नहीं पाई वह. आखिर मेहुल इतना भी निर्लज्ज कैसे हो सकता है.

‘‘वह आई थी अकेले औटो से, तब दिन था मगर अब इतनी रात गए उसे अकेले कैसे छोड़ दूं? मेहुल जैसे आंखें तरेर रहा हो कि आगे और कोई सवाल नहीं.

सांभवी ने खूब समझा था. अपने पति की दिल की बात क्या सांभवी न समझे.

ठीक है मेहुल, तुम्हें पतिपत्नी के रिश्ते की गरिमा और अनुभूतियां समझ नहीं आतीं तो मैं भी हूं चपला प्रेम कामिनी, मुझे रोक न सकोगे. जब मैं स्वयं सलीके से जीना चाहती हूं तो तुम भटक जाना चाहते हो. फिर यही सही, मेहुल. सांभवी विस्फोट के मुहाने पर खुद को दबाए खड़ी थी.

गाड़ी में 2 लोग और थे जिन के उतरने के बाद पिछली सीट पर बीच में मेहुल के साथ अगलबगल शुचि और सांभवी हो गए थे. अब शुरू थी शुचि की प्रश्नलीला- सरसर करते दुनियाभर के सवाल. ‘‘आप ने इस में कोमल गांधार के साथ तीव्र ‘म’ लगाया, तार सप्तक पर जा कर पंचम को बीच में क्यों छोड़ दिया, हमें इस तरह तो नहीं बताया था?’’ सांभवी समझ रही थी सब. जायज सवालों के जरिए नाजायज अधिकार जता रही थी शुचि.

सांभवी को तीव्र वेदना ने आ घेरा और वह माइग्रेन की शिकार हो गई.

शुचि का घर गली के अंदर था, बाहर ही जीप रुकी और मेहुल शुचि को घर तक छोड़ने गया.

बेहयाई की हद नहीं कोई. अब अकेले अंधेरे में इतना सारा रास्ता उस बेशर्म लड़की के साथ. पता नहीं अकेले में क्याक्या गुल खिला दें दोनों.
याद आता है शादी का वह शुरुआती दौर. अपना बनाने के लिए सांभवी ने मेहुल को ले कर क्याक्या यत्न किए थे. कोई उत्सव या अवसर हो तो विशेष उपहार विशेष तरीके से देती, चुहल, हंसी, गुदगुदी, ठिठोली, खेलखेल में प्रेमनिवेदन, आंखों में मस्ती की भाषा आदि क्या कुछ न करती वह ताकि मेहुल के साथ अपनापन बढ़े, जीवंत अनुभूतियां दिनोंदिन फलेफूलें.

मेहुल शांत रहता, जैसे जमी हुई बर्फीली नदी. कितने ही कंकड़ फेंको, कोई हलचल नहीं. ऐसे शांत रहता जैसे सांभवी के मानसिक विकास पर उसे कोई शक हो, जैसे कि पतिपत्नी के बीच इन बातों का कोई महत्त्व ही नहीं. ये बातें बचकाना हरकत थीं मेहुल के लिए.

अब तो मेहुल के प्रति वाकई उस के मन में घृणा की कठोर काई जम गई है.

मेहुल शुचि को घर तक छोड़ वापस सांभवी के पास बैठ गया और ड्राइवर को रास्ते का निर्देश दे सांभवी की ओर देखा. वह आंखें बंद किए हुए माइग्रेन से जूझने की भरसक कोशिश में थी.

मेहुल ने पूछा, ‘‘कैसा लगा प्रोग्राम?’’

‘‘कौन सा प्रोग्राम? शुचि वाला या स्टेज वाला?’’

‘‘क्या कह रही हो, समझ कर कहो?’’ मेहुल का स्वर गंभीर हो गया था.

‘‘क्या इस लड़की का तुम्हारे बदन में लोटपोट होना जरूरी है? क्या बाकी बच्चे नहीं सीख रहे हैं तुम से? तुम मना नहीं कर सकते हो? पर मना करने के लिए तुम्हें भी तो उस की यह हरकत गलत लगनी चाहिए.’’

सांभवी को उम्मीद थी कि मेहुल उसे डांट कर चुप करा देगा जैसा कि अकसर लोग अपनी गलतियां छिपाने के लिए करते हैं.

मेहुल एक कठोर मौन साध गया. घर जा कर भी चुप और फिर सुबह स्कूल जाने तक, बस, चुप ही.

सुबह मेहुल के स्कूल चले जाने के बाद सांभवी ने स्वप्निल को फोन लगा दिया.

शायद, अब बांध टूट ही जाना था. परवा नहीं कि साथ में क्याक्या बह जाएंगे.

‘‘स्वप्निल,’’ एक कांपती, तरसती, दर्दभरी आवाज स्वप्निल पहली बार सुन रहे थे जिस में ‘जी’ के बिना एक अनकही निकटता पैदा हो गई थी.

‘‘अरे, क्या हुआ?’’ उधर से चिंतित स्वर.

‘‘अभी कहूं?’’

‘‘हां, कहो, मैं औफिस के लिए निकलने वाला था, रानू निकल गई है, बोलो?’’

सांभवी स्वप्निल की पत्नी रानू की अनुपस्थिति की सूचना से कुछ आश्वस्त हुई और बोली, ‘‘स्वप्निल.’’

‘‘कहो सांभवी.’’

‘‘मैं आप को देखना चाहती हूं, स्वप्निल. बहुत साल हो गए. मैं और कुछ नहीं सुनना चाहती.’’

‘‘मेहुल ने सताया,’’ स्वप्निल ठिठोली करते हुए सांभवी को शायद सचाई का आईना दिखाना चाहते हों, लेकिन सांभवी अपने मन के बिखरे कांच को इस वक्त अलगअलग नाम देने में समर्थ नहीं थी. उस ने शिद्दत से कहा, ‘‘स्वप्निल, मैं आप से मिलने को कह रही हूं. मेहुल की बात मत करो.’’

‘‘अच्छा, ठीक है. तुम्हारे शहर आऊंगा अगले महीने, एक साहित्यिक पत्रिका का उद्घाटन समारोह है. होटल ड्रीम टावर में ठहरूंगा, वहीं मिलेंगे हम. मैं वक्त पर सारा डिटेल दे दूंगा तुम्हें.’’

‘‘नहीं जानती यह महीना कैसे बीतेगा लेकिन इंतजार करूंगी, स्वप्निल.’’

स्वप्निल ने फोन रख दिया था और सांभवी दर्दभरे ग्लेशियर से फिसलतीबहती जाने कहां गिरती जा रही थी. उस से रहा नहीं गया, दोबारा फोन किया, कहा, ‘‘मैं क्यों टूटी जा रही हूं, स्वप्निल? क्या आप सुनना नहीं चाहेंगे? मैं आप से अपना दिल साझा करना चाहती हूं.’’

स्वप्निल सांभवी को टटोल चुके थे, कहा, ‘‘डियरैस्ट, तुम एक राइटर हो, जो झेल रही हो उसे तुम एक बार खुद क्रिएट करो. वह राइटर खुशनसीब होता है जो संघर्ष झेल कर, आग से गुजर कर कुछ नया रचता है. अब जो लिखोगी वह बेहतरीन होगा. प्लीज, इसी वक्त तुम प्लौट तैयार करो. तुम अपनी इसी मानसिक दशा को पकड़ो. जरूरत पड़े तो मुझे अपनी चाहतों में ढालो, तुम स्वतंत्र हो. मगर अभीअभी क्रिएट करो.

सारे दर्द, सारी सुप्त वासनाओं में रंग भरो. पूरी आजादी के साथ. अभी कई सारी बेहतरीन कहानियां चाहिए मुझे. और मैं जब आऊंगा तो तुम्हारे अंदर और कई कहानियां पैदा कर जाऊंगा.

‘‘बी अ स्मार्ट प्लेयर, अ डांसिंग प्लेयर. समझ गई न मेरी बात, डियरैस्ट.’’

सम्मोहित सी सांभवी ने कलम पकड़ ली. कहानियों के रूप में मन के उथलपुथलभाव जिंदा होने लगे. एक के बाद एक, लगातार कई दिन, कई कहानियां- ‘जिंदा आग’, ‘बर्फ का अंटार्टिक’, ‘ज्वलंत प्रश्न’, ‘जागृत कामनाएं’.

यहीयही चाहिए था स्वप्निल को लेकिन सांभवी को?

कहानी दे कर सांभवी ने संदेश भेजा स्वप्निल को- ‘‘मैं आप को खुश कर पाई न, स्वप्निल?’’

‘‘हां, बेहद.’’

‘‘हया की दीवारों ने मुझे मरोड़ रखा है, स्वप्निल. मेरा दम घुट रहा है. मैं तब से क्याक्या कहना चाहती थी आप से जब हमारी पहली मुलाकात थी.’’

‘‘क्या बात, कभी बताया नहीं. खामखां कितना ही वक्त बरबाद हुआ. चलो फिर भी जिंदगी नहीं गुजार दी कहने से पहले. शुरू होगी अब एक नई कहानियों की शृंखला. गुजर कर दरिया ए फना से. क्यों, है न?

‘‘मोहब्बत में तो मौत का दरिया भी बाढ़ ए बहारां हो जाता है. कहानियां क्या जबरदस्त होंगी सांभवी. मैं तुम से मिलने को उत्सुक हूं, सच.’’

‘‘सिर्फ कहानियों के लिए?’’

‘‘किस ने कहा?’’

‘‘तुम से ही तो मेरी कहानियां हैं. तुम तो मेरे लिए सब से महत्त्वपूर्ण हो. क्या मैं जिसतिस से यह बात कह सकता हूं?’’ स्वप्निल डुबो ले जा रहा था सांभवी को.

तीन रातों से मेहुल पास बर्फ सा पड़ा रहता है. वह तड़पती है बगल में आग सी. तीन रातों से लगातार वह स्वप्न देखती है. आज भी देख रही है. बंद पलकों से दर्द उछल कर बाहर आ रहा है. वह चिंहुकती है. मेहुल उसे धीरे से छूता है. उस के ललाट पर अपना हाथ रखता है. वह अचानक चीख उठती है, ‘‘स्वप्निल, नहींनहीं, आह, बचो, उड़, चला दिया उस ने ट्रक तुम्हारे ऊपर. मार डाला मेहुल ने तुम्हें. आह, मैं तुम्हें बचा नहीं पाई. एक बार तुम से मिल नहीं पाई. प्यासी बंदिनी मैं. न प्रेम दिया उस ने, न करने ही दिया.’’

मेहुल उठ कर बैठ गया था. पास आ कर उस के सिर को सहलाते हुए उस ने धीरेधीरे बुलाया, ‘‘सांभवी, उठो. तुम ठीक हो. घबराओ नहीं, सब ठीक है. किसी को कुछ नहीं हुआ.’’

उस ने आंखें खोलीं जो खुली ही रह गईं, सामने साक्षात मेहुल. सुबह की लाली फूटने को थी. मेहुल को देख अफसोस और क्रोध से वह टूटी जा रही थी. वह पीछे घूम मुंह फेर कर लेट गई. उसे बुखार था. पीछे मेहुल लेट गया.

एक मौन पश्चात्ताप का सागर दोनों के बीच बह रहा था. दोनों डूबे पड़े थे उस में. लेकिन निकलने की कोशिश किसी में नहीं थी.

सुबह के 8 बज रहे थे. कोई हलचल नहीं दिखी सांभवी में तो मेहुल चाय बना लाया. हौले से पुकारा उसे जैसे खुद की खुशी के लिए अपने दर्द को भुला कर सांभवी को माफ कर देना चाहता है वह.

सूरज की तेज रोशनी जैसे अब सब स्पष्ट कर देने पर आमादा थी.

‘‘क्या तुम स्वप्निल के पास जाना चाहती हो?’’

‘‘क्या तुम मुझे जाने के लिए कहना चाहते हो?’’

‘‘सांभवी…’’

‘‘ताकि शुचि…’’

‘‘सांभवी?’’ इस बार मेहुल का स्वर काफी तीक्ष्ण था.

‘‘क्या हुआ?’’ सांभवी के चेहरे पर व्यथा और विद्रूप के मिश्रित भाव उभर आए थे, ‘‘बहुत प्यारा नाम है न, उस के बारे में कोई बात अच्छी कैसे लगेगी?’’

‘‘तुम से इतनी नीचता की आशा मैं ने कभी नहीं की थी. तुम ने अगर पहले ही पूछा होता, मैं बता देता अब तक लेकिन लगातार तुम ने बिना समझे व्यंग्य और आघात का सहारा लिया. जानने की कोशिश किए बिना ही सब समझ चुकी थी तुम.

‘‘शुचि के पिता की सालभर पहले कैंसर से मौत हुई. वे मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे. हम से 3 साल बड़े थे. गांव से शहर हम एकसाथ स्कूल आते थे. फिर मैं शहर आ गया और वे गांव में ही खेतीकिसानी करते रहे. शुचि की मां की अचानक मृत्यु के बाद शुचि को उन्होंने इस शहर में अपने छोटे भाई के परिवार में भेज दिया और मुझे शुचि के एडमिशन से ले कर पढ़ाई व संगीत सिखाने का दायित्व दिया. सालभर पहले एक बार मैं गांव गया था, तुम्हें याद होगा, उस वक्त शुचि मेरे साथ ही गई थी क्योंकि मेरा दोस्त और उस के पापा मौत के कगार पर खड़े हम दोनों को साथ बुला रहे थे. मेरे जाते ही शुचि को मेरे हाथ में सौंप कर कहा, ‘अब से ये तेरी बेटी, भले तेरा अपना घरपरिवार रहे, तू पिता भी बने, यह अपने चाचा के पास रहे. लेकिन अब से यह तेरी बेटी हुई.’’

मैं ने दोस्त की ओर देख कर कहा, ‘‘शुचि मेरी बेटी और मेरी ही बेटी है.’’ दोस्त ने आंखें मूंद लीं.’’

सांभवी को अपने व्यवहार पर अफसोस तो खूब हुआ लेकिन जरा अहं आड़े आ गया, कहा, ‘‘जब ऐसी बात थी तो इतनी चुप्पी की क्या जरूरत थी? पहले ही कह देते.’’

‘‘चलो, अब कह देता हूं. तुम स्वप्निल के पास जाना चाहती हो तो आजाद हो.’’

पिघलती सी सांभवी फिर से अचानक जम गई. मेहुल क्या वाकई उसे नहीं चाहता, चाहता तो सुधरती हुई बात को बिगाड़ता क्यों भला? वह उठ कर चली गई.

सांभवी ने मेहुल को चुभोने के लिए स्वप्निल को मेहुल के सामने ही फोन किया, ‘‘स्वप्निल, क्या मैं ही आ जाऊं तुम्हारे पास हमेशा के लिए?’’

‘‘डियरैस्ट, कुछ अच्छा पाने के लिए सब्र की जरूरत होती है. तुम क्यों नहीं तब तक अपने लेखन पर ध्यान लगाती?’’

सांभवी को दिमाग में दर्द के गरम सीसे पिघलते से लगे. कई तरह की भावनाओं के जोड़घटाव, गुणाभाग में उलझ कर वह पस्त हो गई और बिस्तर पर निढाल पड़ गई.

दो दिनों तक मेहुल और सांभवी पतझर से बिखरे रहे.

तीसरे दिन मेहुल आ कर सोफे पर सांभवी के पास बैठ गया. वह दीवारों को ताकती शून्य सी बैठी थी.

‘‘तो क्या सोचा, कब जा रही हो स्वप्निल के पास?’’

‘‘क्या बात क्या है? जाना जरूरी है क्या?’’

‘‘क्यों नहीं, मेरे पास रह कर तो तुम प्यासी बंदिनी हो.’’

‘‘हां, हूं. उस से ज्यादा क्या हूं? तुम ने जाना है कभी खुद को?’’

‘‘मैं बुरा हूं तो तुम किसी के पास भी चली जाओगी?’’

‘‘तुम कैसे जानते हो वह कैसा है? सोनोग्राफी करवाई उस के आंत की?’’

‘‘हां करवाई.’’

‘‘क्यों, तुम उस के पास जाना चाहती हो इसलिए.’’

‘‘क्यों, तुम्हें क्या?’’

‘‘क्यों नहीं, उसे बिना परखे कैसे जाने दूं तुम्हें?’’

‘‘क्यों, बताओ?’’

‘‘क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम ऐसे हाथ में पड़ो जहां तुम्हारी कद्र नहीं. वह अपने परिवार और बच्चे के आगे तुम्हारा मोल कौड़ी का भी नहीं रखता. उस के लिए तुम कहानियों की एक मशीन हो, बस. क्या तुम कुछ भी नहीं समझती? उस के लिए उस की बीवी सब है, तुम नशे की हालत में हो.’’

‘‘जहन्नुम में जाने दो मुझे, मैं ने खुद को तुम पर थोप कर देख लिया बहुत.’’

‘‘नहीं,’’ मेहुल लिपट गया उस से. सांभवी का चेहरा उस के हाथों में था. मेहुल के होंठ सांभवी की आंखों के उन भारी पलकों पर आ कर रुक गए थे जहां जाने किन सदियों से अभिमान के घने मेघ जमे थे.

सांभवी ने मेहुल के कंधे पर सिर रख दिया.

पूरी तरह निढाल हो कर वह जैसे पहली बार सुकून की सांस लेने लगी और शोख हवाओं को अभी ही मस्ती सूझ पड़ी. इन के गुदगुदाते स्पर्श ने उन्हें इस कदर बेकाबू कर दिया कि वे दोनों हरसिंगार के फूलों की तरह एकदूसरे पर बिछबिछ गए. अब मेहुल समझ रहा था कि पतिपत्नी बन जाने के बाद भी शोखियों की कारगुजारियां कितनी मदमस्त और जिंदादिल होती हैं और रिश्तों की मजबूत बुनावट के लिए कितना जरूरी भी.

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