दीवाली रोशनी व मिठाई का त्योहार है. मुंह मीठा करने व खुशी व्यक्त करने का त्योहार है. बौलीवुड की फिल्मों में दीवाली के त्योहार को बहुत ज्यादा महत्त्व नहीं दिया गया. इस त्योहार का चित्रण करते हुए बस धार्मिक पूजापाठ ही दिखाया गया. कुछ फिल्मों में घर को रोशन करने के अलावा पटाखे फोड़ने को अहमियत दी गई, मगर पटाखों से हमेशा दुर्घटना ही दिखाई गई क्योंकि बौलीवुड के फिल्मकारों की नजर में यह ऐसा त्योहार है जिस में उन्हें नाटकीयता लाने का अवसर कम मिलता है. बौलीवुड फिल्मों में तो होली, करवाचौथ, गणेशोत्सव व नवरात्रोत्सव का जरूरत से ज्यादा चित्रण व महिमामंडन ही नहीं बल्कि इन त्योहारों को अतिभव्यता के साथ पेश किया जाता रहा है.

बौलीवुड के लिए दीवाली का त्योहार हमेशा पारिवारिक पुनर्मिलन का त्योहार व मुंह मीठा करने या यों कहें कि मिठाई बांटने का त्योहार ही रहा. मसलन, साल 2000 में प्रदर्शित फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ दीवाली की छुट्टियों के दौरान घर लौट कर लड्डुओं का स्वाद लेने और परिवार की गर्मजोशी को गले लगाने की भावना को खूबसूरती से दर्शाती है, जो रायचंद परिवार के असाधारण उत्सवों की याद दिलाता है. यह अलग बात है कि आम जीवन में दीवाली के उत्सव में रायचंदों जैसी भव्यता के दर्शन नहीं होते. दीवाली के दौरान प्रियजनों के साथ पुनर्मिलन की भावना घर से दूर रहने वाले हम में से कई लोगों के साथ गूंजती है.

यों तो फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ में मुख्य रूप से जया बच्चन और शाहरुख खान यानी कि मांबेटे के बीच त्योहार को दिखाया गया है, लेकिन यह प्रतिष्ठित दीवाली दृश्य हर सिनेप्रेमी के दिल में बसा हुआ है. ‘कभी खुशी कभी गम’ वर्ष 2001 की आखिरी फिल्म थी, जिस का मुख्य कथानक रोशनी के त्योहार पर केंद्रित था.

‘कभी खुशी कभी गम’ से पहले संजय दत्त, महेश मांजरेकर निर्देशित 1999 की फिल्म ‘वास्तव’ में दीवाली पर घरवापसी दिखाई गई है. उस में खूंखार गैंगस्टर रघु (संजय दत्त) है जो अपने परिवार के साथ दीवाली मनाने के लिए जबरन अपने ठिकाने से हर वर्ष निकलता है, जबकि उस का परिवार ऐसा नहीं चाहता पर रघु (संजय दत्त) को अपनी मां (रीमा लागू) से मिलना होता है.

पारिवारिक पुनर्मिलन के अलावा दीवाली का त्योहार देसी जोड़ों के लिए फ्लर्ट करने हेतु सामाजिक रूप से स्वीकृत क्षण के रूप में भी चित्रित किया गया. 1994 में आई क्लासिक फिल्म ‘हम आप के हैं कौन’ में 14 गीतों में से एक परिवार के दीवाली उत्सव को समर्पित है. इस गाने के दौरान निशा (माधुरी दीक्षित) और प्रेम (सलमान खान) का प्यार परवान चढ़ता है.

लेकिन 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत के साथ ही सिनेमा से ‘दीवाली’ का त्योहार गायब हो गया, उस की जगह होली और करवाचौथ का खुमार चढ़ता गया. वास्तव में दीवाली के त्योहार में फिल्मकार अपनी आदत के अनुसार ‘उन्मुक्तता’ व ‘घटियापन’ नहीं परोस पा रहे थे, जबकि यह सब वे होली व करवाचौथ में आसानी से पिरो रहे थे. यह अलग बात है कि अब सिनेमा से ये त्योहार भी गायब हो रहे हैं, क्योंकि सिनेमा में परिवार ही नहीं रहे.

1997 में प्रदर्शित कमल हासन की क्लासिक फिल्म ‘चाची 420’ में दीवाली को खुशियां बांटने के त्योहार के रूप में चित्रित किया गया है. फिल्म का एक दृश्य प्रमुख प्रेरकशक्ति के रूप में काम करता है. कथानक के अनुसार, नामधारी पात्र अपनी बेटी के लिए एक गवर्नेंस के रूप में काम करता है, जिसे एक युवा फातिमा सना शेख ने निभाया है, जब एक गलत पटाखे से वह घायल हो जाती है तो उसे वह बचाता है.

अभिनेत्री तब्बू, जूही चावला, गोविंदा और चंद्रचूड़ सिंह अभिनीत फिल्म ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ में दीवाली और छुट्टियों के जश्न को ले कर एक गाना ‘आई है दीवाली…’ है जो पूरे महल्ले को दीयों से जगमगाती सड़क पर इकट्ठा करता है.

अभिनेत्री श्रीदेवी अभिनीत फिल्म ‘सदमा’ में दीवाली का दृश्य दिल दहलाने वाला है. दीवाली मनाने के लिए श्रीदेवी और कमल हासन फुल्झड़ियां और पटाखे जलाते हैं. इस सीन में ‘ऐ जिंदगी गले लगा ले…’ गाना है.

अभिनेता आमिर खान द्वारा निर्देशित फिल्म ‘तारे जमीन पर’ में ईशान अपने परिवार द्वारा उसे बोर्डिंग स्कूल भेजने के फैसले से परेशान हो कर दीवाली नहीं मना पा रहा है. दर्शक देखते हैं कि वह उदास बैठा है, जबकि उस के परिवार और पड़ोस के बाकी लोग पटाखे फोड़ कर दीवाली मनाते हैं, जिस का वह आनंद लेता था.

दीवाली रोशनी का त्योहार है, जिसे पर्यावरण-अनुकूल तरीके से मनाया जाना चाहिए. इस संदेश को देने के लिए शाहरुख खान की फिल्म ‘स्वदेश’ में मोमबत्तियों को जला कर व आकाश में चमकते तारों यानी कि कृति की अपनी चमकती रोशनी से दीवाली मनाई गई. इस दृश्य में शाहरुख खान का नृत्य भी है. दीवाली की भावना को ‘स्वदेश’ में सरल लेकिन शक्तिशाली क्षणों में सब से अच्छी तरह कैद किया गया है.

बौलीवुड वालों की दीवाली

बौलीवुड से जुड़े लोगों के लिए दीवाली का त्योहार सदैव मिठाइयां बांटने और अपने घर को रोशन करने व घर के अंदर खानापीना तक ही सीमित रहा है. पहले राज कपूर से ले कर अमिताभ बच्चन तक तकरीबन सभी दिग्गज कलाकार अपने घर में ‘दीवाली मिलन समारोह’ का आयोजन करते थे, जहां लोग एकदूसरे को शुभकामनाएं देने व गले मिलने से ले कर मिठाइयों या उपहारों का आदानप्रदान करते थे. तब तक दीवाली के दिन फिल्मी हस्तियों के बौलीवुड से जुड़े लोगों, तकनीशियन आदि के अलावा पत्रकारों के घरों तक मिठाई व अन्य उपहार भिजवाने का चलन था.

अभिनेता शाहरुख खान तो नियम से सभी के घर उपहार भिजवाते रहे हैं लेकिन 2014 के बाद धीरेधीरे बौलीवुड कई खेमों में बंटता चला गया. कोविड 19 की महामारी के बाद से तो बौलीवुड के दिग्गज भी अपनेअपने घर तक ही सीमित हो कर रह गए हैं. आज हालत यह है कि बौलीवुड की फिल्मों के साथ ही बौलीवुड से दीवाली का त्योहार गायब सा हो गया है.

लेकिन दीवाली के त्योहार की छुट्टियों का फायदा लेने के लिए दीवाली पर फिल्में प्रदर्शित करने को ले कर जरूर मारामारी होती रही है, जोकि आज भी बदस्तूर जारी है. इस बार दीवाली के अवसर पर एक नवंबर के दिन बड़े बजट की 2 फिल्में प्रदर्शित होने वाली हैं. इन में से एक अनीस बज्मी निर्देशित ‘भूल भुलैया 3’ तथा दूसरी रोहित शेट्टी निर्देशित ‘सिंघम अगेन’ है. ‘भूल भुलैया 3’ में कार्तिक आर्यन, विद्या बालन, माधुरी दीक्षित, विजय राज, राजेश शर्मा, राजपाल यादव व तृप्ति डिमरी हैं तो वहीं ‘सिंघम अगेन’ में अजय देवगन, अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोण, रणबीर कपूर, टाइगर श्रौफ, करीना कपूर, अर्जुन कपूर व जैकी श्रौफ जैसे सितारे हैं.

टीवी सीरियलों में दीवाली का त्योहर बन गया इवैंट

2001 में प्रदर्शित फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ के बाद बौलीवुड फिल्मों से दीवाली का त्योहार गायब हो गया, जबकि टीवी सीरियलों में दीवाली का त्योहार महज एक इवैंट मात्र बन कर रह गया. किसी इवैंट को जिस तरह से बहुत बड़ा बनाने का प्रयास होता है उसी तरह टीवी सीरियलों में दीवाली के त्योहार को ‘पांच दिन के त्योहार’ यानी कि पांच दिन का इवैंट मान कर चित्रित किया जाता है.

टीवी सीरियल के निर्माता ऐसा करते हुए अपने सीरियल के एपिसोड बढ़ाने व टीआरपी बटोरने पर ही सारा ध्यान देते हैं. टीवी सीरियलों में दीवाली का त्योहार मेलोड्रामा के अलावा कुछ नहीं होता. टीआरपी के मद्दे नजर टीवी सीरियलों मे पकवान व मिठाई बनाने या इन की खरीदारी करने से ले कर पटाखों की खरीदारी, घर को रंगबिरंगे बल्बों आदि से सजाने, पूजा की वस्तुओं की खरीदारी, पूजापाठ करना घर के अंदर या बाहर रंगोली बनाना, पटाखे फोड़ना, फुल?ाडि़यां जलाना आदि को अतिभव्य तरीके से फिल्माया जाता है. मगर अफसोस कि टीवी सीरियलों के दीवाली दृश्य दर्शकों को आकर्षित करने में सफल नहीं होते.

आम जीवन में दीवाली या उत्सव गायब, महज दिखावा

फिल्मों से दीवाली के गायब होने की मुख्य वजह यह है कि आम इंसानी जिंदगी से ही दीवाली का उत्सव गायब हो चुका है. आम जीवन से दीवाली या उत्सव को गायब करने में डिजिटलाइजेशन, तकनीकी विकास के साथसाथ राजनीतिक हालात भी जिम्मेदार हैं. इंसान पहले उत्सव मनाने में यकीन करता था. पहले हर इंसान के लिए ‘दीवाली’ या ‘होली’ को उत्सव के तौर पर मनाना भी मनोरंजन का एक साधन था. लोग दीवाली के त्योहार की तैयारी कम से कम एक माह पहले से करना शुरू कर देते थे. एक माह पहले से ही बाजार विभिन्न तरीकों के पटाखों, खिलौने वाली बंदूकों, तरहतरह के पकवानों, शुभकामनाएं भेजने के लिए ग्रीटिंग कार्ड्स, रंगोली के लिए कई तरह की डिजाइनें व रंग, मिट्टी के विभिन्न डिजाइनों व रंगों की दीया आदि की दुकानों से पट जाते थे. लेकिन अब ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता. दीवाली के एक सप्ताह पहले से ही दीये और पटाखों की कुछ दुकानें नजर आती हैं.

अब आम इंसान के लिए दीवाली का त्योहर मनाना महज परंपरा का पालन व मजबूरी मात्र है. बड़े शहरों में कुछ धनाढ्य लोग जरूर अपने पैसों का दिखावा इस दिन करते हुए नजर आते हैं. अन्यथा आम इंसान अपने घरों के दरवाजे या खिड़की पर बाजार से चाइना निर्मित छोटे बल्बों की एक लड़ी लगा कर घर को रोशन करने की रस्म निभा लेता है. वह घर के अंदर परिवार के साथ बैठ कर लक्ष्मीजी की पूजा कर, दोचार दिए जला व शगुन के नाम पर कुछ पटाखे फोड़ देता है. अब दीवाली की शुभकमानाओं के ग्रीटिंग कार्ड भेजने की परंपरा खत्म हो गई है. लोग व्हाट्सऐप पर संदेश भेज कर अपना कर्तव्य निभा लेते हैं. अब तो लोग एकदूसरे के घर जाने से भी दूरी बनाने लगे हैं. उपहारों का आदानप्रदान भी व्हाट्सऐप तक ही सीमित हो कर रह गया है. सच कहें तो इंसान धीरेधीरे एकाकी होता जा रहा है, जिस का असर दीवाली जैसे त्योहार पर भी नजर आता है.

दीवाली में घटती रुचि

वास्तव में फिल्मों से दीवाली के गायब होने के बाद अब आम जनमानस इस त्योहार के साथ जुड़ नहीं पाता. फिल्मों में दीवाली का त्योहार किसी धर्म विशेष तक सीमित नहीं रहता था पर एक तरफ फिल्मों से दीवाली के गायब होने और दूसरी तरफ 2014 के बाद देश में राजनीतिक माहौल बदलने के साथ ही देश के अंदर धर्म को ले कर काफी लंबीचौड़ी दीवारें खड़ी हो गई हैं तो वहीं महंगाई अपना काम कर रही है. तीसरी तरफ सरकार व अदालती आदेश के चलते भी लोगों का पटाखों आदि से मोह भंग हो गया है. कोई भी इंसान पटाखे जलाते हुए खुशी के माहौल को बेवजह पुलिस आदि के चक्कर में पड़ कर दुखदायी नहीं बनाना चाहता.

दीवाली का महत्त्व हिंदूवादी संगठनों व वर्तमान सरकार के लिए भी माने नहीं रखता. यदि लोग ध्यान देंगे तो पता चलेगा कि जब 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी बने थे तब उन्होंने हिंदू चेतना जगाने के मकसद से गुजरात में ‘वायब्रैंट गुजरात’ का नारा देते हुए नवरात्रोत्सव को गरबा व डांडिया खेलने का एक इवैंट बना दिया था. धीरेधीरे गुजरात ही नहीं, यह ‘गरबा व डांडिया’ इवैंट बहुत बड़े पैमाने पर पूरे देश के ढेर सारे शहरों में होने लगे. इस इवैंट से गायकों, डांडिया बनाने वालों, इवैंट में जा नाचगा कर मनोरंजन पाने वालों के लिए नईनई पोशाकें बनाने वालों का एक नया धंधा शुरू हो गया. फिर 9 दिनों के नवरात्रोत्सव में हर दिन के लिए अलगअलग रंग की पोशाक का सिलसिला शुरू कर दिया गया.

इसी तर्ज पर गणेशोत्सव भी मनाया जाने लगा, जिस के चलते हर गणेश पंडाल के सामने कतारें लगने लगीं. वर्ष 2000 से पहले मुंबई के ‘लाल बाग का राजा’ के दर्शन हर इंसान बड़े आराम से कर लेता था, तब कतारें नहीं लगती थीं, तब वहां भीड़ नहीं होती थी, पर 2002 के बाद ही यह भी इवैंट हो गया. इवैंट का मतलब बाजारीकरण हो गया तो खुद राज्य सरकारें व वर्तमान केंद्र सरकार से जुड़े लोगों की रुचि गणेशोत्सव और नवरात्रोत्सव में है पर ऐसा लगता है कि दीवाली में अब कोई रुचि नहीं रह गई है.

दीवाली ऐसा त्योहार है जिसे हजारों या लाखों लोग एकसाथ किसी जगह पर इकट्ठा हो कर नहीं मना सकते. इसलिए भी सरकार ने इस तरह के त्योहार पर कई तरह की पाबंदियां लादते हुए धीरेधीरे लोगों के अंदर दीवाली मनाने का उत्साह ही खत्म कर दिया है.

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