15 अगस्त, 1947 को भारत को जो आजादी मिली वह सिर्फ गोरे अंगरेजों के शासन से थी. असल में आम लोगों, खासतौर पर दलितों व ऊंची जातियों की औरतों, को जो स्वतंत्रता मिली जिस के कारण सैकड़ों समाज सुधार हुए वह उस संविधान और उस के अंतर्गत 70 वर्षों में बने कानूनों से मिली जिन का जिक्र कम होता है जबकि वे हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं. नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी का सपना इस आजादी का नहीं, बल्कि देश को पौराणिक हिंदू राष्ट्र बनाने का रहा है. लेखों की श्रृंखला में स्पष्ट किया जाएगा कि कैसे इन कानूनों ने कट्टर समाज पर प्रहार किया हालांकि ये समाज सुधार अब धीमे हो गए हैं या कहिए कि रुक से गए हैं.
15 अगस्त, 2024 को लालकिले से सैक्युलर सिविल कोड और उस के जुड़वां भाई कम्युनल सिविल कोड शब्दों का जन्म हुआ है वरना तो इन शब्दों का जिक्र किसी शब्दकोष, कानूनी किताब या संविधान में नहीं मिलता. 15 अगस्त, 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन शब्दों का इस्तेमाल करते कहा, हम ने कम्युनल सिविल कोड में 75 साल बिताए हैं, अब हमें सैक्युलर सिविल कोड में जाना होगा, तभी हम धर्म के आधार पर भेदभाव से मुक्त हो सकेंगे.
बस, इतना सुनना था कि जल्द ही इन शब्दों के माने और मंशा सामने आ गए कि दरअसल नरेंद्र मोदी यूनिफौर्म सिविल कोड की बात कर रहे हैं. यह बात रत्तीभर भी नई नहीं है, बल्कि यह भाजपा के सनातनी एजेंडे का सनातनी हिस्सा है जिस का मकसद सिर्फ और सिर्फ कट्टर हिंदुओं को खुश करना, पौराणिक एवं धर्म राज स्थापित करना और मुसलमानों को कानूनी डंडा दिखा कर डराना व परेशान करना है, ठीक वैसे ही जैसे तीन तलाक कानून और जम्मूकश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया था और जीएसटी कानून ला कर राज्य सरकारों का संघीय अधिकार कम करना था.
यूनिफौर्म सिविल कोड या सैक्युलर सिविल कोड का समाज के सामाजिक सुधारों से कोई लेनादेना नहीं है. यह बहुसंख्यक हिंदुओं को विवाह या विरासत के कानूनों में कोई छूट देने के लिए बनाया जाने वाला प्रस्ताव नहीं है, यह सिर्फ मुसलिम और ईसाई विवाह, विरासत, तलाक कानूनों में दखलंदाजी का उद्देश्य लिए है.
आज भी हिंदू औरतें पतियों के जुल्मों की मारी हैं. तलाक के लिए वर्षों उन की चप्पलें अदालतों में घिसती हैं. हिंदू समाज विवाह के विषय में जाति और दहेज से मुक्त नहीं हुआ है. विरासत में बेटियों को पराया माना जा रहा है. हिंदू संयुक्त परिवार कानून के कारण रामायण और महाभारत काल से भाईभाई में जो विवाद होता था, आज भी होता है क्योंकि जो सुधार कानूनों ने किए उन्हें लागू करने में लोगों, सरकारों, अदालतों और भगवा गैंग ने स्पीडब्रेकर लगा कर धीमा कर दिया.
संविधान का तुलनात्मक अध्ययन
भगवाई प्रधानमंत्री मोदी के यूनिफौर्म सिविल कोड या सैक्युलर सिविल कोड पर वरिष्ठ कांग्रेसी जयराम रमेश ने, यह कहते कि यह भीमराव अंबेडकर का अपमान है, एतराज जताया है. अफसोस यह है कि उन सहित किसी कांग्रेसी नेता को यह एहसास ही नहीं कि आजादी के बाद से ही कांग्रेस के राज में बिना वोटों की चिंता किए समाज सुधार के जो कानून बने हैं उन्हें गिना कर कभी हल्ला नहीं मचाया गया. कांग्रेस की स्थिति हनुमान जैसी हो गई है जिसे अपनी ताकत का अंदाजा या स्मरण नहीं.
नरेंद्र मोदी की और उन की पार्टी भारतीय जनता पार्टी की हकीकत इस से परे कुछ और है जो बरबस ही जवाहरलाल नेहरू और भीमराव अंबेडकर व उन के बनाए संविधान को तो आरक्षण के कारण कोसती है लेकिन हिंदू कोड बिल की याद नहीं दिलाती कि इसी के बलबूते सैक्युलर सिविल कोड की बात संभव हुई.
आज तक कट्टर हिंदूवादियों के दिमाग से नासूर बन कर हिंदू कोड बिल रिसता है क्योंकि इस का विरोध श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने संसद में पुरजोर तरीके से किया था और यहां तक कह दिया था कि यह बिल हिंदू संस्कृति को टुकड़ों में बांट देगा. जनसंघ इसी कोड बिल के कारण पैदा हुआ जिस के आधार पर आज नरेंद्र मोदी सैक्युलर सिविल कोड की बात कर रहे हैं.
आखिर ऐसा क्या था हिंदू कोड बिल में जिसे 75 साल बाद कम्युनल कहा जा रहा है, इसे समझने के लिए जरूरी है कि उस दौर में झांका जाए और तब के बने संविधान और उस के अंतर्गत बने कानूनों को परखा जाए जिन्होंने समाज सुधारों की एक मजबूत बुनियाद रखी चाहे उन पर बनी इमारतें टेढ़ीमेढ़ी ही हों.
पहले एक नजर पाकिस्तान और बंगलादेश के संविधानों पर डाली जाए तो बहुत सी समानताएं होते हुए भी एक बड़ा फर्क सामने आता है. अविभाजित पाकिस्तान में 3 बार संविधान यानी दस्तूर ए पाकिस्तान बना और तीनों ही बार अल्लाह के नाम पर बना. इसलाम पाकिस्तान का राजकीय धर्म है और तमाम कानून शरीयत के मुताबिक बने. मार्च 1949 में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने पाकिस्तानी संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव पेश करते कहा था कि पूरे ब्रह्मांड पर संप्रभुता अल्लाह की है. मुसलमानों को व्यक्तिगत और सामूहिक क्षेत्रों में इसलाम की शिक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुसार अपने जीवन को व्यवस्थित करने में सक्षम बनाया जाएगा जैसा कि पवित्र कुरान और सुन्ना में निर्धारित किया गया है.
यह प्रस्ताव 1956, 1962 और 1973 के संविधानों में यथावत रहा. तब से ले कर अब तक पाकिस्तान अल्लाह और इसलाम के नाम पर चल रहा है जिस के चलते लोग भूख और अभावों से बिलबिला रहे हैं लेकिन क्या मजाल कि वे एक शब्द भी इन के बारे में बोल पाएं कि ऊपरवाला हमारी सुध क्यों नहीं लेता. यानी, पाकिस्तानियों ने गोरों के हाथों से सत्ता ले कर या तो मौलानाओं को दे दी या रजवाड़ों की तरह रह रहे अशरफ मुसलमानों के हाथों में दे दी.
इंदिरा गांधी के कारण बने बंगलादेश का संविधान भी हालांकि सभी धर्मों को समान दर्जा और सम्मान देने की बात करता है लेकिन हकीकत कुछ और है जो 22 मार्च, 2014 को शेख हसीना ने इसलामिक फाउंडेशन के एक जलसे में इन शब्दों में बयां की थी कि देश मदीना चार्टर और पैगंबर मुहम्मद के अंतिम उपदेश व निर्देशों के अनुसार चलेगा. देश में कभी भी पवित्र कुरान और सुन्नत के खिलाफ कानून नहीं बनेगा. लेकिन 5 अगस्त, 2024 को न तो पवित्र कुरान उन्हें बचा पाया, न अल्लाह कुछ कर पाया और न ही मदीना चार्टर काम आया.
सार यह है कि इन दोनों देशों में भारत जैसा संविधान और कानून नहीं बने तो इस की इकलौती वजह कठमुल्लाओं के हाथों नाचते नेता थे जिन में जवाहरलाल नेहरू की तरह दूरदर्शिता और सख्ती नहीं थी, जिन्होंने कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर के साथ बनाए संविधान और कानून लागू किए और जिन के चलते आज कोई भी भारतीय गर्व से कह सकता है कि हम औरों से कहीं बेहतर हैं और सुकून से जी रहे हैं.
संविधान निर्माण और उठापटक
15 अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हुआ तब हर किसी के मन में यह सवाल था कि अब देश चलेगा कैसे? समाज और देश का भविष्य इसी सवाल के जवाब से तय होना था. 4 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश पार्लियामैंट में एक अधिनियम पारित हुआ था जिस का नाम था- इंडियन इंडिपैंडैंस एक्ट यानी भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 जिसे मंजूरी 18 जुलाई, 1947 को मिली थी. इस के मुताबिक, ब्रिटेन शासित भारत को 2 भागों- भारत तथा पाकिस्तान – में विभाजित किया गया था. इस काम के लिए लौर्ड माउंटबेटन को नियुक्त किया गया था.
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के प्रावधानों के तहत आजादी कई शर्तों पर मिली थी जिन्हें सभी राजनीतिक दलों ने स्वीकार किया था. लेकिन दोनों देशों के सामने तमाम तरह की मुसीबतें सिर उठाए खड़ी थीं. पाकिस्तान घोषिततौर पर इसलामिक राष्ट्र बन गया और मोहम्मद अली जिन्ना वहां के गवर्नर जनरल बने. भारत की कमान संभालने की जिम्मेदारी पंडित जवाहरलाल नेहरू को मिली.
जिन्ना नेहरू की तरह पेशे से वकील थे और नेहरू की तरह लिबास से ही नहीं, बल्कि विचारों से भी आधुनिक थे. कांग्रेस छोड़ कर मुसलिम लीग जौइन कर वे मुसलमानों के सर्वमान्य नेता बन गए थे और मुसलिम हितों की दुहाई देते मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान बनाए जाने की जिद पर अड़ गए थे. इस के पीछे उन की दलील यह थी कि हिंदूबाहुल्य भारत में मुसलमान अमनचैन से नहीं रह पाएंगे.
उन की जिद पूरी तरह नाजायज नहीं थी हालांकि कहीं न कहीं इस के पीछे पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बन जाने की उन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी थी. पाकिस्तान बनने के बाद वे वहां के राष्ट्रपिता करार दिए गए और कायदे आजम की उपाधि भी उन्हें मिली. जिन्ना कानून से चलने वाला पाकिस्तान चाहते थे लेकिन उन का यह सपना पूरा नहीं हो पाया क्योंकि आजादी के एक साल बाद ही टीबी की बीमारी के चलते उन की मौत हो गई. जिन्ना के बाद पाकिस्तान कट्टरवादी मुसलमानों के हाथों में जो पड़ा तो आज तक उन की गिरफ्त में है और इसीलिए दुर्गति का शिकार भी है.
इधर भारत में कानून के राज को ले कर एक और महाभारत छिड़ गया था क्योंकि संविधान का मसौदा हिंदुत्व से यानी मनुस्मृति से मेल नहीं खाता था. विनायक दामोदर सावरकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेता मनुस्मृति को भारत का संविधान बनाना चाहते थे जिस में ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ स्थान जन्म से ही मिलता और अछूतों, जो आज एससीएसटी कहलाए जाते हैं, को शहरों व गांवों के बाहरी क्षेत्र में रहने की जगह मिलती है. हर व्यक्ति को वोट का अधिकार तो इस प्रणाली में सपना होता.
अविभाजित भारत के लिए संविधान बनाने की प्रक्रिया 1946 में शुरू हो गई थी जब प्रोविंसों के चुने प्रतिनिधियों से एक तरह की संसद का गठन हुआ था. 389 सदस्यों वाली संविधान सभा ने 3 वर्षों में संविधान बनाया था और इसे 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया. बहुत से सामाजिक सुधार उसी दस्तावेज की देन हैं जिस पर कांग्रेस और नेहरू की छाप है.
कांग्रेस उस समय भारी बहुमत में थी और जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री पर कट्टर हिंदूवादियों से उन्हें दोदो मोरचों पर लड़ना पड़ रहा था. एक तरफ कांग्रेस विरोधी हिंदूवादी गुट और दल थे, मसलन आरएसएस, हिंदू महासभा, राम राज्य परिषद और मंदिरों व मठों में बैठे तमाम साधुसंत तो दूसरी तरफ वे सवर्ण कांग्रेसी नेता थे जो हिंदू राष्ट्र चाहते थे. इन में वल्लभभाई पटेल, डा. राधाकृष्णन, डा. राजेंद्र प्रसाद भी थे और श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी थे, जिन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा देते भारतीय जनसंघ बनाया था. अब इसे भाजपा के नाम से जाना जाता है.
नेहरू अंबेडकर की जोड़ी
अंगरेज तो चले गए लेकिन हिंदुत्व का मसला या सनातनी विवाद ज्यों का त्यों रहा. नेहरू सोशलिस्ट डैमोक्रैसी चाहते थे लेकिन हिंदूवादी, जिन में कुछ कांग्रेसी भी शामिल थे, एक धार्मिक राष्ट्र की जिद पर अड़े थे जो हिंदू धर्मग्रंथों के मुताबिक चले यानी वर्णव्यवस्था के तहत कानून बनें.
नेहरू ने कहा था, ‘‘जीवन ताश के एक खेल की तरह है. आप को जो हाथ दिया जाता है, वह नियतिवाद है पर जिस तरह से आप इसे खेलते हैं, वह स्वयं इच्छा है.’’ नेहरू ने हर व्यक्ति को अपनी इच्छा से चलने की स्वतंत्रता संविधान से ले कर हिंदू कोड बिल और जमींदारी उन्मूलन से दी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी, जिस की जड़ में हिंदू महासभा, राम राज्य परिषद हैं, के नरेंद्र मोदी ने 2014 में केंद्र की सत्ता में आते ही इसे नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानूनों, लैटरल एंट्री, चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को समाप्त कर छीन ली जिन से आम लोगों के अधिकार कम होने लगे. राज्यों की संघीय शक्तियां भी पिछले 10 वर्षों में कम हुईं.
नेहरू ने जो लड़ाई लड़ी, नई लड़ाई नहीं थी बल्कि आजादी के पहले से चली आ रही थी. दोटूक कहें तो यह लड़ाई सवर्ण उच्च पुरुष बनाम दलित, आदिवासी मुसलमान और सवर्ण औरतें थी. लेकिन इन औरतों की भूमिका अदृश्य थी जिन्हें भीमराव अंबेडकर ने सब से पहले कानूनी तौर पर बराबरी का हक दिया था. हैरत की बात तो यह है कि इन औरतों का अंबेडकर से सीधे कोई लेनादेना ही नहीं था. लेकिन नेहरू और अंबेडकर को उन की चिंता थी कि अगर इन के हक में कानून नहीं बने तो ये पौराणिक युग की महिलाओं जैसे पुरुषों की गुलामी ढोती रहेंगी जिस का असर देश की तरक्की पर भी पड़ेगा. 1937 में चुनाव हुए थे जिन में महज 3 करोड़ वोटर थे जो तब की आबादी के 6ठे हिस्से थे. कुछ ही औरतों को वोट डालने का हक मिला था. प्रोविंसों के चुनावों से चुने लोगों ने कौंस्टीट्युएंट असैंबली चुनी थी जिस ने भारत का संविधान बनाया जिस में हर नागरिक को वोट देने का अधिकार मिला. शूद्रों, दलितों, उन की औरतों और सवर्ण औरतों को पहली बार वोट डालने का मौका मिला.
हिंदू कोड बिल और कट्टरपंथियों का विरोध
वह 11 अप्रैल, 1947 का दिन था जब अंबेडकर ने चुनावों से पहले बनी संविधान सभा के सामने हिंदू कोड बिल का मसौदा पेश किया. तब तक भारत को आजादी भी नहीं मिली थी पर यह पक्का था कि ब्रिटिश भारत का विभाजन होगा. इस बिल के एक प्रावधान के मुताबिक अगर कोई हिंदू पुरुष बिना वसीयत किए मर जाता है तो मृतक की विधवा, पुत्र और पुत्री को उस की संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलेगा. अलावा इस के, बेटियों को भी बेटों की तरह जायदाद में बराबर का हक देने की बात कही गई थी. इतना ही नहीं, हिंदू कोड बिल हिंदू पुरुषों को एक से ज्यादा शादी करने को भी प्रतिबंधित करने की बात कह रहा था और हैरतअंगेज तरीके से महिलाओं को भी तलाक का अधिकार देने की वकालत कर रहा था.
इस के बाद क्या हुआ, यह जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि आजादी के वक्त तक औरतों को, सवर्णों की औरतों को भी, कोई हक ही हासिल नहीं था. उन की हालत घर के आंगन में बंधे मवेशियों सरीखी हुआ करती थी. पति दो, तीन या चार या 16,000 शादियां कर ले तो वे विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं क्योंकि इस का अंजाम होता अहल्या या सीता जैसी श्रापित जिंदगी जीना या फिर घरपरिवार, समाज से निष्काषित हो कर किसी तीर्थस्थल या आश्रम में भीख मांगना व हर कभी शारीरिक शोषण के लिए तैयार रहना. तब की तथाकथित सभ्य ऊंची सवर्ण जातियों के शिक्षित और अभिजात्य समाज में औरतों की यह बदहाली आम थी. उस की हैसियत एक दासी और पांव की जूती जैसी ही हुआ करती थी.
सवर्ण हिंदू समाज औरतों के प्रति कितना क्रूर और बर्बर था (और एक हद तक आज भी है), सतीप्रथा इस का बेहतर उदाहरण है, जिस पर अंगरेजों ने साल 1829 में कानून बना कर रोक लगाई थी. लेकिन इस से समस्या पूरी तरह हल नहीं हो पाई. विधवाएं, खासतौर से सवर्ण विधवाएं, आज भी पारिवारिक, सामाजिक और उस से भी ज्यादा धार्मिक तिरस्कार की शिकार हैं. उन्हें मनहूस की उपाधि मिली हुई है. इस स्थिति से बचने के लिए कई महिलाएं पति की मौत के बाद आत्महत्या कर लेती हैं क्योंकि वे इस अनदेखी को बरदाश्त नहीं कर पातीं. बारबार करवाचौथ को शानोशौकत से मनाना इसी मानसिकता की निशानी है. मंगलसूत्र के नाम पर आज वोट मांगने/लेने की कोशिश वही मानसिकता है.
हिंदू कोड बिल में महिलाओं को संपत्ति का अधिकार देने का अंबेडकर का मकसद यही था कि महिलाएं आत्मसम्मान और स्वाभिमान की जिंदगी जिएं. एक हद तक वे अपने मकसद में कामयाब भी रहे हैं. यानी, कानून बना कर ही समाज सुधार किया जा सकता है. यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह जाती.
हिंदू समाज या धर्मसत्तात्मक समाज का लाभ पुरुषों को मिलता है. यह हकीकत सम?ाते हुए अंबेडकर ने जो कानून बनाए उन्हें देख कट्टरवादी इतना तिलमिलाए थे कि एक दफा तो उन का विरोध देख नेहरू ने इस्तीफे तक की पेशकश कर डाली थी. हिंदू कोड बिल चूंकि कई कुरीतियों को दूर कर रहा था इसलिए कट्टरपंथियों ने जम कर बवाल काटा था. दरअसल इस से ब्राह्मणों, पंडेपुजारियों, पेशवाओं और सामंतों का कारोबार भी खतरे में पड़ रहा था और समाज पर से उन का दबदबा भी खत्म हो रहा था.
तब हिंदूवादियों ने एक दलील यह दी थी कि संसद सदस्यों को जनता ने नहीं चुना है, इसलिए इतने बड़े विधेयक को पारित करने का संसद को अधिकार नहीं है. उधर संसद के बाहर करपात्री महाराज यानी हरिहरानंद उर्फ हरिनारायण ओझा धरनाप्रदर्शनों के जरिए विरोध जता रहे थे.
राम राज्य परिषद के संस्थापक इस संत ने तो यहां तक कह दिया था कि हम एक अछूत का लिखा संविधान नहीं मानेंगे. यह बिल हिंदू धर्म में हस्तक्षेप है. यह हिंदू रीतिरिवाजों, परंपराओं और धर्मशास्त्रों के खिलाफ है. उसी वक्त आरएसएस भी देशभर में प्रदर्शन कर हिंदू कोड बिल की मुखालफत कर रहा था.
निर्णायक कदम
नेहरू ने सियासी जोखिम उठाते साफ कर दिया था कि अगर पहले आम चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला तो ही वे हिंदू कोड बिल वाले कानून बनाएंगे. कांग्रेस को बहुमत मिला तो उन्होंने अपना कहा पूरा भी किया क्योंकि मुसलमानों, दलित, आदिवासियों और महिलाओं ने भी कांग्रेस पर भरोसा जताते इन सुधारवादी कानूनों की बाबत अपनी सहमति नेहरू की अगुआई वाली कांग्रेस को दी थी.
1950 में लागू संविधान का बनाया जाना, उस की एकएक धारा पर लंबी, गंभीर और बेहद सार्थक बहस होना एक उदार नेता की देन है. जवाहरलाल नेहरू इस मामले में महात्मा गांधी और सरदार पटेल जैसे नेताओं से अलग थे. उन्हें राजनीति में क्यों सर्वसहमति का स्थान मिल गया, यह एक रहस्य सा ही है क्योंकि वे कट्टरपंथियों के बीच तार्किक शक्ति थे और बेहद अल्पमत में होते हुए भी अपनी मंशा चला पा रहे थे.
जनता का अधिकार
जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के जरिए देश का समाज पूरी तरह हिला डाला हालांकि उन्हें न तो इस का श्रेय मिला, न उन्होंने नरेंद्र मोदी और भाजपा की तरह इस का ढोल पीटा. उस समय उन्हें छूट थी कि वे 1947 में गवर्नर इन काउंसिल जैसी शासन पद्धति देश पर थोप देते यानी 1935 के गवर्मेंट औफ इंडिया एक्ट, जो ब्रिटिश पार्लियामैंट ने पास किया था, की तरह की सरकार बनाते जिस में न तो हरेक को बराबर माना जाता न ही हरेक को वोट का अधिकार मिलता, न मौलिक स्वतंत्रताएं होतीं. भारत की स्थिति इंगलैंड और अमेरिका से अलग थी. इन दोनों देशों में जनता ने या तो राज्य से या अपने मूल देश से लड़ कर आम जनता के लिए अधिकार हासिल किए थे पर वहां प्लेट में रख कर दिए गए, कांग्रेस की बदौलत.
भारत में आजादी की लड़ाई जनता के मौलिक अधिकारों के लिए हुई ही नहीं थी, तिलक से ले कर नेहरू तक का स्वतंत्रता संग्राम केवल इंगलैंड के शासन से मुक्ति पाने के लिए था. इस का सुबूत है कि तब 1947 में बने पाकिस्तान का शासन सिर्फ गोरे साहबों को हटा कर पंजाबी उर्दूभाषी मुसलमानों के हाथ में आया और मौलिक अधिकार वहां आज तक, असल में, नहीं हैं.
26 जनवरी, 1950 से लागू भारत के संविधान का हर शब्द एक राज्य की प्रभुसत्ता से ले कर जनता को अधिकार देता है. हर आर्टिकल में शासक के हाथ बांधे गए हैं. देश के समाज में जो बदलाव आया है, चाहे वह आधाअधूरा हो, इसी संविधान के कारण आया है और इसे जनता ने लिया नहीं, नेहरू ने दिया. इन अधिकारों के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ी गई.
आज कहा जा सकता है कि हिंदूहिंदू चिल्लाने से समाज का सुधार नहीं होगा. समाज का सुधार या तो जमीनी बदलाव से होता है या कानूनों से जिस के दर्शन पिछले 10 वर्षों से कहीं नहीं हो रहे हैं.
संविधान सहित जो कानून कांग्रेस ने बनाए उन से समाज में भारी बदलाव हुआ पर यह विटामिन की गोलियों की तरह का सा रहा, एंटीबोयोटिक इंजैक्शन का नहीं. दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के बाद मौर्फिन के इंजैक्शन लगा कर समाज सुधारों और जनता के अधिकारों को छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी और इसलिए लगता है कि नेहरू-गांधी और आज के मोदी युग में जो हुआ उसे परखा जाना चाहिए. कई भागों में प्रकाशित किए जाने वाले इस लेख में यही प्रयास किया गया है.
सरिता पत्रिका शासन की हर गलती के लिए अपनी आवाज बुलंद करती रहेगी, चाहे सरकार किसी की भी हो. सरिता का विश्वास है कि पत्रकारिता का अर्थ सत्ता में बैठे लोगों, चाहे वह सत्ता शासन की हो, धर्म की हो, समाज की हो, परिवार की हो, हर गलती को उजागर करे, जम कर उस से संघर्ष करे.
जमींदारी प्रथा का उन्मूलन
कांग्रेस सरकार ने 1950 से कानूनों के जरिए जमींदारी प्रथा भी खत्म करने का काम शुरू कर दिया था. तब जमीनें रसूखदारों की हुआ करती थीं. दलित, आदिवासी और पिछड़े तो बैल की तरह उन में जुते रहते थे. अलगअलग राज्यों ने अपनी सहूलियत से जमींदारी खत्म की तो निचले तबके के लोगों को मालिकाना हक मिलने लगा. आज जो ताकत ओबीसी, एससी के पास है वह जमींदारी प्रथा समाप्त होने के कारण मिली थी. उस ने गांवों में मिल्कीयत को बदला, कुछ जातियों का प्रभाव कम किया.
भारत में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करने के लिए साल 1950 में जमींदारी उन्मूलन कानून बनाया गया था. यह कानून 1 जुलाई, 1952 से लागू हुआ था. इस कानून के तहत, 7 जुलाई, 1949 के बाद किसी भी संपत्ति का हस्तांतरण मान्य नहीं होगा. अगर कोई संपत्ति हस्तांतरित की जाती है तो उसे संपदा हस्तांतरक माना जाएगा. इस कानून के लागू होने के बाद, कृषकों को जमीन का स्वत्वाधिकार वापस मिल गया. इस से कृषकों और राज्य के बीच सीधा संबंध बन गया.
इस कानून को लागू करने से पहले साल 1946 में हुए चुनावों के बाद कांग्रेस के मंत्रिमंडल ने जमींदारी प्रथा खत्म करने के लिए विधेयक पेश किए थे. ये विधेयक साल 1950 से 1955 के बीच अधिनियम बन कर लागू हो गए. कुछ राज्यों, जैसे कि उत्तर प्रदेश और बिहार ने साल 1949 में ही जमींदारी उन्मूलन बिल लागू कर दिया था. अब लोगों को मालिकाना हक मिलने लगा.
भारत में जमीन की मिल्कीयत का कानून हमेशा स्पष्ट रहा है. जब अंगरेज भारत में आए और उन्होंने व्यापार करना शुरू किया तो उन्हें समझ आया कि यहां तो संपत्ति का कोई कानून न हिंदुओं का है न मुसलिम शासकों का. जमीन से लगान मिलना ही राजा की आय थी, इसलिए यह जिम्मा पंचायतों पर छोड़ रखा गया था जो मनमाने ढंग के फैसले करती थीं. अंगरेजों ने 1793 में परमानैंट सैटलमैंट के तहत एकमुश्त रकम के बदले हजारों एकड़ जमीन एक जने को दे दी कि वह जैसे चाहे लगान वसूल करे पर एक तय राशि ईस्ट इंडिया कंपनी को दे.
जमीन का वितरण
यह परमानैंट सैटलमैंट कुछ समय तो चला क्योंकि गोरे या गोरों की दी गई वरदी में भारतीय सैनिकों को लगान वसूल करने के लिए घरघर नहीं जाना पड़ता था. यह परमानैंट सैटलमैंट के अंतर्गत नियुक्त को मिला जो एक तरह से अपने इलाकों के राजा बन गए और उन्होंने हर जुल्म ढाह कर लगान वसूला. उन की शान देखते बनती थी. वे गोरे अफसरों से भी ज्यादा अमीर होने लगे. आजादी की लड़ाई के दौरान ही जमींदारी प्रथा को हटाने की मुहिम शुरू हो गई थी पर अधिकतर जमींदार ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ थे. पहले वे अंगरेजभक्त थे, बाद में धर्मभक्त बन गए.
श्यामाप्रसाद मुखर्जी (जो कांग्रेस छोड़ कर आए थे), बलराज मधोक व दीनदयाल उपाध्याय की बनाई गई भारतीय जनसंघ को इन जमींदारों का पूर्ण समर्थन मिला. जवाहरलाल नेहरू ने ही सभी कांग्रेस राज्य सरकारों के मारफत जमींदारों की जमीनों का अधिग्रहण करा डाला और राजसी समाज को लोकतांत्रिक समाज में बदलने की नींव डाल दी. जमींदारों के लठैतों की शक्ति छीन कर जमीन जोतने वालों को दे दी गई. जमीदारों के लठैतों की लाठी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आज भी प्रतीक है. जमींदारों ने पहले हिंदू भावना, फिर भारतीय जनसंघ और बाद में उन की संतानों ने भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दिया.
भारत की कृषि क्रांति जमींदार उन्मूलन के बिना संभव न हो पाती. स्वतंत्रता के पहले दशक में भारत में अनाज की भारी कमी हुई क्योंकि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, स्कूलों में शिक्षा मिलने और जमींदारी उन्मूलन के कारण आबादी तो बढ़ी पर जमीन पर पूंजी लगाने का पैसा उन किसानों के पास नहीं था जिन्हें जमींदारों से मुक्ति तो मिल गई पर हाथ में कोरी जमीन के अलावा कुछ न था.
जमींदारी उन्मूलन के बाद ही गांवों में समाज सुधार चालू हुआ. जातिबंधन टूटने लगे. गांवों में पुश्तों से राज करने वाले ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों ने शहरों का रुख किया जहां सरकारी और गैरसरकारी नौकरियां मिल रही थीं. गांवों का समाज अगर बदला तो जमींदारी उन्मूलन कानूनों के कारण.
हिंदू कोड बिल का विरोध
कांग्रेस सरकार ने बीच में छोड़े गए हिंदू कोड बिल वाला काम पूरा करने के लिए 1955 में एचएमए विशेष विवाह अधिनियम 1954 और फिर 1955 में भारतीय दंड संहिता में धारा 498ए व आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 198ए की शुरुआत कर के हिंदू विवाह को बदला. विवाह, उत्तराधिकार और गोद लेने के लिए कांग्रेस सरकार द्वारा कानून में जो संशोधन किए गए, उन का विपक्षी पार्टियों द्वारा भयंकर विरोध हुआ. पंडोंपुजारियों ने भी हिंदू समाज को उद्वेलित कर खूब धार्मिक प्रतिरोध किया.
सब से बड़ा विरोध तलाक के प्रावधान को ले कर था, जो हिंदू धर्म के लिए अभिशाप माना जाता था. तब तक बेटियों को उन के मातापिता द्वारा यही कह कर ससुराल के लिए विदा किया जाता था कि अब वही उन का घर है और वहां से ही उन की अर्थी उठेगी. मतलब बेटी अपनी ससुराल में कितनी भी प्रताडि़त हो, मारीपीटी जाए या उस की जान ही क्यों न ले ली जाए मगर वह अपने पति से तलाक ले कर अपने मायके वापस नहीं आ सकती थी. यह स्त्रियों के प्रति हिंदू पितृसत्तात्मक समाज की सब से बड़ी क्रूरता थी, जिस से कांग्रेस ने मुक्ति दिलाई.
चाहे बेटी विवाहित हो या अविवाहित, बेटे और बेटियों को समान उत्तराधिकार के सिद्धांत का भी हिंदू पितृसत्तात्मक समाज द्वारा जम कर विरोध किया गया. विपक्षी पार्टियां और धर्म के ठेकेदार बेटियों को संपत्ति पर हक नहीं देना चाहते थे. वे उन्हें हमेशा पुरुषों पर निर्भर रखना चाहते थे. मगर कांग्रेस पार्टी ने बेटियों को आर्थिक रूप से मजबूत और स्वावलंबी बनाने के लिए घोर विरोध के बावजूद कानून में संशोधन किया.
संविधान के निर्माण और समाज सुधारों में जमींदारी उन्मूलन के बाद सब से बड़ा सुधार 1955 में बना हिंदू मैरिज एक्ट है जिस ने हिंदू समाज को बदल डाला. इन कानूनों के चलते आज के युवा बिना किसी व्यवधान के मनपसंद पार्टनर से शादी कर पा रहे हैं. जातियों का जाल भी अंतर्जातीय शादियों से टूट रहा है. 1955 के मैरिज एक्ट में एक से ज्यादा शादियों को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया. यह उन सवर्ण महिलाओं के लिए किसी वरदान से कम नहीं था जो बातबेबात पर देखते ही देखते अपनी ही सौत का दरवाजे पर स्वागत और आरती उतारने को मजबूर हो जाती थीं. यह मर्दों की मनमानी पर रोक थी लेकिन औरतों की गैरत इसी से सलामत है.
इस एक्ट ने तलाक को कानूनी दर्जा दे कर भी उन की गैरत सलामत रखी और महिलाओं को भी तलाक मांगने का हक मिला जिस से वे कई दुश्वारियों से बच गईं.
एक वक्त में हिंदू पुरुष कभी भी पत्नी को घर से बाहर निकाल देने का अधिकार रखता था जो खत्म हो गया तो विवाह संस्था के सही माने भी सामने आए. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसों ने इस का सख्त विरोध किया. वे संस्कार के नाम पर विवाह को दैविक मानते थे जबकि उन के सामने लाखों विधवाएं जानवरों से बदतर जीवन जी रही थीं.
हिंदू परिवारों में यह एक्ट क्रांतिकारी परिवर्तन लाया जिस के तहत पत्नी दोयम दरजे की और आसानी से छोड़ देने या भगा देने की आशंका से मुक्त हो गई. इस कानून में जो कमियां रह गई थीं उन्हें नेहरू सरकार ने स्पैशल मैरिज एक्ट 1954 बना कर दूर किया. जिस में अंतर्धर्मीय शादियों को कोई सामाजिक और कानूनी मान्यता नहीं थी जो इस कानून के जरिए मिली. इस से पहले विधर्मी से शादी करने के लिए सब को धर्म बदलना होता था.
अधिनियम की खासीयत
इस अधिनयम की खासीयत यह है कि 2 अलगअलग धर्मों के स्त्रीपुरुष कुछ सामान्य शर्तों का पालन करते शादी कर सकते हैं और उस में धर्म व उस के ठेकेदारों का कोई दखल नहीं, रजिस्टर ही काफी है. यह और बात है कि धर्म के धंधे और मकड़जाल के अलावा लोगों का शादी को एक संस्कार समझने से यह लोकप्रिय नहीं हो पाया, नहीं तो इस से बड़ा सैक्युलर कानून शायद ही कोई और हो. फिर मोदी का यह कहना कि हम कम्युनल सिविल कोड में जी रहे हैं, एक भड़ास और कुंठा ही लगती है, जिसे वे यूसीसी या अब नए शब्द एससीसी के जरिए निकाल रहे हैं. सैक्युलर सिविल कोड तो नेहरू स्पैशल मैरिज एक्ट, इंडिया सक्सैशन एक्ट के जरिए पहले ही बना चुके हैं.
पौराणिक कानूनों की चाहत
240 पर अटकी भाजपा के लिए यह नामुमकिन सा काम है क्योंकि उस के सहयोगी दल जब लैटरल एंट्री और वक्फ जायदाद कानून पर ही सहमत नहीं तो एससीसी पर क्या राजी होंगे. एक सैकंड को मान भी लिया जाए कि ऐसा हो गया तो सब से ज्यादा नुकसान भगवाई दुशाले में लिपटे नए प्रभावित एक्ट से महिलाओं के हिस्से में आना तय दिख रहा है क्योंकि उन से शादी, तलाक और जायदाद सहित कई दूसरे अधिकार व सहूलियतें छिन जाएंगी और वे धीरेधीरे 1950 के पहले के युग में पहुंच जाएंगी. भाजपा सरकार ने अपराध कानूनों में जो बदलाव किए हैं, वे बहुत से मौलिक हकों को छीनने वाले हैं. यह उस की मानसिकता का नमूना है.
नरेंद्र मोदी शायद थक गए हैं. गठबंधन को वे ज्यादा ढो पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा, इसलिए मुमकिन है अभी से उस की तैयारी यह जताते कर रहे हैं कि अगर हिंदू अपना हित चाहते हैं, मनुस्मृति वाले पौराणिक कानूनों यानी सिर्फ सवर्ण पुरुषों का राज चाहते हैं तो मुझे 400 पार कराएं नहीं तो वे इसी तरह याद दिलाते रहेंगे कि देखो, आजादी के पहले का दौर कितना सुनहरा था कि किसी गरीब, दलित की जमीनजायदाद छीन लो, कुछ नहीं होगा. जब जी करे, उस की पीठ पर कोड़े बरसाओ, वह कहीं नहीं जाएगा क्योंकि उस की सुनवाई के लिए कोई थाना, अदालत और कानून नहीं. जब चाहो दूसरी या तीसरी शादी कर लो. कोई पुलिस वाला समन या वारंट ले कर नहीं आएगा. बीवी से अनबन हो तो तलाक के लिए अदालत तो दूर की बात है पंचायत तक भी जाने की जहमत आप को नहीं उठानी पड़ेगी क्योंकि इस बाबत भी कोई कानून वजूद में नहीं होगा.
इस की वजह यह कि पिछले जन्म के पुण्यों और दानदक्षिणा के प्रताप से इस जन्म में आप ऊंची जाति के मर्द हैं. अब नेहरू सरकार ने 1955 में आप के ये ठाटबाट छीन लिए तो हम क्या करें. हमारी कोशिश तो धर्मराज की वापसी की है.
यहां एक दिलचस्प और गौरतलब बात यह भी है कि यूसीसी या एससीसी की एक मंशा उत्तराखंड की तरह देशभर में मुसलिमों से एक से ज्यादा शादी के मौके या हक छीनने की है जो बिलाशक वक्त की मांग है लेकिन इस का असर इसलाम से ज्यादा दूसरे धर्मों पर पड़ेगा.
नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के एक ताजा सर्वे में उजागर हुआ है कि बहुविवाह की दर मुसलिमों में महज 1.9 फीसदी है जबकि ईसाईयों में उस से ज्यादा 2.1 फीसदी है. हिंदू इस मामले में मुसलमानों से 1.9 फीसदी की दर के साथ थोड़े ही पीछे हैं. बौद्ध समुदाय में यह दर 1.5 तो आदिवासियों में 2.4 फीसदी है. दलितों में यह दर 1.5 फीसदी है. यह और बात है कि इसलाम में दूसरी, तीसरी और चौथी शादी करने की अनुमति है लेकिन यह जरा भी आसान नहीं है. उस के लिए कड़ी शर्तें तय हैं.
महिलाओं को हक
हिंदू मैरिज एक्ट 1955 व स्पैशल मैरिज एक्ट 1954 अधिनियमों के बाद अगले ही साल हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 भी अस्तित्व में आ गया जिस ने महिलाओं को संपत्ति संबंधी वे बहुत सारे हक दिए जो पहले केवल पुरुषों को हासिल थे. यह अधिनियम स्पष्ट करता है कि हिंदू महिला के पास जो भी संपत्ति है उसे उस के पास पूर्ण संपत्ति के रूप में रखा जाना चाहिए और इस से निबटने व अपनी मरजी से इसे निबटाने का महिला को पूरा हक है. हर पुरुष की अपनी कमाई संपत्ति में पत्नी, मां व बेटियों को बराबर का हिस्सा दिया गया. यह अद्भुत था. अचानक कानून ने औरतों के लिए हकों का सैलाब बना दिया.
यह एक अकल्पनीय बात महिलाओं के लिए थी क्योंकि सनातनियों का संविधान और कानून मनुस्मृति तो उसे संपत्ति का अधिकार देता ही नहीं. उलटे, उसे ही पुरुषों की संपत्ति करार देता है. आज की नौकरीपेशा और व्यवसायी महिला को जो आत्मविश्वास और सम्मान हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने दिया है वह सामाजिक क्रांति साबित हुई है. आज भारत में जो आजादी औरतों में दिख रही है, वह उसी की देन है.
उसी साल पास हुआ हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरणपोषण अधिनियम 1956 गोद लिए बच्चे के अधिकार जैविक संतान की तरह सुनिश्चित करता है बल्कि कुछ शर्तों के साथ गोद लेने की प्रक्रिया को भी परिभाषित करता है. अलावा इस के, यह एक्ट विधवा बहुओं और मातापिता के भरणपोषण की जिम्मेदारी भी तय करता है. यानी, अब विधवा का हक कोई हड़प नहीं सकता. आज भी आएदिन ऐसे समाचार सुर्खियों में रहते हैं कि बूढ़े अशक्त मांबाप ने बेटे या बेटी पर भरणपोषण का दावा किया.
ये मामले बताते हैं कि मांबाप की महिमा का राग अलापते रहने वाले धर्म की हकीकत दरअसल क्या है और कैसे कानून के जरिए उसे सुधारा गया. हिंदू धर्म ने कभी औरतों की सुध नहीं ली. आज भी कोई हिंदू धर्म की सुधार की बात नहीं कर रहा. भगवा गैंग उन्हें मंदिरों में धकेल रहा है और अंधविश्वासी बना रहा है.
इसी तरह हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम 1956 नाबालिगों के संपत्ति संबंधी अधिकारों को परिभाषित करता है. अवयस्कों के अधिकार किसी भी समाज में वयस्कों जितने ही अहम होते हैं. उन के अधिकारों के लिए बना यह अधिनियम भी मील का पत्थर साबित हुआ.
दहेज निषेध अधिनियम 1961
दहेज निषेध अधिनियम के बावजूद देश में दहेज की प्रथा को रोकना असंभव माना गया. इस के अतिरिक्त दहेज की मांग को पूरा करने के लिए ससुराल पक्ष और पति स्त्री के साथ विभिन्न प्रकार की क्रूरताएं करता और कहींकहीं तो स्त्री को जान से भी मार दिया जाता. महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए कांग्रेस सरकार ने कानून में संशोधन किया.
1984 में कानून में बदलाव करते हुए, जो 2 अक्तूबर 1985 को लागू हुआ, कहा गया कि शादी के समय दुलहन या दूल्हे को उपहार देने की अनुमति है मगर प्रत्येक उपहार, उस का मूल्य, इसे देने वाले व्यक्ति की पहचान और विवाह में किसी भी पक्ष के साथ व्यक्ति के संबंध का वर्णन करते हुए एक सूची बनाई जानी आवश्यक है. दहेज संबंधी हिंसा की पीडि़त महिलाओं की सुरक्षा के लिए अधिनियम और भारतीय दंड संहिता की प्रासंगिक धाराओं में और संशोधन किए गए.
दहेज निषेध अधिनियम, भारतीय कानून? 1 मई, 1961 को अधिनियमित किया गया, जिस का उद्देश्य दहेज देने या लेने को रोकना है. दहेज निषेध अधिनियम के तहत, विवाह के किसी भी पक्ष द्वारा या विवाह के संबंध में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दी गई संपत्ति, सामान या धन दहेज में शामिल है. दहेज निषेध अधिनियम भारत में सभी धर्मों के व्यक्तियों पर लागू होता है.
एक और कानून संविधान के संशोधन के साथ लाया गया जिस में आर्टिकल 45 जोड़ा गया जिस के अनुसार 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान करने का निर्देश था (बाद में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दिया गया). 1950 से 1960 के बीच सरकारी प्राइमरी स्कूलों, जिन में हर जाति, हर धर्म के बच्चे जा सकते थे, की संख्या 2,09,700 बढ़ने लगी. 1988 तक 5,48,100 स्कूल हो गए थे जिन्होंने असल में समाज को बदला. 1950 में शहरी बच्चे तो 90 फीसदी स्कूलों में जा रहे थे जो ब्रिटिश सरकार ने म्यूनिसिपल बौडीज से खुलवाए थे पर गांवों में केवल 20 फीसदी पढ़ रहे थे. स्कूलों की शिक्षा का देश पर बड़ा प्रभाव पड़ा जिसे आज गिनाने की जरूरत नहीं है. उस समय केवल कुछ क्रिश्चियन स्कूल ही प्राइवेट स्कूल थे. अधिकांश नेता सरकारी शिक्षा प्राप्त कर के ही आए थे.
समाज सुधार का एक बड़ा कदम असल में संविधान में आरक्षण से कर दिया गया. कांस्टीट्यूशनल एसैंबली (संविधान सभा) ने न केवल नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था की, उस ने लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 1932 के पूना पैक्ट के अनुसार आरक्षण दे दिया. इस सुधार के कारण अछूतों जिन्हें, एससी, एसटी कहा जा रहा है, की एक पौध पैदा हो गई जो अब तक चाहे पूरे समाज को बदल न पाई हो पर अब इज्जत से जी सकती है. यह संविधान संसद की उस गोल बिल्डिंग से निकला जिसे मोदी सरकार ने नए संसद भवन की शास्त्रीय हिंदू धार्मिक पूजापाठ किए जाने के बाद छोड़ दिया. शायद उन की हिम्मत गोल भवन को गंगाजल से धोने की नहीं हुई और उन्होंने सैकड़ों करोड़ रुपए का खर्च नए संसद भवन के लिए जनता के सिर पर मढ़ दिया.
वैज्ञानिक सोच पर जोर
जवाहरलाल नेहरू ने संस्कृति के सार को आंतरिक विकास, दूसरों के प्रति व्यवहार, दूसरों को समझने की क्षमता और सभी को स्वयं को सम?ाने की क्षमता के रूप में लिया. इस के जरिए नेहरू ने विज्ञान एवं वैज्ञानिक सोच पर बल दिया. इस का भारत की संस्कृति पर एक नवीनीकरणकारी प्रभाव पड़ा. उन्होंने तानाशाही, रूढि़वाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ देश में एक माहौल बनाने का काम किया था. उसी दौरान भारतीय जनसंघ का परिवार अपना काम करता रहा और हिंदू की रक्षा के बहाने उसे इन सुधारों से उलट दिशा में ले जाने वाले कदम उठाता रहा.
नेहरू का मानना था कि वैज्ञानिक ज्ञान और तकनीकी प्रगति भारत और उस के लोगों की वृद्धि के लिए आवश्यक हैं. नेहरू ने नवाचार को बढ़ावा देने और आर्थिक विकास को चलाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान, शिक्षा और बुनियादी ढांचे पर जोर दिया था. वे वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष थे जिस ने राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं और ?अन्य वैज्ञानिक संस्थानों को बनाने में अहम भूमिका अदा की.
विज्ञान की शिक्षा का असर गुरुकुलों की शिक्षा से अलग होता है. विज्ञान न धर्म देखता है, न जाति, न देश, न रंग, न जैंडर, न आयु. नेहरू की वैज्ञानिक शिक्षा जिस के स्कूलों में दिए जाने से एक नई चेतना आई हालांकि उसी समय हिंदूमुसलमान, गौपूजा, पूजापाठ, संस्कार, अखंड भारत का प्रचार कर के समाज के अग्रणी, पढ़ेलिखे वर्ग के कुछ लोग हिंदू महासभा व भारतीय जनसंघ के मारफत पुरातनवादी विचार भी थोप रहे थे. पाकिस्तान में बढ़ती कट्टरता के कारण हिंदू भयभीत भी थे कि कहीं फिर से मुगलों जैसा राज भारत में न हो जाए.
भारत जैसे देश में ही नहीं, शिक्षित अमेरिका में भी गुलामी के लिए हुए गृहयुद्ध के 150 वर्षों बाद भी वहां मौजूद 13-14 फीसदी अश्वेत आज भी बराबरी का स्थान नहीं पा पाए हैं. अश्वेत बराक ओबामा 8 वर्ष राष्ट्रपति रहे, अब अश्वेत कमला हैरिस राष्ट्रपति पद के लिए डैमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हैं पर जमीनी तथ्य यह है कि अश्वेतों का दर्जा आज भी दोयम है, उन्हें जेलों में मारा जाता है. 20 डौलर के नोट के ?ागड़े को ले कर एक अश्वेत की गोरे पुलिसमैन द्वारा टांग से गरदन दबा कर हत्या तक कर दी जाती है.
यही भारत में हुआ है. शुरुआती दशकों में कानूनों से समाज सुधार और समाज बदलाव का प्रयास किया गया पर साथ ही, ठीक उलटी दशा में चलने वाला हिंदू गौरव का ढोल और जोर से बजने लगा. 80 फीसदी हिंदू जनसंख्या वाले देश में इस ढोल की कर्कश आवाज बंद करना असंभव था और नतीजा था कि बहुत से समाज सुधार, जो कानूनों से लाए गए, कानूनी किताबों के पन्नों में बस फड़फड़ा रहे हैं. फिर भी संतोष है कि आज कानूनी ढांचा ऐसा है कि कट्टरपंथी एक हद तक ही जा पाते हैं.
इस के बाद के दशकों में किन कानूनों में क्या हुआ, इस बारे में अगले अंकों में पढ़ें.
अगले अंक में जारी…