राजनीति में आने और सांसद, विधायक बनने से महिलाओं का सशक्तीकरण हो सकता है. जरूरत इस बात की है कि वे अपनी ताकत को उस तरह से पहचानें जैसे फ्रांस की जौन औफ आर्क ने पहचाना था. भारत में सांसद व विधायक बनने के बाद भी कुछ महिला नेता ही अपना प्रभाव छोड़ सकी हैं. ममता बनर्जी और मायावती ने अपने दम पर मुकाम हासिल किए हैं. इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी और जयललिता जैसी कुछ महिला नेताओं ने दूसरों का सहारा ले कर राजनीति में कदम रखा, उस के बाद अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई.

पश्चिमी देशों में जौन औफ आर्क को बहुत खास माना जाता है. नेपोलियन से ले कर आज के दौर तक फ्रांस के नेता जौन औफ आर्क को याद करते हैं. बहुत से मशहूर लेखकों ने इन के जीवन से प्रेरित हो किताबें लिखीं. इन में विलियम शेक्सपियर, वोल्टेयर, फ्रेडरिक शिलर, जिसेप वर्दी, प्योत्र ईलिच चाइकौव्स्की, मार्क ट्वेन और जौर्ज बर्नार्ड शा प्रमुख हैं. जौन पर बहुत सी फिल्में, वृत्तचित्र, वीडियो गेम और नृत्य भी बने हैं.

जौन की सब से बड़ी खासीयत यह थी कि फ्रांस के लोग उन को संत मानते थे जबकि अंगरेज उन को चुड़ैल मानते थे. जौन ने फ्रांस को अंगरेजों पर विजय दिलाने में अहम भूमिका अदा की थी. वे एक साधारण किसान परिवार में पैदा हुई थीं. इस के बाद भी जौन ने अपने देश के लिए जो किया, दूसरा कोई नहीं कर पाया.

जौन औफ आर्क को फ्रांस की वीरांगना माना जाता है. उन का जन्म पूर्वी फ्रांस के किसान परिवार में हुआ था. 12 वर्ष की आयु से उन को ऐसा महसूस होने लगा कि फ्रांस से अंगरेजों को बाहर निकालना है. जौन ने यह बात फ्रांस के राजाओं को बताई. इस के बाद जौन को फ्रांस की सेना की अगुआई करने का मौका मिला. जौन की अगुआई में फ्रांस ने कई महत्त्वपूर्ण लड़ाइयां जीतीं.

अंगरेज जौन को अपना दुश्मन मानते थे. स्कूल में अंगरेजों ने जौन को पकड़ लिया. फ्रांस की नजर में जौन वीरांगना थीं. अंगरेजों की नजर में वे चुड़ैल थीं. अंगरेजों ने जौन को चुड़ैल करार देते हुए जीवित जला दिया. उस समय उन की उम्र केवल 19 साल की थी.

भारत में इस तरह के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं. आजादी की लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई का नाम लिया जाता है. उन को योद्धा के रूप में जाना जाता है. वे योद्धा थीं भी, पुरुष सा रूप रखती थीं, घोड़े पर सवार हो कर लड़ी थीं पर उन्होंने देश या महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई नहीं लड़ी थी.

रानी लक्ष्मीबाई की लड़ाई उन के अपने दत्तक पुत्र को अधिकार दिलाने के लिए थी जो अंगरेज हुकूमत देने को तैयार न थी. यह अनायास ही था कि उसी समय ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ फैसलों से नाराज हो कर सेना के हिंदू सैनिकों ने बगावत कर दी जिसे स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है.

1842 में लक्ष्मीबाई का विवाह ?ांसी के मराठाशासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ था, जिस के बाद वे ?ांसी की रानी बनीं. विवाह के बाद उन का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया. सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया परंतु 4 महीने की उम्र में ही उस की मृत्यु हो गई. 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गई. पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवंबर, 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई. दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया.

अंगरेजी हुकूमत ने बालक दामोदर राव के खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर कर दिया. मुकदमे को बहस के बाद खारिज कर दिया गया. इस के बाद अंगरेज सरकार ने ?ांसी का खजाना जब्त कर लिया. अंगरेजों ने राजा गंगाधर राव के कर्ज को रानी लक्ष्मीबाई के सालाना खर्च में से काटने का फरमान जारी कर दिया. इस के चलते रानी को ?ांसी का किला छोड़ कर ?ांसी के रानीमहल में जाना पड़ा. इस के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने अंगरेजों के खिलाफ लड़ाई शुरू की. अंगरेजों के खिलाफ लड़ाई में उन को जीत हासिल नहीं हुई थी.

शिक्षा से आजादी की अलख

रानी लक्ष्मीबाई अपने साहस से समाज को नहीं बदल पाईं. उसी कालखंड में सावित्रीबाई फुले ने अपनी बहुत सारी परेशानियों को दरकिनार करते हुए लड़कियों की शिक्षा पर काम करना शुरू किया. भारत में लड़कियों की शिक्षा का सारा श्रेय सावित्रीबाई फुले को जाता है. सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित नायगांव नामक छोटे से गांव में हुआ था. महज 9 साल की उम्र में पूना के रहने वाले ज्योतिबा फुले के साथ उन की शादी हो गई. उस समय ज्योतिबा फुले भी महज 13 साल के थे.

उस समय लड़कियों को शिक्षा और स्कूल से दूर रखा जाता था. धार्मिक ग्रंथों में लड़कियों की शिक्षा की मनाही थी, जिस से समाज भी इस का विरोध करता था. विवाह के समय सावित्रीबाई फुले पूरी तरह अनपढ़ थीं तो वहीं उन के पति तीसरी कक्षा तक पढ़े थे. उस वक्त केवल ऊंची जाति के पुरुष ही शिक्षा प्राप्त कर सकते थे. दलित और महिलाओं को पढ़ने का अधिकार नहीं था. सावित्रीबाई फुले ने पहले खुद लंबी लड़ाई लड़ कर पढ़ाई की, उस के बाद दूसरी लड़कियों को पढ़ने में मदद की.

शिक्षा के साथ ही साथ सावित्रीबाई फुले ने स्त्रियों के अधिकारों, अशिक्षा, छुआछूत, सतीप्रथा, बाल या विधवाविवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई थी. अंधविश्वास और रूढि़यों की बेडि़यां तोड़ने के लिए लंबा संघर्ष किया. सावित्रीबाई फुले जब लड़कियों को पढ़ाने स्कूल जाती थीं तो पुणे में लड़कियों की शिक्षा का विरोध करने वाले उन पर गोबर फेंक देते थे, जिस से उन की साड़ी गंदी हो जाए और वे लड़कियों को पढ़ाने के लिए स्कूल न जा सकें.

सावित्रीबाई फुले अपने बैग में एक्स्ट्रा साड़ी ले कर जाती थीं. स्कूल पहुंच कर वे अपनी गोबर वाली साड़ी बदल कर लड़कियों को पढ़ाने लगती थीं. जब इस से भी वे नहीं डरीं तो विरोधी लोग उन को पत्थर मारते थे. वे हर दिन इस तरह की प्रताड़ना सहन कर के अपने काम पर लगी थीं. सावित्रीबाई ने उस दौर में लड़कियों के लिए स्कूल खोला जब बालिकाओं को पढ़ानालिखाना गलत माना जाता था. उस का पुरजोर विरोध भी होता था.

सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिल कर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले. उन्होंने 28 जनवरी, 1853 को गर्भवती बलात्कार पीडि़तों के लिए बालहत्या प्रतिबंधक गृह की भी स्थापना की थी. महिलाओं की शिक्षा और अधिकार को ले कर जो काम सावित्रीबाई फुले ने किया है उस की तुलना किसी और से नहीं की जा सकती. यह काम फिर न के बराबर दोहराया गया. आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस ने समाज सुधार और सभी अधिकारों के लंबेचौड़े अभियान नहीं चलाए. गांधी, पटेल, नेहरू, जिन्ना सभी अंगरेज शासन से मुक्ति चाहते थे. महिलाओं को अपने पुरुषों से आजादी दिलाने में किसी की कोई खास रुचि नहीं थी.

धर्मसत्ता के प्रभाव में महिलाओं को शिक्षा और राजनीति दोनों से ही दूर रखने का प्रयास किया गया. यह जरूर था कि वैचारिक स्तर पर धर्मविरोध होने लगा था. आजादी के बाद राजनेताओं से यह उम्मीद की जा रही थी कि वे महिलाओं को अधिकार देंगे. आजादी के बाद देश की सत्ता संभालने वाली कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा शुरू से ही धर्म के प्रभाव में रहा.

बाल गंगाधर राव तिलक 19वीं सदी के अंत से ले कर 20वीं सदी के महात्मा गांधी तक महिलाओं को धर्मसत्ता से आजादी दिए जाने के पक्ष में नहीं थे, जिस के कारण आजादी की लड़ाई में महिलाओं को धर्मसत्ता से दूर रखने की दिशा में कोई विशेष काम नहीं हुआ. कुछ संस्थाएं छिटपुट कुछकुछ करती रहीं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो 1925 में बना, महिलाओं को घर में ही रखने का समर्थक था.

नहीं मिले अधिकार

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1955 में हिंदू विवाह कानून बना कर महिलाओं के तमाम अधिकारों को देने का काम किया. दहेज, विधवा विवाह और सतीप्रथा जैसी कुरीतियों पर लगाम तो अंगरेजों ने अपनेआप कसी थी. इस से एकदो भारतीय जरूर नाराज थे लेकिन कोई बड़ी देशव्यापी संस्था नहीं. महिलाओं को पहली बार कानूनी हक मिले थे. दक्षिणापंथी (दक्षिणा से रोजीरोटी कमाने वाले) ही नहीं, कांग्रेस के भी कुछ बड़े नेता इस तरह के सुधारवादी कामों का विरोध कर रहे थे, जिस के कारण महिलाओं को अधिकार देने वाले दूसरे कदम आगे नहीं बढ़ सके.

1955 में हिंदू विवाह कानून और 1956 में हिंदू विरासत कानून से घरों में महिलाओं को अधिकार मिले पर वे राजनीतिक अधिकार नहीं थे. हां, इस दौरान वोटिंग अधिकार सभी को मिला. इस से महिलाओं को एक बल मिला. लड़कियों के लिए स्कूल भी खुले और सवर्णों ने अपनी लड़कियों को प्राथमिक व मिडिल शिक्षा देनी शुरू कर दी.

पहला राजनीतिक बड़ा कदम

1985 में राजीव गांधी सरकार ने पंचायती राज कानून बना कर महिलाओं को पंचायत चुनावों में 33 फीसदी का आरक्षण दिया. उस के बाद राजनीति में महिलाएं दिखने लगीं. लेकिन इस महिला आरक्षण का प्रभाव लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर नहीं पड़ा.

लोकसभा और विधानसभाओं में सांसद और विधायक के रूप में भले ही महिलाओं की संख्या बढ़ रही हो लेकिन नेताओं के रूप में उन की पहचान नहीं बनी है. राजनीति में आने वाली ये महिलाएं न तो फ्रांस की जौन की तरह से सत्ता बदल पा रही हैं और न ही सावित्रीबाई फुले की तरह महिलाओं को जागरूक ही कर पा रही हैं. जो भी महिलाएं राजनीति में हैं, सत्ता में भागीदारी चाहती हैं. किसी का लक्ष्य महिलाओं को धार्मिक पाखंडों से मुक्ति दिलाने का नहीं है.

आज भारत के 29 राज्यों में केवल पश्चिम बंगाल अकेला ऐसा राज्य है जहां पर ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं. बाकी किसी राज्य में कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं है. एक समय था जब देश के कई राज्यों में महिला मुख्यमंत्री होती थीं. केवल राज्यों में ही नहीं, केंद्र तक इन का दखल होता था.

जिस समय केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, ममता बनर्जी, जयललिता, मायावती और शीला दीक्षित की धमक विपक्ष में थी तो उमा भारती और सुषमा स्वराज जैसी महिला नेता भाजपा में थीं. वह दौर पितृसत्ता का था जिस में महिलाओं को सांस लेने की जगह थी पर जैसे ही राम मंदिर मुहिम के दौरान धर्मसत्ता का प्रभाव राजनीति पर पड़ने लगा, महिलाओं का प्रभाव घट गया.

2019 के लोकसभा चुनाव में 82 महिलाएं सांसद बनी थीं. पहली लोकसभा में सिर्फ 5 प्रतिशत महिलाएं चुनाव जीती थीं. 2019 में यह 15 प्रतिशत हो गया है जिस से महिला सांसदों की संख्या जरूर बढ़ी लेकिन इन में से ज्यादातर गूंगी गुडि़या जैसी ही हैं. अगर महिला आरक्षण कानून लागू हो गया तो इस के बाद यह संख्या 182 होने की उम्मीद की जा रही है. जब तक राजनीति में महिलाओं की संख्या नहीं बढ़ेगी तब तक वे आगे नहीं आ पाएंगी. 2019 से 2024 के बीच केवल महुआ मोइत्रा का नाम संसद में आवाज उठाने वालियों में से लिया जा सकता है पर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पारंपरिक छवि के अनुसार जो किया वह सीता को वनवास देने की तरह ही था.

बढ़ती संख्या घटता प्रभाव

राजनीति में एक बहुत मशहूर नारा है- जिस की जितनी हिस्सेदारी उस की उतनी भागीदारी. पर यह नारा महिलाओं के लिए कभी नहीं लगाया जाता. यह नारा पिछड़ी और दलित जातियों की भागीदारी के लिए लगाया जाता है. आजादी के 75 सालों बाद 2023 में देश में संविधान संशोधन के नाम पर महिला आरक्षण बिल लोकसभा में पास हुआ. उम्मीद की जा रही है कि 2029 में यह विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में लागू हो सकता है.

?महिलाओं का राजनीति में दखल एक पुरानी मांग है. प्रबुद्ध वर्ग महिलाओं की बराबर की भागीदारी को विकास का मूलमंत्र मानता है पर स्थिति यह है कि विश्वभर में केवल 28 महिलाएं देश की प्रमुख राष्ट्राध्यक्ष या सरकार की सरगना हैं. विश्वभर के थिंकटैंकों की राय है, महिलाएं जब सचमुच में राजनीतिक सत्ता में होती हैं तो न केवल लोकतंत्र मजबूत होता है, जीवनस्तर में सुधार भी होता है. अल्पसंख्यकों को सुरक्षा मिलती है, देश में शांति ज्यादा रहती है और लोगों को ज्यादा स्वास्थ्य व शैक्षिक सुविधाएं मिलती हैं.

पुरुष नेता सत्ता के पीछे भागते हैं, स्त्री नेता सेवा करना जानती व चाहती हैं. वे भुक्तभोगी रही होती हैं, इसलिए आमघरों की परेशानियां जानती हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व मुखिया कोफी अन्नान ने कहा था कि कितनी ही स्टडीज में पाया गया कि महिलाओं का सशक्तीकरण विकास के लिए अतिआवश्यक साबित हुआ है. चुनी जाने के बाद महिलाएं ज्यादा पारदर्शी शासन चलाती हैं और उन के निर्णय दूरगामी लाभ के लिए होते हैं, वर्गविशेष को फायदा पहुंचाने के लिए नहीं.

संविधान सभा में कई महिला प्रतिनिधि थीं और उन्होंने संविधान निर्माण में खासा जोरदार योगदान दिया था पर आखिरकार रूढि़वादी नेताओं ने बाजी मार ली और जवाहरलाल नेहरू के समय से ही महिलाओं को वास्तविक सत्ता नाममात्र के लिए मिल पाई. दरअसल उन के ईदगिर्द जो नेता जमा थे वे न केवल अतिपरंपरावादी थे बल्कि अंधभक्त भी थे.

कांग्रेस को हराने के लिए पहले भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी ने महिलाओं का जम कर ब्रेनवाश किया और धर्म की सत्ता को मोक्ष या मुक्ति का साधन मनवाने में सफल हो गई. नरेंद्र मोदी के राज में महिलाओं की राजनीतिक ताकत पर लगभग पूर्ण ग्रहण लग चुका है.

धर्म नियंत्रित समाज जिम्मेदार

मनुस्मृति का नाम आज हर जबान पर चढ़ा हुआ है. मनुस्मृति में हिंदू महिलाओं को बहुत कमजोर जगह मिली है और यह सोच आज के नेताओं में है और अब राजनीति में स्पष्ट देखी भी जा सकती है. महिलाओं को कमजोर इतनी बार कहा जाता है, उन्हें रेप, छेड़छाड़ का भय इतना अधिक दिखाया जाता है कि वे राजनीति में आने से कतराती हैं और आ भी जाती हैं तो उन्हें एक पुरुष संरक्षक की सख्त जरूरत महसूस होती रहती है.

लोकसभा चुनावों में महिलाओं यानी आधी आबादी का दबदबा बढ़ता जा रहा है. कई ऐसे चुनाव हुए हैं जिन में महिला वोटरों ने जीत और हार को तय किया है. बिहार में नीतीश कुमार की सरकार को बनाने में महिलाओं की संख्या सब से अधिक थी. 2024 के लोकसभा चुनाव में सब से ज्यादा महिला मतदाताओं के भाग लेने की उम्मीद है. कुल 96.88 करोड़ मतदाताओं में से महिला मतदाताओं की संख्या 47.1 करोड़ है. पिछले एक साल में महिला वोटरों और वोट डालने वाली महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है.

इस के बाद भी देश में प्रभावशाली महिला नेताओं की कमी दिख रही है. 2024 के इन लोकसभा चुनावों में महिला नेताओं के कई प्रमुख चेहरे गायब हैं. इन में सोनिया गांधी, मायावती, वसुंधरा राजे, उमा भारती के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं. जयललिता और सुषमा स्वराज अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन राजनीति में इन दोनों ने एक अलग ही मुकाम हासिल किया था.

2024 के लोकसभा चुनावों में सोनिया गांधी भले ही चुनाव न लड़ रही हों पर वे इंडिया ब्लौक को एकजुट रख कर विपक्ष को मजबूत स्तंभ बनाने का काम कर रही हैं. ममता बनर्जी अकेली महिला नेता हैं जो भाजपा के विजयरथ को रोकने का काम कर रही हैं. अब ईडी, सीबीआई के मसले को ले कर आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल और ?ारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन मुखरता से अपनी बात कह रही हैं. ये राजनीति में कितनी आगे जाएंगी, यह समय बताएगा. ये अपने बल पर नहीं, अपने पतियों के बल पर राजनीति में जगह बना पाई हैं.

भारत की राजनीति में महिला नेताओं के कुछ चेहरों की चर्चा के बिना महिला राजनीति की चर्चा अूधरी रहेगी. इन की चर्चा के जरिए यह सम?ाने में मदद मिलेगी कि देश में महिला राजनीति किन हालात से गुजर रही है. महिला आरक्षण के बाद राजनीति में महिलाओं की संख्या बढ़ेगी. उम्मीद की जा सकती है कि उन में से कुछ आगे बढ़ेंगी, अपने दम से अपना दबदबा बना पाएंगी. ज्यादातर धर्म और पितृसत्ता के पीछे चल कर केवल शोपीस बन कर रह जाएंगी. राजनीति में सक्रिय कुछ महिलाओं का योगदान याद रखा जाएगा. इन में से ज्यादातर ने अपनी जमीन खुद नहीं बनाई है. यह कमजोरी महिलाओं की मानी जाएगी और इस के लिए जिम्मेदार धर्म नियंत्रित सामाजिक व्यवस्था है.

विपक्ष की उम्मीद

सोनिया गांधी का भारत के साथ रिश्ता राजीव गांधी की पत्नी के रूप में जुड़ा था. राजीव गांधी भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे थे. जब तक इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जीवित रहे तब तक इटली से आईं सोनिया गांधी ने राजनीति की तरफ मुंह भी नहीं किया था. वे परिवार के साथ खुश थीं. राजीव गांधी का भी राजनीति से कोई लगाव नहीं था. मां इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव गांधी ने राजनीति में कदम रखा.

1991 में राजीव गांधी की हत्या हो गई. पति की हत्या होने के पश्चात कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया से पूछे बिना उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा कर दी परंतु सोनिया ने इसे स्वीकार नहीं किया.

काफी समय तक राजनीति में कदम न रख कर उन्होंने अपने बेटे और बेटी का पालनपोषण करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया. पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद कांग्रेस 1996 का आम चुनाव भी हार गई, जिस से कांग्रेस के नेताओं ने फिर से नेहरूगांधी परिवार के किसी सदस्य की आवश्यकता महसूस की. उस समय उन के साथ परिवार का कोई सदस्य नहीं था. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी तब छोटे ही थे, राजनीति के लिए परिपक्व नहीं थे.

सोनिया गांधी ने अपने बलबूते 1997 में कोलकाता में पार्टी के प्लेनरी सैशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की. इस के 62 दिनों के अंदर 1998 में वे कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं. कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उन का कार्यकाल पार्टी के इतिहास में सब से लंबा कार्यकाल रहा, उस दौरान चाहे उन की आलोचना होती रही. उन के विदेशी होने का मुद्दा बना. उन की कमजोर हिंदी को भी मुद्दा बनाया गया. उन पर परिवारवाद का भी आरोप लगा लेकिन कांग्रेसियों ने उन का साथ नहीं छोड़ा. उस समय उन के परिवार में कोई बालिग था तो वह मेनका गांधी थीं जो भाजपा में थीं.

सोनिया गांधी का सहारा

सोनिया गांधी ने 1999 में कर्नाटक के बेल्लारी और उत्तर प्रदेश के अमेठी से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ा और करीब 3 लाख वोटों से जीत हासिल की. 2004 के चुनाव से पूर्व आम राय यह बनाई गई थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ही प्रधानमंत्री बनेंगे पर सोनिया ने देशभर में घूम कर खूब प्रचार किया और सब को चौंका देने वाले नतीजों में कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए को 200 से ज्यादा सीटें मिलीं. सोनिया गांधी रायबरेली से सांसद चुनी गईं.

16 मई, 2004 को सोनिया गांधी 16 दलीय गठबंधन की नेता चुनी गईं. सब को अपेक्षा थी कि सोनिया गांधी ही प्रधानमंत्री बनेंगी और सब ने उन का समर्थन किया परंतु एनडीए के नेताओं ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर आक्षेप लगाए. सुषमा स्वराज और उमा भारती ने तो घोषणा कर दी कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो वे अपना सिर मुंड़वा लेंगीं और भूमि पर ही सोएंगीं. इस का अर्थ यही था कि वे उन्हें एक औरत से ज्यादा गैरहिंदू या विदेशी मान रही थीं. सुषमा स्वराज और उमा भारती को संस्कृति और संस्कारों की चिंता थी जिस के कारण उन्हें भविष्य में राजनीति से निकाल फेंका गया.

इस के बाद 18 मई को सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को अपना प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया. पार्टी से उन का समर्थन करने का अनुरोध किया. सोनिया गांधी ने स्वेच्छा से प्रधानमंत्री नहीं बनने की घोषणा की. सोनिया को दल का तथा गठबंधन का अध्यक्ष चुना गया. कहा जाता है कि राहुल गांधी उन के प्रधानमंत्री न बनने के फैसले के पीछे थे. उन्होंने अपनी दादी और पिता की हत्या का दंश ?ोला था, वे एक और रिस्क नहीं लेना चाहते थे. नीरजा चौधरी ने अपनी किताब  हाऊ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड में यह उल्लेख किया है कि नटवर सिंह, प्रियंका गांधी, सुमन दूबे के साथ 10 जनपथ, नई दिल्ली के घर में राहुल गांधी ने जान के खतरे के कारण यह जिद की थी.

2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी ने जोरदार धमाके से जीत हासिल की और फिर 10 वर्षों से राजनीति में महिलाओं का दखल कम होता गया. वे दिखावटी बनी रहीं. सोनिया गांधी कांग्रेस का सूपड़ा भी बचा नहीं पाईं. 2019 के चुनावों में केवल वही कांग्रेस की उत्तर प्रदेश से लोकसभा सांसद थीं. अब 2024 के लोकसभा चुनाव में इंडिया ब्लौक का आधारभूत ढांचा सोनिया गांधी की कुशलता पर ही टिका है.

जयललिता का दौर

जयललिता चाहे फिल्मों में रही हों या राजनीति में, उन्होंने बंदिशों की जंजीरों को तोड़ने का काम किया. तमिल सिनेमा में स्कर्ट पहनने वाली वे पहली अभिनेत्री थीं. राजनीति में आने के बाद उन को लोग अम्मा के नाम से पुकारते थे. तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व ऐक्ट्रैस जयललिता राजनीति में आने से पहले ऐक्ट्रैस हुआ करती थीं. उन की पहली फिल्म को एडल्ट प्रमाणपत्र मिला था. टीनएज होने के कारण वे खुद इस फिल्म को सिनेमाहौल में नहीं देख पाई थीं.

उन का जीवन संघर्ष से भरा रहा. जब वे 2 साल की थीं, उन के पिता की मौत हो गई थी. इस के बाद उन की मां उन्हें ले कर अपने मातापिता के यहां बेंगलुरु चली गईं. जयललिता ने 3 साल की उम्र में भरतनाट्यम सीख लिया था. 15 साल की उम्र में उन की मां ने उन्हें फिल्मों में जाने के लिए प्रेरित किया. 1964 में जयललिता ने कन्नड़ भाषा की फिल्म च्चिन्नाडा गोम्बे में काम किया. अगले ही साल यानी 1965 में उन्होंने तमिल सिनेमा में फिल्म वेन्निरा अदाई से एंट्री ली.

जयललिता ने अपने फिल्मी कैरियर में 130 फिल्में की हैं. जयललिता 1980 तक लगातार साउथ इंडस्ट्री पर राज करती रहीं. फिल्मों के साथ ही वे राजनीति में भी पहचान बनाने लगी थीं. राजनीति में उन्हें 1977 में तमिलनाडु के उस समय के मुख्यमंत्री रामचंद्रन ले कर आए थे. 1982 में उन्होंने रामचंद्रन की पार्टी आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम जौइन कर ली. 1983 में वे पहली बार तिरुचेंदूर विधानसभा सीट से विधायक चुनी गईं. 1984 से 1989 तक वे बतौर राज्यसभा सदस्य संसद में अपनी जगह बनाए रहीं. 24 जून, 1991 को वे पहली बार राज्य की मुख्यमंत्री के पद पर बैठीं.

साउथ फिल्मों के सुपरस्टार रहे एम जी रामचंद्रन से जयललिता के अफेयर ने खूब सुर्खियां बटोरी थीं. उस वक्त एम जी पहले से शादीशुदा और 2 बच्चों के पिता थे. जब रामचंद्रन का निधन हुआ तो जयललिता ने खुद को विधवा की तरह पेश किया था. एमजीआर के सहयोग से जयललिता ने राजनीति में भी जल्द ही कामयाबी हासिल कर ली थी.

तमिलनाडु की राजनीति में जयललिता का व्यक्तित्व करिश्माई था. इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब 2014 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की आंधी चल रही थी, उस दौरान जयललिता की पार्टी को तमिलनाडु में 39 में 37 सीटों पर जीत मिली थी. उन की मृत्यु के बाद उन की पार्टी अन्ना द्रमुक छिन्नभिन्न हो गई है.

मायावती की माया

जिस दौर में मंडल और कमंडल की लड़ाई राजनीति को 2 हिस्सों में बांट रही थी उसी समय कांशीराम ने दलित राजनीति से सत्ता की चाबी हासिल करने का मन बना लिया था. उन्होंने मायावती को दलित राजनीति का चेहरा बना कर आगे बढ़ाना शुरू किया. बहुत सारे विवादों को तोड़ते हुए मायावती ने कांशीराम के सपने को पूरा करने में पूरी जान लगा दी.

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ. 1993 में दोनों दलों ने मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्रीराम का नारा दे कर सत्ता हासिल की.

सामाजिक रूप से दलित और पिछड़े सरकार का हिस्सा तो बन गए पर वे सामाजिक रूप से एक नहीं हो पाए. मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम के साथ गठबंधन तो कर लिया पर वे बसपा को तोड़ कर अपनी सरकार को मजबूत करना चाहते थे. कांशीराम मुलायम के मोह में थे. वे कोई सही निर्णय नहीं ले पा रहे थे. ऐसे में कमान मायावती ने संभाली और मुलायम सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला लिया. दबंग सोच रखने वाले मुलायम और उन की पार्टी के विधायकों ने मायावती को खत्म करने की योजना बना कर गैस्ट हाउस कांड को अंजाम दिया. मायावती ने अपनी मौत को करीब से देखा लेकिन इस के बाद भी डरीं नहीं. मुलायम का तख्ता पलट कर वे मुख्यमंत्री बन गईं.

4 बार वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. मुख्यमंत्री बन कर उन्होंने विकास के कामों से अपनी पहचान बनाई. नोएडा और लखनऊ की पहचान बदल दी. 2024 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी राज्यसभा पहुंच गई हैं. बीमारी की वजह से वे लोकसभा चुनाव नहीं लड़ रहीं. वे सक्रिय राजनीति से दूर हो गई हैं.

अपने पूरे कार्यकाल में मायावती ने न दलित महिलाओं में सामाजिक चेतना लाने के लिए कोई काम किया, न आम महिलाओं के लिए कुछ किया. वे अंबेडकर पार्क बनाने में ज्यादा व्यस्त दिखीं.

कहां खो गईं वसुंधरा

राजस्थान की मुख्यमंत्री रही वसुंधरा राजे सिंधिया लोकसभा चुनाव में गायब हो गई हैं. उन के समर्थक सांसदों को हाशिए पर ढकेल दिया गया है. वसुंधरा राजे सिंधिया भाजपा के स्टार प्रचारकों की लिस्ट से गायब हो गई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के साथ उन के मतभेद जगजाहिर हैं. राजस्थान में विधानसभा चुनाव में जब भाजपा ने बहुमत हासिल किया तब वसुंधरा राजे सिंधिया का नाम मुख्यमंत्री के रूप में रेस में था. इस के बाद उन का नाम मुख्यमंत्री की रेस से बाहर हो गया. राजनीतिक रूप से वसुंधरा राजे सिंधिया का कैरियर ढलान पर है.

5 बार विधायक और 5 बार लोकसभा सांसद रहीं ग्वालियर राजघराने की बेटी और धौलपुर राजघराने की बहू वसुंधरा राजे इस चुनाव में हाशिए पर हैं.

वे कई वोटबैंक का प्रतिनिधित्व करती हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में विदेश राज्य और कार्मिक मंत्रालय जैसे विभागों की मंत्री रह चुकीं वसुंधरा राजे को राजस्थान के रण में उतारा गया तो उन्होंने भाजपा की उदास और कलहभरी राजनीति के बावजूद 2003 के चुनाव में 200 में से 120 सीटें ला कर इतिहास रच दिया था.

देश में भाजपा के क्षेत्रीय नेताओं में सिर्फ वसुंधरा राजे ही ऐसी थीं जो केंद्रीय नेतृत्व के सामने एक शक्तिकेंद्र के रूप में उभरीं. वसुंधरा राजे का जीवन बहुत उतारचढ़ाव भरा रहा है. आज केंद्र के साथ उन के रिश्तों को ले कर बहुत सवाल उठ रहे हैं, लेकिन उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि पार्टी या केंद्रीय नेतृत्व के प्रति उन की कोई नाराजगी है.

देश की महिलाओं के लिए वसुंधरा राजे किसी तरह का आदर्श स्थापित करने में असफल रही हैं. वे न उन की शिक्षा, न बालविवाह, न दहेज के खिलाफ खड़ी हुईं जो राजस्थान की महिलाओं की बड़ी कमजोरी है.

कहां गायब उमा भारती

एक धारणा यह बनाई जा रही है कि भाजपा में ओबीसी जातियों को महत्त्व दिया जा रहा है. असल में यह बात पूरी तरह से सच नहीं है. अगर यह सच होता तो उमा भारती भाजपा की मुख्यधारा का हिस्सा होतीं. उमा भारती लोधी परिवार से आती हैं. राम मंदिर आंदोलन के समय वे सब से चर्चित चेहरों में से थीं.

22 जनवरी, 2024 को जब अयोध्या में राम मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा का कार्यक्रम था तब उन को दूर ही रखा गया. मध्य प्रदेश में उमा भारती की राजनीति ग्वालियर की महारानी विजयराजे सिंधिया के जरिए आगे बढ़ी थी.

वे युवावस्था में ही भारतीय जनता पार्टी से जुड़ गई थीं. उन्होंने 1984 में सर्वप्रथम लोकसभा चुनाव लड़ा पर हार गईं. 1989 के लोकसभा चुनाव में वे खजुराहो संसदीय क्षेत्र से सांसद चुनी गईं और 1991, 1996 और 1998 में यह सीट बरकरार रखी. 1999 में वे भोपाल सीट से सांसद चुनी गईं. बाजपेयी सरकार में वे मानव संसाधन विकास, पर्यटन, युवा मामले एवं खेल और अंत में कोयला व खदान जैसे विभिन्न राज्य स्तरीय और कैबिनेट स्तर के विभागों में कार्य किया.

2003 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में, उन के नेतृत्व में भाजपा ने तीनचौथाई बहुमत प्राप्त किया और मुख्यमंत्री बनीं. अगस्त 2004 में उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया जब उन के खिलाफ 1994 के हुबली दंगों के संबंध में गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ. नवंबर 2004 में लालकृष्ण आडवाणी की आलोचना के बाद उन्हें भाजपा से बरखास्त कर दिया गया. 2005 में उन की बरखास्तगी हट गई और उन्हें पार्टी की संसदीय बोर्ड में जगह मिली.

उसी साल वे पार्टी से हट गईं क्योंकि उन के प्रतिद्वंद्वी शिवराज सिंह चौहान को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया. इस दौरान उन्होंने भारतीय जनशक्ति पार्टी नाम से एक अलग पार्टी बना ली. 7 जून, 2011 को उन की भाजपा में वापसी हुई. उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने गंगा बचाओ अभियान चलाया. मार्च 2012 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में वे महोबा जिले की चरखारी सीट से विधानसभा सदस्य चुनी गईं. महिला बचाओ अभियान जैसा कोई काम उन्होंने किया हो, दिखता नहीं.

ममता बनर्जी पर टिकी नजर

जमीनी स्तर से जुड़ी, जनाधार वाली महिला नेताओं की भूमिका 2024 के लोकसभा चुनाव में भले न दिख रही हो लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ध्रुव तारे की तरह राजनीति के आसमान पर चमक रही हैं. एक तरह से देखें तो वे सभी महिला नेताओं की कमी को पूरा किए दे रही हैं. 20 मई, 2011 को ममता बनर्जी ने पहली बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री की कुरसी संभाली, तब से आज तक वे मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री के रूप में उन का यह तीसरा कार्यकाल चल रहा है. केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री रही हैं.

कांग्रेस से अलग होने के बाद 1998 में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस बनाई. ममता बनर्जी को दीदी कहा जाता है. ममता बनर्जी ने पहले 2 बार रेलमंत्री के रूप में कार्य किया. ऐसा करने वाली वे पहली महिला थीं. वे भारत सरकार के मंत्रिमंडल में दूसरी महिला कोयला मंत्री और मानव संसाधन विकास, युवा मामले और खेल, महिला एवं बाल विकास मंत्री भी रही हैं. आज के समय में वे पूरे भारत में अकेली महिला मुख्यमंत्री हैं. भारतीय जनता पार्टी के विजयरथ का पहिया पश्चिम बंगाल में फंस जाता है. इस का कारण ममता बनर्जी हैं. अब लोकसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी अकेले मुकाबला कर रही हैं.

गूंगी गुडि़या सी महिला सांसद

एकएक कर यह पूरी महिला टोली अकेली पड़ गई. धर्मसत्ता ने दूसरी मजबूत महिला नेताओं को जमने नहीं दिया. भले ही चुनावदरचुनाव लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या बढ़ती गई हो पर वे संसद में महज गूंगी गुडि़या सी बन कर रह जाती हैं. वे पार्टी की बताई लाइन से अलग नहीं बोल पातीं. 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायती राज कानून बना कर पंचायत और शहरी निकाय चुनाव में महिलाओं को 33 फीसदी का आरक्षण दिया. एक तरह से यह भी आधी आबादी के हिसाब से कम था.

इस के लागू होने के बाद भी हालात नहीं बदले. महिला आरक्षित सीटों पर नाम के लिए महिलाओं को चुनाव लड़ाया जाने लगा लेकिन परदे के पीछे उन के पति, पिता या बेटा ही काम करते रहे. इस के लिए एक शब्द प्रधानपति चलन में आ गया. शहरों में महिला पार्षद का काम उन के पति देखने लगे. वे पार्षदपति बन गए. पंचायती राज कानून के बाद यह जरूरत महसूस की गई कि विधानसभा और लोकसभा में भी महिलाओं को आरक्षण दिया जाए. 1990 के बाद इस के कई प्रयास किए गए. यूपीए की सरकार के समय 2 बार महिला आरक्षण बिल संसद में पेश किया गया.

कई दलों के विरोध के कारण बिल पास नहीं हो सका. 2023 में यह बिल पास हुआ. अब 2029 में इस के लागू होने की उम्मीद की जा रही है. समाजवादी पार्टी, राजद जैसे दलों ने इस का विरोध किया. उन की महिला सांसद चुप रहीं. वे महिला से अधिक पार्टी के तंत्र पर काम कर रही थीं. असल में धर्मसत्ता महिलाओं को चुप रहने के लिए बाध्य करती है. आजादी के बाद महिलाओं को शिक्षा के अधिकार की बात होती है. पढ़ीलिखी लड़कियों को कहा जाता है कि तुम्हारा काम पढ़ाई से अधिक शादी करना है. परीक्षाओं में सब से अच्छे नंबर ला कर पास होने के बाद भी उन को नौकरी करने नहीं दिया जाता है.

धर्म सिखाता है चुप रहना

सवाल उठता है कि देश में फ्रांस की जौन औफ आर्क जैसी महिला क्यों नहीं हो सकी. असल में हमारे देश में महिलाओं को हमेशा धर्म के नाम पर पीछे रखा गया. उन को कदमकदम पर एहसास कराया गया कि वे कमजोर हैं. उन को हमेशा किसी न किसी सहारे की जरूरत होगी. शादी के बाद ससुराल में पति और ससुर जैसा चाहेगा उन को वैसा करना होता है. लड़की चाहे पढ़ीलिखी, कामकाजी हो या अनपढ़, घरपरिवार और उस से जुड़े फैसलों में लड़की से अधिक घर वालों की चलती है.

मसला चाहे मनपसंद शादी का हो, गर्भपात का हो, बच्चे पैदा करने का, हर जगह महिला के अधिकार सीमित कर दिए जाते हैं. यही नहीं, आर्थिक मामलों में उस की राय नहीं ली जाती. सब से आश्चर्य वाली बात यह होती है कि महिला इस में चुप रह कर खामोशी से इन फैसलों को स्वीकार कर लेती है. इस की वजह यह है कि हमेशा से धर्म सिखाता है चुप रहना. धर्म के नाम पर उस के साथ अन्याय होता रहता है. जो महिला अपने अधिकारों के लिए नहीं बोल पाएगी वह राजनीति में आ कर भी दूसरी महिलाओं के लिए नहीं बोल पाएगी.

कई पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि राम ने लंका विजय के बाद विभीषण को लंका का राजा बना दिया. राम ने मंदोदरी को प्रस्ताव दिया था कि वह अपने देवर विभीषण से शादी कर ले. मंदोदरी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया था. इस के बाद राम, सीता और हनुमान ने उस को सम?ाने के लिए तर्क दिए. तब मंदोदरी अपने फैसले पर टिक नहीं सकी. उस को लगा कि देवर विभीषण के साथ शादी करना गलत नहीं होगा. यह महसूस होने पर उस ने विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. तब विभीषण से उस की शादी हुई.

इतिहास में कई ऐेसे प्रसंग हैं जहां पति की मौत के बाद महिलाएं या तो सती हो जाती थीं या फिर देवर से शादी कर लेती थीं. देवर शब्द का अर्थ ही दो वर का माना जाता है. आज भी महिलाओं को जिस लक्ष्मणरेखा में रहने को कहा जाता है वह रामायण काल की उत्पत्ति है.

लक्ष्मण ने सीता को कुटी के अंदर रहने के लिए कहा था. बाहर एक रेखा गोल आकार में कुटी के चारों तरफ खींच दी थी. सीता ने लक्ष्मणरेखा का पालन नहीं किया. जिस से उन का अपहरण हो गया. आज महिलाओं को जब शिक्षा दी जाती है तो सब से अधिक उन को लक्षमणरेखा के अंदर रहने को कहा जाता है.

धर्मसत्ता का प्रभाव

आदमियों के लिए किसी काल में कोई लक्ष्मणरेखा नहीं बनी. अपराध इंद्र करते हैं, दंड अहल्या को मिलता है. महाभारत काल में द्रौपदी को अपने 5 पतियों के साथ रहना पड़ा, कुंती ने वस्तु सम?ा कर ऐसा आदेश उसे दे दिया था. धर्म की बात थी द्रौपदी कभी मुंह खोल कर मना नहीं कर पाई.

धर्मग्रंथों में महिलाओं के स्वतंत्र अस्तित्व को कभी स्वीकार नहीं किया गया. महिला को पिता, पति और पुत्र के अधीन रहने को कहा गया. महिला के लिए पति का स्थान ईश्वर से ऊपर बताया गया. पति को परमेश्वर कहा गया. पति की चरणदासी बन कर उस की आजीवन सेवा करने को ही महिला का धर्म कहा गया.

आज भी कई मंदिरों में 10 साल से 50 साल की उम्र की महिला को प्रवेश नहीं दिया जाता है. इस की वजह उन का मासिकधर्म माना गया. माह के 4 दिन महिला को अछूत सम?ा जाता है. सबरीमाला मंदिर का विवाद काफी चर्चा में रहा था. मासिकधर्म के दौरान महिला के लिए कई काम वर्जित माने जाते हैं. इस में महिलाओं के मंदिर जाने, अचार छूने, पूजा करने, खाना पकाने, पेड़पौधों को छूने और बाल धोने से मना किया जाता है. महिलाओं को शिक्षा, राजनीति ही नहीं, निजी जीवन में भी धर्मसत्ता के दबाव में काम करना पड़ता है.

19वीं शताब्दी में सावित्रीबाई फुले ने जो शुरुआत की, उस का प्रभाव महिलाओं पर देखने को नहीं मिलता है. उलटे, आज पढ़ीलिखी महिलाएं धर्म के दबाव में वह सब कर रही हैं जिस से खुद उन का प्रभाव घटेगा. जो समय महिलाओं को अपनी तरक्की, कारोबार, राजनीति में लगाना चाहिए वह समय वे धार्मिकसेवा में लगा रही हैं. आज पढ़ीलिखी महिलाओं ने डिग्री हासिल कर ली है, नौकरी करने लगी हैं लेकिन तर्कशक्ति का अभाव हो गया है.

आज उन को धर्म के कामों से जोड़ कर उन की ताकत को कमजोर किया जा रहा है. उन का काम पीली साड़ी पहन कर सिर पर कलश रख लंबेलंबे जुलूस में शामिल होने का बताया जाता है. महिलाएं इस काम को हंसीखुशी कर भी ले रही हैं. जो महिलाएं इस में हिस्सा नहीं लेतीं उन का बायकौट किया जाता है. उन को पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित बता कर उन के चरित्र पर भी हमला किया जाता है. ऐेसे में महिलाएं अपने सारे फैसले धर्मसत्ता के दबाव में लेने लगी हैं.

अमेरिका में हिंदू कट्टर सोच की तरह क्रिश्चियनिटी के कट्टरपंथ चर्च औफ जीसस क्राइस्ट औफ लैटर-डे सेंट्स की रिसर्च ने स्पष्ट किया है कि अमेरिका के जिन राज्यों में इस पंथ का प्रभाव है वहां महिलाओं का लेबर पार्टिसिपेशन कम है. 1900 में 20 फीसदी महिलाएं अमेरिका में लेबर फोर्स में थीं और अब लगभग 60 फीसदी हैं पर जहां चर्च उन्हें धार्मिक कामों में उल?ाए रखता है वहां वे न काम कर पाती हैं, न राजनीति में आगे हो पाती हैं.

हमारे यहां महिलाओं के लिए व्रत, त्योहारों, मंदिर दर्शनों, तीर्थयात्राओं की लंबी सूची है. ये बेहद थकाऊ तो होती ही हैं, जो भी महिलाएं इन्हें धर्मनिष्ठा से अपनाती हैं वे कभी भी राजनीति में कदम नहीं रख सकतीं, काम पर जाने में भी उन्हें दिक्कत होती है. किसी भी सरकार ने या संस्था ने इस बारे में कोई मुहिम चलाने की हिम्मत नहीं की.

एक महिला अपने पेट से बच्चा कब पैदा करे, इस को धर्म बता रहा है. डाक्टरों पर दबाव डाला जाता है कि शुभमुहूर्त में ही बच्चा गर्भ से बाहर आए. जिस महिला के बच्चा नहीं पैदा होता, उस से भी व्रत रखने, हवनपूजा करने के लिए कहा जाता है. पढ़ाईलिखाई के बाद भी महिलाएं खुद धर्म की जंजीरों को पहन ले रही हैं. वे इस बात का दिखावा करती हैं कि वे पूजापाठी हैं, कर्मकांड करती हैं, धर्म को मानती हैं.

महिला नेता भी खुद को धार्मिक दिखाती हैं. यह माना गया था कि राजनीतिक जागरूकता के बाद महिलाओं की सोच बदलेगी, लेकिन महिलाएं खुद को रूढि़यों की जंजीरों में जकड़ रही हैं. ऐसे में अब यह सवाल उठता है कि सावित्रीबाई फुले जैसी समाजसुधारक भी इन को कैसे सुधार पाती?

वौरियर मौम्स की जरूरत

‘वौरियर मौम्स’ नाम की संस्था का गठन दिल्ली में भवरीन कंधारी ने किया है जो प्रदूषण मुक्त शहरों की मांग कर रही हैं और इस चुनावी जंग में उतरे उम्मीदवारों से मांग कर रही हैं कि वे साफ हवा, कूड़े के सही निबटान, हैल्थकेयर, शिक्षा प्रबंध में सुधार और साफ ईंधन का वादा करें. वौरियर मौम्स की जरूरत इसलिए पड़ी है क्योंकि राजनीति में महिलाएं न के बराबर हैं और जो हैं भी, वे चुप रहती हैं क्योंकि सत्ता में बैठे लोग उन की नहीं सुनते.

साधारण म्यूनिसिपल सेवाएं जो आसानी से उपलब्ध कराई जा सकती हैं, आज देश की महिलाओं को नहीं मिल रही हैं क्योंकि वे अपने वोट देते समय धर्म, जाति, परंपराओं, संस्कारों को आगे रखती हैं. वे आगे बढ़ कर शासन संभालने में कोई रुचि नहीं दिखा रही हैं क्योंकि सदियों से जो जंजीरें धर्म और शासकों ने समाज के सहारे, पुरुषों की साजिश से उन्हें पहनाई हैं, आज भी वे उन्हें अपना गहना मानती हैं, अपना हक मानती हैं.

एक और स्वयंसेवी संस्था ‘स्वाभिमान’ हाशिए पर रह रही महिलाओं को पौष्टिक खाना, स्वास्थ्य सुविधाओं, स्वरोजगार की ट्रेनिंग आदि देने का काम कर रही है. पिछले साल इस संस्था ने करीब 72,650 युवतियों, लड़कियों व महिलाओं का सशक्तीकरण किया. ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान, आरती फौर गर्ल्स, राजस्थान समग्र कल्याण संस्थान, सेवा आदि बीसियों स्वयंसेवी संस्थाओं ने अपने गुट बना रखे हैं ताकि महिलाओं में चेतना लाई जा सके, उन्हें सुरक्षा दी जा सके, उन्हें स्वस्थ बनाया जा सके.

ये जंजीरें हैं कैसी

सवाल है कि राजनीति में पैठ बनाए महिलाएं आखिर क्या कर रही हैं जो देश में महिलाओं की स्थिति इतनी दयनीय बनी हुई है. इस की वजह ये संस्थाएं अगर जानती भी हैं तो कहना नहीं चाहतीं कि हर धर्म ने अपनी महिलाओं को अपने ग्रंथों में लिखे आदेशों के सहारे सदियों से दबा कर रखा है और आज 21वीं सदी में भी जब नागरिक अधिकारों की पहचान हो चुकी है, महिलाएं घरों में ही नहीं, दफ्तरों, बाजारों, स्कूलों, कालेजों, राजनीति में दोयम दर्जे पर हैं. वे उन अदृश्य जंजीरों से बंधी हैं जो कई सदी पहले टूट जानी चाहिए थीं. आजादी के 80 साल बाद भी और 150-200 वर्षों की शिक्षा के बावजूद उन को स्थान नहीं मिला है.

इस के लिए जहां धर्म दोषी है, वहीं वे महिलाएं भी दोषी हैं जो राजनीति में आईं पर उन्होंने अपनी ही बहनों की जंजीरों को काटने, तोड़ फेंकने में कोई रुचि नहीं दिखाई. उन की यह उदासीनता आज की औरतों को भारी पड़ रही है क्योंकि उन्हें लगता है कि जब कोई औरत पार्षद, पंच, सरपंच, विधायक, सांसद बन कर उन का कल्याण नहीं कर सकती तो वे उस पुरुष समाज का मुकाबला कैसे करें जो धर्म की दी गई जंजीरें उन्हें जन्म लेते ही पहले दिन पकड़ा देता है.

जब तक महिलाएं धर्म की मानसिक गुलामी से खुद को आजाद नहीं करेंगी, उन के लिए जौन औफ आर्क जैसी ताकत बनना संभव नहीं है. ये महिलाएं इतिहास का हिस्सा नहीं बन पाएंगी. पिछले 10 वर्षों में महिलाएं राजनीतिक रूप से हाशिए पर अपनी कमजोरी की वजह से पहुंची हैं क्योंकि वे धर्मसत्ता की पिछलग्गू बन कर रह गई हैं. महिलाएं आधी आबादी यानी 50 फीसदी होने के बाद भी अपनी पहचान को तरस रही हैं. इस के विपरीत 10-12 फीसदी वाले सत्ता में हिस्सेदारी ले कर सक्रिय राजनीति कर रहे हैं.

 

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