यह एक आम धारणा है कि प्राइवेट स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से अधिक होशियार होते हैं. इस के समर्थन में कई लोग बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे भी दिखा सकते हैं. लेकिन हकीकत कुछ और है. पहली बात तो यह है कि प्राइवेट स्कूलों में बच्चों को दाखिला देने के पहले ही चुना जाता है. कई बार उन्हें चुनने के लिए कठिन परीक्षा भी आयोजित कराई जाती है. जाहिर है कठिन परीक्षाओं को पास कर के आने वाले बच्चे अपेक्षाकृत अधिक होशियार हो सकते हैं. वैसे भी प्राइवेट स्कूलों में उन अमीर बच्चों को ही लिया जाता है जिन के परिजन अपने बच्चों के लिए महंगेमहंगे ट्यूशन जरूर लगवाते हैं.

ऐसा कतई नहीं है कि सरकारी स्कूलों की क्वालिटी खराब होती है या वहां पढ़ने वाले बच्चे अच्छे नंबर नहीं ला सकते. दरअसल स्कूल की क्वालिटी का मतलब महंगी बिल्डिंग, इंग्लिश माध्यम और बच्चों को मिलने वाली बेहतर सुविधाओं की चीजों से ही नहीं लगाया जा सकता.

यह सच है कि सरकारी स्कूलों में सुविधाएं बहुत कम होती हैं. साथ ही, सरकारी शिक्षक सही ढंग से अपनी ड्यूटी भी नहीं निभा पाते क्योंकि उन के हिस्से में बच्चों को पढ़ाने के अलावा भी बहुत-सी ‘नैशनल ड्यूटीज’ भी होती हैं. सरकारी स्कूल के शिक्षक चुनाव, जनगणना, पशुओं की गणना, हैल्थ सर्वे या ऐसे ही दूसरे कई कामों में व्यस्त रहते हैं. उस पर सरकारी स्कूलों में बच्चों की भारी संख्या के मुकाबले शिक्षकों की संख्या बहुत कम रहती है. फिर भी बच्चे मेहनत करें और साथ में ट्यूशन लें तो सरकारी स्कूलों के बच्चे किसी से कम नहीं.

आज का ट्रैंड हम यह देखते हैं कि अमीर परिवार तो अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते ही हैं, मध्यवर्गीय परिवार भी खींचतान कर के अपने बच्चों को किसी भी तरह प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ाता है. भले ही उन स्कूलों की फीस चुकाने में उन्हें अपने मंथली बजट में काफी कंजूसी करनी पड़ती है लेकिन उन स्कूलों में पढ़ा कर वे अपनी शान समझते हैं. सब जानते हैं कि प्राइवेट स्कूल फीस और दूसरे चार्जेज के नाम पर हमें लूटते हैं, फिर भी हम अपना स्टैंडर्ड दिखाने के लिए बच्चों को वहीँ भेजते हैं.

एक अनुमान के मुताबिक सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले करीब 90 प्रतिशत शिक्षकों के बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं. केवल गरीब परिवार के बच्चे ही मजबूरी में सरकारी स्कूलों में दाखिला लेते हैं. अब यहां सवाल यह भी है कि एक गरीब का बच्चा अपनी गरीबी की वजह से बराबरी और बेहतर शिक्षा से बेदखल क्यों रहे? क्या जरूरी नहीं कि हम सरकारी स्कूलों में इतने सुधार लाएं और सुविधाएं दें कि इन स्कूलों में भी बेहतर शैक्षणिक माहौल बने और वहां गरीबों के अलावा अच्छे परिवार के बच्चे भी दाखिला लेने लगें.

कई देशों, जैसे अमेरिका या इंगलैंड में अलगअलग वर्गों से आने वाले बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं. वहां अलगअलग आर्थिक स्तर और योग्यता रखने वाले बच्चे एकसाथ बैठतेउठते और पढ़तेलिखते हैं. सभी बराबरी के साथ बेहतर मौके तलाशते हैं. वहां की शिक्षा पब्लिक के हाथों में है. वहां के स्कूलों से ऊंचनीच की सारी असमानताओं को हटा दिया गया है. वहां के स्कूलों में प्रवेश के पहले चुना जाना जरूरी नहीं है. जबकि भारत में प्राइवेट स्कूलों पर ज्यादा भरोसा किया जाता है. इस से प्राइवेट सैक्टर से जुड़े लोगों को मनमाने तरीके से मुनाफा कमाने का मौका मिलता है.

जरूरी है कि पूरे देश के हर हिस्से में शिक्षा का एकजैसा ढांचा, एकजैसा पाठ्यक्रम, एकजैसी योजना और एकजैसी नियमावली बनाई जाए. इस से मापदंड, नीति और सुविधाओं में होने वाले भेदभाव बंद होंगे. प्राइवेट स्कूल जिस तरह मनमानी फीस वसूलते हैं, वह बंद होगा. शिक्षा के दायरे से सभी परतों को मिटा कर एक ही परत बनाई जाए. इस से हर बच्चे को अपनी भागीदारी निभाने का एकसमान मौका मिलेगा. सरकार को ऐसे स्कूलों की योजना बनानी चाहिए जो सारे भेदभावों का लिहाज किए बगैर सारे बच्चों के लिए खुली हो.

ट्यूशन कल्चर पर जोर गलत नहीं

भारत के ‘ट्यूशन कल्चर‘ को अकसर काफी बुराभला कहा जाता है लेकिन कम आय वाले कई ऐसे अभिभावकों के लिए उन के पड़ोस की ‘ट्यूशन आंटी’ या ‘मैथ्स सर’ एक जीवनदान की तरह हैं जो बच्चों को वे ज्ञान दे सकते हैं जो उन्हें सरकारी स्कूलों में नहीं मिल पाता. महंगी लागत के कारण अपने बच्चों को निजी से सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित करने वाले मातापिता निजी कोचिंग के लिए अतिरिक्त भुगतान करने को तैयार रहते हैं. इस तरह बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ कर भी पूरा ज्ञान मिल जाता है.

एनजीओ ‘प्रथम’ द्वारा 25 राज्यों और 3 केंद्रशासित प्रदेशों में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाशित 2021 की वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट (ऐनुअल स्टेटस औफ़ एजुकेशन रिपोर्ट – एएसईआर या असर) के अनुसार लगभग 40 प्रतिशत स्कूली छात्रों को ट्यूशन कक्षाओं में भी नामांकित कराया गया था.

साल 2018 और 2021 के बीच उन बच्चों में ट्यूशन लेने के अनुपात में 12.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई जिन के मातापिता ‘निम्न शिक्षा श्रेणी’ से आते हैं. हालांकि ‘उच्च शिक्षा श्रेणी’ से आने वाले अभिभावकों के मामले में बच्चों की निजी ट्यूशन में हिस्सेदारी में केवल 7.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी.

शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार सरकारी स्कूलों में छात्रों का नामांकन 2019-20 के 13,09,31,634 से बढ़ कर 2021-2022 में 14,32,40,480 हो गया. इस का मतलब है कि इस अवधि के दौरान 1.23 करोड़ अतिरिक्त छात्रों ने सरकारी स्कूलों में दाखिला लिया. इसी अवधि के दौरान निजी गैरसहायताप्राप्त स्कूलों में हुए नामांकन में 1.81 करोड़ से अधिक की गिरावट आई है. अकेले दिल्ली में इस साल कथित तौर पर 4 लाख बच्चों को उन के अभिभावकों द्वारा सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित किया गया.

बुनियादी ढांचे का विकास जरूरी

स्कूलों के बुनियादी ढांचे का विकास जरूरी है. वर्तमान में सरकारी स्कूलों में ज्यादातर मजदूर और कृषि श्रमिकों के बच्चे ही अध्ययन करते हैं. ओबीसी कैटेगरी के 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे सरकारी स्कूलों में नामांकित हैं. सामान्य वर्ग के कम ही लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं. इस से कुछ लोगों को यह लगता है कि सरकारी स्कूलों में नीची जाति के बच्चों के साथ उन के बच्चों को पढ़ना पड़ेगा. ऐसी सोच बदलनी जरूरी है.

समाज में जो भेदभाव है वही स्कूल की चारदीवारी में है. यदि समाज में समानता लानी ही है तो सब से अच्छा तो यही रहेगा कि इस की शुरुआत शिक्षा और बच्चों से ही की जाए. इस के लिए सभी स्कूलों को समान महत्त्व देना होगा.

जो भी प्रशासनिक अधिकारी हैं वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाते हैं. इसलिए इन स्कूलों की तरफ सरकार का ध्यान भी नहीं है. सत्ता में बैठे ज्यादातर जिम्मेदार व्यक्ति यह नहीं चाहते कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर सुधरे. यही वजह है कि शिक्षकों को गैरशैक्षणिक कार्यों में झोंका जा रहा है.

अच्छे वेतन के बावजूद सरकारी स्कूलों के कुछ शिक्षक ठीक से काम नहीं कर रहे. जर्जर स्कूलों की वजह से भी विद्यार्थी इन से दूर हो रहे हैं. इस से सरकारी स्कूलों की हालत दिनोंदिन बद से बदतर होती जा रही है. कहीं पर बच्चों की तुलना में शिक्षकों की संख्या ज्यादा है तो कहीं शिक्षकों का नितांत अभाव है.

इस प्रकार की विसंगतियों के चलते सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधरनी कठिन है. सरकारी स्कूलों की हालत सुधारने के लिए कई योजनाएं बनाई गई हैं लेकिन उन का क्रियान्वयन ठीक तरह से नहीं हुआ है. ग्रामीणों की बड़ी आबादी तो मिड डे मील और फ्री ड्रैस के लिए अपने बच्चों को स्कूल भेजती है.

जरूरी है कि सरकार सरकारी स्कूलों में सुधार पर ध्यान देना शुरू करे. पर्याप्त धन, वेल एडुकेटेड स्टाफ और बुनियादी ढांचे में इन्वैस्टमैंट के माध्यम से यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है. साथ ही, महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि अधिक से अधिक लोगों को इन स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.

सरकारी स्कूलों की उपेक्षा से निजी स्कूलों की पौ बारह हो रही है. समय आ गया है सरकारी स्कूलों की दयनीय हालत में सुधार करने की. सरकार सरकारी स्कूलों की सही मौनिटरिंग करे. लोग इन स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने से हिचकिचाएं नहीं. इन स्कूलों में पढ़ कर भी आप के बच्चे अच्छे नंबर ला सकते हैं और जीवन में नाम कमा सकते हैं.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...