70 का दशक हिंदी फिल्मों का सुनहरा दौर कहा जाता है क्योंकि इस वक्त में कलाकरों की पीढ़ी बदल रही थी. राजकपूर, दिलीप कुमार, सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार, देवानंद और राजकुमार सरीखे नायकों का कैरियर ढलान पर था और उन की जगह लेने नए नायकों का हुजूम उमड़ने लगा था लेकिन मुकाम राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, जीतेंद्र, संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा और ऋषि कपूर ही हासिल कर पाए जिन्होंने फिल्मों में लम्बी पारी खेली.

तब यह माना जाता था कि हिंदी फिल्मों के हीरो का चेहरा चौकलेटी होना एक अनिवार्यता है और एक हद तक यह सच भी था क्योंकि फिल्मों का भी स्वरूप बदल रहा था. एतिहासिक और पौराणिक फिल्में बनना कम हुई थीं उन की जगह रोमांटिक और एक्शन फिल्में ज्यादा बनने लगी थीं. ऐसे में हीरो से उम्मीद की जाती थी कि वह हीरोइन के साथ पार्कों में नाचे गाए भी और ढिशुमढिशुम में भी खलनायक को धूल चटा दे.

इन शर्तों को पूरा करने के लिए कई जानेअनजाने चेहरे फिल्मों में आए कुछ 3-4 दशक तक चले तो कुछ 3-4 फिल्मों में अपनी धमक दिखा कर गायब हो गए. उन की चर्चा आज भी फिल्म इंडस्ट्री में होती है क्योंकि उन की अभिनय प्रतिभा बिलाशक उत्कृष्ट थी. इन में से कईयों का हश्र देख लगता है कि वाकई फिल्म इंडस्ट्री में किस्मत एक बड़ा फैक्टर है, नहीं तो जो हीरो खासा नाम और कुछ पैसा कमा कर गुमनामी में खो गए या जिन्होंने बी और सी ग्रेड की फिल्मों से ही तसल्ली कर ली वे हीरो बनने के तमाम पैमानों पर खरे उतरते थे.

खासतौर से चेहरे के मामले में जो उन दिनों एक बड़ा फैक्टर हुआ करता था, फैक्टर वह आज भी है लेकिन उस के माने बदल गए हैं. चिकना चौकलेटी चेहरा अब गुम होता जा रहा है उस की जगह अब खुरदुरा सख्त और रफ चेहरा दर्शकों को भाने लगा है.

जो अपने वक्त में चमके लेकिन चमक को बरकरार नहीं रख पाए उन में एक अहम नाम नवीन निश्छल का है जो एक स्टाइलिश हीरो थे. 1970 में प्रदर्शित फिल्म ‘सावन भादो’ से नवीन निश्छल और रेखा दोनों ने फिल्म इंडस्ट्री में पांव रखा था. मोहन सहगल द्वारा निर्मित और निर्देशित यह फिल्म तत्कालीन पारिवारिक विवादों पर आधारित थी. गौरतलब है कि मोहन सहगल की सलाह पर ही नवीन निश्चल ने पुणे के एफटीआईआई से ऐक्टिंग में डिग्री ली थी.

रोमांस, मारधाड़, पारिवारिक षड्यंत्र, नाचगाना सबकुछ ‘सावन भादों’ में था. इसलिए इस ने बौक्स औफिस पर खासा पैसा इकट्ठा किया था. रेखा और नवीन दोनों को दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया था लेकिन नवीन अपना रुतबा और जगह कायम नहीं रख पाए, जबकि रेखा आज भी दर्शकों के दिलों पर राज करती हैं.

‘सावन भादों’ की कामयाबी में गीतसंगीत का भी अहम योगदान रहा था. ‘कान में झुमका चाल में ठुमका कमर पे चोटी लटके हो गया दिल का पुरजा पुरजा…’ और ‘सुनसुन ओ गुलाबी कली…’ गाने तो आज भी शिद्दत से सुने जाते हैं.

तब यह मान लिया गया था कि आने वाला वक्त नवीन निश्छल का है. पर बौलीवुड की खासियत है कि किसी भी कलाकार के कैरियर को किसी एक फिल्म से आंकना बड़ी भूल साबित होती है. यही नवीन के साथ हुआ.

उन की अगली फिल्में उम्मीद के मुताबिक नहीं चलीं हालांकि ‘सावन भादो’ के बाद आईं कुछ फिल्में हिट रहीं थीं मसलन परवाना, नादान, विक्टोरिया नंबर 203, बुड्डा मिल गया, हंसते जख्म और संसार. उन का यह स्टारडम बमुश्किल 3 साल ही रहा. इस के बाद उन की फिल्मों का फ्लौप होना शुरू हुआ तो फिर वे वापसी नहीं कर पाए. वो मैं नहीं, छलिया, पैसे की गुडिया, निर्माण, एक से बढ़ कर एक, से ले कर 1980 में आई कशिश तक लाइन से औंधे मुंह गिरीं थीं.

अब तक नवीन निश्छल गुजरे कल की बात हो चले थे. कुछ फिल्मों में वे बतौर सहायक अभिनेता दिखे जिन में ‘द बर्निंग ट्रेन’ और ‘देश द्रोही’ सरीखी मल्टीस्टारर फिल्मों से दर्शकों को याद आया कि अरे ये तो वही हीरो हैं. साल 1997 में आस्था फिल्म में भी सहायक भूमिका में वे रेखा के साथ नजर आए थे. इस फिल्म में भी उन्होंने प्रभावी अभिनय किया था. रेखा के साथ सैक्सी सीन देते वक्त उन की अभिनय क्षमता एक बार फिर उजागर हुई थी लेकिन तब तक फिल्म इंडस्ट्री में काफी कुछ बदल चुका था और नवीन जैसे आधा दर्जन हीरो फिलर हो कर रह गए थे.

नवीन निश्चल को वह मुकाम नहीं मिला जिस के वे हकदार थे तो इस की और भी कई वजहें हैं. मसलन उन की पारिवारिक जिंदगी. उन की दूसरी पत्नी गीतांजली ने साल 2006 में आत्महत्या कर ली थी. इस मामले में उन पर प्रताड़ना के आरोप लगे थे जिस के चलते कुछ दिन जेल की हवा भी उन्हें खानी पड़ी थी.

नवीन की पहली शादी नीलू कपूर से हुई थी जो देवानंद की नातिन थीं. 2-3 साल ही सही उन का कैरियर शबाब पर रहा और इसी दौरान वे केबरे डांस के लिए ज्यादा पहचानी जाने वाली ऐक्ट्रैस पद्मिनी कपिला से इश्क लड़ा बैठे थे. इस वजह से उन का नीलू से तलाक हुआ था.

आखिरी बार वे खोसला का घोसला फिल्म में नजर आए थे. इस के पहले कुछ टीवी सीरियल्स में भी उन्हें देखा गया था. साल 2011 में होली खेलने जब वे मुंबई से पुणे जा रहे थे तब हार्टअटैक से उन की मौत हो गई थी.

फिल्म इंडस्ट्री में नवीन निश्चल जैसे कलाकरों का योगदान कमतर नहीं आंका जा सकता जो आधे सफल और आधे असफल साबित हुए. ऐसा ही एक चर्चित नाम चिकने चेहरे वाले अभिनेता विनोद मेहरा का भी है. उन की पहली फिल्म तनूजा के साथ आई थी जिस का नाम था ‘एक थी रीता’.

1971 में ही प्रदर्शित 2 चर्चित फिल्मों लाल पत्थर और एलान से उन्हें पहचान मिली. विनोद मेहरा के चेहरे और व्यक्तित्व में एक खास किस्म की कशिश थी जो दर्शक उन्हें बारबार देखना पसंद करते थे. वे महज 45 साल जिए लेकिन इस दौरान उन्होंने कोई 90 फिल्मों में काम किया और हर फिल्म में अपनी ऐक्टिंग का लोहा मनवाया, फिर वह फिल्म ‘सफेद झूठ’ जैसी फ्लौप रही हो या ‘दो फूल’ जैसी हिट रही हो.

एलान फिल्म में वे एक खोजी पत्रकार की भूमिका में नजर आए थे. इत्तफाक से इस में उन के अपोजिट भी सावन भादो वाली रेखा ही थीं. इसी फिल्म में विनोद खन्ना भी एक अहम रोल में थे जो उन दिनों इंडस्ट्री में पहचान बनाने के लिए स्ट्रगल कर रहे थे.

इस फिल्म में ठूसठूस कर निर्देशक के रमनलाल ने मसाले भरे थे इसलिए फिल्म ने ठीकठाक बिजनेस कर लिया था लेकिन इस से विनोद मेहरा अपनी पहचान बनाने में सफल रहे थे. अगली ही फिल्म लाल पत्थर से वे समीक्षकों की निगाह में भी चढ़ गए थे क्योंकि इस फिल्म में राजकुमार, हेमा मालिनी और राखी जैसे मंझे कलाकारों से उन का मुकाबला था, जिस में वे कहीं से हल्के या कमजोर नहीं पड़े थे.

इस फिल्म में पियानो पर उन पर फिल्माया गाना ‘गीत गाता हूं मैं गुनगुनाता हूं मैं’, ‘मैं ने हंसने का वादा किया था इसलिए अब सदा मुस्कुराता हूं मैं…’ काफी हिट हुआ था.

कैमरे का सामना विनोद महरा ने बहुत कम उम्र में ही कर लिया था. 50 के दशक की 3 फिल्मों ‘अदल ए जहांगीर’, ‘रागिनी’ और ‘बेवकूफ’ फिल्मों में वे बाल कलाकार की भूमिका में देखे गए थे तुरंत इस के बाद उन्हें अमर प्रेम में देखा गया था लेकिन इस में वे सहायक कलाकार थे यह वह फिल्म थी. इस ने राजेश खन्ना को सुपर स्टार का दर्जा दिलाया था.

जानकर हैरानी होती है कि ये वही राजेश खन्ना थे जिन्हें 1965 में एक अखिल भारतीय प्रतिभा खोज प्रतियोगिता से खारिज कर दिया गया था और विनोद मेहरा को रनर का खिताब दिया गया था. लाल पत्थर और अमर प्रेम से विनोद मेहरा को कुछ फायदे भी हुए थे तो कुछ नुकसान भी उन्हें उठाना पड़े थे. उन पर अघोषित रूप से सहायक अभिनेता का ठप्पा लग गया था जो आखिर तक उन से चिपका रहा.

1973 शक्ति सामंत की ‘अनुराग’ फिल्म से उन्हें एक अलग पहचान मिली थी लेकिन वह भी तात्कालिक ही साबित हुई. इस फिल्म का नायक राजेश एक रईस परिवार का युवक है जो एक अंधी लड़की शिवानी ( मौसमी चटर्जी ) से प्यार करने लगता है. ‘अमर प्रेम’ के उलट अनुराग में राजेश खन्ना एक सहायक भूमिका में दिखे थे लेकिन फिल्म की सफलता का श्रेय बतौर हीरो विनोद मेहरा को ही मिला था. भावुकता से भरी इस फिल्म को सभी वर्गों के दर्शकों ने पसंद किया था.

इस के बाद विनोद महरा लीड रोल में कम ही दिखाई दिए लेकिन सहायक अभिनेता के तौर पर उन की कई फिल्मों ने कामयाबी के झंडे गाड़े. इन में साजन बिना सुहागन, स्वर्ग नर्क, कर्तव्य जुर्माना, खुद्दार, बेमिसाल, जानी दुश्मन, द बर्निंग ट्रेन, चेहरे पे चेहरा, प्यासा सावन, नौकर बीबी का के नाम उल्लेखनीय हैं. कशिश और द बर्निंग ट्रेन में नवीन निश्चल उन के साथ नजर आए थे.

विनोद मेहरा की संवाद अदायगी का अपना अलग अंदाज था जो कूल कहा जा सकता है. एक ऐसा अभिनेता जो आमतौर पर शांत दिखता है लेकिन उन की व्यक्तिगत जिंदगी भी उथलपुथल भरी रही. खूबसूरत और आकर्षक इस अभिनेता ने तीसरी शादी रेखा से की थी जिसे ले कर आज भी फिल्म इंडस्ट्री में तरहतरह की अफवाहें और बातें होती रहती हैं.

रेखा भी आमतौर पर इस पर खामोश रहती हैं. खुद जिन्होंने 3 शादियां की थीं. कहा जाता है कि 1973 में हुई रेखा विनोद की शादी 60 दिन ही चली थी. विनोद मेहरा की मां रेखा को पसंद नहीं करती थीं. इंडस्ट्री से जुड़े कुछ लोग यह भी मानते हैं कि दरअसल में इन दोनों ने शादी नहीं की थी यह एक चर्चित अफेयर था.

अफेयर तो विनोद मेहरा का ऐक्ट्रैस बिंदिया गोस्वामी से भी चला था जो शादी में भी तब्दील हुआ था लेकिन यह शादी भी ज्यादा नहीं चली और दोनों अलग हो गए. विनोद मेहरा की पहली शादी 1974 में मीना नाम की युवती से हुई थी जो महज 4 साल ही चली. बाद में दोनों ने तलाक ले लिया था.

उन्होंने आखिरी शादी किरण से 1987 में की थी. किरण से उन्हें 2 बच्चे भी हुए. अब विनोद मेहरा को चाहने वालों को लगने लगा था कि उन के भटकाव का दौर खत्म हो चुका है तभी 1990 में उन की जिंदगी ही खत्म हो गई वजह वही थी हार्ट अटैक.

इस में कोई शक नहीं कि विनोद मेहरा ने एक शानदार जिंदगी जी और अपनी शर्तों और समझौतों में जी. बौलीवुड के वह पहले ऐसे हीरो थे जो अपने दौर में किसी से उन्नीस नहीं था लेकिन उस ने कभी सहायक भूमिकाओं में आने को अपनी हेठी नहीं समझा.

चिकने चौकलेटी चेहरों की लिस्ट में एक अहम नाम अनिल धवन का भी शुमार होता है जो नवीन निश्छल और विनोद मेहरा के बराबर ही प्रतिभाशाली थे लेकिन उन के चेहरे पर एक अलग किस्म की मासूमियत भी थी. अनिल धवन का बेटा सिद्धार्थ भी पिता की तरह अभिनय के झंडे गाड़ रहा है तो भाई डेविड धवन का नाम किसी सबूत का मोहताज नहीं.

कानपुर से मुंबई फिल्मों में किस्मत आजमाने गए अनिल ने भी पुणे के एफटीआईआई से कोर्स किया था. जया भादुरी उन की बेचमेट थीं जिन के साथ उन्होंने साल 1972 में पिया का घर फिल्म में काम किया था. हालांकि उन्हें पहचान अपनी पहली ही फिल्म चेतना से ही मिल गई थी जिस में उन के अपोजिट रेहाना सुल्तान थीं.

चेतना की कहानी लीक से हट कर थी जिस में एक युवक एक कौलगर्ल से न केवल प्यार करने लगता है बल्कि उस से शादी भी कर लेता है लेकिन बाद की दुश्वारियां नहीं झेल पाता. 70 के दशक के युवाओं को यह फिल्म काफी पसंद आई थी क्योंकि नायक ने समाज से लड़ने का दुसाहस किया था. इस फिल्म का गाना ‘मैं तो हर मोड़ पर तुझ को दूंगा सदा…’ आज के प्रेमियों में भी उतना ही लोकप्रिय है जितना 60-62 साल पहले के प्रेमियों में हुआ करता था.

चेतना फिल्म के बिलकुल उलट ‘पिया का घर’ एक अलग समस्या पर बनी फिल्म थी जिस में महानगर के कपल्स को प्यार करने जगह और मौके कम मिलते हैं क्योंकि वे संयुक्त परिवार में रहते हैं जो दो कमरों के मकान में रहता है. विषय यह भी नया था और बासु चटर्जी के सधे निर्देशन ने तो इसे और भी प्रासंगिक बना दिया था. अनिल और जया दोनों को इस फिल्म से पहचान और तारीफें दोनों मिले थे लेकिन जल्द ही अनिल छोटीमोटी भूमिकाओं में सिमट कर रह गए.

शुरुआती फिल्में सफल हुईं तो अनिल धवन को भी कामयाब मान लिया गया. लेकिन दोचार हिट फिल्में देने के बाद भी उन की गाड़ी पटरी से उतर गई. दोराहा, मन तेरा मन मेरा, प्यार की कहानी और यौवन व हवस जैसी फिल्मों को बौक्स औफिस पर भाव नहीं मिला. इस के बाद वे भी बी ग्रेड की फिल्में करने लगे. मसलन सिक्का, ओ बेवफा और ताकतवर. हौरर फिल्में बनाने के लिए कुख्यात रामसे ब्रदर्स की फिल्मों ‘पुरानी हवेली’ और ‘खूनी पंजा’ वगैरह में भी उन्होंने एक्टिंग की लेकिन देख कर लगा नहीं कि ये वही अनिल धवन हैं जिन्होंने चेतना और पिया का घर जैसी प्रयोगवादी फिल्मों में शानदार अभिनय किया था.

बाद में कुछ वक्त काटने और कुछ पैसा कमाने की गरज से कुछ टीवी सीरियलों में भी उन्होंने काम किया लेकिन इस दौर का दर्शक उस दौर के अनिल धवन को नहीं जानता था. हां कुछ चरित्र भूमिकाओं में जरुर उन्होंने अपनी हाजिरी दर्ज कराई, जैसे हिम्मतवाला, जोड़ी नंबर वन और चल मेरे भाई सहित हसीना मान जाएगी.

जो चिकना चौकलेटी चेहरा कामयाबी की गारंटी माना जाता है वह न तो 70 के दशक में स्वीकार किया गया और न ही आज स्वीकार जा रहा है क्योंकि दर्शक खासतौर से युवा फिल्म के हीरो में खुद को तलाश करते हैं. यह बात उन्हें तीनों खान से ले कर कार्तिक आर्यन, राजकुमार राव और आयुष्मान खुराना में दिखती है तो बात कतई हैरत की नहीं.

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