बिहार की जनता के बाद सब से ज्यादा सकते और नुकसान में कोई है तो वे तेजस्वी यादव ही होंगे. बीते डेढ़ साल से चाचा नीतीश कुमार उन्हें छाती से लगाए घूम रहे थे, जिस के चलते मान यह लिया गया था कि युवा तेजस्वी बिहार के अगले मुख्यमंत्री होंगे.

इतिहास गवाह है कि मामाओं ने तो भांजों को परेशान किया है. उन्हें जान से मारने तक की कोशिश की लेकिन चाचाओं ने भतीजों की राह में कभी ऐसी दुश्वारियां खड़ी नहीं कीं जैसी कि बिहार के मुख्यमंत्री अपने उप मुख्यमंत्री भतीजे तेजस्वी यादव की राह में खड़ी कर रहे हैं.

बिहार में तेजस्वी की इमेज एक ऐसे परिपक्व नेता की बनती जा रही है जो आमतौर पर शांत और प्रतिक्रियाहीन रहना ज्यादा पसंद करता है. जबकि उन के पिता राजद मुखिया एक बड़बोले नेता के तौर पर जाने और पसंद भी किए जाते रहे हैं.

विरासत में मिली राजनीति को तेजस्वी ने सहेज कर ही रखा है और काम पर ज्यादा फोकस किया है. 3 दशकों से बिहार की राजनीति बेहद उथलपुथल भरी रही है. सरकारें गठबंधनों की ही बनती रहीं जिस की कमान पिछड़ों के हाथ में ही ज्यादा रही. पहले लालू यादव और फिर नीतीश कुमार ही बारीबारी मुख्यमंत्री बनते रहे. बीच में थोड़ा मौका दलित नेता हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के मुखिया जीतनराम मांझी को मिला था.

उठापटक और जोड़तोड़ के इस खतरनाक खेल को आज भी तेजस्वी मासूमियत से ही देख रहे हैं. बिहार की जनता की ही तरह वे यह भी बेहतर जानते हैं कि लालू यादव कोई ऐसीवैसी हस्ती या खिलाड़ी का नाम नहीं है हालांकि नीतीश के नए पैतरों से लालू भी कम बौखलाए हुए नहीं हैं, जिन्होंने अप्रैल 2019 में लोकसभा चुनाव की वोटिंग के वक्त नीतीश कुमार के बारे में ट्वीट किया था कि –

– वह दोमुंहा सांप है. कब किधर जाएगा किसी को पता है. कोई लेगा उस की गारंटी? लेगा कोई?. गौरतलब है कि नीतीश को पलटू राम नाम भी लालू ने ही दिया था. इस के पहले 3 अगस्त 2017 को लालू ने एक ट्वीट करते कहा था कि-

– नीतीश सांप है जैसे सांप केंचुल छोड़ता है वैसे ही नीतीश भी केंचुल छोड़ता है और हर 2 साल में सांप की तरह नया चमड़ा धारण कर लेता है किसी को शक ?

इस पर एक यूजर एनके खेतान ने चुटकी लेते प्रतिक्रिया दी थी कि लो भाई अब तो एनाकोंडा को भी नीतीशजी सांप लगने लगे हैं. हालिया उठापठक पर लालू के ट्वीट का हवाला देते एक यूजर मुलायम सिंह यदुवंश लिखते हैं, ‘बिहार में मौजूदा सरकार रहेगी या नहीं यह 1-2 दिन में तय हो जाएगा लेकिन नेता के रूप में तेजस्वी यादव ने अपना कद इतना बड़ा कर लिया है कि 18 साल से मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार बौने दिखने लगे हैं. विश्वसनीयता के मामले में नीतीश देश के राजनेताओं में सब से नीचे हैं.’

तो फिर क्यों यादव परिवार ने सांप को गले में लटकाया था जबकि सांप के काटे का मंत्र उसे नहीं आता. जाहिर है यह जेल में बंद लालू का पुत्र मोह था. वह तेजस्वी को बिहार का मुख्यमंत्री बनते देखना चाहते थे. हालफिलहाल तो उन के मंसूबों पर छोटे भाई ने पानी फेर दिया है.

लेकिन ऐसा क्या हो गया था कि नीतीश कुमार एकाएक ही घबरा गए? इस का जबाब खोजने 10-12 दिन पीछे चलना पड़ेगा लेकिन उस के भी पहले यह मानना पड़ेगा कि तेजस्वी यादव की बढ़ती लोकप्रियता और स्वीकार्यता से नीतीश डरने लगे थे और उसे हजम नहीं कर पा रहे थे. यह एक फिजूल की बात और बहाना है कि इंडिया गठबंधन में उन्हें उन की हैसियत के मुताबिक इज्जत नहीं मिल रही थी और उन्हें प्रधानमंत्री भी घोषित नहीं किया गया था जिस के चलते उन्हें घुटन हो रही थी.

18 जनवरी को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव पटना पहुंचे थे तो बिहार के भाजपाई यादवों ने ड्रामा ऐसा किया मानो साक्षात कृष्ण आ गए हों और उन के हाथ में सुदर्शन चक्र भी है. सियासी हलकों में मोहन यादव को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाए जाने की बड़ी वजह यही मानी गई थी कि भाजपा यादवों से अपनी दूरी कम करना चाहती है और अपनी यादव विरोधी इमेज भी धोना चाहती है.

मोहन यादव को यह पट्टी पढ़ा कर भेजा गया था कि तुम्हें वहां लालू या नीतीश की नहीं बल्कि कृष्ण और यदुवंश की जज्बाती बातें करते रहना है और यही यादव लेंड में मोहन यादव ने किया भी. जब भी उन्होंने कृष्ण और मोदी का नाम लिया तब उन के नाम के जयकारे लगे.

ऐसे में मुमकिन है कि लालू यादव का नाम लेने पर मीटिंग में मौजूदा यादव झोंक में उन की भी जयजयकार कर देते. ऐसा अगर होता तो भगवा गैंग की खासी किरकिरी होती. हालांकि इन बातों के कोई तात्कालिक या दीर्घकालिक माने नहीं हैं ऐसा सोचना भी जल्दबाजी होगी. लेकिन यह इत्तफाक की बात नहीं है कि मोहन यादव के पटना दौरे के बाद ही नीतीश को दोबारा भगवा खेमे में सहारा दिखा और वह भूल गए कि सार्वजनिक तौर पर वह कह चुके हैं कि मर जाऊंगा लेकिन भाजपा से हाथ नहीं मिलाऊंगा.

अब सक्रांति बाद बिहार में खिचड़ी जो भी पकती रही हो जल्द सामने आ जाना है लेकिन यह तय दिख रहा है कि अगर कोई डील नीतीश और भाजपा के बीच हुई है तो उस के तहत यादवों को ज्यादा अहमियत दी जाएगी. मुमकिन है एक उपमुख्यमंत्री यादव समुदाय से लिया जाए.

शल्य या युयुत्सु

बिहार में अब क्या होगा इस सस्पेंस से पर्दा उठने में अभी कुछ घंटे बाकी हैं. लेकिन पलटी मार, पलटू राम और पाला बदलू के नाम से कुख्यात हो गए नीतीश कुमार को देख सहज ही महाभारत के 2 पात्रों युयुत्सु और शल्य की याद हो आती है.

महाभारत के युद्ध के पहले ही पांडवों के बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर ने एलान किया था कि यह धर्मयुद्ध है और वह अधर्म के खिलाफ लड़ रहे हैं. यदि कोई योद्धा अधर्म के खिलाफ लड़ना चाहता है तो उस का स्वागत है.

युयुत्सु कौरवों में से एक था लेकिन दासी पुत्र था जिस का एक नाम सुधड़ा भी था. कहा जाता है कि वह इकलौता कौरव था जो सामान्य प्रसव से पैदा हुआ था. युधिष्ठिर की बात सुन वह पांडव सेना में शामिल हो गया था और कौरवों के खिलाफ लड़ा था. दिलचस्प बात यह भी है कि वह इनेगिने कौरवों में से एक था जो युद्ध के बाद जिंदा बच गए थे. और जिसे युधिष्ठिर ने अपना मंत्री भी बनाया था. गांधारी और धृतराष्ट्र का अंतिम संस्कार भी उसी ने किया था.

बिहार की लड़ाई भी कुछकुछ धर्म और अधर्म की बनाई जा रही है जिस की जड़ में राजद कोटे से मंत्री चन्द्र शेखर यादव हैं, जिन का पिछले दिनों ही नीतीश कुमार ने विभाग बदला है. शिक्षा मंत्री रहते चन्द्र शेखर यादव हर कभी रामचरित मानस की बखिया उधेड़ते रहे थे. उन के मुताबिक यह ग्रंथ भेदभाव फैलाने वाला है.

कुछ दिन पहले तो उन्होंने रामचरित मानस की तुलना पोटेशियम साइनाइड तक से कर दी थी. भगवा गैंग के नजरिए से तो चन्द्र शेखर विधर्मी टाइप के आइटम हैं. ठीक वैसे ही जैसे सपा के स्वामी प्रसाद मौर्य और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री हम के मुखिया जीतनराम माझी हैं.

बिहार कभी सनातन विरोधी माने जाने वाले वामदलों का गढ़ रहा है और उस का असर अभी भी वहां है, जहां उस के 243 में से 16 विधायक हैं. नीतीश कुमार दिलचस्प इन मानों में भी हैं कि वे जरूरत पड़ने पर सभी से हाथ मिला लेते हैं. कम्युनिस्टों से भी, राजद से भी, कांग्रेस से भी और भाजपा से भी.

ऐसे में यह तय कर पाना मुश्किल है कि वे किस विचारधारा या गुट की तरफ से, किस की लड़ाई लड़ रहे हैं. हालिया विवाद पर लालू यादव की बेटी रोहिणी का वह कमेंट भी कम जिम्मेदार नहीं बताया जा रहा जिस में उन्होंने नीतीश को उन के समाजवादी होने को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था.

यह देख याद आती है पांडवों के मामा मद्र के राजा शल्य की भी जो महाभारत की लड़ाई में गए थे तो पांडवों की तरफ से लड़ने, लेकिन दुर्योधन के छल कपट की वजह से उन्हें कौरवों की तरफ से लड़ना पड़ा था. बाद में वे सूत पुत्र कर्ण के सारथी बने थे. उन का झुकाव पांडवों की तरफ था. इसलिए वह कर्ण की हिम्मत तोड़ने वाली बातें किया करते थे. इस बाबत यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की उन्होंने बाकायदा दुर्योधन से इजाजत भी ले रखी थी.

बिहार का महाभारत

इन दिनों मिनी कुरुक्षेत्र बने बिहार के महाभारत में भी इतिहास का ही दोहराव हो रहा है जिस में यह साफ नहीं हो पा रहा कि कौन किस के साथ है और किस बात या विचारधारा की लड़ाई लड़ रहा है.

चिराग पासवान और जीतनराम मांझी को नीतीश कुमार फूटी आंख भी नहीं भाते लेकिन वे भाजपा के नजदीक होने के चलते उन के साथ जाने को तैयार हैं. यानी तथाकथित धर्म की लड़ाई लड़ने में उन के साथ हैं. नीतीश कुमार इन में सब से संदिग्ध हैं जो बतौर विचारधारा कौन सी लड़ाई लड़ रहे हैं या शायद राम भी न जाने. यह तय कर पाना भी मुश्किल है कि वे शल्य के रोल में हैं या युयुत्सु की भूमिका में हैं.

अपनी भूमिकाएं वे बदलते रहते हैं. उन की मुख्य भूमिका सत्ता में जमे रहने की है जिस के बाबत वे विचारधारा भी बदल लेते हैं. उन्हें देख लगता यही है कि ये गुट, पाला और पलटी कहने भर की बातें हैं नहीं तो अंतिम सत्य सत्ता है जिस की लड़ाई घरघर में लड़ी जाती है.

बिहार के यादवों को 2 फाड़ करने की भाजपाई कोशिश कितनी कामयाब हुई यह तो लोकसभा और उस से भी ज्यादा उस के डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में वोटर तय करेगा, जो अब रोजरोज के तमाशे और झिखझिख देख उबने और खीझने लगा है.

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