Shiv Sena vs Shiv Sena Verdict : महाराष्ट्र में शिवसेना के 16 विधायकों की अयोग्यता मामले में फैसला सुनाते हुए विधानसभा स्पीकर राहुल नार्वेकर ने शिंदे गुट को सही ठहराया. जिस के बाद शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने स्पीकर पर तंज कसा और कहा कि आज लोकतंत्र की हत्या हुई है. महाराष्ट्र में असली शिवसेना कौन है, इसे ले कर पिछले डेढ़ साल से चल रही दावेदारी की लड़ाई में एक बड़ा मोड़ तब सामने आया जब महाराष्ट्र के विधानसभा स्पीकर राहुल नार्वेकर ने सुप्रीम कोर्ट की बारबार की फटकार के बाद दी गई मोहलत के आखिरी दिन यानी 10 जनवरी को अपना फैसला सुनाया.

स्पीकर राहुल नार्वेकर ने चुनाव आयोग का हवाला देते हुए एकनाथ शिंदे गुट को राहत दी है. नार्वेकर ने अपने फैसले में कहा कि असली शिवसेना शिंदे गुट की है और उद्धव ठाकरे गुट ने नियमों को ताक पर रख कर विधायकों को सस्पैंड किया था.
स्पीकर के फैसले पर पूर्व सीएम उद्धव ठाकरे ने कहा कि हम जनता को साथ ले कर लड़ेंगे और जनता के बीच जाएंगे. स्पीकर का आज जो आदेश आया है, वह लोकतंत्र की हत्या है और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी अपमान है.

सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि राज्यपाल ने अपने पद का दुरुपयोग किया है और गलत किया है. अब हम इस लड़ाई को आगे भी लड़ेंगे और हमें सुप्रीम कोर्ट पर पूरा भरोसा है. सुप्रीम कोर्ट जनता और शिवसेना को पूरा न्याय दिए बिना नहीं रुकेगा.

शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत ने स्पीकर के फैसले पर सवाल उठाते हुए बीजेपी पर शडयंत्र करने का आरोप लगाया है. शिवसेना के पास यही विकल्प भी बचा है क्योंकि इस से पहले चुनाव आयोग भी शिंदे गुट के पक्ष में ही फैसला सुना चुका है.

न्याय मिलना सरल नहीं

महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर राहुल नार्वेकर के फैसले से शिवसेना संतुष्ट नहीं है. इस के खिलाफ वह सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी में है. संवैधानिक संस्थाओं को इसलिए बनाया गया था कि वे ज्यादा प्रभावी फैसला कर सकती हैं. हाल के कुछ सालों में संवैधानिक संस्थाओं ने ऐसे फैसले दिए जो विवादित रहे हैं.

महाराष्ट्र के इस मसले में चुनाव आयोग और विधानसभा स्पीकर दोनों के फैसलों से शिवसेना उद्धव गुट संतुष्ट नहीं रहा. यह पहली बार नहीं है कि विधानसभा स्पीकर के फैसले पर सवाल उठे हों. जब भी राजनीतिक दलों में दलबदल या तोड़तोड़ होती है, विधानसभा स्पीकर का फैसला मान्य होता है.

लोकसभा और राज्यसभा से ले कर विधानसभाओं तक एकजैसा ही दस्तूर चल निकला है. लोकसभा में अभी 142 सांसदों को निलंबित किया गया. वहां भी सवाल खड़े हो रहे हैं. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ काफी चर्चा में रहे हैं. अब सदन में सत्ता और विपक्ष के बीच संतुलन रखना सरल नहीं रह गया है. फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाना सरल हो गया है. संवैधानिक संस्थाओं के फैसले जिस तरह से विवादों में फंस रहे हैं उस से न्याय में देरी होगी और अब ये फैसले सरल नहीं होंगे.

क्यों खास है विधानसभा स्पीकर ?

विधानसभा के अध्यक्ष किसी भी राज्य में राजनीतिक उठापटक को देखते हुए साल 1985 में पास किए गए दलबदल कानून का सहारा ले सकते हैं. इस कानून के तहत सदन के अध्यक्ष कई हालात में फैसला ले सकता है. अगर कोई विधायक खुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है, अगर कोई निर्वाचित विधायक पार्टी लाइन के खिलाफ जाता है, अगर कोई विधायक पार्टी व्हिप के बावजूद मतदान नहीं करता है, अगर कोई विधायक विधानसभा में अपनी पार्टी के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करता है, तो संविधान की 10वीं अनुसूची में निहित शक्तियों के तहत विधान सभा अध्यक्ष फैसला ले सकता है.

बदलबदल कानून के तहत विधायकों की सदस्यता रद्द करने पर विधानसभा अध्यक्ष का फैसला आखिरी हुआ करता था. 1991 में सुप्रीम कोर्ट ने 10वीं सूची के 7वें पैराग्राफ को अवैध करार दिया. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि स्पीकर के फैसले की कानूनी समीक्षा हो सकती है.

विधानसभा स्पीकर को ले कर होते थे समझौते

सरकार चलाने में विधानसभा स्पीकर की भूमिका बहुत प्रभावी होती है. ऐसे में गठबंधन की सरकार चलाने में दल यह चाहते थे कि स्पीकर उन का हो. उत्तर प्रदेश में 1995 से 2004 तक गठबंधन की सरकारों का दौर चल रहा था. बसपा और भाजपा का गठबंधन होता था. जिस में यह तय होता था कि पहले 6 माह बसपा नेता मायावती मुख्यमंत्री रहेंगी, उस के बाद भाजपा नेता कल्याण सिंह मुख्यमंत्री होंगे. मायावती पहले मुख्यमंत्री बनीं. जब कल्याण सिंह का नंबर आया तो मायावती ने विधानसभा भंग करने का फैसला किया. उधर भाजपा ने मायावती के पैतरें का जवाब देने के लिए बहुजन समाज पार्टी में दलबदल करा दिया. यहां पर विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका खास हो जाती थी.

भाजपा ने उस दौर में केसरीनाथ त्रिपाठी को अपना विधानसभा स्पीकर बनवाया था. केसरीनाथ त्रिपाठी अच्छे वकील थे. उन के फैसले ऐेसे होने लगे जिन का लाभ भाजपा को मिलता था. वे जो फैसला देते थे उस की काट कोर्ट में भी नहीं हो पाती थी. इस के बाद यह परिपाटी शुरू हो गई कि गठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री एक गुट का होता था तो विधानसभा स्पीकर दूसरे गुट का. इस से यह पता चलता है कि गठबंधन सरकारों में विधानसभा स्पीकर का महत्त्व कितना और क्यों होता है ?

साल 2011 में कर्नाटक में भी इसी तरह का मामला सामने आया था. तब कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष ने बीजेपी के 11 विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी थी. जब यह मामला हाईकोर्ट पहुंचा तो विधायकों की सदस्यता रद्द किए जाने के पक्ष में फैसला आया. लेकिन जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर की अध्यक्षता वाली पीठ ने विधायकों की सदस्यता रद्द नहीं करने का फैसला सुनाया.

साल 1992 में एक विधायक की सदस्यता रद्द किए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट और मणिपुर के विधानसभा अध्यक्ष एच बोडोबाबू के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई थी. कई बार ऐसे मौके आए, जब विधानसभा अध्यक्षों की भूमिका और उन के अधिकारों को ले कर अदालतों में बहस हुई हैं. संविधान ने जिस तरह से विधानसभा अध्यक्ष और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को अधिकार दिए थे, अब ये उस तरह से फैसले नहीं कर रहे.

इस वजह से इन संस्थाओं के भरोसे पर सवाल उठाने लगे हैं. न्याय कठिन हो गया है. हर व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट से ही राहत की उम्मीद करने लगा है. वहां तक पहुंचना सरल नहीं रह गया है. खर्च वाला काम है. संवैधानिक संस्थाओं के फैसले लोगों को संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं.

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