देश की रक्षा करना बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है और आमतौर पर रक्षा पर होने वाले खर्च पर सवालजवाब भी नहीं किए जाते. सरकारें रक्षा पर वास्तव में कितना खर्च करती हैं, यह सब देशों में छिपा रहता है क्योंकि बहुत सा खर्च कुछ और मदों में दर्ज कर छिपा दिया जाता है पर क्या 21वीं सदी में देशों को रक्षा पर इतना खर्च करना चाहिए जितना वे खर्च कर रहे हैं?

भारत सरकार ने हाल में 2,25,000 करोड़ रुपए 97 तेजस लड़ाकू विमान और 156 प्रचंड हैलिकौप्टर खरीदने के लिए मंजूर किए हैं. यह युद्ध के लिए खर्च नहीं है, अगर युद्ध हो जाए तो बचाव के लिए वे दुश्मन पर वार करने के लिए हैं. पिछले डेढ़दो सौ वर्षों के दौरान जनता पर हो रहे हमलों से जनता को बचाने के लिए कोई बड़ा युद्ध भारत में नहीं हुआ है जैसा पहले और दूसरे विश्वयुद्धों में हुआ था जिन में शहर के शहर दूसरों के हाथों में चले गए थे.

वर्ष 1945 के बाद एक सेना का दूसरे देश पर कब्जा केवल इक्कीदुक्की जगह हुआ. इजराइल ने 1967 में किया, इराक ने कुवैत पर किया. रूस अब यूक्रेन में कर रहा है. अफ्रीका के कुछ देशों में होता है. अफगानिस्तान में रूसी और अमेरिकी कब्जे के युद्ध हुए पर दोनों कहते यही रहे कि वे अफगानिस्तान की आजादी के लिए लड़ रहे हैं.

युद्ध का हौवा एक तरह से पुराने राजाओं की विरासत है जो चुने हुए प्रतिनिधियों वाले देशों के शासकों ने अपना ली है. रूस, अमेरिका, इंग्लैंड, भारत, चीन की सरकारें अब कहने को जनता के लिए काम करती हैं. ये जनता के सुख के लिए चुनी या नियुक्त होती हैं, जनता को युद्ध में ?ांकने के लिए नहीं. यह बात दूसरी है कि देशप्रेम व देशभक्ति का नाम ले कर जनता को बहकाया जाता है और वह नेता जो वादा कर के चुनाव लड़े कि वह देश की रक्षा करेगा, कुछ ज्यादा वोट पा जाता है.

जनता की आमतौर पर अपने देश की सीमाओं से ज्यादा घर की सीमा में हो रहे मामले में रुचि होती है. अपराधियों से सुरक्षा मिल रही है या नहीं, जनता की कमाई पर सरकारी व गैरसरकारी डाका तो नहीं डाला जा रहा, सरकार जनता को सडकें, पानी, बिजली, शिक्षा, बागबगीचे मुहैया करा रही है या नहीं आदि जनता के लिए ज्यादा जरूरी हैं.

पर ज्यादातर देशों की सत्ताधारी पार्टियां दूसरे देशों का हौवा खड़ा रखती हैं. अमेरिकी सरकार रूस व चीन का हौवा दिखाती है. भारत सरकार पाकिस्तान व चीन का और चीन अमेरिका का. एकदूसरे का नाम ले कर सब सरकारें जनता की मेहनत का बहुत बड़ा हिस्सा सैनिक सामान पर बरबाद कर देती हैं. एक सड़क टूटीफूटी होने पर बरसों चल जाती है, मैला स्कूल भी शिक्षा देता रहता है पर एक खास पेंच न हों, तो एक टैंक या हवाई जहाज कबाड़ में चला जाता है.

देशों के नेताओं को सब से बड़ी आमदनी सेना व ठेकों से होती है. सेना का सामान खरीदने में हेराफेरी पर राजीव गांधी की सरकार गई थी. दुनियाभर में कितनी ही हत्याएं उन की होती हैं जिन्होंने सैनिक सामान की बिक्री में हेरफेर की या उस की जानकारी एक्सपोज की. विकिलीक्स के जूलियन असांजे को कितनी ही सरकारें पकड़ कर बंद रखना चाहती हैं क्योंकि उस ने सैनिक खरीद का भंडाफोड़ किया. इंटरनैशनल कंसोर्टियम औफ जर्नलिस्ट्स बीचबीच में सैनिक लेनदेन में हुईं रिश्वतखोरी को एक्सपोज करता रहता है पर हमारा मीडिया और नेता आमतौर पर चुप ही रहते हैं.

भारत को सैनिक सामान खरीदना होगा क्योंकि चीन और पाकिस्तान दोनों खरीद रहे हैं. पर आदर्श स्थिति तो वह होगी जब तीनों देश जनता का खयाल रखें, अपने बमों का नहीं.

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