धर्म बहुत बड़ी राजनीतिक शक्ति है या अब राजनीति बहुत बड़ी धार्मिक शक्ति हो गई, यह तय कर पाना कभी कोई मुश्किल काम नहीं रहा. 3 दिसंबर को आए 5 में से 4 राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे खास इस धारणा की पुष्टि करते हैं. नतीजों के बाद हार और जीत का विश्लेषण करना ज्यादा आसान काम होता है.

नतीजों में हिंदी पट्टी के 3 राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तमाम अनुमानों को पीछे छोड़ते हुए भारतीय जनता पार्टी अप्रत्याशित तरीके से बाजी मार ले गई और सकते में पड़े कांग्रेसी व सियासी पंडित गिनाते रह गए कि दरअसल भाजपा का संगठन बूथ लैवल तक मजबूत था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गारंटियों पर लोगों ने भरोसा किया और कांग्रेस हवाहवाई राजनीति करती रही.

इन में से तीसरी वजह सियासी तौर पर हकीकत के ज्यादा नजदीक लगती है लेकिन इसे बारीकी से अभी भी कम ही लोग समझ पा रहे हैं. चुनाव किस या किन मुद्दों पर लड़ा गया जिन के चलते वोटिंग के आखिरी दिनों में जीत भाजपा की झोली में जा गिरी, इस के लिए एक सनातनी संत राम भद्राचार्य का चुनाव के पहले दिया एक बयान काफी अहम है जिस में उन्होंने कहा था कि यह चुनाव धर्म की लड़ाई है जिस में भाजपा जीतेगी.

जगतगुरु के खिताब से नवाज दिए गए राम भद्राचार्य जन्मांध हैं जिन की दूरदृष्टि का कायल हर कोई रहता है. वे कई भाषाओँ के जानकार हैं. वे निहायत ही लुभावने और पेशेवर अंदाज में भागवत और रामकथा बांचते हैं. इस से भी ज्यादा अहम बात यह कि वे राम मंदिर मुकदमे के अहम गवाह हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट की इस शंका को सनातनी धर्मग्रंथों के हवाले से दूर किया था कि राम दरअसल उसी स्थान पर जन्मे थे जिसे उन की जन्मभूमि बताया जा रहा है.

धर्म का कार्ड और मोदी

कहने का मतलब यह नहीं कि लोगों ने उन के कहने पर ही वोट किया बल्कि हुआ यह कि हिंदीभाषी राज्यों के लोगों के दिलोदिमाग में जो कशमकश चुनाव के 6 महीने पहले से चल रही थी, वह इस और ऐसे कई संतों की सक्रियता से दूर हो गई. लोगों को ज्ञान प्राप्त हो गया कि हमंे दिमाग की नहीं, बल्कि दिल की आवाज पर वोट करना है. हमें लोकतंत्र के लिए नहीं, बल्कि धर्मतंत्र के लिए वोट करना है. हमें उस पार्टी के लिए वोट करना है जो हमें धार्मिक सुरक्षा की गारंटी देती है, हमारी औरतों और मंदिरों की हिफाजत की बात करती है. ऐसी कई और बातों के अंदरूनी व खुले प्रचार ने एक नशे सा असर किया और बाजी कुछ इस तरह पलटी कि लोग खुद की रोजमर्राई जिंदगी से ताल्लुक रखते बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे अहम मुद्दों को भूल गए.

यह सब रातोंरात नहीं हुआ, बल्कि सालों से जो डर हिंदुओं के दिमाग में बैठाया जा रहा है उस का राजनीतिक और चुनावी इजहार भर एक बार फिर 3 दिसंबर को था. इन राज्यों के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिहाज से बेहद अहम हो गए थे क्योंकि इसी साल उस ने हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों की सत्ता कांग्रेस के हाथों गंवाई है. पश्चिम बंगाल में तो उसे गांवों के चुनावों तक में मुंह की खानी पड़ी. ये हारें 2024 के चुनावों के मद्देनजर बेहद अहम थीं जिन के चलते उसे खासतौर से हिंदीभाषी राज्यों में भगवा परचम लहराना करो या मरो वाली बात हो गई थी.

पहली बार मोदी पर संशय

10 साल में पहली बार ऐसा हुआ था कि लोग नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और स्वीकार्यता को शक की निगाह से देखने लगे थे और एक हद तक उन्होंने राहुल गांधी में वैकल्पिक संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी थीं. दो टूक कहें तो मतदाता के मन से धर्म की राजनीति का सुरूर उतरने लगा था. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के लोगों ने भाजपा के धार्मिक एजेंडे को नकारते साफ मैसेज दे दिया था कि अब यह नहीं चलेगा.
तो क्या चलेगा? यह भाजपा को भी समझ नहीं आ रहा था लेकिन उस ने हथियार नहीं डाले और अब तक का सब से बड़ा जुआ खेला. आमतौर पर विधानसभा चुनाव क्षेत्रीय क्षत्रपों के चेहरे बतौर मुख्यमंत्री पेश कर ही चुनाव लड़े जाते हैं जिस से वोटर के मन में प्रदेश के विकास और भविष्य को ले कर आशंकाएं न रहें.

सितंबर आतेआते राज्यों की तसवीर और माहौल बेहद साफ हो गया था कि भाजपा की राह आसान नहीं रह गई है तो चुनाव नरेंद्र मोदी के चेहरे और नाम पर लड़ने का फैसला भाजपा ने ले लिया. हालांकि यह उस वक्त के लिहाज से बहुत बड़ा जोखिम था लेकिन भाजपा के पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं बचा था.

मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया सहित छत्तीसगढ़ में डाक्टर रमन सिंह दरअसल बहुत कट्टरवादी इमेज वाले नेता नहीं थे. ये औसत से बेहतर उदारवादी इमेज वाले नेता थे जिन के नाम पर लड़ने में भाजपा हिचक रही थी. उसे इन राज्यों के साथसाथ 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा जैसे कट्टर हिंदुत्व की इमेज वाले चेहरों की दरकार थी जो सरेआम मुसलमानों और इसलाम से नफरत प्रदर्शित करने में हिचकते न हों बल्कि फख्र महसूस करते हों. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के हश्र से पार्टी को समझ आ गया था कि केवल राम, हनुमान और शंकर की जयजयकार से बात नहीं बनती. समाज के माहौल को मुसलिमविरोधी और हिंदुत्वहिमायती बनाया जाना चाहिए.

तब उस की चिंता दलित और आदिवासी कम वे सवर्ण ज्यादा थे जो उस का कोर वोटबैंक हुआ करता है. अगर यह भी हाथ से खिसक गया तो हथेलियां ही मलते रहना पड़ेगा. चूंकि बहुत कम वक्त में कट्टर चेहरे छांट कर उन्हें बतौर मुख्यमंत्री पेश कर जनता को लुभाना मुश्किल काम था, इसलिए उस ने नरेंद्र मोदी के नाम पर दांव खेला.

और फिर यों बिसात बिछाई

नरेंद्र मोदी के नाम पर विधानसभाओं के चुनाव लड़ने से जरूरी यह था कि माहौल इतना धर्ममय कर दिया जाए कि वोटर को सिवा सनातन और हिंदू राष्ट्र के कुछ और दिखे ही न.

देखते ही देखते बहुत हैरतअंगेज तरीके से चारों तरफ नए पुराने बाबा ही बाबा दिखने लगे, हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों में ताबड़तोड़ और धुआंधार तरीके से भागवत कथाएं होने लगीं. आसमान में यज्ञ और हवनों का धुआं उठता दिखाई देने लगा.

अगस्त सितंबर के चुनावी समय में नेताओं की सभाओं से बहुत ज्यादा तादाद में बाबाओं के प्रवचन हुए, दिव्य दरबार लगे, आम और खास लोगों की व्यक्तिगत व सार्वजनिक समस्याएं परचियों और हनुमान शंकर के नाम और मंत्रों व टोटकों से हल होने लगीं.

इन्हीं दिनों में एक नएनवेले बाबा बागेश्वर यानी धीरेंद्र शास्त्री का नशा लोगों के सिर चढ़ कर बोला, जो दिव्य दरबार लगा कर लोगों की समस्याएं हल कर नाम और दक्षिणा बटोरते नजर आए. लेकिन मकसद कुछ और, यानी हिंदुत्व भी था, जिस के नाम पर इस बाबा ने अपने प्रवचनों का पैटर्न बदलते भड़काऊ हिंदुत्व की जम कर आहुतियां दीं. हनुमान को अपना इष्ट बताने वाले बागेश्वर बाबा ने मुसलमानों और ईसाईयों का जम कर डर अपने प्रवचनों में दिखाया.

भव्य धार्मिक आयोजन

बात हलके में न ली जाए, इस के लिए उस में घरवापसी का तड़का लगाते एक मुहिम भी जगहजगह चलाई. मुसलमान और ईसाई बन चुके कुछ दलितों व आदिवासियों को समारोहपूर्वक उन की हिंदू धर्म में वापसी कराई गई.

यह जाल कितने बड़े पैमाने पर बुना गया था, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा ने छोटेबड़े बाबाओं की फौज मैदान में उतार रखी थी. इन में प्रमुख नाम पंडोखर सरकार, कमल किशोर नागर, जया किशोरी, देवकीनंदन ठाकुर, रावतपुरा सरकार रविशंकर और एक और ब्रैंडेड बाबा प्रदीप मिश्रा थे.

इन बाबाओं की 3 महीनों में सौ से भी ज्यादा कथाएं जगहजगह हुईं. लग ऐसा रहा था कि क्रिकेट टीम का कोई अनुभवी और पेशेवर कप्तान फील्डिंग कुछ इस तरह जमा रहा है कि औफ और औन साइड का कोई भी कोना खाली न छूटे.

अब कहने को ही मैच चुनाव का रह गया था जिस पर मैदान में खेल ये 50 छोटेबड़े धर्मगुरु कर रहे थे. हर जगह इन के यजमान भाजपा नेता ही थे, मसलन भोपाल में विश्वास सारंग, आलोक शर्मा, रामेश्वर शर्मा सहित खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जो खुलेआम धर्म और हिंदुत्व के इन ठेकेदारों के चरणों में शीश नवाते नजर आए. प्रिंट मीडिया और नेशनल न्यूज चैनल्स ने इन बाबाओं के भव्य और खर्चीले आयोजनों को हाथोंहाथ लपका. सोशल मीडिया के तो ये सुपर हीरो हमेशा से रहे ही हैं.

भाजपा के कार्यकर्ताओं और आरएसएस के स्वयंसेवकों ने इन धार्मिक समारोहों को सफल बनाने में जीजान लगाते दिनरात एक कर दिया. उन्होंने गांवगांव से लाखों की भीड़ इन आयोजनों में जुटाई, भंडारों में खाना परोसा और भक्तों के रहने, खानेपीने व ठहरने का इंतजाम भी किया. यह सम्मोहन कितने बड़े पैमाने पर छाया था, इसे सटीक तरीके से तो वही बता सकता है जिसे जुलाई से ले कर सितंबर तक का मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का भगवामय माहौल याद हो.

नतीजा यह हुआ कि जिन गलीचौराहों, चाय की गुमटियों से ले कर क्लबों और कौफीहाउसों में चुनावी चर्चा हो रही थी वह धर्म के चमत्कारों और हिंदुत्व की तथाकथित बदहाली के चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह फंस कर रह गई. जो लोग कल तक यह कह और पूछ रहे थे कि हम भाजपा को क्यों वोट दें वे अब यह पूछने और सोचने लगे थे कि हम कांग्रेस को क्यों वोट दें जो हर जगह मुसलमानों के हित साधती है और हिंदुओं के हित किनारे कर देती है. इस से न केवल मध्यप्रदेश की एंटीइंकम्बेंसी हवा हो गई, उलटे लोगों को राजस्थान और छत्तीसगढ़ में एंटीइंकम्बेंसी नजर आने लगी.

अघोषित एजेंट

इस माहौल को और हवा दी गलीकूचों में बने छोटे मंदिरों ने जहां बैठा पंडा भी भाजपा का अघोषित एजेंट होता है. ये पंडेपुजारी आम लोगों के ज्यादा नजदीक रहते हैं. सुबहशाम पूजा करने आते लोगों में महिलाओं की तादाद खासी रहती है, जिन्हें धर्म की घुट्टी ये एजेंट पिलाते रहते हैं. ये पंडेपुजारी व्रत, तीज, त्योहारों का महत्त्व बताने के साथसाथ यह एहसास भी भक्तों को कराते रहते हैं कि देश का माहौल दिनोंदिन क्यों और कैसे खराब हो रहा है.

लोग परेशान हैं क्योंकि उन्होंने धर्मकर्म करना कम कर दिया है वरना तो पूजापाठ में इतनी शक्ति होती है कि भगवान भक्तों को दुखों से दूर रखता है. बच्चों के कम नंबर इसलिए आते हैं क्योंकि वे पूजापाठ नहीं करते. घर में कलह फलां देवी और देवता के पूजनपाठ से दूर होती है और दुखों की परछाई तक नहीं पड़ती.

इन के चलताऊ, रैडीमेड धार्मिक किस्सों का असर यह होता है कि लोग अपनी समस्याओं का हल धर्म व भगवान में ढूंढ़ने लगते हैं, मसलन नौकरी मिलना, न मिलना भाग्य की बात है, सरकार और उस की नीतियों का इस से कोई लेनादेना नहीं. शिक्षा और इलाज महंगे हो रहे हैं तो सरकार से सवाल मत करो क्योंकि यह संसार भाग्य प्रधान है. सुखी जिंदगी के लिए इतने या उतने सोमवार या शुक्रवार का व्रत महिलाएं परेशानी के मुताबिक रखें तो दुर्भाग्य या परेशानियां या तो कम हो जाती हैं या खत्म ही हो जाती हैं. लोगों को भाग्यवादी बनाते इन मंदिरों और पुजारियों का रोल चुनाव के दिनों में अहम हो जाता है.

इसे समझने के लिए भोपाल की दक्षिणपश्चिम विधानसभा सीट सटीक उदाहरण है जिस में कोई 60 मंदिर हैं. इस विधानसभा से भाजपा ने जिन भगवानदास सबनानी को टिकट दिया था उन्हें लोग ढंग से जानते भी नहीं थे जबकि कांग्रेसी उम्मीदवार पी सी शर्मा वोटर के लिए जानामाना नाम था, जो पिछला चुनाव भाजपाई दिग्गज उमा शंकर गुप्ता को हरा कर जीते थे. लिहाजा, उन की जीत में किसी को कोई शक नहीं था क्योंकि भाजपा उम्मीदवार अनजान से थे. जब नतीजा आया तो सियासी पंडित तो दूर की बात है, खुद वोटर भी हैरान रह गए थे क्योंकि भगवानदास सबनानी 15 हजार वोटों के ज्यादा अंतर से जीते थे. कब और कैसे धर्म के एजेंट उन्हें जिता ले गए, यह किसी को समझ न आया.

लोगों का ब्रेनवाश

न केवल इस सीट पर बल्कि अधिकतर सीटों पर भाजपाई उम्मीदवारों की जीत में इन मंदिरों और पंडेपुजारियों का खासा रोल रहा, जिन्हें भाजपा का प्रचार करने कहीं नहीं जाना पड़ता बल्कि वोटर इन के पास चल कर आता है. गलीगली खुल गए इन मंदिरों में सुंदर कांड और भंडारे जैसे आधा दर्जन धार्मिक आयोजन भी आएदिन होते रहते हैं जिन में दलित और गरीब अब बढ़चढ़ कर शिरकत करने लगे हैं. इन्हें भाजपा की तरफ मोड़ने में नेताओं के भाषणों और कार्यकर्ता की सक्रियता से ज्यादा पूजापाठ कारगर साबित होता है और इस चुनाव में भी यही हुआ जिसे, यानी भाजपा की मंदिर नीति को समझने में कांग्रेस नाकाम रही कि दलित आदिवासियों का हिंदूकरण होना उस की शिकस्त की बड़ी वजह है.

अक्तूबर आतेआते लोगों का ऐसा ब्रेनवाश इन पंडेपुजारियों और बाबाओं ने किया कि लोगों को सपने में भी मुगल और अंगरेज दिखने लगे कि कैसे उन्होंने सोने की सी चिड़िया हमारे देश को लूटा, तबाही मचाई, मंदिरों को ध्वस्त किया,,हमारी मांबहनों की अस्मिता से चौराहों पर सरेआम खिलवाड़ किया और आज भी यह खतरा पूरी तरह से टला नहीं है.

इस तरह का प्रचार भी जम कर किया गया कि कांग्रेसी कहने को ही हिंदू हैं वरना तो ये नेहरू युग से ले कर मनमोहन सिंह के जमाने तक हमारे वोटों के दम पर मुसलमानों को सिर चढ़ाते रहे हैं. एक मोदी नाम का शेर ही है जो 10 साल से हमें दुश्वारियों से बचा रहा है और आगे भी बचाने की गारंटी ले रहा है. उस ने ही कश्मीर से 370 खत्म करने की हिम्मत दिखाई, हमारी अगाध आस्था के प्रतीक राम मंदिर के निर्माण का रास्ता खोला और अब जनसंख्या नियंत्रण कानून की तैयारी कर रहा है जिस से मुसलमानों की मुश्कें और कसी जा सकें.

56 इंच के सीने वाले इस शेर का साथ देने हमें इन राज्यों में भाजपा को जिताना ही होगा जिस से लोकसभा के साथसाथ राज्यसभा में भी भाजपा मजबूत हो ताकि हिंदुत्व और देश के भले वाले बिल बिना किसी रुकावट के पास हों. मनोविज्ञान के लिहाज से देखें तो आम लोगों के अचेतन मन में उमड़तीघुमड़ती दमित धार्मिक इच्छाओं को बाबाओं ने बाहर निकाल कर खड़ा कर दिया जिन से घबराए लोगों को अपना ट्रीटमैंट भी उसी धर्म और डर में दिखा जो इस की जड़ या उत्पत्ति स्थान है.

इत्तफाक से इन्हीं दिनों में इजराइल और हमास की जंग शुरू हो गई थी जिस का प्रचार यह कहते किया गया कि कट्टरवादी मुसलमान सीधेसादे बेकुसूर यहूदियों का कत्लेआम कर रहे हैं और भारतीय मुसलमान देशभर में इन्हीं कट्टरवादियों के पक्ष में प्रदेशन कर रहे हैं. एक और इत्तफाक तमिलनाडू के मंत्री उदयनिधि स्टालिन का सनातन धर्म विरोधी बयान रहा जिसे भगवा गैंग ने सीधेसीधे कांग्रेस से जोड़ते मनमाना प्रचार किया और कांग्रेस सलीके से इस का खंडन नहीं कर पाई.

बाबाओं ने बाजी और मोहरे जहां छोड़े थे, उन्हें वहीं से सोशल मीडिया वीरों और फिर नेताओं ने लपक लिया. फिर कोई खास मुश्किल नहीं रह गई थी. जो कशमकश लोगों के दिलोदिमाग में चल रही थी उसे सकपकाए कांग्रेसियों ने, अनजाने में सही, दूर करने में मदद की.

नहीं चला कांग्रेस का धर्म कार्ड

ऊपरी तौर पर अभी भी माहौल कांग्रेस के पक्ष में दिख रहा था जिसे और पुख्ता करने की गरज से कांग्रेस वही गलती कर बैठी जिसका इंतजार भगवा खेमा कर रहा था. मध्यप्रदेश में कांग्रेस मुखिया और मुख्यमंत्री पद के चेहरे कमलनाथ ने एक के बाद एक बागेश्वर बाबा और पंडित प्रदीप मिश्रा की कथाएं अपने गृहनगर छिंदवाड़ा में आयोजित कर डालीं और यजमान खुद सपरिवार बने. कमलनाथ की मंशा यह जताने की थी कि वे भी हिंदू हैं और धार्मिक आयोजन भी उन बाबाओं के करवा सकते हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के एजेंट कहे जा रहे हैं.

लेकिन कमलनाथ यह नहीं समझ पाए कि परोक्ष नहीं, बल्कि घोषिततौर पर ये लोग भाजपा के ही एजेंट हैं और अपने प्रवचनों के जरिए कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करते रहते हैं. यह बात राजनीति में मामूली सी दिलचस्पी रखने वाला आदमी भी समझ सकता है कि जिस हिंदू राष्ट्र निर्माण या घोषणा की बात रामभद्राचार्य, बागेश्वर बाबा और प्रदीप मिश्रा जैसे हिंदूवादी संतमहंत करते रहते हैं उस का टैंडर भाजपा ने भर रखा है.

न केवल कमलनाथ बल्कि तमाम छोटेबड़े कांग्रेसी इस गलतफहमी का भी शिकार थे कि 2018 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने धर्मकर्म की जो राजनीति की थी उस के चलते ही तीनों राज्यों में कांग्रेस को वोटर ने चुना था. तब कमलनाथ छिंदवाडा और भोपाल में हनुमान का पूजापाठ करते नजर आए थे तो राहुल गांधी ने भी तब पहली बार राजस्थान से खुद का गौत्र उजागर किया था. उसी चुनाव के पहले पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी नर्मदा नदी की परिक्रमा की थी.

बस, उसी को जीत का तंत्र और मंत्र मानते कांग्रेसियों ने भी धर्म और पूजापाठ का खेल शुरू कर दिया. इधर भाजपाई हमलावर हो कर कांग्रेसियों को नकली और चुनावी हिंदू बताते रहे जो सच इस लिहाज से था कि भाजपाई तो सत्ता में हों न हों, बारहों महीने चौबीसों घंटे धर्म की राजनीति करते रहते हैं क्योंकि इस के सिवा उन्हें कुछ और आता नहीं.

विकास जितना हो जाता है वह प्रशासन की देन होता है वरना इन का बस चले तो पूरा खजाना मंदिरों के निर्माण-पुनर्निर्माण, भव्यता, पूजापाठ और दक्षिणा में ही लुटा दें. ऐसा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने खासतौर से आखिरी दिनों में खूब किया भी था. छोटे मंदिरों के पुजारियों को भी उन्होंने खूब सौगातें व खैरातें बांटीं.

शिवराज सिंह ने उज्जैन, दतिया, ओंकारेश्वर सहित हर शहर के मंदिर पर सरकारी खजाना लोक और महालोक बनाने के नाम पर लुटाया. छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राम वन पथ गमन के विज्ञापन करते रामराम जपते नजर आए. राजस्थान में हालांकि अशोक गहलोत ने मंदिरों से यथासंभव परहेज किया लेकिन वे भी खुद को हिंदू बताते यह कहते रहे कि धर्म की राजनीति देश को बरबाद कर देगी.

जोशजोश में कमलनाथ, भूपेश बघेल और अशोक गहलोत ने धर्म नाम का अंगारा तो हथेली पर रख लिया लेकिन इस की जलन से कैसे बचना है, इस के टोटके इन्हें नहीं मालूम थे. यह एक जटिल और गंभीर बात है जिस पर कांग्रेस मात खा गई, वरना उस का प्रशासन भाजपा से कहीं ज्यादा बेहतर रहता है.

भाजपा वोटर को यह जताने में कामयाब रही जो हकीकत भी है कि कांग्रेस धर्म की दिखावटी राजनीति ही करती है. अगर इस किस्म की राजनीति देश को बरबाद करती है तो क्यों अशोक गहलोत जयपुर के खाटू श्याम मंदिर कौरीडोर के लिए 100 करोड़ रुपए स्वीकृत करते हैं और इसी मंदिर में महिला भक्तों से आशीर्वाद मांगते हैं. क्यों भूपेश बघेल को 5 साल यह चिंता सताती रही कि वन गमन के दौरान छत्तीसगढ़ में राम जहांजहां से हो कर गुजरे थे उन जगहों को सरकारी पैसे से जितना हो सके, चमका दें. क्यों कमलनाथ करोड़ों का हनुमान मंदिर छिंदवाड़ा में बनवाते हर कभी सुंदरकांड और हनुमान चालीसा का पाठ करते रहते हैं.

ऐसे हुआ नुकसान ?

बात सौ फीसदी सच है जिसे कांग्रेसियों को स्वीकारना आना चाहिए कि धर्म की राजनीति उन के बस की बात नहीं क्योंकि इस का सीधा सा मतलब होता है वर्णव्यवस्था से सहमति जताने के अलावा सवर्णों और उन में भी ब्राह्मणों को खुश रखने की कवायद जिसे दलित, पिछड़े और मुसलमान सब बारीकी से समझते हैं. धर्म की राजनीति करने का हक भाजपा को ही है क्योंकि उस का तो जन्म ही इस के लिए हुआ है. वह अयोध्या सहित सोमनाथ, काशी और मथुरा की भी बात करती है और काफीकुछ कर के दिखा भी देती है, फिर इस खेल में सैकड़ोंहजारों जानें जाएं तो चली जाएं, इस की परवा वह नहीं करती.

यह बहस बहुत लंबीचौड़ी है जिस का निष्कर्ष यही निकलता है कि तीनों राज्यों में कांग्रेस का परंपरागत वोटबैंक दलित, आदिवासियों का जो उस के नजदीक 5 साल पहले आया था वह धर्म की आधीअधूरी राजनीति के चलते उस से छिटक गया है. इसी धर्म की राजनीति के होहल्ले में जातिगत जनगणना का मुद्दा दब कर रह गया.

राहुल गांधी लाख जनेऊ दिखाएं, अपना गोत्र बताएं और कैलाश पर्वत या महाकाल जाएं, इस देश में उन्हें हिंदू होने की मान्यता कभी नहीं मिलने वाली. कांग्रेस को सफलता तभी मिलती है जब वह धर्मनिरपेक्षता की बात करती है जिस से दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को ब्राह्मण राज के चंगुल से छूटने की गारंटी मिलती है. अब खुद कांग्रेस ही इन लोगों के वोट धर्मकर्म करते मांगेगी तो इन का भरोसा खोने का ही काम करेगी और मुसलमानों को छोड़ कर ये तबके भाजपा को वोट करने को मजबूर होंगे.

भाजपा और नरेंद्र मोदी ने अपना धार्मिक चेहरा इन चुनावों में उधेड़ कर दिखाने से परहेज नहीं किया जबकि कांग्रेस ने अपने चेहरे पर धर्म का घूंघट ढकने की गलती की तो वोटर ने उसे सबक भी सिखा दिया. लेकिन, एक उम्मीद और मौका भी इन नतीजों में छिपा है कि जनता ने कांग्रेस को चुनावी रेस से बाहर नहीं किया है.

आस बाकी है अभी

कांग्रेस के लिए सुकून देने वाली बात यह है कि वोटर ने उसे महज चेतावनी दी है कि वह धर्म को छोड़ते, मुद्दों की राजनीति करे तो वह उस पर भरोसा भी कर सकता है जो पूरी तरह टूटा नहीं है, थोड़ा दरका भर है. नतीजों में आंकड़े इस की गवाही भी देते हैं. सब से ज्यादा 230 सीटों वाले मध्यप्रदेश में उसे 66 सीटें 40.4 फीसदी वोटों के साथ मिली हैं. पिछले चुनाव के मुकाबले उस की सीटें भले ही 48 कम हुई हों लेकिन वोट शेयर में महज आधा फीसदी की ही गिरावट आई है.

इसी तरह, 199 सीटों वाले राजस्थान में तो 2018 की 99 में से 69 यानी 30 सीटें कम मिलने के बाद भी उस का वोट शेयर, मामूली ही सही, बढ़ा ही है. 90 सीटों वाले छत्तीसगढ़ में 2018 में मिली 68 के मुकाबले 33 सीटें कम मिलने पर वोट शेयर महज 1.3 फीसदी ही कम हुआ है. तीनों राज्यों में यह इतना बड़ा नुकसान नहीं है जिस की भरपाई संभव न हो.

दिल्ली सहित भोपाल, जयपुर और रायपुर में हार का विश्लेषण करते कांग्रेसी गलत टिकट बंटवारे, आपसी फूट, पैसों और कार्यकर्ताओं की कमी सहित ईवीएम मशीनों पर ठीकरा फोड़ते नजर आए तो सहज लगा कि वे हार के सही कारणों की चर्चा करने से कतरा रहे हैं कि कैसे भाजपा ने उन्हें धर्मजाल में फंसाया और बाजी मार ले गई.

तेलंगाना में उसे सत्ता मिलने की एक बड़ी वजह वहां के दलित, आदिवासी और मुसलमानों का भी साथ मिलना रहा, जहां के मुख्यमंत्री बीआरएस के मुखिया केसीआर ने बौखलाहट में अनापशनाप पैसा और सहूलियतें मंदिरों को देना शुरू कर दिया था. वहां किसी कांग्रेसी दिग्गज, खासतौर से मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश किए गए रेवंत रेड्डी, ने हिंदी पट्टी के कांग्रेसी नेताओं जैसी गलती धर्म की राजनीति करने की नहीं की, इसलिए कांग्रेस 119 में से 64 सीटें 39.4 फीसदी वोटों के साथ ले गई.

अब अगर रेवंत रेड्डी गलती करेंगे तो उस का फायदा भाजपा को ज्यादा मिलेगा जो 7 सीटें 14 फीसदी वोटों के साथ ले जाने में कामयाब रही है. हालांकि, भाजपा की प्राथमिकता तेलंगाना में भी तोड़फोड़ कर सत्ता हथियाने की रहेगी जिस से बचने के लिए कांग्रेस को सावधान रहना पड़ेगा वरना कर्नाटक, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र सहित गोवा के उदाहरण उस के सामने हैं.

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