“मैं आज से कोई 5-6 साल पहले अपना घर व व्यवसाय छोड़ कर पाकिस्तान से हिंदुस्तान आया था. खुद को अपने सहधर्मी व्यक्तिओं के बीच सुरक्षित रखने के लिए,” यह वे हमेशा अपने से मिलने वाले लोगों को बोला करते.
कृष्णराय हमारे बंगले के पास अभी रहने आए थे. मैं ने उन के मुख से कई बार यहां भारत के अनुभव व पाकिस्तान में उन की सुखद आर्थिक स्थिती के बारे में सुनता रहता था.
एक दिन मैं ने उन को यों ही मजाक में कहा, “कृष्णरायजी, आप हमेशा अपने बारे में किश्तों में बताते रहते हैं, कभी किसी के साथ बैठ कर अपनी पूरी कहानी सुनाइए,” मगर उन के चेहरे के भावों को देख कर मैं ने जल्दी क्षमा मांगी.
उन्होंने गहरी सांस ली और बोले,”चांडक साहब, इस में क्षमा की बात नहीं है. आप ठीक कहते हैं, मुझे हर किसी को अपनी बात नहीं कहनी चाहिए. लेकिन क्या करूं, मन में रख नहीं रख पाता हूं, अंदर घुटन महसूस करता हूं. सच कहूं, मैं अपनी पूरी कहानी किसी को सुनाना चाहता हूं ताकि जी हलका हो सके,” उन्होंने उदासी से कहा.
“आज मैं अपने काम से फारिग हूं, आप को ऐतराज नहीं हो तो मैं आप की कहानी सुनना चाहता हूं. विश्वास कीजिए, मैं आप की कहानी का मजाक नहीं बनाऊंगा,” मैं ने संजीदगी से कहा.
उन्होंने मेरी ओर गंभीर नजरों से देखा, शायद सोचा हो कि कहूं या नहीं? लेकिन फिर उन्होंने अपनी कहानी शुरू की, अपने पाकिस्तान में जन्म से ले कर व भारत में स्थायी होने तक…
मेरा जन्म पाकिस्तान में एक रईस व जमींदार हिंदू परिवार में हुआ था. मैं ने बचपन से ले कर जवानी तक कभी भी किसी की चीज की कमी महसूस नहीं की, जो चाहा वह मिला. घर पर नौकरों की फौज थी. मेरे बाबा हमारे गांव के सब से बड़े जमींदार थे. गांव में वही होता था जो हमारे बाबा चाहते थे. यह सब आजादी के पहले की नहीं, आजादी के बाद की बात थी.
हमारा वहां बहुत बड़ा संयुक्त परिवार था. हम ने कभी भी अपनेआप को अकेला महसूस नहीं किया. 2 साल पढ़ने के लिए मैं कराची गया. लेकिन पढ़ाई बीच में छोड़ कर मैं जल्दी जमींदारी में लग गया.
कुछ समय बाद हम ने शहर में भी अपना व्यवसाय खोल दिया. हम हिंदू थे पर पूरा गांव मुसलमान था. हमारे नौकर व ग्राहक भी मुसलिम थे.
मैं ने कभी जाना भी नहीं कि हिंदू व मुसलिमों में फर्क भी होता है. न ही कभी गांव के मुसलिमों ने हमें यह महसूस होने दिया. 1965 व 1971 में जब हमारे रिश्तेदारों ने, जो पाकिस्तान छोड़ कर हिंदुस्तान जा रहे थे, हमारे दादा से भी हिंदुस्तान चलने का आग्रह किया था. लेकिन दादा अपनी जन्मभूमी छोड़ कर जाने को तैयार ही नहीं थे. वे हठीले जमींदार थे, दूसरा उन्होंने कभी खतरा महसूस नहीं किया.
हम लोग वहां सुख व आनंद के साथ जी रहे थे. मेरे बड़े भाई स्थानीय समर्थकों की सहायता से वहां की नगरपालिका के अध्यक्ष बने. उन्होंने वहां की जनता के लिए अच्छे काम किए और लंबे समय तक इस पद पर बने रहे. लेकिन इस बीच अयोध्या के मामले ने हमारे दिलोदिमाग को भीतर तक झकझोरा और हम पहली बार खुद को असुरक्षित समझने लगे. हम अपने दोस्तों व गांववालों से नजरें मिलाते तो ऐसा लगता जैसे हिंदुस्तान में जो हो रहा है उस के लिए हम जिम्मेदार हैं.
हमें हिंदुओं के बारें में धार्मिक स्थिति तो पता थी पर सामाजिक व राजनीतिक स्थिति से हम लोग अनजान थे. अब हम जब अपने दूसरों जगहों के रिश्तेदारों से मिलते तो यही चर्चा होती कि क्या हम पाकिस्तान में सुरक्षित हैं? यदि हां, तो कब तक? हमारे चेहरे भले ही शांत हो पर मनमस्तिष्क में द्वंद्व चलता रहता था. मस्तिष्क कह रहा था कि हम सुरक्षित नहीं हैं पर मन कहता कि यह तो हमारी जन्मभूमी है.
इस बीच रथयात्रा निकली. हिंदुस्तान के दंगों की चर्चा पाकिस्तानी समाज व अखबारों में होने लगी. वहां कुछ लोग इस की प्रतिकिया करने लगे. पुराने मंदिर खंडहर फिर समतल मैदान होने लगे. हिंदुओं की दुकानें जो गिनीचुनी थीं लुटी जाने लगीं.
मुझे लग रहा था कि भारत पाकिस्तान के विभाजन की प्रकिया अभी तक पूरी नहीं हुई है. अब हमारा पाकिस्तान में रहना मुझे असहज लगने लगा. मैं अब जल्द से जल्द विधर्मी देश को छोड़ कर सहधर्मी देश में आने की सोचने लगा ताकि मैं अपने लोगों के बीच सुरक्षित महसूस कर सकूं. मुझे लग रहा था कि भारत पाकिस्तान के विभाजन की प्रकिया अभी तक पूरी नहीं हुई है. मैं परिवार के सदस्यों के बीच इस बात को ले कर विचारविमर्श करने लगा. लेकिन सब ने मुझे यही समझाया कि यहां से उखड़ कर, वहां पनपना आसान नहीं होगा. यहां की जमींदारी व जमाजमाया व्यवसाय छोड़ कर कहीं तुम्हें वहां की दरदर की ठोकरें न खानी पड़े. तुम्हारी हालत बिना जड़ के पेड़ की तरह हो जाएगी. आखिर उन का तर्क सही था.
लेकिन दूसरी तरफ मन कहता कि जहां चाह वहां राह. दूसरा मेरा हठीला स्वभाव अपने बाबा पर गया था. वैसे भी घोड़े पर चढ़ने वाला दुल्हा फेरे खाने के बाद ही नीचे उतरता है.
जब मेरे मुसलमान दोस्तों व गांव वालों को मेरे निर्णय के बारे में पता चला तो वे सब मेरे पास आए और मुझे समझाने लगे, “किशन तुम्हें हम पर विश्वास नहीं, हम लोग न जाने कितनी पीढ़ियों से एकसाथ रह रहे हैं, क्या हमारे होते हुए तुम्हें आंच आ सकती है?” समझाते हुए उन की आंखों में आंसू आने लगे. मैं भी रोने लगा. एक बार तो मैं ने भी अपना निर्णय बदलने की सोची लेकिन कुछ समय बाद के बुरे खयालों से मेरा दिल कांपने लगा.
आखिरकार, मैं अपना घर, कारोबार व जन्मभूमी, बसबसाया सुख छोड़ कर अनजाने लेकिन सहधर्मी देश की ओर निकल पड़ा, संशयपूर्ण भविष्य को साथ में ले कर.
घर व गांव को छोड़ते हुए मेरे आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. मेरे परिजन, गांव वालों व दोस्तों की आंखों में आंसू थे. मेरे दोस्तों व गांव वालों ने विदा करते समय कहा,”किशन, यदि तुम्हें पराई जमीन पंसद न आए तो निस्संकोच अपने गांव वापस आ जाना,” यह उन के अंतिम वाक्य थे, जो मुझे न जाने कितनी बार याद आए.
अभी तक तो मेरी जिंदगी सुख के धरातल पर चल रही थी. पुरखों के बोए बीजों के फल मैं खा रहा था. उबङखाबड़ और परेशानियों वाली जिंदगी के दर्शन अभी तक बाकी थे जो यहां आने के बाद होने लगे.
नई आशा व विश्वास में आ गया अपने सहधर्मी देश. बहुत सारे सामान व अपने परिवार के साथ मैं मुंबई एअरपोर्ट पर उतरा. सब से पहली परेशानी यहीं से शुरू होती है. यहां पर कस्टम अधिकारियों ने शुरू में बहुत परेशान किया क्योंकि एक तो मैं पाकिस्तान से आया था, दूसरा मेरे साथ पूंजी के रूप में बहुत सारा सोना आभूषणों के रूप में मेरे साथ था. पर जब उन्होंने पाकिस्तान में एक हिंदू के रूप में मेरी व्यथा सुनी तो उन का दिल पसीजा और उन्होंने मेरे न सिर्फ कस्टम ड्यूटी माफ की बल्कि उन्होंने मेरे और मेरे परिवार को दिल से कैंटीन में खाना भी खिलाया. मेरे प्रति एक हिंदू के रूप में यह पहली सहानुभूति थी.
हिंदुस्तान आ कर कुछ दिन मैं अपनी बड़ी बहन के यहां रहा. कुछ दिन बाद उन्हीं के शहर में एक मकान भी लिया, जहां मैं ने पहली बार सहधर्मी पड़ोसियों के अनुभव लिए. मैं जहां रह रहा था वहां पाकिस्तान से विस्थापित हो कर आना जिज्ञासा का विषय नहीं था, क्योंकि हमारी तरह के बहुत सारे परिवार विस्थापित हो कर यहां आ कर बस गए थे. जिज्ञासा का विषय तो हमार शाही रहनसहन व खानपान था. साथ में हमारा बड़ा परिवार भी सब की नजरों में चर्चा का विषय था. हमारे यहां 8-10 सदस्यों का परिवार सामान्य समझा जाता था. लेकिन यहां के 2-3 सदस्यों वाले परिवारों में हमें स्वाभाविक रूप से चर्चा का विषय बनना ही था.
हमारी मातृभाषा सिंधी थी जो यहां की गुजराती भाषा से बहुत भिन्न थी. हालांकि मुझे इस की खास परेशानी नहीं थी क्योंकि कराची में मेरे कुछ दोस्त गुजरात से आए हुए थे, लेकिन बच्चों व बीवी को बहुत परेशानी होती थी.
हम ने कुछ ही समय में सारी भौतिक सुखसुविधाएं जुटा लीं. हमारा शाहीखर्च उन को आश्चर्यचकित कर देता था. मेरी पत्नी का उन को चायनाश्ता के साथ स्वागत करना विस्मय से भर देता था क्योंकि वे लोग चाय तक ही सीमीत रहते थे. बच्चों का दिनभर झगड़ना उन की शांत जिंदगी में तुफान ला देता था. बहुत लोगों ने इस की शिकायत की. लेकिन मेरे कहने पर कि यह तो बच्चे हैं उन को गुस्से में ला देता था, “आप तो बड़े हैं,” ऐसा अपमान बहुत बार हुआ.
काम करने वाली जिस दिन नहीं आती उस दिन जूठे बरतनों व कपड़ों का अंबार लग जाता था. मेरे घर का माहौल देख कर लोगों ने धीरेधीरे आना बंद कर दिया.
उधर मैं व्यवसाय ढूंढ़ने के लिए इधरउधर अपने भाई के दोस्त के साथ भटकने लगा. व्यवसाय शुरू करना व उसे सुचारु रूप से चलाना कितना मुश्किल भरा होता है यह मुझे अब पता लगना था. अब तक मैं अपने बापदादा की जमीजमाई जमींदारी पर आराम के साथ जिंदगी गुजार रहा था.
दूसरी तरफ मेरी बहन के परिवार के साथ संबध कटने लगा, वे मुझे व्यवसाय में मदद के लिए असमर्थ लगे. लेकिन आज सोचता हूं कि वे उस समय कितने सही थे. उन का मुझे कुछ समय राह देख कर, व्यवसाय शुरू करने की सलाह को मैं ने गलत तरीके से लिया था. आज यह सोच कर ग्लानी से भर उठता हूं.
मैं ने जल्द ही भाई दोस्त के कहने पर अहमदाबाद के नजदीक शहर में अपना व्यवसाय शुरू किया, लेकिन जो व्यवसाय मैं ने शुरू किया उस का मुझे तनिक भी अनुभव नहीं था. जिस कारण शुरू में मैं बहुत परेशान रहा.
मेरी परेशानी देख कर मेरी बहन ने अपने बेटे को मेरी मदद करने लिए भेजा. वह इस मामले में बड़ा अनुभवी व होशियार निकला. उस ने मेरे व्यवसाय को जमाने में मेरी बहुत मदद की. मेरे बच्चे तो बहुत ही छोटे थे.
बच्चों को भी शुरू में विद्यालय व आसपास के माहौल में सामंजस्य बैठाने में बहुत तकलीफें आईं. भाषा की तकलीफें तो थीं ही साथ में और भी कई परेशानियां थीं.
एक बार मेरे बेटे को विद्यालय में राष्ट्रगान बोलने को कहा तो उस ने पाकिस्तान का राष्ट्रगान सुना दिया. इस पर विद्यालय व शहर में बहुत हंगामा हुआ. घर पर बुलावा आया, मुझे माफी मांगनी पड़ी व भविष्य में ऐसा नहीं होगा लिखित आश्वासन भी देना पड़ा.
हर महीने पुलिस थाने जा कर उपस्थिती के साथ नजराना भी देना पड़ता था. यहां पर व्यवसाय के चक्कर में सरकारी अधिकारियों के साथ रोज पाला पड़ता था.
मेरा सपना हिंदुस्तान आ कर चकनाचूर हो गया. मैं ने तो यह सपना देखा था कि सहधर्मी देश आ कर मैं सुरक्षित व सुखी रहूंगा. हालांकि मुझे व्यवसाय में सफलता मिल रही थी पर मैं यहां की परेशानियां झेलने में असफल व असमर्थ था.
जब मैं अपने साथी व्यापारी व रिश्तेदारों से बातें करता तो वे हंस कर कहते,”यह तो साधारण रोज की बातें हैं जिन का जिंदगीभर सामना करना पड़ता है. जितना बड़ा व्यापारी उतनी ज्यादा परेशानियां.
मैं परेशान हो गया, मन में अजीब सा द्वंद्व पैदा हो गया. कभीकभी सोचता था कि सबकुछ छोड़ कर वापस पाकिस्तान चला जाऊं. लेकिन वहां मेरे दोस्त व रिश्तेदार क्या कहेंगे? क्या उन के व्यंग्यबाण मैं झेल पाउंगा? हो सकता है वहां की सरकार मुझे शक की नजरों से देखे.
इस तनाव के कारण मैं चिड़चिड़ा हो गया. मैं तनाव में रहने लगा. मेरे व्यवहार में अजीब सी कर्कशता आ गई. बच्चे भी सहमने लगे. मैं ने पहली बार जाना कि अपनी जड़ों से कट कर दूसरी जगह जुड़ना कितना कठिन व कष्टदायक होता है.
मुझे बीमार व तनाव में देख कर मेरी पत्नी ने बड़ी बहन को बुलाया. मेरी हालत देख कर मेरी बहन की आंखों में आंसू आ गए.
मैं ने रोते हुए कहा, “दीदी, अब मैं यहां और नहीं रह सकता. मेरे में और परेशानियां झेलने की क्षमता नहीं है. मैं अब वापस अपने लोगों के बीच लौट जाना चाहता हूं.”
“क्या हम तुम्हारे नहीं हैं कृष्ण? और फिर क्या बारबार एक जगह से पेड़ों को उखाड़ कर दूसरी जगह रोपना आसान है? क्या तुम पहले की तरह वहां रह सकोगे? इतना फैला हुआ व्यापार समेटना क्या आसान है? तुम्हारे बच्चों का यहां मन लग गया है. देखो वे कितने खुश हैं,” मस्ती से खेलते बच्चों को दखते हुए बोली.
“क्या वापस पाकिस्तान जा कर बच्चों की हालत तेरी जैसी नहीं हो जाएगी?”
कुछ देर बाद रुक कर दीदी आगे बोली,”तुम एक बार वहां की जिंदगी को भूल कर, वहां के सारे सुखों को भूल कर, यहां नई जिंदगी शुरू कर दो. यही सोचो कि तुम्हारा जन्म यहीं पर हुआ है. मैं जब ससुराल आई थी, तब मेरा यहां कोई नहीं था. मैं अपना सुखदुख किसी को सुना नहीं सकती थी. लेकिन तुम्हारा तो यहां पूरा परिवार है, मैं हूं, अपने लोगों से तुम्हारा फोन पर संपर्क है. और तुम जल्दी घबरा गए, जल्दी हार मान गए. मैं तो तुम्हारी तरह वापस भी नहीं जा सकती थी. तू तो मेरा भाई है, तेरे में तो मेरे से भी ज्यादा हिम्मत, हौसला व हिम्मत होनी चाहिए. उठ और हिम्मत से काम ले. सहनशील व संयमशील बन कर जिंदगी को आसान व सफल बना,” दीदी ने सिर पर हाथ फेर कर कहा.
‘उन की बात सही थी कि मेरा वापस जाना संभव नहीं. मेरे बच्चों की भी हालत मेरी जैसी न हो जाए. अब मुझे यहीं रहना होगा. मुझे ही इस मुल्क के अनुकूल होना पड़ेगा,’ यह सोच कर मैं ने अपना मन मजबूत किया. इस से जो समस्याएं मुझ में पहाड़ सी दिखती थीं वे कंकड़ के समान दिखने लगी. मैं वही हंसमुख कृष्णकुमार बना. मुझ में हद से ज्यादा संयमशीलता आ गई. मेरा व्यवसाय अच्छा जमने लगा.
कृष्णराय के घर से आने के बाद मैं सोचने लगा कि सच में कितना मुश्किल होता है अपनी जड़ों से कट कर दूसरी जगह पनपना, भले ही वह जगह अपनी मनपंसद व अनुकूल ही क्यों न हो.