हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जाता है क्योंकि 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने तैयार संविधान पर हस्ताक्षर किए थे. यह पहली बार भारत के इतिहास में हुआ था कि जनता के चुनेअनचुने प्रतिनिधियों ने एक मत से कहा था कि वे किसी और देश के दिए कानूनों, किसी ईश्वर के दिए कानून, किसी पैगंबर, देवीदेवता, प्रचारक की किताबों या विचारों पर नहीं, खुद लंबी बहसों के बाद तैयार या नियमों के संग्रह के अंतर्गत देश को चलाएंगे.

यह दिन महत्त्व का था और आज भी है हालांकि आज देश की जनता ने इस संविधान के लागू होने की तिथि 26 जनवरी के स्थान पर धार्मिक दिनों को फिर से ज्यादा मान्यता देनी शुरू कर दी, है दीवाली, क्रिसमस, ईद ज्यादा आम आदमी के निकट के बजाय गणतंत्र दिवस के.

संविधान के अनुसार शासन को चलाने का अर्थ है कि हमें अपने ऊपर विश्वास है कि हम खुद ऐसे सर्वमान्य नियम बना सकते हैं जो सब के हितों की रक्षा करते हैं और न शासकों को जरूरत से ज्यादा अधिकार देते हैं और न जनता को अराजकता की छूट देते हैं.

संविधान के बनने के दौरान और बाद भी बहुत से ऐसे प्रयास हुए हैं कि संविधान को किसी तरह गौण साबित कर दिया जाए और उस के ऊपर तथाकथित ईश्वरीय नियम जो केवल सुनने को मिले पर जिन को कभी लागू किया था इस का कोई प्रमाण नहीं है. यह भी कोशिश की गई कि संविधान का सहारा ले कर सत्ता में आ जाओ और फिर संविधान को धता बता दो. 1975 से 1977 के  बीच ऐसा खुल्लमखुल्ला हुआ पर अब हाल के सालों में संविधान को इतना तोड़ामरोड़ा जा रहा है कि वह अपनी शक्ल और अपना मुख्य ध्येय जनता की शासकों से सुरक्षा-को भूलने लगा है.

यह राहत की बात है कि शासकों के हर ऐसे प्रयास को जनता कभी जोर से या कभी धीरेधीरे विफल करती रहती है. आज जैसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिंदू धर्म समर्थक पार्टी पौराणिक सा राज स्थापित करना चाहती है, राज्यों के चुनाव इस प्रयास को पंचर कर देते हैं. देश में कितने ही राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें इस बात का प्रमाण हैं कि संविधान के सहारे एक सोच वाली पार्टी के पर काटे जा सकते हैं. हर साल बढ़ता चुनावों में मतदान यह संकेत देता है कि चाहे जिस पार्टी को जनता चाहे वह यह बताना नहीं भूलती कि जो जीता है वह संविधान के लिए जनता के वोट के सहारे जीता है.

सभी सरकारें संविधान को पूर्ण अधिकार का अंकुश मानती हैं क्योंकि जो जीत कर शासक बन जाता है वह अपने को सर्व शक्तिशाली मानने लगता है, चाहे केंद्र की बात हो या राज्य की. संविधान के दिए गए मत के अधिकार उसे फिर वापस आम आदमी बना सकते हैं, यह कई बार साबित हो चुका है. देश की जनता को धार्मिक, पारंपरिक उत्सवों से कहीं ज्यादा संवैधानिक उत्सवों को मनाना चाहिए क्योंकि वे ही सुरक्षा की गारंटी देते हैं.

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