सूफियों के बारे में यह आम राय गलत नहीं है कि वे आमतौर पर धार्मिक हिंसा से परहेज करते हैं, इस नातेवे कतई नुकसानदेह नहीं हैं. लेकिन सूफियों के बारे में पसरी यह धारणा बिलकुल गलत है कि वे कोई ऊंचे पहुंचे सिद्ध या चमत्कारी होते हैं और सभी धर्मों को मानते हैं. सूफी खालिस मुसलमान ही होते हैं जिनका कोई स्पष्ट मकसद नहीं है. वे दिनरात ऊपर वाले की आराधना किया करते हैं.

सूफीवाद को समझने के लिए इतना ही काफी नहीं है कि सूफी खुद को आशिक और ऊपरवाले को माशूक और भक्ति को इश्क करार देते हैं. सूफीवाद कहता यह है कि भक्ति में इतने लीन हो जाओ कि सुधबुध खो बैठो. यही मोक्ष है, जोजिंदगी का असल लुत्फ और मकसद है. कर्मकांडों को ईश्वर तकपहुंचने का जरिया न मानने वाले सूफीवाद के पास मेहनत कर खाने और जीने का भी उपदेश नहीं है. वे मानते हैं कि जिस भगवान ने पेट दिया है वही उसे भरने का इंतजाम भी करेगा. यह तो वे भी आज तक नहीं बता पाए कि यह ऊपरवाला आखिर कहीं है भी किनहीं, और अगर है तो उस तक पहुंचने और उस को पाने के लिए इतने सारे रास्ते, धर्म, संप्रदाय व दार्शनिक विचारधाराओं की जरूरत क्यों आन पड़ी.

सूफियों की उत्पत्ति और विकास को लेकर कोई प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है लेकिन आम सहमति इस बात पर इतिहासकारों में है कि उनकी उत्पत्ति फारस यानी वर्तमान ईरान में हुई थी और 11वीं शताब्दी में सूफी भारत आए थे. हालांकि, इराक के शहर बसरा को भी सूफीवाद की जन्मस्थली माना जाता है. मंसूर हल्लाज,राबिया और अल अदहम जैसे लोकप्रिय कवियों को इनका जनक माना जाता है.

शुरुआती दौर में सूफियों का एक मकसद इसलाम में सुधार का भी था जो कट्टरवादियों को रास नहीं आता था. इसलिए सूफीवाद की अनदेखी भी हुई और इसे स्वीकार्यता नहीं मिली. साल 1100 में अल गजाली के वक्त में सूफियों को मान्यता मिलना शुरू हुई जो अपने दौर के प्रमुख फारसी शिक्षाविद और तर्कशास्त्री थे.कुछ इतिहासकार मानते हैं कि सूफीवाद की उत्पत्ति हजरत मोहम्मद की मौत के बाद 632 के लगभग हुई. सूफियों की शिक्षाएं, जिन्हें आदेश कहा जाता है, 12वीं शताब्दी में चलन में आई मानी जाती हैं.

इतिहास का यह कालखंड यानी मौजूदा दौर दुश्वारियों से भरा पड़ा है. दुनियाभर में कट्टरवाद चरम पर है.इसलाम के पहले ईरान में जरदोष्ट धर्म के अनुयायी रहते थे जिन्होंने जबरिया इसलाम कुबूल करना गवारा नहीं किया. उन्हें यातनाएं दी गईं तो कुछ लोग भारत के गुजरात के तटों पर आ बसे. इन्हें पारसी कहा जाता है जो अब बहुत कम बचे हैं. पारसी सूफी नहीं थे लेकिन सूफीवाद का खासा प्रभाव उन पर था.

तो फिर सूफी कौन थे और भारत कैसे आए, इन में से पहले सवाल का जवाव तो बेहद साफ है कि सूफी वे लोग थे जो कट्टर इसलाम का शिकार थे और सरल जीवन जीना चाहते थे. सूफीवाद जिन नामी कवियों के जरिए परवान चढ़ा उन में एक लोकप्रिय नाम रुबाइयों के लिए मशहूर उमर खैयाम का भी है जो प्रतिभाशाली गणितज्ञ भी थे.इस श्रृंखला में अगले नाम फिरदौसी, रूदाकी, रूमी और नासिर ए खुसरो के हैं.

आज की तरह तब भी दुनियाभर के सारे झगड़ेफसाद धर्म को लेकर ही होते थे. हालिया इजराइल और हमास जंग इसकी ताजी मिसाल है जिसमें हजारों बंदे बेमौत मारे गए. यह एक धर्मयुद्ध ही है जिसमें और भी न जाने कितने मारे जाएंगे, इसका इल्म खुदा के किसी बंदे को नहीं.धर्मांध यहूदी और मुसलमान, बस, जंगली बिल्लियों की तरह लड़े जा रहे हैं.

शांति औरअहिंसा के धार्मिक उपदेशों व सिद्धांतों को तो छोड़िए, कोई सूफी चिंतन का जिक्र तकनहीं कर रहा.तय है, इसीलिए कि वह भी एक धर्म की तरह ही है. फर्क इतना है कि उसकी राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता न के बराबर है. इसलाम की उदारवादी शाखा कहे जाने वाले सूफिज्म का फसाना बड़ा चालाकीभरा है कि ‘कटोरा लेकर खड़े रहो, नाचतेगाते रहो,मन लागा यारफकीरी में’वाली थ्योरी तुम्हें भूखा नहीं रहने देगी.अभिजात्य संगठित तरीके से भिक्षा मांगने का एक और नाम सूफीवाद है.

सनातनियों को याद आए सूफी

समाज के इस अनुपयोगी और अनुत्पादक वर्ग को अब हैरत की बात है कि भाजपा घेर रही है. सूफी संवाद महाभियान श्रृंखला में बीते दिनों फिर एक आयोजन हुआ. आयोजक था भाजपा का अल्पसंख्यक मोरचा, तारीख थी 12 अक्तूबर 2023,जगह थी भाजपा कार्यालय, लखनऊ. एजेंडा था-‘मिशन 75’ जिसके तहत भाजपा ने उत्तरप्रदेश की 80 में से 75 लोकसभा सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया हुआ है.

मेजबान अल्पसंख्यक मोरचा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जमाल सिद्दीकी ने मेहमान सूफियों से अपील की कि वे मोदी सरकार की योजनाओं और नीतियों को आम मुसलमान तक पहुंचाएं. इस बाबत भाजपा मुसलिम बाहुल्य इलाकों में मुशायरों, कव्वालियों और कौमी चौपालों का आयोजन करेगी. मुसलमानों में मोदी की इमेज चमकाने का ठेका इकट्ठा हुए कोई 200 मजारों से तशरीफ लाए सूफियों ने लिया या नहीं, यह तो उनका ऊपरवाला जाने लेकिन दाद देनी होगी भगवा गैंग के आशावादी नजरिए की जो अनहोनी को होनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा.

बोहरा समाज और पसमांदा मुसलमानों पर भी भाजपा ने डोरे डालने की कोशिश की है लेकिन ये मुहिमें परवान चढ़ने के पहले ही फुस्स हो चुकी हैं क्योंकि ये खुद बेदम थीं.यह बात कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही कि नरेंद्र मोदी और भाजपा हिंदू राष्ट्र के अपने एजेंडे पर काम कर रहे हैं और इसमें वे कुछ मुसलमानों को भी सहमत करने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है क्योंकि आम मुसलमान मोदी राज में डर और दहशत के साए में जी रहा है. पसमांदा मुसलमान,बोहरा और सूफी इसके अपवाद नहीं हैं.चूंकि वे कट्टर हिंदूवाद का खुला विरोध नहीं करते, इसलिए सनातनियों ने उन्हें तटस्थ रखने की चाल चली है. एक दूसरा मकसद, बेवजह का रायता लुढ़काते रहने के लाभ उठाने की भी है.‘हल्ला मचता रहे इसमें हर्ज क्या है’ की मानसिकता के अलावा तीसरा मकसद मुसलमानों में फूट डालने का भी हो सकता है. ठीक वैसी ही फूट जैसी उदारवादी और कट्टर हिंदुओं के बीच है.

चादर और फादर शिर्डी और मोदी

जिन कुछ मामलों में नरेंद्र मोदी को अपनी भूमिका तय करने की छूट नहीं, उनमें से एक मामला उनकी इमेज का भी है.चंद दिनों पहले ही मोदी शिर्डी में थे जहां उन्होंने भक्तों की लाइन लगने वाली जगह का उद्घाटन किया. सनातनी अब बेहिचक कहने लगे हैं कि साईं बाबा एक वेश्यापुत्र था और उसका नाम चांद मियां था. हिंदुओं को शिर्डी जाकर साईं बाबा का पूजापाठ नहीं करना चाहिए क्योंकि वह सनातनी देवता नहीं, बल्कि पीरफकीर है. इस मसले, जिस पर कई दफा बबाल मच चुका है, को तूलघोषित तौर पर एक शंकराचार्य स्वरूपानंद ने दिया था. अब उनकी टीम इस मुहिम को अंजाम देती रहती है.

जब साईं बाबा मुसलमान थे तो फिर मोदीजी क्यों वहां पूजापाठ करने गए थे. यह कोई औपचारिक राजनीतिक शिष्टाचार जैसा कदम भले ही भक्त लोग अपनी खिसियाहट दूर करने को मानते रहें पर हकीकत में यह उदारवादी हिंदुओं और मुसलमान दोनों को घेरने वाली बात थी.  मजार पर जाकर सिर झुकाने और बिरियानी खाने वाले प्रसंग अब हवा हो चुके हैं,जिनका अब कोई जिक्र भी नहीं करता.नरेंद्र मोदी की इमेज सैक्युलर दिखे,यह मंशा भी भगवा गैंग की नहीं दिखती बल्कि यह उदारवाद के प्रति उपेक्षा और उसका उपहास उड़ाने जैसी बात थी जिसकी स्क्रिप्ट आरएसएस लिखता है.

जैसे, जब कभी संघ प्रमुख मोहन भागवत यह कहते हैं कि मुसलमान कोई गैर नहीं, बल्कि हिंदुओं के ही भटके हुए वंशज हैं और मुसलमान जितना सुरक्षित भारत में हैं उतना दुनिया के किसी देश में नहींहैं तो आम मुसलमान घबरा उठता है कि अब न जाने क्या होने वाला है. इन्हीं दिनों के आगेपीछे सूफियों या शिर्डी के साईं बाबा के दर्शन जैसा कोई ड्रामा संपन्न हो जाता है.

अब यह और बात है कि ऐसे वक्त में चादर और फादर को कोसते रहने वाले कट्टर सनातनी हिंदुओं को समझा और संभाल पाना मुश्किल हो जाता है जो इस गफलत में पड़ा रहता है कि हमें तो मैसेज दिया जाता है कि अड़े रहो और यहां वे खुद सजदा सा कर रहे हैं, वरना तो अजमेर शरीफ चादर भेजे जाने की तुक भी समझ नहीं आती. यह लीला या कूटनीति अवैतनिक प्रचारकों को समझ नहीं आती.

शिर्डी में साईं बाबा के पूजापाठ के वक्त नरेंद्र मोदी श्रद्धा भक्ति में डुबकी लगातेनहीं दिखते, ऐसे मौकों पर उनका चेहरा स्लेट की तरह सपाट दिखता है. जबकि, काशी या उज्जैन में शिवलिंग का अभिषेक और पूजा करते उनका चेहरा चमक रहा होता है और वे पूरे मनोयोग से धार्मिक अनुष्ठान करते अकसर साष्टांग हो जाया करते हैं.

कुछ लोग साईं बाबा को भी सूफी ही मानते हैं और यही लोग वे सनातनी हिंदू हैं जो हिंदू राष्ट्र के एजेंडे पर उग्र नहीं होते. इन हिंदुओं को जहां चमत्कार दिखता है वे वहीं अपना बटुआ खोलकर नमस्कार करने बैठ जाते हैं फिर चाहे वह मंदिर हो या मजार, इससे उनकी आस्था या मन के डर पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

शिर्डी में नरेंद्र मोदी ने साईं बाबा की शान में कोई कसीदा नहीं गढ़ा, न उन्होंने यह कहा कि महान साईं बाबा ठीक कहते थे कि सबका मालिक एक है औरहमें श्रद्धा व सबूरीवाली शिक्षा में भरोसा करना चाहिए. मोदी किसी मजबूरी के तहत भी शिर्डी जैसी जगह नहीं जाते बल्कि यह उनके हिंदू राष्ट्र के एजेंडे का एक हिस्सा है जिसके तहत कट्टरवाद पर अस्थाई नकाब ओढ़ ली जाती है जिससे विदेशों में यह मैसेज जाए कि मोदी जी सबके हैं और उनके राज में धार्मिक असहिष्णुता व संकीर्णता नहीं पनप रही. बावजूद इस सच के कि वह दिन दोगुनी रात चौगुनी फैल रही है.

यों पनपे सूफी और मजारें

यह बहुत दिलचस्प इत्तफाक है कि जहांजहां मुगल गए, उनके पीछेपीछे सूफी भी अपनी आध्यात्म की दुकान लेकरपहुंचते गए. भारत में सूफीवाद ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती लाए थे जो अफगान सेनापति शिहाबुद्दीन गौरी के साथ 1192 में भारत आए थे. ख्वाजा ने चिश्ती तरीके से भारत में सूफीवाद का प्रचारप्रसार किया.

चिश्ती कोई पद्धति नहीं है बल्कि चश्त ईरान के एक शहर का नाम है जहां अबू इसहाक शामी ने सूफी दर्शन के काव्यात्मक प्रचारप्रसार का सिलेबस तैयार किया था. इसी से चिश्ती शब्द वजूद में आया जिसके तहत शांतिपूर्ण तरीके से गीत और संगीत के जरिए आध्यात्म की आड़ में इसलाम का प्रचार किया जाता था.

भारतीय यानी हिंदुओं ने सूफियों का विरोध नहीं किया क्योंकि वे खुद भजन और आरतियों के जरिएईश्वर की आराधना करते थे. दूसरे, सूफी सनातन के लिए खतरा महसूस नहीं हुए थे. मोईनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर में डेरा डाला और अपनी दुकान शुरू कर दी जिसे भारी रिस्पौंस मिला. लोगों को शांतिपूर्ण तरीके से भगवान को पूजने व मानने का आइडिया कुछ ज्यादा ही पसंद आया.

हैरत की बात यह भी रही कि ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के अनुयायियों में हिंदुओं की संख्या ज्यादा थी जो आज तक बरकरार है. तत्कालीन कुछ शासकों की झड़पें और विवाद सूफियों से होते रहते थे लेकिन जल्द ही उन्होंने सूफियों और मजारों के सामने घुटने टेक दिए जो आज तक टिके हुए हैं.आमतौर पर मजार और दरगाह में हिंदू कोई फर्क नहीं करते हैं. दरगाह वहीं बनाई जाती है जो मरने वाले की वास्तविक जगह होती है जबकि मजार कहीं भी बनाई जा सकती है और हर कहीं बनाई भी गईं.

कांग्रेस के शासनकाल में भी अजमेर की दरगाह पर चादर प्रधानमंत्री की तरफ से भेजी जाती थी. यह रिवाज भाजपा के वक्त तक कायम है. इसी साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 811वें उर्स के मौके पर अजमेर 9वीं बार चादर भेजते ख्वाजा की शान में कसीदे गढ़े थे. इस साल चादर उन्हीं जमाल सिद्दीकी के हाथों भेजी जो उत्तरप्रदेश में सूफियों को इकट्ठा कर रहे हैं. उनके पहले अजमेर शरीफ चादर ले जाने का नेक काममुसलिम होने के नाते पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नकवी से करवाया जाता था.

साफ दिख रहा है कि खुद भगवा गैंग ही चादर-फादर की राजनीति को गरमाता रहता है जिससे धर्म की राजनीति परवान चढ़ती रहे. यह बात सनातनी शायद ही कभी समझ पाएं कि हर कभी सार्वजनिक तौर पर कांग्रेस को तुष्टिकरण की राजनीति का जिम्मेदार ठहराने वाले नरेंद्र मोदी किस मजबूरी, जो दरअसल खुदगर्जी है, के तहत खुद तुष्टिकरण की राजनीति करते हैं.

इसी तुष्टिकरण के चलते देश में मजारें भी इफरात से बढ़ीं जिन में नाजायज तरीके से बनी मजारों की संख्या ज्यादा है. ऐसी मजारों को अब दिल्ली में भी खूब तोड़ा जा रहा है और उत्तराखंड में भी. लेकिन अब इन पर हल्ला कम मचता है और ऐसी खबरों से सबसे ज्यादा खुश कट्टर हिंदू ही होते हैं.

इसी साल अप्रैल में दिल्ली के मंडी हाउस स्थित हजरत नन्हे मियां चिश्ती की मजार को रातोंरात प्रशासन ने हटा दिया था तो किसी ने विरोध नहीं किया था लेकिन साल 2002 में अहमदाबाद में वली दखानी की मजार को तोड़े जाने पर खासा हल्ला मचा था. वली दखानी 17वीं सदी के पहले उर्दू गजलकार थे जिनका नाम हिंदी और उर्दू साहित्य में इज्जत से लिया जाता है. इस मजार को तोड़े जाने का जिक्र गोधरा दंगों की जांच करने वाले आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट में किया तो था लेकिन इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया था.

मजारों को तोड़े जाने पर उदारवादी हिंदू अमूमन खामोश ही रहता है जबकि मजारों और दरगाहों पर चादर चढ़ाने में वह मुसलमानों से आगे रहता है. यह आस्था की नहीं, बल्कि चमत्कारों की महिमा है क्योंकि दरगाहें और मजारें भी हिंदूमंदिरों की तरह लोगों को औलादें देती हैं, रोजगार दिलाती हैं, असाध्य बीमारियों से छुटकारा दिलाती हैं, शादी करवाती हैं, पतिपत्नी की अनबन दूर कराती हैं और शादी व जरूरत पड़ने पर तलाक भी करवाती हैं.

शर्त बस पैसा चढ़ाने की है जिसमें आम भारतीय उन्नीस नहीं.अजमेर की दरगाह में तमाम क्षेत्रों की हस्तियां जाती हैं. चढ़ावे और कमाई के मामले में दूसरा नंबर दिल्ली की हजरत निजामुद्दीन दरगाह का आता है. हजरत निजामुद्दीन चिश्ती घराने के चौथे संत थे जिन्होंने दक्षिणी दिल्ली का इलाका दुकान चलाने को चुना था.

सनातनी, जाहिर है जिनमें पंडेपुजारी ज्यादा हैं, मजारों और दरगाहों की फलतीफूलती दुकानों पर एतराज जताते रहते हैं. वे इस मानसिकता को भूल जाते हैं कि वह धर्म ही है जो लोगों को चमत्कारों और मोक्ष की घुट्टी पिलाता है और यह ठेका सभी धर्मों में लिया व दिया जाता है. अब अगर आपका ग्राहक इधरउधर भागता है तो उसे आप ब्रैंड के रस्से से बांधनहीं सकते. यह तो नशा है जो जहां सस्ता और सहूलियत से मिलेगा, लोग खूंटा तोड़ कर उधर भागेंगे ही. इसलिए बात करना है तो नशामुक्ति की जाए न कि इस बात की कि जब अपने यहां नशा मौजूद है तो वहां जाकर क्यों पैसा और वक्त बरबाद कर रहे हो. यह तो लोगों की अपनी मरजी पर निर्भर करता है कि वे कहां जाकर लुटना पसंद करते हैं.

अंधविश्वासों की खान हैं मजारें

मजारों से जुड़े चमत्कारों के किस्से भी कम दिलचस्प नहीं हैं. भोपाल के 1250 इलाके की सड़क के बीचोंबीच बनी एक मजार पर गुरुवार और शुक्रवार को भारी भीड़ रहती है. यहां मन्नत मांगने के लिए झुग्गीझोंपड़ी के लोग ज्यादा आते हैं जिनकी मन्नत भी छोटी ही रहती है. किसी को सट्टे कीनंबर खुलने की मुराद रहती है तो कोई पत्नी के प्रेमप्रसंग से परेशान है. कोई रोजगार में बरकत के लिए फूल और चादर चढ़ाता है तो किसी को पेट में अल्सर की समस्या से मुक्ति चाहिए रहती है.

यानी, अंधविश्वासों और पाखंडों का बाजार गरमाने में मजारों का योगदान भी कमतर नहीं है जहां के मुजाविर रोज हजारों की नजर उतारकर दक्षिणा बटोरते हैं. लेकिन ज्यादा पैसा बड़े चमत्कारों से आता है. जानकर हैरानी होती है कि बाराबंकी की एक मजार दीवान साहब में हाजिरी लगाने भर से चोरी गए सामान की जानकारी मिल जाती है.इसके लिए फरियादी को वहां की एक ईंट पलटानी पड़ती है.

गाजियाबाद के बसस्टैंड स्थित गाजीउद्दीन बाबा की मजार पर हर गुरुवार भारी भीड़ उमड़ती है क्योंकि यहां के सिद्ध बाबा भक्तों की हर तकलीफ दूर करते हैं. इसके लिए फरियादी को अपनी रिपोर्ट मजार पर दर्ज करानी होती है. रिपोर्ट लिखाने के तीनतीन दिनों के अंदर ही समस्या का समाधान हो जाता है. एवज में फरियादी को गाजीउद्दीन बाबा को चादर भेंट करने के आलावा3 सप्ताह तक मजार पर आमद दर्ज करानीपड़ती है.

अजमेर की ही एक और दरगाह मीरा सैयद हुसैन खिंग्सवार की एक दरगाह के बारे में तो चर्चित है कि यहां लाल बूंदी का करिश्माई पेड़ है जिसके फल खाने से कोई बेऔलाद नहीं रहता. एक बार एक किन्नर ने फल खा लिया था जिससे वह प्रैग्नैंट हो गया या हो गई थी और एक सुंदर कन्या को जन्म दिया था.

बेसिरपैर के इन चमत्कारी किस्सेकहानियों को सुन लगता है कि मैडिकल साइंस एक फुजूल की चीज है और निसंतानों को बजाय फर्टिलिटी वगैरह के ऐसे फल खाना चाहिए जो गुलाब के कुछ फूलों, रेवड़ियों, बताशों एक हरी चादर और चुटकीभर लोबान के एवज में गोद हरी होने की गारंटी हैं. लेकिन चूंकिसच में ऐसा है नहीं, इसलिए लोग सहारा तो विज्ञान का ही लेते हैं.

मोक्षनगरी गया में हिंदू केवल पूर्वजों की मुक्ति के लिए ही नहीं जाते बल्कि यहां भी बाई वन गेट वन फ्री की स्कीम चलती है. यहां की बिधोशरीफ दरगाह के बाबा हजरत मखदूम के दरबार  में हाजिरी लगाने भर से साध्य और असाध्य बीमारियां ठीक होती हैं. इस दरगाह पर अब विदेशी भी आने लगे हैं.

बाराबंकी की ही एक और मजार, जो गुलाम शाह की है, की होली की आग तापने से कैंसर और सफेद दाग जैसी लाइलाज बीमारियां ठीक होती हैं.देशभर में ऐसी कोई 2 लाख मजारों पर हजारों तरह के चमत्कार के नाम पर लोग मूर्ख बनते हैं. इन मजारों के बाबाओं को पीर साहब, शाह आदि कहा जाता है जो अलौकिक शक्तियों के स्वामी के रूप में प्रचारित किए जा चुके हैं.इनकी शान में गुस्ताखी हो तो ये दुर्वासा जैसे क्रोधित होकर श्राप भी दे देते हैं.

दुख की बात यह है कि कभी भी सूफियों ने इन चमत्कारों का खंडनमंडन नहीं किया और यह उम्मीद भी उनसे करना बेकार की बात है क्योंकि यही चमत्कार उन्हें रोजीरोटी देते हैं. सार यह कि सूफी और सूफीवाद कोई रहस्य नहीं है, वे भी दुकानदार ही हैं और लोगों को बेवकूफ बनाते हैं. अब इनको भाजपा प्रचारप्रसार में झोंक रही है तो यह उसकी मार्केटिंग का पुराना और परंपरागत तरीका है. हिंदू पंडेपुजारी भी उसके लिए वोट ही कबाड़ते हैं.अब मजारों की खिदमत और देखभाल करने की खा रहे मुजाविर भी यही करेंगे.

सूफियों को भी झांसा

सूफी संवाद और शिर्डी दर्शन लगभग एक ही वक्त यानी `कालखंड` में हुए,सो, सियासी तौर पर इसे 2024 की तैयारियां कहा जा सकता है जो भाजपा केहिंदुओं के प्रति या हिंदुओं के भाजपा के प्रति कम होते विश्वास व भय को ही दिखाते हैं. तमाम अंदरूनी और बाहरी सर्वेक्षणों से यह उजागर हो चुका है कि चाहे कुछ भी हो जाए, मुसलमान भाजपा को 5 फीसदी से ज्यादा वोट कभीनहीं देता.

सूफियों के प्रचारप्रसार करने से यह बढ़ेगा, ऐसा कहने व सोचने की भी कोई वजह नहीं. धारा 370 और तीन तलाक जैसे मुद्दे अब राममंदिर की तरह बासी हो चुके हैं. इनका ढोल सूफी पीटेंगे तो आम मुसलमान को यह रास नहीं आएगा और यही भाजपा की मंशा भी है कि हिंदुओं की तरह मुसलमानों में भी फूट पड़े और उनका एक, छोटा ही सही, तबका उसकी और झुके.

सूफी क्या करेंगे और क्या नहीं, यह वक्त बताएगा कि वे अपने हाथ के चिमटे को बजाते ‘भर दे झोली या मोदी की…’ गाते हैं या नहीं या मोहम्मद तक ही सिमटे रहना पसंद करेंगे. लेकिन यह इन सूफियों को ही समझना होगा कि उन्हें मोहरा बनाया जा रहा है.

लिहाजा, वे भक्ति यानी आशिकी में ही लीन रहें, इसमें ही उनकी भलाई है. अगर सियासत में आए तो न वे हिंदुओं के रहेंगे और न ही मुसलमानों के. एक वक्त में उन पर आरोप लगा था कि वे उदारता की आड़ लेकर हिंदुओं को बहलाफुसलाकर उनका धर्मांतरण कराते हैं. तब दौर मुगलों का था, अब सनातनियों का है.

खतरा दोनों ही तरफ बराबर का है. लिहाजा, मजारें ही उनके लिए मुफीद हैं. चौराहों पर वे आए तो भीख मिलना भी कम हो जाएगी. लोग उन्हें समाज से दूर रहने के लिए ही दक्षिणा देते हैं, समाज में घुलनेमिलने और सियासत के लिए नहीं. इसके लिए तो पहले से ही दुकानें खुली हुई हैं.

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